फरवरी के बेहतरीन मौसम में मुंबई के ऐतिहासिक सेंट जेवियर्स कॉलेज के
प्रांगण में दो दिनों तक साहित्य, कला, संस्कृति और संगीत का बेहतरीन समागम हुआ ।
हिंदी-अंग्रेजी के साहित्यकारों और लेखकों ने दो दिनों तक सुबह से लेकर शाम तक जेवियर्स
के कैंपस में गंभीर विमर्श किया । इस विमर्श में युवा पीढ़ी की भागीदारी
आश्विस्तिकारक रही । ये लिटरेचर फेस्टिवल इस लिहाज से अन्य साहित्य समारोहों से
अलग रहा क्योंकि इसमें संगीत पर भी खासा जोर रहा । इसमें कई सत्रों में बेहद
दिलचस्प बहसें हुई । एक सत्र साहित्य की मठाधीशी पर था । मठाधीशी का साहित्य पर
मेरा मानना है कि साहित्य में इस तरह के गढ़ और मठ गढ़ने की शुरुआत प्रगतिशील लेखक
संघ की स्थापना के साथ ही शुरु हुई । आजादी पूर्व 1936 में बनाए गए इस प्रगतिशील
लेखक संघ का उद्देश्य उस वक्त चाहे जो रहा हो, आजादी के बाद तो यह शुद्ध रूप से
साहित्य का एक ऐसा मठ बन गया जिसमें दीक्षित होकर ही कोई साहित्यकार बन सकता था । संघ
की मान्यताओं में रचनाकार का पक्ष पहले से दिया रहता था और रचनाकारों को उसपर चलना
होता था, इस उक्ति को समय समय पर कई लेखकों ने दोहराया है । दरअसल प्रगतिवाद का
मतलब हो गया था मार्कसवादी सिद्धांतों का अंधानुकरण । प्रगतिशीलता के नाम पर
साहित्यकारों को प्रगतिशील लेखक संघ से लेखक होने का सर्टिफिकेट मिलने लगा था । उस
सर्टिफिकेट के आधार पर आपकी प्रतिभा या मेधा का आंकलन होने लगा । प्रगतिशील लेखक
संघ की प्रतिबद्धता भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थी, लिहाजा इस संगठन से
जुड़े लेखकों के लेखन से लेकर उनके वक्तव्यों तक में पार्टी की नीतियों की छाप साफ
तौर पर दिखाई देती थी । यह मठाधीशी के साहित्य की शुरुआत का दौर था जो अब भी बदस्तूर
जारी है । बीच में जब कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ तब साहित्य के इस मठ में
भी बंटवारा हो गया । अपनी चूल्हा-चौका लेकर अलग हुए लोगों ने जनवादी लेखक संघ बनाया
। साहित्य का ये नया मठ जनवादी लेखक संघ अपने हर कदम के लिए भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी (मार्क्सवादी) की ओर ताकने लगे । सीपीएम के सीपीआई से ज्यादा ताकतवर होने की
वजह से जनवादी लेखक संघ नाम वाले साहित्यक मठ में साहित्यक भक्तों की संख्या बढ़ने
लगी । कालांतर में सीपीआई-एमएल बना तो एक बार फिर से साहित्य के ये मठ टूटा और जन
संस्कृति मंच का जन्म हुआ । ये तीनों मठ अब भी साहित्य में अपने अपने भक्तों के
साथ डटे हुए हैं । हिंदी साहित्य में इन तीनों मठों का कालखंड बहुत लंबा चला ।
साहित्य के इन मठों में बैठे महंथों ने अपने भक्तों को जमकर रेवड़ियां बांटी ।
विचारधारा को मानने वालों को विश्वविद्यालयों में नौकरियां मिली, फैलोशिप मिले,
पुरस्कार मिले, विदेशों में सैर सपाटे के अवसर मिलने लगे । शर्त बस यही थी कि मठ
के प्रति आस्था भी बनी रही और सार्वजनिक तौर पर उसका प्रदर्शन भी होता रहे । जैसा
कि आमतौर पर होता है कि मठों के महंथ अपने इर्द गिर्द चापलूसों को रखते हैं और
उनको ही पुरस्कृत करते हैं वही यहां भी होता रहा । मठ के महंथों की तरह काम
करनेवाले इन लेखक संघों के मठाधीश भी प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और
प्रतिभाशील लेखकों को दरकिनार कर दिया जाता था । मार्क्सवादी मान्यताओं के
अंधानुकरण पर सवाल खड़े करनेवाले लेखकों को साहित्य की दुनिया से बाहर कर दिया
जाता था । जिस तरह की साजिशें मठों के महंथ किया करते थे कमोबेश उसी तरह की साजिशें
भी इन साहित्यक मठों के महंथ करते थे और विरोधियों को हाशिए पर डाल देते थे । लेखक
संघों के मठों के अलावा हिंदी साहित्य में छोटे छोटे मठ बनाने की कोशिश होती रही ।
लेखक संघों की मनमानी के खिलाफ उन्नीस सौ पैंतालीस में परिमल नाम की संस्था बनाई
गई । इस संस्था से जुड़े लेखकों का मानना था कि जो लेखक हैं वो अपनी राह खुद
बनाएं, नई राह के अन्वेषी बनें ना कि मार्क्सवाद की बनी बनाई लीक पर चलते रहें । लेकिन
प्रगतिशील लेखकों ने परिमल से जुड़े
लेखकों पर विचार ही नहीं किया । उनको कलावादी कहकर दरकिनार करते रहे । प्रगतिशीलता
के दौर में साहित्य अकादमी और राज्यों की अकादमियां भी इन्ही संघों की शाखा के तौर
पर काम करने लगी थीं । उसके बाद अगर साहित्य के मठों को देखें तो लेखकों ने अपने
अपने मठ बना लिए । एक जमाना था जब अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव
साहित्य के मठाधीश के तौर पर उभरे और स्थापित हुए । हंस पत्रिका के जरिए राजेन्द्र
यादव ने जो साहित्यक मठ बनाया उसमें हलांकि उन्होंने अपने विरोधी विचारधारा के
लोगों को भी स्थान दिया । कई साहित्यक संस्थाओं को बनाने में अशोक वाजपेयी की
भूमिका रही और प्रशासनिक सेवा में होने की वजह से उनको राजाश्रय भी मिला । अशोक
वाजपेयी के अनुयायियों की लंबी संख्या है और अच्छी बात यह है कि वाजपेयी अपने
शिष्यों या मठ के सदस्यों का खास ख्याल रखते हैं, नौकरी दिलवाने से लेकर पुरस्कार
दिलवाने, देने तक में । नामवर सिंह ने अपने दौर में अपने मठ के सदस्यों को
विश्वविद्यालयों में फिट किया । अस्सी और नब्बे के दशक में नामवर जी साहित्य के
सबसे बड़े मठाधीश थे । एक जमाना था जब इन तीनों को हिंदी साहित्य का ब्रह्मा,
विष्णु महेश कहा जाने लगा था । साहित्यक मठाधीशी पर राजस्थान की लेखिका रजनी
कुलश्रेष्ठ ने कहानी छपने से लेकर किताब छपने तक में साहित्यक मठाधीशों की भूमिका
की ओर संकेत किया । वो संकेत भयावह था । हमारा मानना है कि साहित्य में मठाधीशी का
जन्म कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा को स्थापित करने के लिए किया । इसको उन्होंने
लंबे समय तक सफलतापूर्वक संचालित किया । अब भी स्थिति ज्यादा नहीं बदली है और
प्रगतिशीलता के तमगे के बिना हिंदी साहित्य में आपको गंभीरता से नहीं लिया जाता है
। हलांकि अब दूसरी विचारधारा के लोग भी या कम्युनिस्टों से वैचारिक मतभेद वाले
लेखक भी अपने को असर्ट करने लगे हैं । यह स्थिति साहित्य के लिए अच्छी है जहां हर
वितारधारा को विमर्श और लेखन के लिए समान अवसर और मंच मिले । मुंबई में आयोजित लिट
ओ फेस्ट में इस तरह के विषयों को केंद्र में रखकर गंभीरता से विमर्श हुआ और प्रभात
रंजन, सुंदर ठाकुर और पंकज दूबे जैसे युवा लेखकों ने बेवाकी से अपने विचार रखे । वहां
यह बात भी निकलकर आई कि औसत दर्ज के लेखकों को मठों की जरूरत होती है ताकि उनकी
कमजोर रचनाओं को आगे बढाया जा सके । लेखकों को अपनी रचनाओं पर यकीन होना चाहिए तभी
ये मठ या गढ़ टूटेंगे ।
लिट ओ फेस्ट में हिंदी की जोरदार वकालत की गई । आज जब चेतन भगत जैसे
लेखक हिंदी को नागरी में नहीं लिखकर बल्कि रोमन लिपि में लिखने की वकालत कर रहे
हैं ऐसे माहौल में फिल्म अभिनेता मनोज वाजपेय़ी ने देवनागरी की जमकर वकालत की । एक
सत्र में मनोज वापजेयी ने कहा कि अब वो उन फिल्मों की स्क्रिप्ट नहीं पढ़ते जो देवनागरी
में नहीं लिखी गई हो । मनोज वाजपेयी ने स्वीकार किया कि सत्या फिल्म की जबरदस्त सफलता
के बाद वो अब इस स्थिति में हैं कि फिल्म जगत में अपनी शर्तों पर काम कर सकें ।
लिहाजा अब वो नागरी में स्क्रिप्ट की मांग कर सकते हैं, कर भी रहे हैं । मनोज जब ये कह रहे थे तो वो उस प्रवृत्ति की
ओर इशारा कर रहे थे बॉलीवुड में आम चलन में है । बॉलीवुड में ज्यादातर स्क्रिप्ट
और संवाद रोमन में लिखे जाते हैं और कलाकार भी उसको ही पढ़ते हैं । मनोज वाजपेयी
जब नागरी की वकालत कर रहे थे तो वो चेतन भगत को नकार रहे थे । मनोज वाजपेयी ने
चेतन भगत जैसे रोमन में लिखे जानेवाले पैरोकारों को लिट ओ फेस्ट के मंच से एक
संदेश भी दिया । दरअसल चेतन भगत जैसों को हिंदी और नागरी की परंपरा का ना तो एहसास
है और ना ही उसके व्याकरण और उच्चारण का ज्ञान । इस लिटरेचर फेस्टिवल में खास बात
यह रही इसके सत्रों के विषयों का चयन और युवा लेखकों की भागीदारी । क्राइम लेखन पर
भी एक सत्र रहा जिसमें पुलिस अधिकारी और लेखक ब्रजेश सिंह और तथाकथित पल्प लेखक
अमित खान ने हिस्सा लिया। सबसे अच्छा रहा मराठी धरती पर हिंदी कविताओं की अनुगूंज यानि
की काव्य पाठ । इस काव्य पाठ में स्मिता पारिख, चित्रा देसाई, देवमणि पांडे, रजनी
कुलश्रेष्ठ को सुनने के लिए छात्रों की भीड़ को देखकर लगा कि अगर कविताएं कुछ
संप्रेषित करती हैं तो उसके श्रोता या पाठक उसकी ओर वापस आ सकते हैं । यह एक बेहद
सुख स्थिति होगी अगर हिंदी कविता के पाठक श्रोता उसकी ओर वापस लौट सकें । अगर मीना
बाजार में तब्दील हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल यह काम कर सकें तो साहित्य के लिए ये
बड़ा काम होगा ।
3 comments:
सच्चाई को बताता लेख है. मठाधीशों ने कैसे साहित्य को जकड़ा और एक विचारधारा वालों को खारिज किया, वह खेल अभी तक जारी है पर हाँ अब शायद सोशल मीडिया के कारण या दूसरी विचारधारा में कुछ लोगों के खुद को स्थापित करने के कारण परिवर्तन आ रहे हैं. दिखने लगे हैं, उम्मीद जल्द साहित्य को मठों या विचारधाराओं की गुलामी से आज़ादी मिलेगी
आप का लेख बहुत पसन्द आया । यह सामयिक है और प्रासंगिक भी । आप ने बेबाकी से साहित्य में मठाधीशों की पोल खोली । आप के साहस की प्रशंसा करता हूँ । यह मठाधीशी अब कुछ हुई हो इस के लक्षण मुझे नज़र नहीं आते ।
बहुत अच्छा लेख।
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