एक हैं प्रशांत किशोर । दो
हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद उनके नाम का डंका पूरे देश
में बजा था । उन्हें नरेन्द्र मोदी का मास्टर स्ट्रैटजिस्ट कहा गया था और राजनीति
विश्लेषकों से लेकर सियासत को अंदर से जानने का दावा करनेवालों ने उस वक्त माना था
कि प्रशांत किशोर ने मोदी की चुनावी रणनीति को बेहद सफलतापूर्वक अंजाम दिया था ।
उसके बाद कई वजहों से प्रशांत किशोर और नरेन्द्र मोदी की राह जुदा हो गई। अवसर
भांपते हुए नीतीश कुमार ने प्रशांत कुमार को बिहार चुनाव के में अपनी पार्टी की
चुनावी रणनीति को अंजाम देने के लिए चुना । बिहार चुनाव में नीतीश-लालू गठबंधन की
सफलता के बाद देश की राजनीति में प्रशांत किशोर उस वक्त सबसे बड़ी कमोडिटी बन चुके
हैं । जाहिर है कि बाजार के नियमों के मुताबिक बड़ी कमोडिटी पर हर किसी कीनजर रहती
है । खरीदारों को बी लगता है कि उस कमोडिटी पर उसका हक हो । जिसके पास पूंजी होता
है वो बड़े और मुनाफा वाली कमोडिटी में निवेश करना चाहता है । यही हाल सियासत के
बाजार का भी है । हर दल और उसके नेता प्रशांत किशोर को अपने चुनावी चाणक्य के रूप
में देखना चाहता है । इस वक्त देश में रोहित वेमुला से लेकर कन्हैया तक पर और
देशद्रोह से लेकर देशभक्त पर बहस चल रही है । राष्ट्रीयता की नई नई परिभाषा गढ़ी
जा रही है । विमर्श के इस कोलाहल के बीच कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा
चुनाव में पार्टी की वैतरणी पार करवाने का जिम्मा प्रशांत किशोर को सौंपा है । अभी
प्रशांत को उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात की जिम्मेदारी दी गई है लेकिन माना जा
रहा है कि दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव तक प्रशांत किशोर कांग्रेस के साथ
रहेंगे । हलांकि ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि प्रशांत किशोर पार्टी को उत्तर
प्रदेश, पंजाब और गुजरात में कैसी सफलता दिलवा पाते हैं । कांग्रेस के कल्चर को
जानने वाले यह इस बात से वाकिफ हैं कि वहां की अंदरूनी राजनीति में लंबे समय तक
पांव टिकाना कितना मुश्किल है । फिलहाल तो प्रशांत ने यूपी की जिम्मेदारी संभाल ली
है और सूबे के वरिष्ठ नेताओं के साथ उनकी एक बैठक दिल्ली में हो भी चुकी है । देश
की सियासत के लिए इसको बड़ी घटना माना जा रहा है । प्रशांत किशोर के लिए ये अबतक
की सबसे बड़ी चुनौती है । जब उन्होंने लोकसभा चुनाव के पहले नरेन्द्र मोदी के
कैंपेन की कमान संभाली थी तब यूपीए के दस साल के शासन से और वहां हो रहे
भ्रष्टाचार के नए नए खुलासे से देश की जनता खिन्न हो चुकी थी । पूरे देश में
एंटीइंकमबेंसी साफ तौर पर दिखाई दे रही थी । प्रशांत किशोर ने रणनीतिक तौर पर उसका
इस्तेमाल मोदी के हक में किया । उसके बाद प्रशांत ने बिहार में नीतीश को इस बात के
लिए तैयार किया कि वो लालू यादव के साथ गठबंधन करें । यह बिहार की जातिगत संरचना
को देखते हुए मास्टरस्ट्रोक था । नीतीश को प्रशांत किशोर पर इतना भरोसा था कि
उन्होंने सीटिंग विधायकों से कम सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना को भी मान लिया । लालू-नीतीश
की जोड़ी और केंद्र सरकार से लोगों के शुरू हो रहे मोहभंग को प्रशांत किशोर ने महागठबंधन
के हक में इस्तेमाल किया । नीतीश कुमार की जनता तक पहुंच और बिहारी गौरव को केंद्र
में रखने का नतीजा सकारात्मक रहा । लेकिन उत्तर प्रदेश के हालात उनके पिछले दो
असाइनमेंट से बिल्कुल अलग हैं। यूपी में कांग्रेस इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से
गुजर रही है । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में में पार्टी ने सूबे में इक्कीस
सीटें जीती थी तब ये माना गया था कि राहुल गांधी ने पार्टी को रिवाइव कर दिया है ।
उस वक्त कांग्रेस को करीब सवा अठारह फीसदी वोट मिले थे । उसके बाद हुए विधान सभा
और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब रहा । राहुल गांधी के एड़ी
चोटी का जोर लगाने के बावजूद दो हजार बारह के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब
बारह फीसदी ही वोट मिल पाए थे । उसके दो साल बाद दो हजार चौदह में हुए लोकसभा
चुनाव में तो पार्टी की और बुरी गत हुई थी । सोनिया और राहुल गांधी को छोड़कर कोई
भी उम्मीदवार जीत नहीं सका और पार्टी का वोट शेयर गिरकर करीब साढे सात फीसदी तक
पहुंच गया था । यह अबतक का सबसे बुरा प्रदप्शन था । इतना खराब प्रदर्शन तो इमरजेंसी
के बाद हुए चुनाव में भी नहीं रहा था । उस वक्त भी कांग्रेस को सूबे से कोई लोकसभा
सीट नहीं मिली थी लेकिन तब भी पार्टी का वोट शेयर करीब पच्चीस फीसदी रहा था । दो
हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल पूरी तरह से टूटा
हुआ है । कभी कभी ये चर्चा चल पड़ती है कि प्रियंका गांधी को यूपी के मुख्यमंत्री
के तौर पर पेश किया जाएगा लेकिन अबतक ये सिर्फ अटकलबाजी ही साबित हुई है । अब
कांग्रेस को प्रशांत किशोर में उम्मीद की किरण नजर आ रही है । कांग्रेस के
रणनीतिकारों का मानना है कि प्रशांत किशोर चूंकि लंबे समय तक नरेन्द्र मोदी के साथ
काम कर चुके हैं लिहाजा वो मोदी को घेरने की कामयाब रणनीति बना सकते हैं । इसको
देखते हुए ये भी लगता है कि बदलते वक्त के साथ राजनीति कितनी बदल गई है । एक जमाना
था जब कांग्रेस के पास यूपी में जमीनी नेताओं की पूरी फौज हुआ करती थी । उनके
प्रभाव में पार्टी को वोट और शासन दोनों हासिल होता था । अब तो हालात यह है कि लोकसभा
चुनाव में करारी हार के बावजूद पार्टी को प्रदेश अध्यक्ष का विकल्प नहीं सूझ रहा
है । यह ठीक है कि मीडिया और सोशल मीडिया के दौर में चुनावी रणनीतिकारों की जरूरत
होती है लेकिन वो उन हालात में चमत्कार कर सकते हैं जब नेता हों । प्रशांत किशोर
ने भी नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार के साथ मिलकर सफलता की इबादत लिखी । यूपी में
उनके सामने चुनौती खाली स्लेट पर सफलता की कहानी लिखने की है । यह देखना दिलचस्प
होगा कि दो हजार सत्रह के यूपी विधानसभा चुनाव के पहले प्रशांत किशोर किस तरह की
रणनीति बनाते हैं क्योंकि माना जा रहा है कि कांग्रेस के नेता मायावती और मुलायम
दोनों से समान दूरी बनाकर चुनावी समर में कूदना चाहते हैं ।
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