इस वक्त साहित्य में जमकर राजनीति का दौर जारी है । साहित्यकारों का
एक खेमा अब फ्रंटफुट पर खेल रहा है । एक दौर में वामपंथी लेखक जिनको कलावादी कहकर
खारिज करने में जुटे रहते थे उनको ही गले लगाकर सिरमौर करार दिया जा रहा है । प्रगतिशील
लेखक संघ के सम्मेलन में जिन लेखकों को अपमानित किया गया था उनकी ही अहुवाई में अब
सरकार के खिलाफ मुहिम शुरू हो रही है । अवसरवादिता और खेमों के रीअलायनमेंट का खेल
जारी है । पहले अवॉर्ड वापसी की मुहिम चलाकर और मीडिया में उसको प्रमुखता मिलने के
बाद अब अशोक वाजपेयी की अगुवाई में कुछ साहित्यकारों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के
बहाने से अपनी अपील की राजनीति शुरू की है । इनकी मांग है कि जयपुर लिटरेचर
फेस्टिवल अपने टाइटल स्पांसर को बदल डाले । अब हमारे देश में लोकतंत्र है,अभिव्यक्ति
की आजादी है तो यहां तो किसी को भी किसी तरह की मांग रखने और अपील जारी करने का
संवैधानिक हक है । दरअसल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का टाइटल स्पांसर एरक निजी
टेलिवीजन चैनल है । अपील करनेवालों का आरोप है कि कन्हैया एपिसोड के दौरान इस चैनल
की भूमिका संदेह के घेरे में रही थी । लिहाजा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को इसको छोड़
देना चाहिए । सवाल फिर से वही है कि जो लोग इस तरह की मांग कर रहे हैं उनके पीछे
कितना नैतिक बल है । क्या उनकी मांग को लेकर समाज में किसी तरह का कोई उद्वेलन
होगा । क्या साहित्य समाज में भी उनकी अपील पर कोई उत्साह या समर्थन हासिल होगा । क्या
लेखक समुदाय भी एकजुट होकर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर इस बावत दबाव डाल पाएंगे । मुझे
तो इसमें संदेह है । क्योंकि किसी भी मुहिम के व्यापक होने के लिए यह आवश्यक है कि
उसकी अगुवाई करनेवालों के पास नैतिक ताकत हो । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से अपने
टाइटल स्पांसर को छोड़ने की अपील करने वालों का नैतिक खजाना खाली है । अशोक
वाजपेयी पर भी उन लोगों से पुरस्कार लेने का आरोप है जो सफदर की हत्या में संदेह
के घेरे में थे । अपनी उम्र के पचहत्तर पड़ाव पार करने के बाद अशोक वाजपेयी की
सक्रियता सराहनीय है लेकिन बढ़ी उम्र के साथ वो अपने इर्द गिर्द घिरे लोगों से
प्रभावित होते दिखाई देते हैं । साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी के दौर में उनकी
अपील का असर हो रहा था । लोग काफी संख्या में उनसे जुड़ने लगे थे कि अचानक
उन्होंने कालबुर्गी और दाभोलकर के साथ अखलाक का नाम जोड़कर उसको भटका दिया । अशोक
वाजपेयी को करीब से जानने वाले कहते हैं कि उन्होंने अपने एक सलाहकार की राय के
बाद ये किया और यहीं से पुरस्कार वापसी मुहिम कमजोर पड़ने लगी । क्योंकि साहित्य के सावलों से मुठभेड़ करने के
लिए साहित्यक जमीन ही चाहिए । जैसे ही अशोक वाजपेयी ने अखलाक का नाम लिया तो
विपक्षी खेमे को इसको पोलराइज करने का मौका मिल गया और जो एक बड़ी जमात अशोक जी के
साथ खड़ी हो रही थी वो पीछे हट गई ।
इस वक्त साहित्य का जो माहौल है उसमें लेखक खुलकर सामने आने से कतरा
रहे हैं । लेखक समुदाय भी दो तरफ बंटे हुए नजर आ रहे हैं जबकि कुछ लोग तटस्थ रहना
चाहते हैं । ऐसे माहौल में अशोक वाजपेयी और के सच्चिदानंदन ने जयपुर लिट फेस्ट के
सामने बड़ी चुनौती पेश की है । अशोक वाजपेयी लंबे समय से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल
से जुड़े रहे हैं । अशोक वाजपेयी की इस गुगली को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक
किस तरह के डक करते हैं ये देखना दिलचस्प होगा ।
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