दो हजार पंद्रह के आखिरी दिनों
में साहित्य के सालाना लेखा-जोखा को पढ़ते हुए यह बात फिर से उभर कर सामने आई कि हमारे
यहां के नेता साहित्य संस्कृति आदि से दूर होते जा रहे हैं । साहित्य से उनको बहुत
ज्यादा मतलब रह नहीं गया है और संस्कृति से वहां तक मतलब है जहां तक वो वोट बैंक की
राजनीति के लिए उर्वरक का काम करती है । बार बार संस्कृति की दुहाई देकर ध्रुवीकरण
करने की कोशिश करती है । पुरस्कार वापसी के दौर में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं देखने
को मिली थीं उससे लगा था कि राजनीतिक दल और नेता साहित्य को बहुकत गंभीरता से लेते
नहीं हैं । साहित्य को लेकर राजनीतिक जमात की इस उदासीनता के पीछे की वजहों को तलाश
करने की जरूरत है । एक जमाना होता था जब साहित्य में क्या कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है
इसको लेकर देश की राजनीतिक जमात में जानने की उत्सुकता होती थी । ना सिर्फ हमारे राजनेता
उत्सुक होते थे बल्कि वक्त निकालकर साहित्यक कृतियों को पढ़ते भी थे । गांधी जी तो
बकायदा साहित्यक विवादों में हिस्सा लेकर अपना मत तक रखा करते थे । आजादी पूर्व से
लेकर यह स्थिति कमोबेश साठ के दशक के अंतिम वर्षों तक बनी रही । कहना ना होगा कि सत्तर
के दशक और खासकर इमरजेंसी के बाद तो नेता साहित्य से दूर होते चले गए । इस बात की पड़ताल
किए जाने की आवश्यकता है कि जिस इमरजेंसी के खिलाफ कुछ साहित्यकारों ने सक्रिय भूमिका
निभाई उसी इमरजेंसी के बाद साहित्य और राजनीतिक बिरादरी के बीच खाई इतनी चौड़ी कैसे
हो गई । यहां एक बार फिर से यह याद दिलाना जरूरी है कि प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी
का समर्थन किया था । प्रगतिशील लेखक संघ अपनी स्थापना के कई साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी
ऑफ इंडिया का बौद्धिक प्रकोष्ठ बनकर रह गया और इससे जुड़े लेखक पार्टी के कार्यकर्ता
। इमरजेंसी के समर्थन के एवज में कांग्रेस की सरकारों ने इस संगठन के लोगों को साहित्य
और संस्कृति के क्षेत्र में खुली छूट दी । इस संगठन के बोलबाला के बाद साहित्य लेखन
एक खास दिशा में और एक खास विचार के इर्द-गिर्द प्रमुखता से होने लगा । इस बात का संबंध
राजनीतिक जमात के साहित्य से दूर जाने से है या नहीं यह गहन शोध का विषय है । आज स्थिति
यह है कि हमारे देश के नेता निजी बातचीत से लेकर सार्वजनिक बातचीत में यह कहते पाए
जाते हैं कि साहित्य और साहित्यकारों की हैसियत क्या है । कौन जानता है इनको । कितने
लोग इनको पढ़ते हैं । याद कीजिए पुरस्कार वापसी का दौर जब इस तरह के जुमले सुनने को
मिलते थे । यह स्थिति किसी भी समाज के लिए अच्छी नहीं है । देश के रहनुमा अगर साहित्य
से दूर चले जाएं या फिर वो साहित्य को इस नजरिए से देखें तो साहित्य से जुड़े लोगों
को इस बात के लिए आत्ममंथन करना चाहिए । मंथन तो नेताओं को भी करना चाहिए कि क्यों
कर वो रचनात्मकता से दूर होते चले गए ।
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी की कविताओॆ की किताब प्रकाशित हुई थी । हिंदी साहित्य के लोगों ने उस
किताब पर बात ही नहीं की । नरेन्द्र मोदी की कविताओं को लेकर हिंदी साहित्य जगत में
उसी तरह की उपेक्षा का भाव दिखाई देता है जिस तरह से अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं
को लेकर दिखाई देता था । अगर कविताएं कमजोर हैं तो उसको तर्कों के साथ खारिज किया जाना
चाहिए लेकिन उसपर बात ही ना हो यह तो एक तरह की अस्पृश्यता है । मेरी समझ से यह अस्पृश्यता
भी राजनीतिक जमात के साहित्य से लगातार दूर होते जाने की वजह रही है । इस तरह की अस्पृश्यता
भाव से लेखकों को लेकर पाठकों के मन में सवाल खडे़ होते हैं और उनकी वस्तुनिष्ठता संदिग्ध
हो जाती है । लेकिन अब भी कई नेता हैं जो साहित्य और लेखन से अपना नाता जोड़े हुए हैं
। चंद सालों पहले कपिल सिब्बल मोबाइल पर कविताएं लिखा करते थे जिसकी उन दिनों चर्चा
भी हुई थी, बाद में उनका संग्रह भी प्रकाशित हुआ था । सलमान खुर्शीद और शशि थरूर तो
नियमित रूप से लेखन करते ही रहते हैं । उनकी किताबें निश्चित अंतराल पर आती हैं और
ये दोनों साहित्यक आयोजनों में भी दिखाई देते हैं । एक और नेता वीरप्पा मोइली भी साहित्य
के क्षेत्र में सक्रिय हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । कुछ दिनों पहले
बीजेपी के सांसद वरुण गांधी की कविता की किताब भी प्रकाशित हुई थी । गोवा की राज्यपाल
मृदुला सिन्हा भी अच्छी लेखिका हैं और उनकी भी कई किताबें प्रकाशित हैं । लेकिन विशाल
राजनीतिक जमात में ये चंद नाम हैं । देश की राजनीति में सबसे नई पार्टी आम आदमी पार्टी
के नेता दिलीप पांडे भी साहित्यक लेखन में खासे सक्रिय हैं । दिलीप पांडे पार्टी के
दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं । बावजूद अपनी व्यस्तताओं के वो लगातार
लेखन कर रहे हैं । दिलीप पांडे और उनकी सहयोगी चंचल शर्मा की पहली किताब ‘दहलीज पर दिल’ प्रकाशित हो चुकी है
और उनका दूसरा उपन्यास ‘खुलती गिरहें’ अभी अभी प्रकाशित हुआ है । दिलीप
पांडे युवा हैं और साहित्यक लेखन में उनकी रुचि है तो यह अच्छी बात है । मैंने उनसे
पूछा कि आम आदमी पार्टी की राजनीति करते हुए साहित्यक सृजन कैसे कर लेते हैं तो उन्होंने
बताया कि वो तकनीक का सहारा लेते हैं और अपने सहयोगी के साथ लेखन को अंजाम देते हैं
। दिलीप पांडे गूगल ड्राइव का उपयोग कर लिखते हैं जिसमें ये सहूलियत होती है कि वो
और चंचल शर्मा एक दूसरे के लेखन को देख सकते हैं और साथ ही लिख भी सकते हैं । अपने
पहले उपन्यास ‘दहलीज पर दिल’ में अन्ना आंदोलन के दौरान अपने अनुभवों को कलमबद्ध
किया था । अब अपने दूसरे उपन्यास ‘खुलती गिरहें’ को वो मन और मान्यताओं
की गिरह खोलतीं स्त्रियों को सामने लाता उपन्यास बताते हैं ।
‘खुलती गिरहें’ की छोटी सी भूमिका में
दिल्ली हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष और वरिष्ठ उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं
– ‘रिश्ते-नाते वसुधा की
गांठ आ बंधे तो अजूबा क्या है । ग्रह-नक्षत्रों के झिलमिलाते महूरतों भरे धरती, आकाश
और वसुधा का पाणिग्रहण । यह लड़की पति चाहती है या प्रेमी ? स्त्री मन की गिरहें
कौन खोल पाया है, हार गए ऋषि-मुनि, पस्त पड़ी हैं स्मृतियां और स्त्री की गर्दन धड़
से अलग उड़ाने का एलान कर रहे हैं याज्ञवल्क्य । खीझ, कुंठा और क्रोध का लावा कितना
ही फैले, धरा और देवयानी को कौन समझ पाएगा, जब तक कि वो खुद उन रहस्यों को न खोल दें
जो महान कवयित्री महादेवी वर्मा की गिरह में बंधे रहे । सारे विद्रोह के बावजूद जिसको
मीरा भी कृष्ण रूप में पति ही पूजतीं मिली ।‘ मैत्रेयी पुष्पा की इन टिप्पणियों से साफ है कि उपन्यास
के पात्र किस तरह से और किन परिस्थियों में रचे गए हैं । मैत्रेयी पुष्पा अपनी भूमिका
में यह भी सवाल उठाती हैं कि – ‘मुख्तसर सी बात है,प्रेम करती है युवती, अपराध क्यों
माना जाता है । स्वर्ग नरक किसने देखा है, यह कृति सचमुच का संसार दिखाती है जो न स्वर्ग
होता है न नरक । तथाकथित नैतिकतावादी इन स्त्रियों को समाज की बदनाम और गुमराह औरतें
कहकर सजा बोल सकते हैं क्योंकि इन्होंने अपने शरीर और मन को उन लोगों की इच्छाओं तक
सीमित नहीं रहने दिया जो उनके पति या मालिक थे । हो सकता है कि ये आपको षडयंत्रकारिणी
भी लगें क्योंकि ये अपनी जिंदगी को लेकर बच निकलीं ।‘ इन पंक्तियों से साफ
है कि उपन्यास स्त्रियों के संघर्ष पर है । संभव है कि इसमें सचाई भी हो और उसको लेखकों
ने फिक्शनलाइज भी किया हो । अच्छी बात यह है कि इस उपन्यास में महिलाएं सिर्फ अपने
मन की गिरहें ही नहीं खोलती हैं बल्कि वो सचमुच का संसार दिखाती हुई अपने मन का करती
भी हैं । इस उपन्यास की एक और अच्छी बात यह भी है कि नायिकाएं पूर्ववर्ती लेखकों की
नायिकाओं की छवि को तोड़कर आगे बढ़ती है और कहानी को या अपने संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाती
भी हैं । पहले के उपन्यासों में ज्यादातर महिलाओं के संघर्ष का चित्रण होता था जहां
नायिकाएं दुख और पीड़ा के साथ साथ ही खत्म हो जाती थी । इस उपन्यास में इस लिहाज से
नायिकाएं साहस दिखाती हैं और अपना रास्ता तलाशती हैं । संभव है कि पाठकों को किसी पात्र
के साथ यह लगे कि उसने भी तो सारे विद्रोह के बावजूद पति में ही अपना भविष्य तलाशा
। कुल मिलाकर देखें तो यह उपन्यास स्त्री विमर्श को एक नया आयाम तो देता ही है साथ
ही विमर्श को एक नई जमीन पर ले जाकर चुनौती भी देता है ।अपेक्षा यही की जाती है कि
राजनीतिक जमात के इस युवा लेखक की दूसरी कृति पर गंभीरता से हिंदी के आलोचक विचार करेंगे
और इसको नेता की कृति मानकर किनारे नहीं कर देंगे ।
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