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Saturday, March 12, 2016

लुगदी साहित्य का गुनहगार ?

इन दिनों हिंदी साहित्य में लुगदी साहित्य को परिधि से केंद्र में लाने की कोशिश हो रही है । शहर दर शहर आयोजित हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल में पल्प लिखने वाले लेखक नजर आने लगे हैं । अभी हाल ही में वाणी फाउंडेशन ने दिल्ली में एक दिन का हिंदी महोत्सव किया था, उसमें भी एक सत्र पल्प के तिलिस्म पर था ।  हॉर्पर हिंदी जैसा मशहूर प्रकाशक अब लुगदी साहित्य को छापने लगा है । हाल ही में हार्पर हिंदी ने सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का एक बॉक्स एडिशन छापा है । सुरेन्द्र मोहन पाठक के अलावा भी अन्य लेखक क्राइम फिक्शन की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं । दरअसल अब पल्प फिक्शन और फिक्शन की दीवार टूटने लगी है । ये अच्छी स्थिति है क्योंकि टीवी के घरों में प्रवेश के बाद इन उपन्यासों की मांग कम हुई है । बदलते समाज में अब बहुत खुलापन आ गया है और लोगों के पास विकल्प भी बढ़ गए हैं । अपने अभिभावकों से छुपा कर इस तरह के उफन्यासों को पढ़नेवाले किशोरवय के पाठक पहले टीवी और फिर इंटरनेट की तरफ जाने लगे हैं । पल्प का बाजार लड़खड़ाने लगा है । इस लड़खड़ाते बाजार को संभालने की भी कोशिश हो रही है । पल्प की शुरुआत अमेरिका में हुई थी जब चमकीले कवर के बीच बेहद घटिया पन्नों वाली पत्रिकाएं छपती थी जो खूब बिकती थी । उन्नीस सौ तीस और चालीस के दशक में वहां पत्रिकाओं के बाद छोटे-छोटे उपन्यास भी छपकर लोकप्रिय होने लगे । उन उपन्यासों में नायक नायिका के बीच हल्का फुल्का रोमांस होता था जो पाठकों को खींचता था ।
भारत में हिंदी में पल्प फिक्शन की शुरुआत इब्ने सफी के उपन्यासों से मान सकते हैं । इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है । इब्ने सफी, इब्ने सईद और राही मासूम रजा तीनों दोस्त थे । एक दिन इन तीन दोस्तों के बीच साहित्य और लोकप्रिय साहित्य पर बहस हो रही थी । उस बातचीत के दौरान देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता संतति का जिक्र चला । यहां ये बताते चलें कि देवकीनंदन खत्री के इस उपन्यास की हिंदी में धूम हुआ करती थी । कहा तो यहां तक जाता है कि देवकीनंदन खत्री के उफन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी थी । देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों पर बात करते करते तीनों लेखक जासूसी उपन्यासों की चर्चा तक जा पहुंचे । राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स प्रसंगों का तड़का डाले जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है । इब्ने सफी इससे सहमत नहीं हो पा रह थे । उन्होंने राही मासूम रजा का प्रतिवाद किया तो रजा ने उनको चुनौती देते हुए कहा कि आप लिखकर देख लो । इब्ने सफी ने राही मासूम रजा की इस बात को चुनौती के तौर पर लिया और बगैर सेक्स प्रसंग के पहला उपन्यास लिखा । वह उपन्यास जबरदस्त हिट हुआ । फिर तो इब्ने सफी ने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया । इब्ने सफी के इमरान सीरीज के उपन्यासों की बदौलत उनके मित्र अली अब्बास हुसैनी ने एक प्रकाशन गृह खोल लिया था । जो काफी सफल रहा था । जब इब्ने सफी अपने जासूसी उपन्यास की बदौसत धूम मचा रहे थे तो उसी वक्त के आसपास इलाहाबाद से जासूसी पंजा नाम की पत्रिका में अकरम इलाहाबादी भी एक जासूसी सीरीज लिखा करते थे । ये सीरीज उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ था । जासूसी पंजा की लोकप्रियता को देखते हुए डायमंड पॉकेट बु्क्स और हिंद पॉकेट बुक्स ने एक रुपए की सीरीज की किताबें छापनी शुरू की । तब तक इसको उस तरह से लुगदी साहित्य कहकर हाशिए पर नहीं डाल गया था । अभी कुछ साल पहले एक बार फिर से हॉर्पर कॉलिंस ने इब्ने सफी के उपन्यासों को प्रकाशित किया था जिसे पाठकों का प्य़ार मिला ।
बाद मे साठ के दशक में इस तरह के रहस्य और रोमांच से भरे कथानक वाले उपन्यासों की धूम मची । उस परंपरा को मजबूत किया गुलशन नंदा, रानू, सुरेन्द्र मोहन पाठक, अनिल मोहन, कर्नल रंजीत और मनोज जैसे लेखकों ने । रानू और गुलशन नंदा तो हिंदी पट्टी के तकरीबन हर घर तक पहुंच रहे थे । रानू और गुलशन नंदा महिलाओं और नए नए जवान हुए कॉलेज छात्र-छात्राओ की पहली पसंद हुआ करते थे । गुलशन नंदा तो इतने लोकप्रिय हुए कि उनके उपन्यास- झील के उस पार, शर्मीली और चिंगारी पर फिल्म भी बनी जो काफी हिट रही थी । गुलशन नंदा ने जब 1962 में अपना पहला उपन्यास लिखा था तो उसकी दस हजार प्रतियां छपी थीं । ये प्रतियां बाजार में आते ही खत्म हो गई और कहा जाता है कि उसकी जबरदस्त मांग को देखते हुए प्रकाशक ने दो लाख प्रतियां फिर से छपवाईं । पहले उपन्यास  की सफलता से उत्साहित प्रकाशक ने उसके बाद गुलशन नंदा के उपन्यासों का पहला संस्करण ही पांच लाख का छापना शुरू कर दिया था । इन उपन्यासों के अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है । बाजार के जानकारों के मुताबिक उस दौर में इस तरह के उपन्यासों की कीमत पांच रुपय़े हुआ करती थी । प्रकाशकों को उपन्यास छपवाने से लेकर पुस्तक विक्रेताओं तक पहुंचाने आदि का खर्चा काटकर भी एक प्रति पर एक रुपए की बचत हो जाती थी । प्रकाशन के अर्थशास्त्र के लिहाज से ये एक बेहतर मुनाफा था । वो दौर मोबाइल, आईपैड, थ्री जी और इंटरनेट का दौर नहीं था । इन किताबों की इतनी धूम रहती थी कि लेखकों को अग्रिम रॉयल्टी दी जाती थी । उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग होती थी । कई छोटे शहरों के रेलवे स्टेशन पर तो इन उपन्यासों को छुपाकर रखा जाता था और दुकानदार अपने खास ग्राहकों को काउंटर के नीचे से निकालकर देते थे । इस तरह के उपन्यासों की लोकप्रियता को देखते हुए कई घोस्ट राइटर्स ने भी पैसे की खातिर लिखना शुरू कर दिया । मनोज ऐसा ही काल्पनिक नाम था जिसकी आड़ में कई लेखक लिखा करते थे । मुझे याद है कि अस्सी के दशक में जब वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास वर्दी वाला गुंडा छप कर आनेवाला था तो कई शहरों में उसके प्रचार के लिए होर्डिंग और पोस्टर आदि लगे थे । वो जमकर बिका था ।
अब वक्त आ गया है कि इस तरह के उपन्यासों को हाशिए पर डाले जाने और लुगदी कहकर हेय दृष्टि से देखे जाने की पड़ताल की जानी चाहिए । इकना ध्यान ऱखना चाहिए कि प्रगतिशीलता के के दौर में ही इन लोकप्रिय साहित्य को लुगदी कहकर खारिज किया जाता रहा । जिनके लाखों पाठक वो साहित्य नहीं और जिनका कोई पाठक नहीं, जो लाइब्रेरियों की शोभा बढ़ाते थे वो गंभीर साहित्य । साहित्य की इस वर्ण व्यवस्था को खत्म तो होना ही चाहिए, वर्ण व्यवस्था बनानेवालों को चिन्हित करके उनसे सवाल फूचे जाने चाहिए ।




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