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Wednesday, August 3, 2016

यूपी के सियासी भंवर में सोनिया

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ताइस साल से सत्ता से बाहर है । कांग्रेस की महात्वाकांक्षी योजना और उनेक उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मानें तो पार्टी इस बार सूबे के विधानसभा चुनाव में नंबर वन की लड़ाई लड़ रही है । राहुल गांधी के इस दावे में कितना दम है ये तो अगले साल विधानसभा चुनाव के नतीजे ही साबित करेंगे लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश में गंभीरता से विधानसभा चुनाव लड़ती दिखना चाहती है । अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में पार्टी का बेड़ा पार कराने की जिम्मेदारी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को सौंपी है । प्रशांत किशोर ने यूपी के हर जिले में सर्वा करवाकर अपनी रणनीति तैयार कर ली है और उसके हिसाब से कांग्रेस काम करती दिख रही है । कांग्रेस ने कुछ दिनों पहले जो यूपी की टीम घोषित की है उसमें सामाजिक और जातीय समीकरणों का खास ध्यान रखा गया है । सत्तर पार शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर कांग्रेस ने दो चाल चली है । एक तो सूबे की दस बारह फीसदी ब्राह्मण मतदाता पर डोरे डालने का काम और दूसरे शीला दीक्षित ने दिल्ली में जो विकास किया है उसको शोकेस करके पार्टी मोदी के विकास की राजनीति का मुकाबला करना चाहती है । इसी तरह से दलित, मुसलमान और पिछड़े को पार्टी उपाध्यक्ष की कमान सौंप कर भी कांग्रेस ने अपने मंसूबों को साफ कर दिया था । जिस तरह से कांग्रेस कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है उससे कार्यकर्ताओं में भी एक भरोसा कायम होने लगा है ।
दरअसल अगर हम उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना पर विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि वहां का समाज कमोबेश सामंती मानसिकता वाला समाज है । वहां के लोगों को वैभव, ऐश्वर्य और किसी भी आयोजन की विराटता आकर्षित करती है । यूपी की स्थानीय भाषा में कहें तो भौकाल होना चाहिए, चाहे वो पारिवारिक आयोजन हो, सामाजिक सम्मेलन हो या राजनैतिक रैलियां या कार्यक्रम हो । यह बात दो हजार चौदह के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की समझ में आ गई थी । लिहाजा अगर आप उस दौर में नरेन्द्र मोदी की रैलियों को याद करें तो उसमें एक खास किस्म की विराटता दिखती थी । उसके बरक्श कांग्रेस की रैलियों में इस तरह का कोई आकर्षण होता नहीं था । सूबे के कांग्रेस प्रभारी मधूसूदन मिस्त्री एनजीओ पृष्ठभूमि से आते थे लिहाजा उनके स्कीम ऑफ थिंग्स में ग्रैंडनेस का आभाव दिखता था । अब कांग्रेस की समझ में ये बात आ गई है । अगर आप देखें तो जब राज बब्बर की टीम कार्यभार संभालने के लिए लखनऊ पहुंची थी तो कांग्रेस ने उस इवेंट को बड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी । कांग्रेस दफ्तर के आसपास दुकान चलेनवालों का मानना था कि दशकों बाद इस दफ्तर ने इतनी भीड़ देखी । हाल ही में राहुल गांधी का लखनऊ में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें यूपी में बदहाली के सत्ताइस साल पर कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं के सवालों के जवाब दिए । इस कार्यक्रम की विराटता को देखा जाना चाहिए । इसमें विदेशों में होनेवाली राजनैतिक रैली की तरह रैंप बनाए गए थे और उस रैंप पर चलते हुए राहुल कार्यकर्ताओं के सवालों का जवाब दे रहे थे । उस कार्यक्रम में भी लोगों की अच्छी खासी भीड़ जुटी थी ।

इन सबसे उत्साहित कांग्रेस पार्टी ने अपने अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गढ़ में उतार दिया । लंबे समय बाद उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस के किसी कार्यक्रम में इतना जोश और उत्साह दिखा । यहां भी सोनिया गांधी के रोड शो और उसके बाद के कार्यक्रमों में विराटता का खास ध्यान रखा गया था ताकि जनता को लगे कि कुछ बड़ा हो रहा है । ये तो वो बातें है जो सतह पर दिखाई दे रही थी । अगर हम सोनिया गांधी के कार्यक्रमों को देखें तो वो भी खास समुदाय के वोटरों को ध्यान में रखकर बनाया गया था । सोनिया गांधी का कमलापति त्रिपाठी की प्रतिमा पर माल्यार्पण या फिर बाबा विश्वनाथ के मंदिर में दर्शन का कार्यक्रम । कमलापति त्रिपाठी लंबे समय तक उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों के नेता थे और सूबे के मुख्यमंत्री और केंद्र में रेल मंत्री रह चुके थे । तो एक बार फिर से ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने का दांव । इसी तरह से बाबा विश्ननाथ के दर्शन का कार्यक्रम और उसको सावन में बाबा के आशीर्वाद के तौर पर प्रचारित करना । यह अलहदा बात है कि रोड शो के दौरान सोनिया गांधी बीमार पड़ गईं और उनको कार्यक्रम को बीच में छोड़कर दिल्ली वापस आना पड़ा । कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है वो मुसलमानों को लेकर अत्यधिक उदार और संवेदनशील रहती है । इस छवि को तोड़ने की कोशिश कांग्रेस बार बार कोशिश करती है । लेकिन सोनिया के बनारस के रोड शो से एक बात तो साफ हो गई कि अगर कांग्रेस के नेता जमीन पर बेहतर रणनीति के साथ उतरें तो वो यूपी विधानसभा चुनाव में चुनौती बनकर खड़े हो सकते हैं । पहले नंबर की लड़ाई तो बहुत दूर की कौड़ी लगती है लेकिन अगर कांग्रेस ने गंभीरता से चुनाव लड़ा और प्रियंका गांधी ने धुंआधार प्रचार आदि किया तो संभव है कि उसको चालीस पचास सीटें आ जाएं । अगर कांग्रेस को इतनी सीटें आ जाती हैं तो फिर उसके बगैर सूबे में सरकार बनना संभव नहीं होगा । नतीजा चाहे जो हो लेकिन इतना तय है कि यूपी का चुनावी समर इस बार बेहद दिलचस्प होगा ।   

1 comment:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

भुत ही गहन राजनैतिक विश्लेषण... यूपी की राजनीति में ऊँट किस करवट बैठे कहना बड़ा मुश्किल होता है!!