बिहार के कस्बाई शहर जमालपुर से सटे गांव वलिपुर में रहता था तो शहर
से हमारे गांव को जोड़नेवाली सड़क से लेकर बाजार की मुख्य सड़क पर मार्च के महीने
में अलकतरा के बड़े बड़े ड्रम खड़े होने लगते थे । कहीं सड़कों पर पैबंद लगाने का
काम किया जाता था तो कहीं नालियों को ठीक करने का । जब जमालपुर से दिल्ली आकर यहां
के ईस्ट ऑफ कैलाश इलाके में रहने लगा तब भी ये नोटिस किया कि मार्च के महीने में बनी
बनाई सड़कों को फिर से बना दिया जाता था । सड़क किनारे के फुटपाथ को ठीक कर रंग
रोगन कर दिया जाता था । दिल्ली छोड़कर जब इंदिरापुरम में रहने आया तो यहां और भी
अद्भुत नजारा देखने को मिला । इंदिरापुरम में कॉलोनी के अंदर इक्का दुक्का बस कभी
कभार दिखाई देती है लेकिन मार्च में यहां कई बस शेल्टर बना दिए गए । बस शेल्टर
बनाने के लिए फुटपाथ को तोड़ा गया। हमारी हाउसिंग सोसाइटी के बाहर की सड़क बने ना
बने हर साल मार्च महीने में फुटपाथ की टाइल्स बदल दी जाती है । फुटपाथ की टाइल्स
बदलने के क्रम में बस शेल्टर के चबूतरे को तोड़ा जाता था । ये एक ही महीने में
होता था । इन इलाकों से जब साहित्य की दुनिया में आया तो यहां भी मार्च की अहमियत
का एहसास हुआ । हिंदी साहित्य के ज्यादातर आयोजन विश्वविद्लायों के हिंदी विभागों
में किए जाते रहे हैं । अब भी हो रहे हैं । यहां मार्च में हर वर्ष ताबड़तोड़
कार्यक्रम किए जाते हैं । साहित्य से जुड़े लोग हर दिन किसी ना किसी कॉलेज,
विश्वविद्लाय के हिंदी विभाग आदि में प्रवचन देते नजर आते हैं । इसके अलावा कई
विश्वविद्यालय भी स्वतंत्र रूप से आयोजन आदि करते हैं । सोशल मीडिया के फैलाव और वहां लाइक्स के आकर्षण
ने हिंदी विभागों की इस मार्च सिंड्रोम को उघारकर रख दिया है । जो भी इन
कार्यक्रमों में शामिल होता है वो भाषण देते हुए अपनी तस्वीर फेसबुक आदि पर पोस्ट
कर अपनी उपलब्धि की दुंदुभि बजाता है । जाहिर सी बात है कि जब दुंदुभि का शोर होगा
तो आसपास के लोगों को पता चलेगा ही और सोशल मीडिया के इस फैलाव ने तो इसकी चौहद्दी
को और भी विस्तृत कर दिया है । अब तो हालत ये है कि कई लेखक अपनी उपलब्धियों का जो
इश्तेहार लगाते हैं उसमें सुबह किसी कॉलेज में तो शाम को किसी कॉलेज में अगले दिन
किसी अन्य विश्वविद्यालय में प्रवचन का कार्यक्रम होता है । कई बार शहर बदल जाते
हैं लेकिन आयोजन लगभग एक जैसा ही दिखाई देता है ।
कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सेमिनार करवाने के लिए यूजीसी से लेकर
कई अन्य सरकारी संस्थाएं आर्थिक मदद देती हैं । इसके अलावा कॉलेज का अपना भी फंड
होता है । वित्तीय वर्ष खत्म होने यानि इकतीस मार्च के पहले इस फंडको खत्म करने का
दबाव भी होता है । सालभर से सो रहे ये विभाग मार्च में जागते हैं और आनन-फानन में
सेमिनार आदि करवा डालते हैं । मौजूदा
शिक्षा नीति के हिसाब से माना यह गया था कि कॉलेज और विश्वविद्यालयों में इस तरह
के सेमिनार से नवाचार को बढ़ावा मिलेगा । कॉलेज कैंपस से बाहर किस तरह की ज्ञान की
बातें हो रही हैं या विश्वविद्यालय सिस्टम से बाहर के विद्वान किन अवधारणाओं की
बात कर रहे है, इससे छात्रों और शिक्षकों का परिचय करवाया जा सकेगा । ये एक बेहतर
अवधारणा है लेकिन इसका विकृत रूप इन दिनों दिखाई दे रहा है । इन सेमिनारों को कॉलेज
शिक्षकों ने अपने प्रमोशन की सीढ़ी बना ली है । तुम मुझे बुलाओ हम तुम्हें
बुलाएंगें की तर्ज पर काम हो रहा है । इसके पीछे भी एक खेल है जिसको एपीआई कहते
हैं । इसपर आगे चर्चा होगी ।
हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि सालभर ऐसी सक्रियता
देशभर के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं होती है । ये गोष्ठियां और ये
सेमिनार साल भर क्यों नहीं आयोजित किए जाते हैं । इसकी वजहों की पड़ताल करने के
लिए हमें विश्वविद्यालयों और उसके अंतर्गत के कॉलेजों की कार्यपद्धति का विश्लेषण
करना होगा । नियमों से मुताबिक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को पूरे सप्ताह में चौहद
क्लास लेनी होती है । अगर प्रोफेसर साहब विभागाध्यक्ष भी हैं तो उनको सिर्फ बारह
क्लास लेने का प्रावधान है । उनको प्रशासनिक कार्य की वजह से दो क्लास कम लेने की
छूट दी गई है । यानि सप्ताह में छह या सात घंटे । इस तरह से औसत निकालें तो यह हर
दिन करीब घंटा सवा घंटा बैठता है । यही स्थिति एसोसिएट प्रोफेसरों की भी है । उनको
भी सप्ताह में चौदह क्लास लेने का प्रावधान है । असिस्टेंट प्रोफेसर को सप्ताह में
सोलह पीरियड लेना तय किया गया है । जब इस तरह का नियम बनाया गया था तब माना यह गया
था कि कक्षा खत्म होने के बाद विश्वविद्यालय और कॉलेज के शिक्षक शोध छात्रों को
वक्त देंगे,छात्रों को पढ़ाने के लिए कुद पढ़ेंगे । अब भी नियम है कि शिक्षकों को
कैंपस में पांच से छह घंटे बिताना अनिवार्य है । शिक्षकों का कैंपस में रहने का
कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है । उनकी उपस्थिति उनके कक्षा में उपस्थित रहने से ही
तय होती है । इस तरह का कोई मैकेनिज्म अब तक नहीं बनाया गया है कि युनिवर्सिटी के
शिक्षक कैंपस में कितनी देर रहते हैं उसपर नजर रखी जा सके । वो चाहे तो घंटे सवा
घंटे में अपने पीरियड के बाद जा सकते हैं । ज्यादातर केस में ऐसा ही होता भी है । इसके
अलावा इनको सेमिनार आदि में भाग लेने के लिए छुट्टी का भी प्रावधान है । असिस्टेंट
और एसोसिएट प्रोफेसरों को तो सेमिनार में भाग लेने के प्वाइंट भी मिलते हैं जो
उनके करियर प्रमोशन के वक्त काम आता है । अगर सेमिनार अंतराष्ट्रीय है तो दस
प्वाइंट और अगर राष्ट्रीय है तो साढे सात प्वाइंट । इन प्लाइंट्स के चक्कर में ही
इस तरह के सेमिमारों में तुम मुझे मैं तुझे की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । हर
कॉलेज के शिक्षक एक दूसरे को अपने यहां बुलाते हैं, ताकि आसानी से प्वाइंट इकट्ठा
हो सकें ।
दूसरा अगर हम इन सेमिनारों पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि हर
साल अक्तूबर नवंबर से विभागों के चंद शिक्षक सक्रिय हो जाते हैं । उन्हें मालूम है
कि सरकारी व्यवस्था में बजट आदि देने के बाद भी अनुमति मिलने में दो तीन महीने का
वक्त लग जाता है । हर जगह यही जुगत रहती है कि मार्च के पहले पहले सेमिनार आयोजित
हो जाए ताकि फंड भी खर्च हो जाए और जरूरी प्वाइंट्स भी मिल जाएं । मार्च की इस
साहित्यक लूट में हिंदी विभागों के शिक्षक बाहर के अपने जानकार लेखक आदि को भी बुलाकर
उपकृत करते हैं । इन सेमिनारों में क्या होता है बहुधा इस बात को भुला दिया जाता
है । भुलाया इसलिए भी जाता है कि याद करने लायक कुछ होता नहीं है । सेमिनारों की
रस्म अदायगी के नाम पर कुछ पुरानी अवधारणाओं पर चर्चा हो जाती है । नई प्रवृतियों
पर कम ही बात होती है । अब वक्त आ गया है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज के शिक्षकों
की जवाबदेही तय की जाए । उनके काम के घंटे तय किए जाएं और कोई ऐसा सिस्टम बने कि
उनके कार्यों का ऑडिट हो सके । ऐसी व्यवस्था बने कि उनके काम का आंकल हो सके ।
उनके कैंपस में रहने के घंटे पर नजर रखी जा सके । कुछ लोगों को ये विश्वविद्यालयों
की स्वायत्ता पर खतरे जैसी बात लग सकती है लेकिन स्वायत्ता का मतलब अराजकता तो
नहीं हो सकता है । स्वायत्ता के साथ जवाबदेही तो होनी ही चाहिए । काम करने के घंटे
भी तय किए जाने चाहिए । क्या स्वायत्ता के नाम पर करदाताओं के पैसों की इस तरह से
बरबादी जायज है । नई शिक्षा नीति तो बनाने का काम चल रहा है। तमाम स्टेक होल्डर्स
के साथ मानव संसाधन विकास मंत्रालय की कमेटी बातचीत कर फीडबैक ले रही है । खुद
मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी कई राज्यों में जाकर बातचीत कर चुकी हैं । नई
शिक्षा नीति में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्वायत्ता के नाम पर करदाताओं
की गाढ़ी कमाई के पैसे का अपव्यय ना हो । नवाचार और बाहरी ज्ञान से परिचय के नाम
पर मार्च में होनेवाले इस साहित्यक लूटपर भी लगाम लागने का प्रावधान हो । सेमिनार
हों, लेकिन वो रस्म अदायगी ना हो । सेमिनार हो, साल भर हों और उनमें नवाचर पर
चर्चा हो । छात्रों के साथ शिक्षकों का भी फायदा हो ।
6 comments:
अनंत विजय जी आपकी बात कुछ सीमा तक सही है, किंतु ऐसा नहीं है कि किसी भी सेमिनार का कोई लाभ नहीं होता...उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों को यदि कुछ वास्तव में प्राप्त होता है, वह सेमिनार से ही अन्यथा सिलेबस युक्त किताबी ज्ञान से आप भी वाकिफ होंगे। रहा सवाल प्राध्यापकों के ऊपर नजर रखने की तो पहले उनकी योग्यता और पद के अनुरूप सुविधाओं पर भी एक बार दृष्टिगत होईये। एक मात्र स्नातक धारी नौकरशाह से तुलना कीजिए जो एक पीएचडी धारी विश्वविद्यालयी प्राध्यापक से किस सीमा तक ज्यादा सुविधाएं प्राप्त करता है। समय की सीमाओं में कार्यों को बांधा जा सकता है लेकिन उन आदर्शों को कैसे बांधा जा सकता है, जिसकी प्रत्येक विद्यार्थी के व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका होती है।
100 फीसद सहमत।लगभग यही हकीकत हमने 25 साल पहले नवभारत टाइम में उजागर की थी।
OMG, ये क्या लिख दिया आपने। आप पर ब्लासफेमी, बंधु गद्दार,और कुलकलंकी का आरोप लगा। आपको असहिष्णुता, साम्राज्य वाद ,मनुवाद से फुर्सत क्यों मिली।
मैं आपका जीवनभर आभारी रहूंगा।
विजय शर्मा
OMG, ये क्या लिख दिया आपने। आप पर ब्लासफेमी, बंधु गद्दार,और कुलकलंकी का आरोप लगा। आपको असहिष्णुता, साम्राज्य वाद ,मनुवाद से फुर्सत क्यों मिली।
मैं आपका जीवनभर आभारी रहूंगा।
विजय शर्मा
ये मुन्ना शाह किस देश के हैं, कहाँ की बात कर रहे हैं।पता करके बतायें ।
गजब ही हो रहा है जिधर खोज खबर लेना शुरू करो तो नीचे कुछ और ही निकलता है
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