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Tuesday, September 13, 2016

कट्टरता की पड़ताल करती कृति

आतंकवाद, जिहाद, बम धमाका, बगदादी, आईएसआईएस आदि शब्दों पर जब चर्चा होती है तो एक और शब्द इन सबसे जुड़ता है वो है रैडिकल इस्लाम । और जब ये शब्द जुड़ता है तो आतंक की तमाम घटनाओं को इस्लाम से जोड़ने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं । बार-बार ये कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई नाम या रंग नहीं होता है, ये मूलत: मानवता विरोधी वारदात है जिसको धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए । प्रतिपक्ष में तर्क दिया जाता है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं । तर्क-वितर्क और कुतर्क चलते रहेंगें लेकिन इन दिनों जो एक सबसे खतरनाक बात सामने आ रही है वो यह कि आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वालों का पढ़ा लिखा होना ।  चाहे वो बांग्लादेश की आतंकीवादी वारदात हो या फिर पेरिस में भीड़ पर आतंकवादी हमला । इन हमलावरों की प्रोफाइल देखने पर आतंकवाद को लेकर चिंता बढ़ जाती है । पहले तो कम पढ़े लिखे लोगों को आतंकवादी संगठन अपना शिकार बनाते थे । उसको धर्म की आड़ में जन्नत और हूर का ख्वाब दिखाकर और पैसों का लालच आदि देकर आतंकवाद की दुनिया में दाखिला दिलवाया जाता था । अनपढ़ों और जाहिलों को धर्म का डर दिखाकर बरगलाया जा सकता है । आश्चर्य तब होता है जब एमबीएम और इंजीनियरिंग के छात्र भी आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं । रमजान के पाक महीने में बांग्लादेश, पेरिस और मक्का समेत कई जगहों पर आतंकवादी वारदातें हुईं । ढाका पुलिस के मुताबिक बम धमाके के मुजरिम शहर के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र थे । पूरी दुनिया में इस बात पर मंथन हो रहा है कि इस्लाम को मानने पढ़े लिके युवकों का रैडिकलाइजेशन कैसे संभव हो पा रहा है ।

अभी हाल ही में भारतीय मूल के डैनिश लेखक ताबिश खैर की नई किताब आई है जिहादी जेन । ताबिश खैर इन दिनों डेनमार्क के एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और अपने लेखन से उन्होंने पूरी दुनिया में एक मुकाम हासिल किया है । ताबिश खैर ने अपना लंबा वक्त भारत में बिताया । बिहार के गया के रहनेवाले ताबिश खैर जब पत्रकारिता कर रहे थे उनके पिता, जो शहर के मशहूर डॉक्टर थे, के क्लीनिक पर कट्टरपंथियों ने ताबिश के लेखन से खफा होकर हमला कर दिया था । बावजूद इसके ताबिश खैर ने तर्कवादी लेखन नहीं छोड़ा और दो हजार चौदह में प्रकाशित उनकी किताब- हाउ टू फाइट इस्लामिस्ट टेरर फ्रॉम द मिशनरी पोजिशन- की विश्वव्यापी चर्चा हुई । जिहादी जेन भी औपन्यासिक शैली में लिखी गई किताब है जिसमें वैचारिकी भी है और पढ़े लिखे मुसलमानों की सोच का सामाजिक विश्लेषण भी है । जिहादी जेन उस शक्स का निकनेम है जिसने दो हजार ग्यारह में स्वीडिश कार्टूनिस्ट पर जानलेवा हमला किया था जिसने पैगंबर मोहम्मद साहब का कार्टून बनाया था ।
जिहादी जेन में ताबिश खैर ने ग्रेट ब्रिटेन के यॉर्कशर में रहनेवाली दो मुस्लिम दोस्तों और उसके कट्टरपंथ की ओर प्रवृत्त होने की कहानी तो कही ही है, उनके कट्टरपंथी होने की वजहों का विश्लेषण भी किया है । यॉर्कशर में रहनेवाली दो दोस्त जमीला और अमीना अलग-अलग पारिवारिक पृष्टिभूमि से आती हैं । दोनों की अपनी अलग लाइफस्टाइल है । जमीला एक परंपरागत मुस्लिम परिवार से आनेवाली लड़की है जो अपने पिता के साथ नियमित रूप से मस्जिद जाती है, वक्त पर नमाज पढ़ती है, आधुनिक देश और परिवेश में रहने के बावजूद बुर्का पहनती है । जमीला को इस बात का फख्र भी है कि वो अपने भाइयों से ज्यादा इस्लाम को जानती समझती है । भारतीय मूल की उसकी दोस्त अमीना अपने ख्यालों से लेकर अपनी वेशभूषा तक में खालिस ब्रिटिश है । वो सिगरेट पीती है, शॉर्ट स्कर्ट और टाइट जीन्स पहनती है और बिंदास है । उसका अपने ब्यायफ्रेंड से ब्रेकअप भी होचा है । अमीना के माता-पिता के बीच तलाक भी हो चुका है । दोनों दोस्तों की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो अलग है लेकिन एक बिंदु पर आकर दोनों मिलती हैं वो है उनका इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर आकर्षण । हम गहराई से ताबिश खैर की इस किताब पर विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि बिल्कुल अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से आनेवाली इन दो मुस्लिम लड़कियों का रैडिकलाइजेशन बिल्कुल अलग अलग वजहों से होता है जो कि व्यक्तिगत भी हैं ,सामाजिक भी और धार्मिक भी, रूढियों से नाराजगी को लेकर विद्रोह भी । इन दो वजहों को पढ़ने के बाद एक बात जेहन में आती है कि कुछ पढ़े लिखे मुसलमान युवकों और युवतियों के कट्टरपंथ की ओर बढ़ने की कई वजहें हो सकती हैं – धर्म और समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जारी मानसिक यातना, महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह देखा जाना, इस्लाम की गलत व्याख्या और कुरान और हदीस की आड़ में बरगलाने की कोशिश । जिस तरह से अरब देशों में महिलाओं की स्थिति है उसको देखकर समझा जा सकता है । दो हजार तेरह में प्रकाशित शीरीन अल फकी की किताब- सेक्स एंड सिटडल, इंटीमेट लाइफ इन अ चेंजिंग अरब वर्ल्ड को पढकर भी ये बात समझ आती है । जब अरब की सड़कें क्रांति की गवाह बन रही थीं, जब मिस्त्र से लेकर ट्यूनिशिया में विद्रोह हो रहा था तो शीरीन वहां की महिलाओं की स्थिति और यौनिकता पर शोध कर रही थीं ।
इस किताब में ताबिश खैर ने परोक्ष रूप से ये भी बताने की कोशिश की है कि किस तरह से इस समस्या के लिए वो लोग भी जिम्मेदार हैं जो मानते हैं कि इस्लाम की बुनियाद पर बने आतंकवादी संगठनों के बारे में पश्चिमी देश भ्रम फैला कर पूरे धर्म को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं । ताबिश खैर ये सवाल भी उठाते हैं कि किल तरह से इस्लाम की परंपराओं की आड़ में मानवता को लहूलुहान किया जाता है । ताबिश खैर के मुताबिक जबतक कट्टरपंथ की ओर झुकाव रखनेवाली महिलाओं को इसका अहसास होगा तबतक बहुत देर हो चुकी होगी । अपने इस नतीजे को जमीला और अमीना के मार्फत कहते चलते हैं ।
अपनी पारिवारिक स्थितियों से उबकर कट्टर इस्लाम की ओर झुकाव रखनेवाली अमीना और जमीला सोशल नेटवर्किंग साइट्स और यूट्यूब पर कट्टरपंथी भाषणों को सुनने लगती हैं । वहां वो फेसबुक और ट्वीटर पर उन साइट्स पर जाने लगती हैं जो युवाओं को धर्म के नाम पर बरगलाते हैं । उस तरह के लिटरेचर को पढ़कर आधुनिक विचारों वाली अमीना में बदलाव देखने को मिलने लगता है और उसकी वेशभूषा जीन्स स्कर्ट से बदलकर बुर्के तक पहुंच जाती है । इतना ही नहीं इंटरनेट पर उनका संपर्क एक धर्मगुरू टाइप शख्स से होता है जो अपनी लच्छेदार बातों से उन दोनों का ब्रेनवॉश करता है । वो इन दोनों महिलाओं को ये बताने में कामयाब हो जाता है कि जिहाद में महिलाओं की बड़ी भूमिका है । इसके बाद वो एक वृहत्तर कॉज और अपने धर्म की रक्षा के लिए इंगलैंड में अपना घर-बार, परिवार को छोड़कर सीरिया के लिए निकल पड़ती हैं । अमीना और जमीला के इस फैसले का लक्ष्य एक, लेकिन आधार अलग । अमीना के लिए विचारधारा आधार बनती है तो जमीला के लिए ये एक तरह की आजादी थी क्योंकि उसकी मां उसकी मर्जीके बगैर शादी करवाना चाहती थी । अब इस तरह की बातें ही ताबिश खैर के उस उपन्यास को किताबों की भीड़ से अलग कर देती है ।
सीरिया पहुंचने के बाद दोनों उसी धर्मउपदेशक के अनाथालय में काम करने लगती हैं । शुरुआत में तो उनको लगता है कि उनका फैसला बिल्कुल सही था लेकिन धीरे-धीरे असलियत खुलने लगती है । अमीना शादी कर लेती है उधर जमीला का अनाथालय की हालत को देखकर मोहभंग होने लगता है । उस अनाथालय में छोटी छोटी लड़कियों को आत्मघाती दस्ता में शामिल होने के लिए तैयार किया जाता है । इसी क्रम में जब एक छोटी सी लड़की हाल्दी ये कहती है कि कुरान तो खुद को मारने का नाजायज कहता है तो उसको बुरी तरह से यातनाएं दी जाती हैं । धर्म के नाम पर ये सब होता देख जमीला के अंदर कुछ दरकने लगता है । उधर अमीना जब ये देखती है कि एक दस साल के बच्चे सबाह को यजीदी होने पर गला रेत कर हत्या कर दी जाती है तो उसके मन के कोने अंतरे में भी मोहभंग की चिंगारी सुलगने लगती है । अमीना तय करती है कि वो कुर्दिश हमलावरों के खिलाफ आत्मघाती दस्ता में शामिल होगी और जब उसका पति इसके लिए तैयार होता है तो वो आखिरी मौके पर वो खुद उड़ाती है और उस धमाके में इसका पति हसन और उसके साथी मारे जाते हैं । ये अमीना का इंतकाम था सबाह की कत्ल का । ये पूरी किताब धार्मिक उन्माद की कलई खोलते चलती है और मुस्लिम युवाओं के रैडिकलाइजेशन की वजहों की पड़ताल भी करती है इस लिहाज से ये किताब इस वक्त बेहद मौजूं है ।

1 comment:

kuldeep said...

जानकारी देते हुए बेहतरीन आलेख सर जी