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Saturday, October 29, 2016

यश-भारती के यश पर सवाल

उत्तर प्रदेश के समाजवादी कुनबे में कलह जारी है । सियासत से लेकर अंत:पुर में खेले जाने दांव-पेंच पर पूरे देश की नजर है । तमाम राजनीति विश्लेषक हर रोज रिश्तों की नई व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं । कोई मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर दांव लगा रहा है तो कोई शिवपाल-अमर सिंह की जोड़ी के पक्ष में बैटिंग कर रहा है । इन तमाम सियासी कोलाहल के बीच साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर भी उत्तर प्रदेश इन दिनों चर्चा में है । पिछले हफ्ते करीब डेढ दशक बाद संगीत नाटक अकादमी अवार्ड बांटे गए । दरअसल दो हजार तीन से लेकर दो हजार आठ तक के संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों का ऐलान महीनों पहले किया गया था लेकिन पुरस्कार बांटे जाने को लेकर कोई तिथि तय नहीं की गई थी । जिनके नामों का पुरस्कार के लिए ऐलान हुआ था वो भी अंधेरे में थे और कई तो बातचीत में निराशा भी जाहिर कर चुके थे कि उनको पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । पिछले हफ्ते आनन फानन में इन पुरस्कारों को बांट दिए गए लेकिन बताया जा रहा है कि कई पुरस्कृत शख्सियत वक्त पर इत्तला नहीं मिलने की वजह से मौके पर उपस्थित नहीं हो सके । खबरों के मुताबिक इस समारोह में सड़सठ कलाकारों को अकादमी अवॉर्ड और बारह को अकादमी रत्न पुरस्कार दिया गया । इस सम्मान समारोह में पुरस्कृत कलाकारों लेखकों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि जल्दी जल्दी नाम पुकारे जाने लगे जिससे अव्यवस्था फैल गई । कलाकारों को पुरस्कार के तौर पर दिए गए ताम्रपत्र पर पुरस्कार राशि अंकित करने से भी कलाकारों में क्षोभ दिखा । पंडित शंभू महाराज के बेटों को दो हजार तीन और चार के लिए अकादमी अवार्ड दिया गया । इन दोनों ने जब ताम्रपत्र पर दस हजार एक रुपए की राशि का अंकन देखा तो नाराज हो गए और कहा कि ताम्रपत्र पर राशि का उल्लेख गैरजरूरी है । भारी संख्या में बंटे इन पुरस्कारों को लेकर चर्चा अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि उत्तर प्रदेश सरकार ने थोक के भाव से यशभारती पुरस्कार बांट डाले । यश भारती पुरस्कार को लेकर इस बार इस वजह से सवाल खड़े हो रहे कि पहले सरकार ने ऐलान किया था कि चौवन लोगों को इस पुरस्कार से नवाजा जाएगा । उसके बाद इसकी संख्या बढ़कर चौंसठ हो गई और अंतत: तिहत्तर लोगों को प्रदेश के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा गया । हद तो तब हो गई जब पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान दो लोगों के नाम जोड़े गए । यशभारती पुरस्कार अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव ने शुरू किया था और यह पुरस्कार साहित्य, कला, सिनेमा, चिकित्सा, खेल, पत्रकारिता, हस्तशिल्प, शिक्षण, संस्कृति, संगीत, नाटक और उद्योग के अलावा समाजसेवा और ज्योतिष विद्या के लिए भी दिया जाता है । इस पुरस्कार के तहत पुरस्कृत व्यक्ति को ग्यारह लाख नकद और आजीवन पचास हजार रुपए हर महीने पेंशन के तौर पर दिया जाता है । इस वर्ष के पुरस्कार वितरण समारोह से मुलायम सिंह यादव दूर रहे और उनके पुत्र मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पूरे समारोह के दौरान मुलायम सिंह का नाम लेते रहे । उन्होंने तो यहां तक कहा कि नेताजी विभूतियों का सम्मान करने में कभी नहीं हिचके और वो उनके घर तक जाकर उनको सम्मानित किया । इस संदर्भमें अखिलेश यादव ने हरिवंश राय बच्चन का उदाहरण दिया जिन्हें यश भारती से सम्मानित करने के लिए मुलायम सिंह यादव मुंबई तक गए थे । बच्चन जी के स्वास्थ्य की वजह से मुंबई में उनके घर पर उनको यश भारती से सम्मानित किया गया था । हलांकि उसके बाद मुख्यमंत्री सम्मानित शख्सियतों के साथ मुलायम सिंह यादव के घर पहुंचे औप सबकी उनसे मुलाकात करवाई । ये तो हुई सियासत की बातें लेकिन सियासत की बात यहीं खत्म नहीं होती है । सियासत या लापरवाही के संकेत तो यशभारती पुरस्कार से सम्मानित किए गए महानुभावों की सूची को देखने पर भी मिलते हैं । पुरस्कार वितरण समारोह के चंद दिनों पहले जो सूची जारी की गई उसमें बांदा के शिल्पकार शाहिद हुसैन का भी नाम था लेकिन जब बांदा के जिलाधिकारी से शाहिद हुसैन को सूचना देने के लिए संपर्क किया गया तो जो बात पता चली उससे पुरस्कारों की सूची तैयार करनेवालों के होश उड़ गए । बांदा के जिलाधिकारी ने राज्य सरकार को सूचित किया कि शाहिद हुसैन नाम का कोई शिल्पकार उनके जिले में नहीं है । बांदा के डीएम ने अपने पत्र में किसी हामिद हुसैन के नाम का उल्लेख कियाऔर बताया कि वो एक शिल्पकार के पास काम करते हैं । इस पत्र के बाद संस्कृति विभाग ने आनन फानन में शाहिद हुसैन का नाम पुरस्कृत होनेवालों की सूची से हटा दिया । लापरवाही का आलम तो वरिष्ठ उर्दू शायर शारिब रुदौलवी के नाम के साथ भी देखने को मिला । विभागों की फाइल में उनका नाम शादाब रुदौलबी लिखा था और विभागीय लोग इस नाम के शख्स को ढूंढने में रात दिन एक किए हुए थे ष बात में पता चला कि उनका सही नाम शारिब रुदौलवी है । फिर जाकर सूची में संशोधन किया गया । दरअसल इस तरह के वाकए सरकारी विभागों में होते रहते हैं । कमलेश्वर के निधन के बाद आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में उनको निमंत्रण देने के लिए विदेश मंत्रालय के अफसरों ने उनके घर पर फोन किया था और बगैर कुछ बताए ये सूचना फोन उठानेवाले को दी और फोन रख दिया । गनीमत ये रही कि किसी तरह विदेश मंत्रालय को समय रहते कमलेश्वर के निधन की जानकारी मिल गई वर्ना तो उनका नाम भी सूची में प्रकाशित कर दिया गया होता ।
अब अगर समग्रता में इस साल दिए गए यश भारती सम्मान से नवाजे गए लोगों की सूची पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है कि सम्मानित विभूतियों में भी सामाजिक समीकरणों का ध्यान रखा गया है । संभव है कि मेधा को भी प्राथमिकता दी गई हो लेकिन जिस तरह से नाम जोड़े और घटाए गए उससे साफ है कि अकलियत से लेकर जातिगत समीकरणों का भी ध्यान रखा गया । पुरस्कारों के बहाने से राजनीतिक तौर पर समुदायों और जातियों को खुश करने की कोशिश भी दिखाई दे रही है । साहित्य, कला, संस्कृति, क्रिकेट, समाजसेवा और पत्रकारिता आदि के लिए यश भारती सम्मान के नामों का चुनाव करते वक्त अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों को भी ध्यान में रखा गया । वर्ना ये कैसे संभव था कि बांदा के एक ऐसे शिल्पकार का नाम सूची में घोषित कर दिया जाता जिस नाम का उस जिले में तो क्या पूरे सूबे में कोई शिल्पकार ज्ञात नहीं है । क्या सिर्फ नाम देखकर शाहिद हुसैन को पुरस्कार देना तय कर लिया गया । क्या ये जरूरी नहीं था कि संबंधित विभाग नामों का ऐलान करने के पहले उसकी जांच करवा लेता । संस्कृति विभाग क सचिव खुद बेहतरीनन शायर हैं और कला संस्कृति और साहित्य जगत से गहरे जुड़े हुए भी हैं । बावजूद इसके ऐसा हुआ तो इससे तो ये भी लगता है कि संस्कृति सचिव को उपर से नाम भेजकर उसका ऐलान करने को कहा जा रहा था । अपने स्तर से जब उन्होंने जांच करवाई तो कई खामियां नजर आईं लेकिन तबतक तो तीर कमान से निकल चुका था । सवाल यही उठता है कि इन सरकारी पुरस्कारों को लेकर कोई ठोस पारदर्शी नीति क्यों नहीं बनाई जाती है । कोई मानक क्यों नहीं तय किया जाता है । जनता को ये क्यों नहीं बताया जाता है कि अमुक नाम के चयन के पीछे की वजह ये रही है । क्या जनता के पैसे से दिए जानेवाले इन भारी भरकम पुरस्कारों के बारे में जनता को जानने का हक नहीं है । उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री की छवि अबतक साफ सुथरी है लेकिन इस तरह के वाकयों से ये तो साफ होता है कि वो भी राजनीति की काली कोठरी में आकर उससे बचकर निकल नहीं पा रहे हैं । दरअसल हमारे देश में पुरस्कारों को लेकर कोई ठोस नीति नहीं है । जैसे यूपी में तो यश भारती पुरस्कारों की संख्या भी निश्चित नहीं है । जो सत्ता में है वो अपने जितने चाहे उतने चहेतों को पुरस्कृत कर सकता है । ये पुरस्कार भी सरकारी स्कीमों की तरह राजनीति की शिकार होती रही हैं । सत्ता बदलने पर पुरस्कार या तो बंद कर दिए जाते हैं या दिए ही नहीं जाते हैं । क्या सरकारें कोई ठोस नीति बनाकर इसको स्थायी नहीं कर सकती हैं जिसमें पारदर्शिता हो और पुरस्कारों की प्रतिष्ठा भी स्थापित हो सके । संगीत नाटक अकादमी और यश भारती पुरस्कार इतनी भारी संख्या में बांटे गए कि लगता है कि कोई बच ही नहीं पाएगा । रही सही कसर हिंदी संस्थान के पुरस्कार पूरी कर देते हैं । नब्बे के आखिरी दशक में दिल्ली में एक मजाक चलता था कि अगर करोलबाग में पत्थर फेंका जाए तो हर दूसरा जख्मी शख्स एमबीए डिग्रीधारक होगा । यही हाल उत्तर प्रदेश में पुरस्कारों को लेकर है ।   


विधाओं को सम्मान से आस ·

इंग्लैंड में छपे अंग्रेजी उपन्यास पर दिया जानेवाले इस साल का मैन बुकर प्राइज अमेरिकी लेखक पॉल बेयटी को दिया गया । किसी भी अमेरिकी उपन्यासकार को मिलनेवाला ये पहला बुकर पुरस्कार है । चंद दिनों पहले अमेरिकी गीतकार बॉब डिलान को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । दरअसल दो हजार चौदह तक ये पुरस्कार सिर्फ कॉमनवेल्थ देशों के अलावा आयरिश और जिंबाववे के उपन्यासकार को दिया जा सकता था । पॉल बेयटी का ये उपन्यास अमेरिका की नस्लभेदी राजनीति को केंद्र में रखकर व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया । द सेलआउट नाम के इस उपन्यास को इस पुरस्कार को देनेवाली जूरी ने अन्य सभी उपन्यासों से श्रेष्ठ माना बल्कि एक कदम आगे जाकर पॉल बेयटी को मार्क ट्वेन और जोनाथन स्विफ्ट की श्रेणी में खड़ा कर दिया । किसी भी उपन्यासकार के लिए ट्वेन और स्विफ्ट से तुलना होना ही किसी भी पुरस्कार से अधिक मायने रखता है । व्यंग्यात्मक शैली में लिखे उपन्यास को बुकर प्राइज मिलने से एक बार इस शैली में लिखी जानेवाली कृति पर फिर से चर्चा शुरू हो गई है । दरअसल पहले गीतकार को नोबेल और फिर व्यंग्यात्मक शैली में लेखन करनेवाले को बुकर मिलने के बाद अमेरिका में भी इस बात पर बहस हो शुरू हो गई है कि साहित्य की मुख्यधारा से लगभग अलग मानी जानेवाले लेखन को सम्मान किस आधार पर दिया जा रहा है । वहां का लेखक समुदाय इस मसले पर अलग अलग राय रखते हैं । दरअसल व्यंग्यात्मक शैली में उपन्यास लिखना पारंपरिक शैली में लिखे जानेवाले उपन्यास से अधिक श्रम की मांग करता है । कई लेखक इसको साधने की कोशिश कर चुके हैं लेकिन कुछ शुरुआत ठीक करते हैं तो अंत में गड़बड़ा जाते हैं और कुछ लेखकों की शुरुआत ही निहायत बोरिंग होती है । जहां वो व्यंग्य करना चाहते हैं वो इतना हल्का हो जाता है कि पाठकों को बांध नहीं पाता है ।

अगर हम हिंदी को भी देखें तो यहां भी गीतकारों को उस तरह से सम्मान नहीं मिल पाया है । सम्मान नहीं मिल पाने की वजह चाहे जो भी हो इसने इस विधा का तो नुकसान कर ही दिया है । नई पीढ़ी के बहुत कम लेखक गीतकार बनना चाहते हैं और जो भी गीतकार बनना चाहते हैं उनका लक्ष्य बॉलीवुड होता है । जबकि एक दौर था कि हिंदी में एक से बढ़कर एक गीतकार हुए जिनके गीत लोगों की जुबां पर हुआ करते थे । हिंदी में गीत क्यों और किस वजह से हाशिए पर चला गया यह तो शोध का विषय है । इसी तरह से व्यंग्यात्मक शैली में हिंदी में उपन्यास बहुत कम लिखे गए हैं । एक तो हिंदी में राजनैतिक विषयों पर ही तुलनात्मक रूप से कम लेखन हुआ है और दूसरे उसको व्यंग्यात्मक शैली में लिखने की कोशिश तो और भी कम हुई है । श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी के बाद उस तरह की ऊंचाई या उसके आसपास पहुंचनेवाली कोई कृति उस शैली में लिखी गई हो याद नहीं पड़ता है । दरअसल व्यंग्यात्मक शैली में उपन्यास लिखना व्यंग्य लिखने से ज्यादा मुश्किल काम है । पॉल बेयटी ने भी माना है कि व्यंग्यात्मक शैली में किसी भी कृति की रचना करना और उसको अंत तक संभाल कर चलना बेहद कठिन कार्य है और इसके लिए काफी मेहनत की आवश्कता है । पॉल बेयटी ने तो अमेरिका में नस्लभेदी राजनीति जैसे मुद्दे को विषय बनाकर अपने लिए और भी बड़ी चुनौती खड़ी कर ली थी । लेकिन बुकर प्राइज के निर्णायकों की करीब छह घंटे तक चली माथापच्ची के बाद पॉल बेयटी के उपन्यास के पक्ष में ही सर्वसम्मति बनी । गीत और व्यंग्यात्मक शैली में लेखन को वैश्विक मंचों पर स्वीकार्यता का असर हिंदी पर पड़ेगा या नहीं ये देखना दिलचस्प होगा ।        

Monday, October 24, 2016

सास- बहू और संग्राम

देश के सबसे बड़े प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पिछले दो तीन दिनो से जिस तरह का सियासी ड्रामा चला उसने तो मनोरंजन चैनलों पर चलनेवाले महिला प्रधान सीरियल को भी पीछे छोड़ दिया । मनोरंजन चैनलों पर चलनेवाले उन सीरियल्स की ही तरह इसमें सस्पेंस भी था, ड्रामा भी था, इमोशन भी था, साजिशें भी थीं, झगड़े भी थे, मान-ममुहार का दौर भी था और अंत में कुछ नहीं हासिल होने का क्लाइमेक्स भी था । पूरे देश ने समाजवादी परिवार में चले इस ड्रामे को बड़े चाव से देखा लेकिन जिस तरह से सीरियल्स को देखकर अंत में निराशा होती है उसी तरह से समाजवादी पारिवार के इस ड्रामे के क्लाइमेक्स ने निराश किया । अब जरा इस बात पर नजर डाल लेते हैं कि इस पारिवारिक सियासी ड्रामे में किसको क्या मिला । परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर से सार्वजनिक रूप से अपने पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को फटकार लगाई और अपने भाई को पुचकारा । मुलायम ने अखिलेश को साफ कह दिया कि सत्ता मिलने के बाद उनका दिमाग हवा में उड़ने लगा है । बावजूद इस फटकार के अखिलेश यादव के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करके मुलायम सिंह यादव ने ये संदेश भी दे दिया कि वो अपने बेटे अखिलेश के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं करने जा रहे हैं । शिवपाल सिंह यादव ने सार्वजनिक रूप से मुलायम सिंह यादव से मांग की कि वो खुद सूबे के मुख्यमंत्री की कमान संभालें लेकिन मुलायम ने शिवपाल की इस बात का नोटिस, ही नहीं लिया । अपने पूरे भाषण के दौरान मुलायम सिंह यादव अपने छोटे भाई शिवपाल यादव के योगदान को, उनके संघर्षों को याद करते रहे लेकिन बात उनकी कोई नहीं मानी । इस बात के संकेत भी नहीं हैं कि शिवपाल सिंह यादव और उनके साथ बर्खास्त किए गए अन्य मंत्रियों को अखिलेश अपने मंत्रिमंडल में वापस लेंगे । इस पूरे विवाद के बीच अगर हम सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो अखिलेश यादव का कद बहुत बढ़ गया है । वो जनता को एक बार फिर से ये संदेश देने में कामयाब हो गए हैं कि उनके साथ दलाल और गुंडे किस्म के लोग नहीं रहेंगे । दूसरी बात जो अखिलेश ने साबित की वो ये विधायकों का बहमत उनके साथ है । विधायकों के बहुमत के अखिलेश के साथ होने की वजह से शिवपाल यादव अपने भाई मुलायम पर कोई दबाब नही बना पाए । सार्वजनिक रूप से अखिलेश ने मुलायम सिंह को ये भी बता दिया कि ज्यादातर फैसले उनके कहने पर ही लिए जा रहे हैं । गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से निकालने और दीपक सिंघल को मुख्य सचिव के पद से हटाने के पहले भी अखिलेश ने मुलायम सिंह यादव से स्वीकृति ली थी । दरअसल अगर हम देखें तो अखिलेश ने चाचा के साथ साथ अपने पिता को भी ये बता दिया कि अब वो टीपू नहीं रहे बल्कि सुल्तान बन चुके हैं और सियासी दंगल में किसी को भी पटखनी देने के दांव-पेंच से भली भांति परिचित हो चुके हैं ।
ये तो वो बातें हैं जो सतह पर दिखाई दे रही हैं लेकिन परिवार से जुड़े सूत्रों का कहना है कि पिछले कई सालों से अखिलेश यादव के अंकल और उनके चाचा मिलकर मुख्यमंत्री के खिलाफ साजिश रच रहे थे । इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है लेकिन कहा जा रहा है कि अंकल अमर सिंह जब पार्टी से बाहर थे तो सरिस्का के एक रिसॉर्ट में उनकी चाचा शिवपाल यादव से लगातार मुलाकातें होती थीं । अखिलेश यादव के नजदीकियों का दावा है कि इन मुलाकातों में अंकल की वापसी की रूपरेखा तो बनती ही थी, शिवपाल को सूबे का कमान दिलाने की योजना पर भी काम होता था । इसकी भनक भी अखिलेश यादव को थी और वो लगातार इन मुलाकातों पर नजर रखे हुए थे । इस बीच खबर ये भी आई कि मिर्जापुर के पास अखिलेश यादव के चाचा के करीबी धर्मगुरू ने तांत्रिक अनुष्ठान करवाया । इसका राज तब खुला जब उस धर्मगुरू ने तांत्रिक अनुष्ठान के लिए ट्रकों में भरकर नारियल मंगवाए । तांत्रिकों से जब पूछताछ हुई तो सारे राज खुल गए जिससे अखिलेश और उनकी पत्नी डिंपल यादव बहुत नाराज हो गईं । यहीं से रिश्तों में कड़वाहट की शुरुआत हुई ।

उधर अमर सिंह और शिवपाल यादव ने अंत:पुर की राजनीति को हवा दी और मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी और अखिलेश की सौतेली मां साधना ने अपने बेटे प्रतीक और बहू अपर्णा के लिए सियासी हिस्सा मांगते हुए मुलायम पर दबाव बनाना शुरू कर दिया । एक मां अपने बेटे के लिए राजपाट की मांग करने लगी तो जाहिर तौर पर पूरा परिवार दो खेमों में बंटने लगा । महलों की सियासत की तरह यहां भी दांव-पेंच चले जाने लगे । बताया जाता है कि इस पूरे खेल में सास-बहू के बीच जमकर कहासुनी भी हुई । ये मामला बढ़ता ही चला गया और जब परिवार में इस तरह की सियासतें और साजिशें शुरू होती हैं तो बाहरवालों को तो मौका मिलता है अपनी गोटी फिट करने का और वही हुआ । इस बात के पर्याप्त संकेत अखिलेश यादव के करीबी और समाजवादी पार्टी के विधायक उदयवीर सिंह ने अपने पत्र में दिए । इस पारिवारिक झगड़े की बिसात पर इस वक्त अखिलेश यादव मजबूक दिखाई दे रहे हैं । अब असली खेल शुरू होगा विधानसभा चुनाव के ऐलान के बाद और टिकट बंटवारे वे वक्त । 
(नारद न्यूज- 25.10.2016)

Saturday, October 22, 2016

शरीया के नाम पर जेल...

ईरान से एक बार फिर हैरतअंगेज खबर आई है वहां एक लेखिका को कहानी लिखने के लिए छह साल जेल की सजा सुनाई गई है । गोलरोख इब्राहिमी ईराई नाम की इस लेखिका का जुर्म इतना भर है कि उसने अपनी कहानी में पत्थर मार कर मौत की सजा देने को विषय बनाया है । उससे भी दिलचस्प बात ये है कि गोलरोख इब्राहिमी ईराई की ये कहानी अभी कहीं प्रकाशित भी नहीं हुई है । मसला ये है कि करीब दो साल पहले ये कहानी ईरान के एक प्रशासनिक अधिकारी के हाथ लग गई थी । उस अप्रकाशित कहानी को पढ़ने के बाद लेखिका गोलरोख इब्राहिमी ईराई और उसके पति अर्श सादेगी को पुलिस ने उठा लिया और उसके घर से उसका लैपटॉप, नोटबुक और कई सीडी जब्त करके ले गए । सादेगी को तो ईरान की इवीन जेल मे बंद कर दिया गया जबकि उनकी पत्नी गोलरोख इब्राहिमी ईराई को अज्ञात जगह पर ले जाकर पूछताछ की गई । बाद में उसको भी इवीन जेल भेजा गया और वहां बीस दिनों तक रेवोल्यूशनरी गार्ड्स ने घंटों तक पूछताछ की । पूछताछ के दौरान उसको बार बार ये कहा जाता था कि तुमने इस्लाम का अपमान किया है लिहाजा तुमको फांसी की सजा दी जाएगी । दरअसल गोलरोख इब्राहिमी ईराई पर आरोप है कि उसने अपनी अप्रकाशित कहानी में पत्थर मारने की सजा के खिलाफ आवाज उठाकर इस्लाम और खुदा का अपमान किया है । ईरान में लागू शरीया कानून के मुताबिक बलात्कार के मुजरिम को पत्थर से मार मार कर मार डालने की सजा का प्रावधान है । दरअसल बताया जा रहा है कि गोलरोख इब्राहिमी ईराई ने अपनी कहानी में ईरान की एक सच्ची घटना का जिक्र किया है । इस घटना में एक महिला फिल्म देखने जाती है जहां रेप के आरोपी को शरीया कानून के मुताबिक पत्थर से मार मार कर मार डाला जाता है । इस दृश्य के फिल्मांकन से वो महिला बुरी तरह से आहत होती है और गुस्से में धर्मग्रंथ को जला देती है । इस काल्पनिक दृश्य का गोलरोख इब्राहिमी ईराई ने अपनी अप्रकाशित कहानी में उल्लेख किया है । संभव है कि जब वो प्रकाशन के लिए कहीं भेजती तो उसको संपादिक कर देती या फिर इसके अगले ड्राफ्ट में इस कथित ईशनिंदा के प्रसंग को हटा देती लेकिन उसको तो इसका मौका ही नहीं मिला । गोलरोख इब्राहिमी ईराई को पिछले दिनों फोन पर छह साल इवीन जेल में सजा काटने का फरमान सुनाया गया । अब अगर हम इसको देखें तो ईरान के हिसाब से तो ये बात छोटी सी लगती है लेकिन इसकी जड़ में धर्म के नाम पर लेखकीय स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया गया है । क्या ईरान जैसे मुल्क में अगर किसी ने व्यक्तिगत तौर पर कुछ लिखकर रख लिया और किसी तरह वो सरकारी नुमाइंदों के हत्थे चढ़ गया तो क्या उसको भी धर्म की कसौटी पर कसकर सजा दी जाएगी । इस पूरी घटना पर एमनेस्टी के अलावा किसी भी लेखक संगठन या पेन इंटरनेशनल जैसी लेखकों की संस्था की प्रतिक्रिया नहीं आना चिंता की बात है । भारत में एकाध छिटपुट घटनाओं के आधार पर सैकड़ों पृष्टों की रिपोर्ट तैयार करनीवाली संस्था पेन इंटरनेशनल इस तरह की घटनाओं पर कब रिपोर्ट जारी करेगी या फिर खामोशी का रुख अख्तियार कर लेगी ।
दरअसल ईरान में पिछले दिनों कट्टरता का जोर और बढ़ा है । एक अनुमान के मुताबिक ईरान में पिछले कुछ महीनों में छह हजार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से लेकर वकीलों और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है । सब पर लगभग एक ही किस्म का आरोप है कि वो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए आवाज उठा रहे हैं या फिर वो ईशनिंदा के दोषी हैं । इस्लाम के नाम पर इस तरह की ज्यादतियां कितनी जायज हैं, इस पर पूरी दुनिया को विचार करने की जरूरत है । मशहूर इस्लामिक विद्वान आसिफ ए ए फैजी ने अपनी किताब अ माडर्न अप्रोच टू इस्लाम में इन बातों पर गंभीरता से विचार किया है और उलेमाओं की मान्यताओं और व्याख्याओं को निगेट भी किया है । उन्होंने लिखा है कि- हमें इस बात का एहसास होना चाहिए कि अब आत्मविश्लेषण का समय आ गया है । इस्लाम की पुन:व्याख्या की जानी चाहिए, वरना इसका पारंपरिक रूप इस कदर खो जाएगा कि उसका पुनरुद्धार करना असंभव हो जाएगा । फैजी साहब के तर्कों में दम है और वो साफ तौर पर कहते हैं – आदमी को आधुनिक संसार का सबसे बड़ा तोहफा आजादी है – सोचने की आजादी, बोलने की आजादी और आचरण की आजादी । वो इसके आधार पर सवाल खड़े करते हुए पूछते हैं कि इस्लाम क्या करता है –वह व्याख्या का द्वार बंद कर देता है वह निर्धारित करता है कि विधिज्ञों को कुछ वर्गों में बांट दिया जाए और कोई वैचारिक स्वतंत्रता नहीं दी जाए । वो मानते हैं कि इकबाल और अब्दुर्रहीम ने इस सिद्धांत के खिलाफ बगावत की लेकिन बावजूद उसके कोई व्यक्ति उलमा के गुस्से का सामना करने का साहस नहीं रखता है । फैजी ये बातें साठ के दशक के शुरू में लिख रहे थे। तब से लेकर हालात कितने बदले या बदतर हुए हैं इसपर इस्लामिक स्कॉलर्स को विचार करना चाहिए । असगर अली इंजीनियर साहब ने भी कई सवाल उठाए थे लेकिन उसके बाद क्या हुआ । किसी भी धर्म को तर्कों की कसौटी पर कसने से ही उसके अंदर की कमियों को दूर किया जा सकता है । कुरान के नाम पर उलेमा ने जिस तरह की व्यवस्थाएं दी उससे भी जटिलताएं बढ़ीं ।   

आज के जमाने में जब पूरी दुनिया इंटरनेट के माध्यम से एक ग्लोबल गांव की तरह हो गई है तो इस तरह की पाबंदी किसी भी देश के लिए कितना उचित है इसपर विचार करने की जरूरत है । हमारे देश में भी गोलरोख इब्राहिमी ईराई को छह साल की सजा देने पर किसी तरह का कोई स्पंदन नहीं हुआ। लेखकीय अभिव्यक्ति को लेकर असीमित अधिकार के पैरोकारों ने भी गोलरोख इब्राहिमी ईराई की सजा पर एक शब्द भी बोलना उचित नहीं समझा । ना तो लेखक संगठनों ने और ना ही किसी लेखक ने इसके खिलाफ कोई हस्ताक्षर अभियान चलाया । यह फिर से चुनिंदा विरोध को उजागर करती है ।  

पुरस्कार वापसी का पुरस्कार पार्ट-2

चंद दिनों पहले विश्व कविता समारोह के आयोजन के हवाले से पुरस्कार वापसी का पुरस्कार शीर्षक से इस स्तंभ में प्रकाशित लेख पर हिंदी साहित्य जगत में जमकर चर्चा हुई । अशोक वाजपेयी ने विश्व कविता समारोह के आयोजन पर सफाई देते हुए लिखा कि आयोजन का प्रस्ताव वो काफी पहले नीतीश कुमार को दे चुके थे और कमोबेश ये साबित करने में लगे रहे कि पुरस्कार वापसी की मुहिम से विश्व कविता समारोह के आयोजन का कोई लेना देना नहीं है । अशोक जी देश की ब्यूरोक्रेसी में काफी ऊंचे पद पर रहे हैं, नेताओं के साथ काम करने और राजनीति को बेहद करीब से देखने और समझने का उनको मौका भी मिला है लिहाजा वो यह बात बेहतर समझते होंगे कि राजनीति में जो दिखता है दरअसल वो होता नहीं है और कई बार तो राजनीति में दो जमा दो चार भी नहीं होता है । विश्व कविता समारोह तो अब जब होगा तो बातें साफ होगी लेकिन इस बात से इंकार कोई नहीं कर रहा है कि विश्व कविता समारोह के लिए पहल शुरू हो चुकी है । खुद बिहार के संस्कृति मंत्री ने स्तंभकार से बातचीत में माना है कि अगले साल अप्रैल में इस आयोजन के लिए तैयारी की जा रही है । मंत्री ने तो ये भी कहा कि अशोक वाजपेयी की सलाह को भी आयोजन समिति गंभीरता से ले रही है । आयोजन समिति की बैठक हो चुकी हैं और वाजपेयी जी समेत ज्यादातर सदस्यों ने उसमें हिस्सा भी लिया था । इस बैकग्राउंड को बताने का मकदस ये था कि पुरस्कार वापसी के पुरस्कार की बात हवा में ना होकर तर्कों और तथ्यों के आधार पर की गई थी । अशोक वाजपेयी जी ने बिहार विधानसभा चुनाव के पहले शुरु हुई असहिष्णुता के मुद्दे को हवा दी थी और लगभग उसकी अगुवाई भी की थी । उस दौर में जिन लेखकों, कलाकारों और पत्रकारों ने असहिष्णुता का मुद्दा उठाकर बिहार चुनाव के वक्त माहौल बनाया था उनको अब पुरस्कृत करने का उपक्रम शुरू हो चुका है । जब देश में बढ़ती असहिष्णुता के मुद्दे पर लेखक, अभिनेता, कलाकार आदि पुरस्कार वापस कर रहे थे तो उस दौर में अशोक वाजपेयी ती अगुवाई में तीन सदस्यों का एक दल राष्ट्रपति प्रणब मुख्रजी से मिला था । वाजपेयी के अलावा इस दल के सदस्य थे मशहूर चित्रकार विवान सुंदरम और पत्रकार ओम थानवी ।  इन तीनों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलकर असहिष्णुता के मुद्दे पर अपना पक्ष रखा था । बिहार चुनाव के नतीजों के बाद असहिष्णुता का मुद्दा नेपथ्य में चला गया, पुरस्कार वापसी की मुहिम ठंडी पड़ गई और लेखकों कलाकारों का विरोध भी लगभग खत्म हो गया। अब वक्त आ गया है परोक्ष रूप से पुरस्कार वापसी ब्रिगेड के सदस्यों को पुरस्कृत करने का ।
बिहार सरकार हर साल कई तरह के पुरस्कार देती है । जिसमें कुछ राष्ट्रीय स्तर के तो कुछ स्थानीय कलाकारों को दिए जाते हैं । इन पुरस्कारों में पेंटिंग के लिए राष्ट्रीय चाक्षुष कला पुरस्कार औक परफॉर्मिंग आर्ट के लिए राष्ट्रीय प्रदर्श कला पुरस्कार दिए जाते हैं । पुरस्कार वापसी से जुड़े राष्ट्रीय स्तर के लेखकों,कलाकारों को इन पुरस्कारों से नवाजा सकता है । अब ये कहना तो मुश्किल है कि पुरस्कार वापसी समूह के कलाकारों का नाम बिहार सरकार को कौन सुझा रहा है लेकिन ये संयोग नहीं हो सकता है कि एक एक करके उस समूह के कलाकारों को पुरस्कृत किया जा सकता है । जैसे उदाहरण के तौर पर विवान सुंदरम को बिहार सरकार ने चाक्षुष कला के लिए राष्ट्रीय सम्मान से पुरस्कृत किया है । विवान सुंदरम को दिया गया ये पुरस्कार राष्ट्रीय स्तर का है और उसमें एक लाख की पुरस्कार राशि के अलावा अंगवस्त्रम और स्मृति चिन्ह प्रदान किया गया है । वर्ष दो हजार पंद्रह सोलह के लिए विवान सुंदरम को और वर्ष सोलह सत्रह के लिए हिम्मत शाह को पुरस्कृत किया गया है । विवान सुंदरम इस पुरस्कार के योग्य है बल्कि मेरा तो मानना है कि उनका कद इस लखटकिया पुरस्कार से कहीं बड़ा है लेकिन सम्मान तो सम्मान होता है । विवान सुंदरम की प्रतिभा या उनके चयन पर सवाल नहीं खड़ाकिया जा सकता है लेकिन जिस तरह से पुरस्कार वापसी मुहिम से जुड़े लेखकों कलाकारों को बिहार सरकार उपकृत कर रही है उसपर तो प्रश्नचिन्ह लगता ही है ।

बिहार सरकार के इस पुरस्कार के लिए चय़न समिति पर गौर करने से स्थिति और साफ हो जाती है । पुरस्कार की चयन समिति में बिहार सरकार के कला और संस्कृति विभाग के सचिव, संस्कृति निदेशक, सहायक निदेशक के अलावा बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि आवोक धन्वा, बिहार ललित कला अकादमी के अध्यक्ष आनंदी प्रसाद बादल के अलावा चित्रकार अनिल बिहारी, नाटक के क्षेत्र से सुमन कुमार और लोकगाथा के करंट लाल नट थे । अब इस समिति के सदस्यों को देखने के बाद तो यही प्रतीत होता है कि इसमें सरकार की चली होगी । विवान सुंदरम और हिम्मत शाह की अशोक वाजपेयी से निकटता जग जाहिर है । और पुरस्कार वापसी की मुहिम के वक्त तो विवान सुंदरम फ्रंटफुट पर खेल रहे थे । उस वक्त के उनके बयानों को देखा जा सकता है । तो सवाल वही कि क्या पुरस्कार वापसी की मुहिम से जुड़नेवालों को नीतीश सरकार एक एक करके पुरस्कृत कर रही है । सवाल तो ये भी उठता है कि क्या पुरस्कार वापसी की मुहिम के पीछे कोई सोची समझी रणनीति थी । उस वक्त और उसके बाद तो यह बताने की कोशिश की गई कि पुरस्कार वापसी की मुहिम स्वत:स्फूर्त थी और एक एक करके लेखक, कलाकार, फिल्मकार उससे जुड़ते चले गए । लेकिन बाद में विश्लेषण और पुरस्कार वापसी के लिए पुरस्कार दिए जाने की खबरों से ये साफ हो गया कि उस वक्त एक सोची समझी रणनीति के तहत इस मुहिम को हवा दी गई थी ताकि केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को बदनाम किया जा सके और बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई वाले महागठबंधन को फायदा हो सके । हुआ भी वही । दरअसल हिंदी समाज के कई लेखक सत्ता से दूर नहीं रह सकते हैं । केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद इस तरह के ज्यादातर लेखकों की दुकानदारी बंद हो गई । उनके हाथ से सुविधा आदि तो छिन ही गया, पुरस्कार आदि बांटकर लेखकों को उपकृत करने का अवसर भी चला गया । केंद्र में अपनी दुकानदारी बंद होते देख कुछ लेखकों ने नीतीश कुमार का दामन थामा तो कुछ लेखक दिल्ली में केजरीवाल सरकार के साथ हो लिए । नीतीश कुमार से तो बकायदा कुछ लेखकों ने देशभर के रचनाकर्मियों से उनकी मुलाकातें और बैठक आदि करवाने का ठेका भी लिया है । केजरीवाल से भी कई लेखकों को उम्मीदें हैं लेकिन वहां मैत्रेयी पुष्पा के आ जाने से कइयों की दाल नहीं गल पा रही है और वो बेचैनी से कभी कुमार विश्वास का दामन थामना चाहते हैं तो कभी कुछ और योजना बनाने में जुट जाते हैं । सवाल वही कि क्या इस तरह के कृत्यों से लेखकों की समाज में इज्जत या तटस्थता बनी रह सकती है । लेखकों के बाने में राजनीति करनेवालों की पहचान उजागर की जानी चाहिए । जो शख्स ऐलानिया इस या उस पार्टी या दल के साथ रहता है वो जनता को छल नहीं सकता है लेकिन जो शख्स लेखक के वेष में रहकर राजनीति करता हो वो जनता को भ्रमित कर सकता है । जिस तरह से पुरस्कार वापसी की आड़ में राजनीति की बिसात बिछाई गई थी उसने साहित्य का बड़ा नुकसान किया और साहित्यकारों की साख पर बट्टा लगाया । और अब जब एक एक करके उनको पुरस्कृत किया जा रहा है तो बची खुची विश्वसनीयता भी खत्म होती दिखाई दे रही है । भारतीय समाज लेखकों से हर मुद्दे पर तटस्थता की उम्द करता है और अपेक्षा ये रहती है कि वो सही को सही और गलत को गलत कहने का सार्वजनिक साहस दिखा सकें । लेकिन इन दिनों जो हो रहा है उसपर नजर डालने से साफ होता है कि  हमारे समाज के लेखक तटस्थ नहीं रह गए हैं । लेखकीय तटस्थता को सबसे पहले खत्म किया कम्युनिस्टों ने जब उन्होंने अपनी विचारधारा के लेखकों को पार्टी का वर्कर और सिद्धांतों का प्रचारक बनाया । कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन होते गए और हमारे लेखक भी आज्ञाकारी कार्यकर्ता की तरह विभाजित होते चले गए । कम्युनिस्टों के विरोध में बने लेखकों के संगठन भी इस या उस पार्टी के ध्वजवाहक बनकर अपने को साबित करने में लगे रहे चाहे वो परिमल हो या कोई और संगठन । समाज के मुद्दों पर हमारे लेखक अपनी पार्टी का मुंह जोहने लगे और पार्टी के स्टैंड को ही लेखकीय स्टैंड की तरह पेश करने लगे । बताते हैं कि इमरजेंसी के समर्थन के प्रस्ताव के लिए भीष्म साहनी तैयार नहीं थे लेकिन अनुशासित पार्टी वर्कर होने की वजह से उनको प्रस्ताव पास करवाना पड़ा । इस समस्या के बारे में हिंदी समाज को विशेष रूप से विचार करना होगा । 

Wednesday, October 19, 2016

घोटालों की जड़ पर हो प्रहार

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई वाली बिहार सरकार ने शिक्षा माफिया पर नकेल कसना शुरू कर दिया है । एक ऐतिहासिक फैसले में बिहार विद्याल. परीक्षा समिति ने 68 स्कूलों की बारहवीं की मान्यता रद्द कर दी है । इसके अलावा 19 स्कूलों की मान्यता को भी निलंबित कर दिया गया है । बिहार में टॉपर घोटाले के बाद ये अबतक की सबसे बड़ी कार्रवाई मानी जा रही है । बिहार की सियासत को नजदीक से देखने वालों का मानना है कि नीतीश कुमार इस मामले में लालू यादव के दबाव में नहीं आते हुए कार्रवाई कर रहे हैं । दरअसल बिहार के टॉपर घोटाले के मास्चर माइंड और बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद के साथी बच्चा राय को लालू यादव का करीबी माना जाता है । पहले शहाबुद्दीन के मामले में सुप्रीम कोर्ट जाकर नीतीश ने साफ कर दिया कि वो किसी के दबाव में नहींआनेवाले हैं और अब इस कार्रवाई से भी कुछ इसी तरह के संकेत निकल रहे हैं । मान्यता रद्द करने की इस कार्रवाई के बाद बच्चा राय पर शिकंजा और कसेगा । पिछले साल टॉपर घोटाले के सामने आने के बाद ताबड़तोड़ छापेमारी समेत कई कार्रवाइयां की गई थीं और ये संदेश देने की कोशिश की गई कि शिक्षा में घपला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा । कई गिरफ्तारियां भी हुईं थी । प्रशासनिक मामलों में कार्रवाई होना और कार्रवाई होते दिखना दोनों आवश्यक है । दरअसल पिछले साल बिहार में बोर्ड की परीक्षा के वक्त एक तस्वीर छपी थी जिसमें स्कूल की हर खिड़की पर एक शख्स खड़ा होकर नकल करवा रहा था । ये फोटो और इस घटना का वीडियो सोशल साइट्स पर वायरल हुआ । देश विदेश के अखबारों में इस तस्वीर के हवाले से लेख लिए गए, न्यूज चैनलों पर प्रोग्राम बने । इस तस्वीर की स्मृति धुंधली हो ही रही थी कि बिहार में टॉपर घोटाला हो गया ।
हाजीपुर की एक लड़की ने बोर्ड में टॉप किया वो पॉलिटिकल साइंस को प्रोडिकल साइंस कह रही थी । इसको भी गिरफ्तार आदि कर तमाम कार्रवाईयां की गईं । कहना ना होगा कि शिक्षा घोटाले पर बिहार सरकार सख्त है लेकिन सरकार को इस समस्या की जड़ में भी जाना होगा । इस तरह के घोटालों या फिर हर खिड़की पर नकल करानेवालों की तस्वीर सामने आने के पीछे बिहार की शिक्षा व्यवस्था में लगा घुन या फिर राज्य सरकार की उदासीनता है ।
बताया जा रहा है कि देशरत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने छपरा के जिस स्कूल से दसवीं पास की थी उस स्कूल की हालत ये है कि वहां नवीं- दसवीं के लिए एक भी शिक्षक नहीं हैं । चूंकि राजेन्द्र बाबू ने वहां पढ़ाई की थी लिहाजा उसकी ऐतिहासिकता को देखते हुए हाई स्कूल को इंटर कॉलेज बना दिया गया । स्कूल को अपग्रेड तो कर दिया गया लेकिन स्कूल की रीढ़ माने जानेवाले शिक्षक वहां नहीं है । अब जिस स्कूल में कोई शिक्षक नहीं हो और साल दर साल वहां परीक्षा हो तो फिर क्या हो सकता है इसकी कल्पना ही की जा सकती है । ये तो रहा हाईस्कूल का हाल, अब जरा उसी इंटर कॉलेज में शिक्षकों की स्थिति देख लीजिए जहां स्वीकृत पद से एक तिहाई शिक्षक नियुक्त हैं । छपरा के इस इंटर क़लेज के बारे में जिला के शिक्षा अधिकारियों को जानकारी है लेकिन फिर भी बगैर शिक्षक के स्कूल चल रहा है । ऐसा नहीं है कि ये स्थिति छपरा के एक स्कूल की है । बिहार में कई ऐसे कॉलेज भी हैं जहां विषय विशेष में कोई भी शिक्षक नहीं है लेकिन वहां हर साल एडमिशन हो रहा है और छात्र पास भी कर रहे हैं । मुंगेर के एक कॉलेजों में केमिस्ट्री, ज्योग्राफी और संस्कृत में कोई शिक्षक नहीं है लेकिन वहां हर साल इन विषयों में छात्रों का नामांकन हो रहा है । इसी तरह से इसी शहर के एक और कॉलेज में शिक्षकों की संख्या इतनी कम हो गई है कि कॉलेज के जरूरी काम भी संभव नहीं हो पा रहे हैं । पास के खड़गपुर के कॉलेज की भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं है । अब यह तो अजूबा है कि किसी कॉलेज में विषय का कोई शिक्षक नहीं हो और वहां से हर साल उसी विषय में छात्र पास कर रहे हों । यहीं से नकल और टॉपर घोटाले की जमीन तैयार होती है । छात्र मजबूर हैं, स्कूल और क़ॉलेज के शिक्षक इस नासूर को रोकने में बेबस । सवाल यही उठता है कि टॉपर घोटाले में छापेमारी करके मुजरिम तो पकड़े जा सकते हैं लेकिन साल दर साल इस तरह के घोटाले के लिए तैयार होनेवाली स्थिति के बारे मे बिहार सरकार कब सोचना शुरू करेगी ।
बिहार की शिक्षा व्यवस्था में कमजोरी की जड़ में बहुत हद तक शिक्षकों की कमी का होना है । प्रशासनिक लालफीताशाही में शिक्षकों की नियुक्ति का मामला उलझता रहा है और विभागीय मंत्रियों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया । प्राइमरी स्कूल से लेकर कॉलेज तक ये बीमारी व्याप्त है लेकिन इसके इलाज के लिए पिछले एक दशक में कुछ किया गया हो ये दिखाई नहीं देता । चंद सालों पहले जब ठेके पर प्राइमरी शिक्षक रखे गए थे तब उसमें भी गड़बड़झाला हुआ था । बाद में पटना हाईकोर्ट के आदेश के बाद तीन हजार कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों को बर्खास्त करने की प्रक्रिया शुरू की गई थी क्योंकि जब उनका टेस्ट लिया गया तो वो आधारभूत जानकारी भी नहीं बता पाए । दो हजार बारह में भी एक सौ इक्यावन प्राइमरी शिक्षकों को योग्य नहीं होने के चलते हटा दिया गया था । बिहार में महागठबंधन की सरकार में इस वक्त कांग्रेस कोटे से शिक्षा मंत्री हैं । पिछले दिनों उनका तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से डियरविवाद हुआ था । अशोक चौधरी से अपेक्षा की जाती है कि पहले वो बिहार के स्कूल और कॉलेजों में बुनियादी सुविधा मुहैया करवाएं फिर विवादों में उलझें । योग्य शिक्षकों की नियुक्ति करवाएं तभी ना तो खिड़की से लटके नकल करवानेवाले की तस्वीर सामने आएगी और ना ही टॉपर घोटाला होगा और ना ही बिहार की बदनामी होगी और बिहारियों का मजाक बनेगा ।


Tuesday, October 18, 2016

सितारों की संतान पर दांव

फिल्म इंडस्ट्री में इस वक्त काम करे सुपरस्टार्स अभिनेताओ की उम्र लगभग पचास के आसपास है । कोई पचास पार कर चुका है तो कोई पचास को छूने वाला है चाहे वो आमिर हों, शाहरुख हों, सलमान हों, सैफ हों । अब अगर ये लोग पचास से आसपास पहुंच रहे हैं तो इनके बच्चों के बालिग होने की उम्र आने लगी है । बालिग होते ही उनके बॉलीवुड में दस्तक देने की तैयारी की अटकलें भी तेज हो गई हैं । चाहे वो शाहरुख के बेटे आर्यन की बात हो या फिर सैफ की बेटी सारा या अमिताभ बच्चन की नातिन नव्या नवेली हों, सभी बॉलीवुड की दहलीज तक पहुंच चुके हैं । फिल्मकारों के सामने भी सितारों के बेटे-बेटियों के डेब्यू से हिट फिल्में देने का अवसर है क्योंकि ये अबतक मुनाफे का सौदा रहा है चाहे वो अभिषेक बच्चन और करीना को लेकर बनाई गई फिल्म रिफ्यूजी रही हो या राकेश रौशन के बेटे ऋतिक रौशन की रोमांटिक थ्रिलर कहो ना प्यार है हो या उसके थोडा पहले जाकर देखें तो फिर धर्मेन्द्र के बेटे सनी देवल और अमृता सिंह की बेताव या राजेन्द्र कुमार के बेटे कुमार गौरव की फिल्म लव स्टोरी । इन फिल्मों ने जमकर कमाई की थी । हलांकि बाद में इनमें से कई तो फिल्मों में चल भी नहीं पाए । ये अलहदा मसला है लेकिन सितारों के बेटे-बेटियों की पहली फिल्म अमूमन हिट ही रहती है ।  
जब करण जौहर की फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर आने वाली थी तो इस बात की जोरशोर से चर्चा उठी थी कि सुपर स्टार श्रीदेवी और बोनी कपूर की बेटी जाह्नवी उससे बॉलीवुड में डेब्यू करेगी । ऐसा हो ना सका लेकिन जाह्नवी ने सोशल साइट्स पर अपनी ग्लैमरस फोटोग्राफ्स डालना जारी रखा जिससे इस बात की चर्चा होती रही कि वो जल्द ही बॉलीवुड में कदम रखने जा रही है । इस बात को श्रीदेवी के एक बयान ने भी हवा दी जब उन्होंने कहा था कि सभी फिल्मा सितारों के बच्चे बॉलीवुड में आना चाहते हैं और इसमें गलत क्या है । श्रीदेवी की बेटी जाहन्वी अमेरिका के एक इंस्टीट्यूट में फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीख रही है और उसी संस्थान में शाहरुख खान के बेटे आर्यन भी अभिनय सीख रहे हैं । अभी कुछ दिनों पहले जाह्नवी और उनके दोस्त शिखर पहाड़िया की किस करते फोटो वायरल हुई थी । उस वक्त भी जाह्नवी के फिलमों में आने की चर्चा हुई थी और बॉलीवुड के गलियारों में सुना गया था कि वो तेलुगू सुपरस्टार रमेश बाबू के साथ उनकी ही फिल्म में काम करनेवाली है लेकिन बॉलीवुड से जुडे लोगों का कहना है कि बोनी कपूर और श्रीदेवी दोनों चाहते हैं कि जाह्नवी हिंदी फिल्मों से अपने करियर की शुरुआत करे । दरअसल फिल्मी सितारों के बच्चों को लेकर दर्शकों के मन में एक उत्सुकता रहती है जिसको लेकर फिल्म के पक्ष में माहौल बनाने में सहूलियत होती है । बॉलीवुड में सितारों के संतानों की फिल्म को लेकर एक लंबा इतिहास रहा है । कपूर खानदान में तो करिश्मा के पहले लड़कियां फिल्मों में नहींआती थीं लेकिन जब करिश्मा ने उस परंपरा को तोडा तो फिर करीना भी आईं और बॉलीवुड पर छा गईं । इस वक्त कई फिल्मी सितारों के बेटों बेटियों के हिंदी फिल्मों में काम करने को लेकर जोरदार चर्चा है । मेगा स्टार अमिताभ बच्चन की बेटी श्वेता की बेटी नव्या नवेली के फिल्मों में आने शाहरुख खान के बेटे आर्यन के अपोजिट काम करने को लेकर कयासबाजी जारी है । कहा तो यहां तक जा रहा है कि करण जौहर इन दोनों को लेकर फिल्म बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं जिसको शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन के साथ साथ नव्या नवेली की मां श्वेता बच्चन की रजामंदी भी है । दरअसल इन चर्चाओं को बल तभी से मिला जब से नव्या और आर्यन की फोटोज सोशल मीजिया पर शेयर होने लगी । दोनों अमेरिका के एक ही संस्थान में पढ़ते हैं ।अफवाहें तो दोनों के अफेयर की खूब चली थी और उनकी तस्वीरों ने इस तरह की गॉसिप को हवा दी थी । नव्या नवेली की अबतक जो पर्सनैलिटी है उसको देखकर इतना तो तय माना जा रहा है कि वो फिल्मों में आएंगी और किसी बड़े बैनर के साथ ही बॉलीवुड डेब्यू होगा । नव्या नवेली की तरह की अभिनेत्री पूजा बेदी की बेटी आलिया इब्राहिम भी सोशल मीडिया पर विवादों की मलिका बनकर उभरी हैं । अभी एक महिलाओं की पत्रिका के कवर पर उसी बेहद सेक्सी और हॉट तस्वीर ने हलचल मचा दी है । आलिया इब्राहिम अपनी मां पूजा बेदी की तरह ही बिंदास और बोल्ड नजर आती हैं । बॉलीवुड में आलिया इब्राहम के लटके झटकों के कई दीवाने हैं और वो आलिया को अपनी फिल्म में साइन करने की फिराक में हैं लेकिन अनुभवी मां पूजा बेदी अपनी बेटी के करियर को लेकर किसी तरह का कोई समझैता नहीं करना चाहती हैं । वो भी इस बात का इंतजार कर रही हैं कि आलिया इब्राहिम को बड़ा बैनर मिले जिससे बॉलीवुड इंडस्ट्री में उसकी धमाकेदार इंट्री हो सके ।  

एक और सुपर स्टार सैफ अली खान और अमृता सिंह की बेटी सारा खान की हॉलीवुड फिल्म फॉल्ट इन ऑवर स्टार्स के रीमेक से बॉलीवुड डेब्यू की खबरें थीं जिसमें वो शाहिद कपूर के भाई ईशान खट्टर के साथ काम करनेवाली थी लेकिन ताजा जानकारी के मुताबिक सारा ने ये फिल्म छोड़ दी है । इसके पहले उसके करन जौहर की फिल्म स्टूडेंट फ द ईयर के सीक्वल में टाइगर श्रॉफ के अपोजिट काम करनेवाली थी लेकिन अंतिम वक्त में उसने इरादा बदल दिया । जानकारों का कहना है सारा खान और उसकी मां और अपने जमाने की हिट अभिनेत्री अमृता सिंह चाहती हैं कि उनकी बेटी को बड़े बैनर और बड़े हीरो के अपोडिट ब्रेक मिले लिहाजा वो हां-ना, हां-ना में फंसी रहती हैं । 

Saturday, October 15, 2016

जंगल के बीच साहित्यक विमर्श

विजयादशमी का दिन, जिम कॉर्बेट का विशाल जंगली इलाका और साहित्य पर मंथन करने जुटे करीब डेढ सौ लेखक-पत्रकार-कवि और बुद्धिजीवी । यह एक ऐसा अवसर और मंच था जिसको मुहैया करवाया कुमांऊ लिटरेरी फेस्टिवल ने । दरअसल अक्तूबर के महीने से पूरे देश में इस तरह के साहित्यक महोत्सवों या लिटरेरी फेस्टिवल्स की शुरुआत हो जाती है जो मार्च तक चलता है । इन छह महीनों में देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग भाषाओं में और अलग अलग फॉर्मेट में साहित्यक महोत्सवों का आयोजन होता है । कुमांऊ लिटरेरी फेस्टिवल उस वक्त आयोजित हुआ जिस वक्त देश में राष्ट्रवाद और उसके तरीकों और प्रकारों को लेकर बहस चल रही है । लिहाजा कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल में राजनैतिक और अन्य बहसों में भी ये विषय सायास या अनायास आ ही जा रहा था । कुछ सत्र भी इस तरह के विषयों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे और वक्ताओं को चयन भी उसी हिसाब से था । लिटरेरी फेस्टिवल कि शुरुआत में ही मैगसेसे अवॉर्ड से हाल ही में नवाजे गए टी एम कृष्णा ने इस मुद्दे को बेहद संजीदगी से उठा दिया था । जब उन्होंने तमिल लेखक मुरुगन से लेकर कई अन्य उदाहरण देते हुए साझा करने की संस्कृति को मजबूत करने पर जोर दिया था और उसके क्षरण पर अपनी चिंता प्रकट की थी । मंच पर पवन वर्मा और तरुण विजय मौजूद थे लिहाजा राष्ट्रवाद पर कैसी बहस हो सकती थी इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है । पवन वर्मा ने अपनी पार्टी लाइन के हिसाब से बात की तो तरुण विजय ने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया । मंच पर मौजूद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ए के सीकरी ने अपने भाषण में संजीदगी से साहित्य लेखन पर प्रकाश डाला था । उन्होंने कहा कि जज जब फैसले लिखता है तो वो भी सृजनात्मक कार्य कर रहा होता है बस फर्क इतना होता है कि कविता, कहानी और उपन्यास की पहुंच काफी ज्यादा होती है जबकि जजों के फैसले प्रभावित लोग या फिर उस तरह के केस करनेवाले वकीलों के काम ही आता है । उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट के लेखक मुरुगन पर दिए फैसले को बेहतरीन बताया । साहित्य महोत्सव के उद्धाटन से इस बात के संकेत मिल गए थे कि बाकी बचे राजनीतिक विषयों के सत्र कैसे होंगे ।
महोत्सव के दूसरे दिन एक सत्र हुआ जिसका विषय था आपका राष्ट्रवाद बनाम हमारा राष्ट्रवाद । वक्ताओं में वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व सांसद शाहिद सिद्दिकि, हाल ही में अपनी किताब गुजरात फाइल्स की वजह से चर्चा में आई राणा अयूब, उद्योगपति और प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य सुनील अलघ और लेखक-पत्रकार हिंडोल सेनगुप्ता । सर्जिकल स्ट्राइक के बाद या उसके थोड़ा पहले से देश का जो माहौल है उसमें बदलते भारत की, उसकी नई पहचान की और नए आयाम की काफी चर्चा हो रही है । देशभक्त- देशद्रोह, मजबूत भारत, मजबूत नेतृत्व तमाम तरह के शब्दों की गूंज सुनाई देती है । जब भी नेशनिज्म की बात होती है तो सवाल यही कि किस तरह का राष्ट्रवाद होना चाहिए । आजादी के पहले गांधी ने भी राष्ट्रवाद को उभारा था । उन्होंने एक सभ्यता को राष्ट्र में बदला और देशभक्ति की भावना जगाकर उद्देश्य की एकता लाने की महिम चलाई । ये 1920 का दौर था । गांधी ने यूरोपीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया था । भाषा को राष्ट्रवाद से अलग किया गया । सभी भाषा और क्षेत्र के नेताओं को राष्ट्रवाद को प्रचारित करने का जिम्मा दिया गया था ।  वन लैंग्वेज वन नेशन को गांधी ने निगेटकिया था ।  अगर उक्त सिद्धांत को माना गया होता तो आजादी के बाद भारत में कई छोटे-बड़े राष्ट्र होते । नेशनलिज्म पर यह सत्र बेहद गर्मागर्मी वाला रहा । सुनील अलघ ने नेशनलिज्म और पैट्रियॉटिज्म को शब्दकोश के हवाले से अलग बताते हुए उस अवधारणा पर अपनी बात रखी । इस सत्र में हिंडोल सेनगुप्ता और राणा अयूब के बीच तीखी बहस हुई । राणा अयूब ने जैसे ही सर्जिकल स्ट्राइक से फायदा उठाने की बात की तो लेखक हिंडोल सेनगुप्ता ने उसका तीखा प्रतिवाद किया । पाकिस्तानी कलाकारों के मुद्दे पर हिंडोल का तर्क था कि जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद अपने चरम पर था तब वहां के क्रिकेटरों के खेलने पर पाबंदी थी और ओलंपिक में अफ्रीकी खिलाड़ी शामिल नहीं हो पाते थे । हिंडोल सेनगुप्ता का कहना था कि पाकिस्तान के कलाकारों की पाबंदी को अतीत के आलोक में देखा जाना चाहिए । इस बहस में इतनी गर्मागर्मी हो गई कि श्रोताओं को कहना पड़ा कि टीवी डिबेट जैसी बहस ना करें जिसमें कुछ सुनाई नहीं देता है । शाहिद सिद्दिकी के तर्क थे कि ना तो इस्लाम में दिक्कत है और ना ही हिंदुत्व में बल्कि दिक्कत तो अतिवाद में है। उनका कहना था कि जब भी नेशनलिज्म में अतिवाद हो जाता है तो दिक्कत शुरू हो जाती है । श्रोताओं के बीच बैठे कांग्रेस के सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने अभिव्यक्ति की सीमा का सवाल उठाया जिसका जवाब संचालक ने दिया कि सीमा तो वही है जो जवाहरलाल नेहरू ने पहले संविधान संशोधन के वक्त तय कर दी थी ।
इसी तरह का एक सत्र भारत की नई राजनीति को लेकर भी हुआ । जिसमें अभय कुमार दूबे, तरुण विजय और पाणिनी आनंद ने हिस्सा लिया । इस सत्र में बहस ब्रैंड मोदी पर रहा जिसको लेकर तरुण विजय और पाणिनी के बीच तीखी नोंक झोंक हुई । इस सत्र में नफरत की विचारधारा और अघोषित आपातकाल जैसे जुमले सुनने को मिले । अभय दूबे ने कहा कि देश अबतक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है और कई सिस्टम पिछले पचास साल में सड़ गए हैं जिसको बदले बिना नई राजनीति की कल्पना बेमानी है । महिलाओं से जुड़े मुद्दे और उनको संसद में आरक्षण के सवाल पर प्रियंका चतुर्वेदी, नूपुर शर्मा, तुहीन सिन्हा ने अपनी बातें रखीं । पर ऐसा नहीं था कि सभी सत्र राजनीतिक विषयों पर ही थे । साहित्य और फिल्मों पर भी बेहद गंभीरता से विमर्श हुआ । दरअसल इस लिटरेरी फेस्टिवल की विशेषता ये रही कि यहां लेखकों के बीच ही संवाद हुआ और पाठकों और श्रोताओं की भागीदारी लगभग नहीं के बराबर थी, लिहाजा आपाधापी कम थी ।
एक दिलचस्प बातचीत स्टारडम को लेकर हुई जिसमें राजेश खन्ना के बॉयोग्राफर गौतम चिंतामणि और यासिर उस्मान के अलावा असीम छाबड़ा ने हिस्सा लिया । इसमे वक्ताओं ने स्टारडम के वैश्विक फेनोमिना पर विस्तार से बात की । इस सत्र के दौरान ये सवाल भी उठा कि क्या बॉलीवुड में सिर्फ अभिनेता ही स्टार हो सकते हैं । क्या किसी अभिनेत्री में स्टारडम की क्षमता नहीं है । कमोबेश इसपर सभी विशेषज्ञों की राय नकारात्मक थी लेकिन भारतीय सिनेमा के उस दौर को वो भूल गए जब संगीतकार नौशाद किसी भी कलाकार से ज्यादा पैसा लेते थे और उनका नाम पोस्टर पर प्रमुखता से छपता था । बल्कि ये भी माना जाता था कि नौशाद ने अगर संगीत दे दिया है तो फिल्म के हिट होने की गारंटी है । इसका फिल्म समीक्षक मयंक शेखर ने मॉडरेट किया । एक और दिसचस्प सत्र रहा जिसमें राखी बक्षी ने लेखक गुरुचरण दास से उनकी किताब डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड के आधार पर महाभारत के चरित्रों के पुनर्पाठ को लेकर बातचीत की । महाभारत पर लिखी अपनी इस किताब में गुरुचरण दास ने पात्रों की चरित्रगत विशेषताओ को ध्यान में रखकर उनके पुनर्पाठ की कोशिश की है । इस किताब में दास ने अन्यान्य जगहों पर देसी-विदेशी लेखकों को उद्धृत किया है लेकिन उन्होंने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को भुला दिया है । अब ऐसा अज्ञानतावश किया गया या जानबूझकर ये कहना मुश्किल है । इन विषयों के अलावा हिन्दुस्तानी कविता पर भी संजीदगी से बात हुई जिसमें रक्षंदा जलील ने विद्वतापूर्ण तरीके अपनी बात रखी । अंग्रेजी के लेखक अमीष त्रिपाठी की लगभग हर फेस्टिवल में एक स्थायी मौजूदगी होने लगी है । जैसे कुछ दिनों पहले तक गुलजार ऐसे आयोजनों में स्थायी रूप से मौजूद रहा करते थे हलांकि दोनों की मौजूदगी की वजहें अलहदा हैं । इस फेस्टिवल में आकर्षण के एक और केंद्र रहे पंद्रह साल के उपन्यास लेखक विश्वेष देसाई जिनको राणा कपूर अवार्ड से नवाजा गया ।

तीन दिनों तक कॉर्बेट के जंगल में साहित्य, संस्कृति, राजनीति, सिनेमा पर मंथन के बाद दो दिनों तक धानाचुली में फिल्मों पर चर्चा हुई । दरअसल इस आयोजन के सर्वेसर्वा सुमंत बत्रा फिल्मों से जुड़ी चीजों को इकट्ठा करते रहे हैं और उन्होंने धानाचुली में एक बेहतर कलेक्शन जमाकर संग्रहालय बनाने की कोशिश की है । अब अंत में हम ये पूछ सकते हैं कि इस लिटरेरी फेस्टिवल का हासिल क्या रहा क्योंकि यहां वृहत्तर पाठक वर्ग से जुड़ने की कोशिश तो है नहीं । आयोजकों का कहना है कि वो इस साहित्यक उत्सव को गंभीर विमर्श का स्वरूप देना चाहते हैं ताकि किसी विषय विशेष पर बगैर किसी शोरगुल, विवाद और हल्ला गुल्ला के विद्वान आपस में बैठकर मंथन कर सकें ।   

गीतकार को नोबेल पर विवाद

पूरी दुनिया के साहित्यप्रेमियों की नजर नोबेल पुरस्कार पर लगी होती है । इस बार जब नोबेल एकेडमी ने सबको चौंकाते हुए अमेरिका के बेहद लोकप्रिय और वरिष्ठ गीतकार बॉव डिलान को पुरस्कार देने का एलान किया तो इस पुरस्कार को लेकर पूरी दुनिया के लेखकों के बीच एक नई बहस छिड़ गई । कई लेखकों का मानना है कि लोकगायक, हारमोनियम और पियानोवादक को पुरस्कार देकर नोबेल एकेडमी ने लीक से हटकर काम किया है और उनमें से कई लेखको ने तो सवाल खड़े किए हैं कि लोकप्रिय गायक और गीतकार होने से काव्य परंपरा का हिस्सा कैसे बन सकते हैं । ट्रेनस्पॉटिंग जैसे उपन्यास के मशहूर लेखक इरविन वेल्स ने नोबेल पुरस्कार के बाद ट्वीट किया- मैं बॉब डिलान का प्रशंसक हूं लेकिन ये हिप्पियों के सड़े हुए विचार से बिना सोचे समझे दिया गया पुरस्कार है । अमेरिकी उपन्यासकार जोडी पिकॉल्ट ने भी बॉब डिलान को नोबेल दिए जाने पर तंज कसते हुए टिप्पणी की- मैं बॉब डिलान के लिए खुश हूं । लेकिन साथ ही उन्होंने हैशटैग के साथ लिखा- क्या इसका मतलब ये है कि मैं भी ग्रैमी अवॉर्ड जीत सकती हूं । उन्नीस सौ तिरानवे में साहित्य के लिए अमेरिकी लेखक मॉरिसन के बाद बॉब डिलान को पुरस्कार मिला है लेकिन अमेरिका के अखबारों और बेवसाइट्स पर भी इसको लेकर गंभीर बहस छिड़ी हुई है । न्यूयॉर्क टाइम्स ने तो फिर से साहित्य को परिभाषित करने की जरूरत बताने वाला एक लेख प्रकाशित किया है ।
हलांकि ऐसा लगता है कि नोबेले एकेडमी को पुरस्कार पर विवाद की आशंका थी लिहाजा उन्होंने पुरस्कार के एलान के वक्त साफ किया था कि- बॉव डिलान को महान अमेरिकी गीत परंपरा के अंदर नई काव्यात्मक अभिव्यक्ति रचने के लिए ये पुरस्कार दिया जा रहा है । दरअसल लगातार दूसरे साल नोबेल एकेडमी ने परंपरा से हटकर पुरस्कार दिए हैं । पिछले साल भी डॉक्यूमेंट्री के लिए बेलारूस की लेखिका स्वेतलाना एलेत्सीविच को नोबेल से सम्मानित किया गया है । दरअसल अगर हम देखें तो यह स्पष्ट नजर आता है कि नोबेल पुरस्कार के निर्णायक परंपरागत साहित्य की चौहद्दी को बढ़ाना चाहते हैं । और जब भी परंपरा से हटकर या उससे अलग जाने की कोशिश करते हैं तो आप चाहे अनचाहे विवादों में घिर जाते हैं या आलोचना के शिकार हो जाते हैं ।
बॉव डिलान को साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार दिए जाने को लेकर भले ही विवाद उठा हो लेकिन डिलान को पहले भी साहित्य में मान्यता मिल चुकी है । ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ अमेरिकन पोएट्री ने उनके गीतों को शामिल किया था । उसके बाद तो कैंब्रिज युनिवर्सिटी ने भी उनके गीतों का संग्रह प्रकाशित किया था । बॉव डिलान उन्नीस सौ साठ से गीत लिखने और गायकी के क्षेत्र में सक्रिय हैं और दुनियाभर में उनके प्रशंसकों की संख्या काफी ज्यादा है । नोबेल एकेडमी के सचिव सारा डेनियस ने कहा है कि बॉव डिलान के गीत युगांतकारी हैं । उनके ब्लोन इन द विंड, मॉस्टर्स ऑफ वॉर जैसे गीतों में विद्रोह, असंतोष और आजादी की तड़प को रेखांकित किया जा सकता है । गीतकार को नोबेल पुरस्कार देकर एकेडमी ने दुनियाभर की साहित्यक संस्थाओं को एक संदेश तो दे ही दिया है कि गीत लिखने वाले भी काव्य परंपरा के ही अंग हैं और उनको भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए । हमारे देश में भी साहित्य अकादमी को पुरस्कार देते वक्त विधाओं का दायरा बढ़ाना होगा और यह विचार भी करना होगा कि जिस तरह की कविताओं को पुरस्कृत किया जा रहा है उससे आगे जाने का रास्ता क्या है । कविता की ठस होती जमीन का दायरा बढ़ाने के लिए यहां भी आवश्यक है कि गीतकारों या फिल्मों में गीत लिखनेवालों पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के चयन के वक्त ध्यान दिया जाना चाहिए ।    



Thursday, October 13, 2016

अनकही से ज्यादा सुनी कहानी

भारत के सबसे सफल क्रिकेट कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी पर बनी फिल्म एमएसडी एक अनकही कहानी ने शुरुआती दिनों में अच्छा बिजनेस किया है । अगर आप धोनी और क्रिकेट के फैन हैं तो आपको ये फिल्म अच्छी लग सकती है । इस फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक धोनी को ग्लोरीफाई किया गया है । किसी भी शख्स पर बॉयोपिक बनती है तो ये माना जाता है कि फिल्मकार बेहतर रिसर्च के साथ प्रस्तुत होंगे । धोनी पर बनी फिल्म की टाइटल का ही दावा है कि उसमें धोनी के बारे में कई अनकही कहानियां होंगी । पूरी फिल्म को देखने के बाद ये लगता है कि इसमें नीरज पांडे इसमें नया कुछ भी पेश नहीं कर पाए हैं । इंटरनेट से लेकर धोनी पर लिखी गई अबतक की किताबों में मौजूद तथ्यों को इकट्ठा कर उसका कोलाज बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया है । नीरज पांडे ने धोनी की शुरुआती जिंदगी का फिल्मांकन बहुत ही शानदार तरीके से किया है । झारखंड के शहर रांची की जिंदगी और फिर धोनी का खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर टिकट कलेक्टर की नौकरी के सीन को फिल्माते वक्त बारीकी से सिचुएशन का ध्यान रखा गया है । लेकिन फिल्मकार इस फिल्म में कई बारीकियों का ध्यान रखने में असफल रहे हैं । फिल्म में धोनी की बहन जयंती तो उसके साथ शुरू से रही है और हर कदम पर उसके सपख दुख की साथी भी रही है । मदद भी करती रही है लेकिन इस फिल्म से उनके भाई नरेन्द्र सिंह धोनी बिल्कुल ही गायब हैं । जबकि वो शुरुआती दिनों में परिवार के साथ ही रहे । दो हजार सात में उन्होंने शादी की और दो हजार नौ में वो बीजेपी में शामिल हो गए । इस वक्त धोनी के भाई नरेन्द्र सिंह धोनी समाजवादी पार्टी के नेता हैं और रांची में ही धोनी से अलग रहते हैं । फिल्म में उनका ना होना दर्शकों को अखरता है । क्योंकि धोनी की शुरुआती सफलताओं के बीच उनके भाई भाई मीडिया में अपने छोटे भाई की उपलब्धियों पर गर्व करते हुए दिखा करते थे । बाद में किन्ही पारिवारिक वजहों से वो अलग रहने चले गए लेकिन फिल्मकार को पारिवारिक मसलों से क्या लेना देना लेकिन माही पर बनी फिल्म से नरेन्द्र गायब । दरअसल इससे ही पता चलता है कि धोनी पर बनी इस फिल्म में धोनी की पसंद और नापसंद का पूरा ख्याल रखा गया है । इसका एक और उदाहरण है जब फिल्मकार धोनी के कप्तान बनने के बाद के विवादित फैसलों से बचकर निकल जाते हैं । धोनी के सौरव गांगुली के साथ चले लंबे विवाद पर फिल्म लगभग खामोश है, खामोश तो वो सहवाग और गौतम गंभीर के साथ उनके झगडे पर भी है । धोनी और युवराज सिंह में भी लंबे समय तक चली प्रतिद्विंता का भी जिक्र नहीं होना फिल्म को कमजोर बनाती है । धोनी के फैसलों को लेकर टीम में और क्रिकेट बोर्ड में जिस तरह से घमासान मचा करता था उसकी बस एक झलक दिखती है वो वैसी ही है जब धोनी होटल के अपने कमरे में बैठकर न्यूज चैनल देख रहे होते हैं और उनके और सहवाग के बीच दरार की खबरें आती हैं । धोनी की पर्सनैलिटी को ग्लोरीफाई करने के चक्कर में तीन घंटे से ज्यादा लंबी ये फिल्म धोनी की जिंदगी के विवादित पर दिलचस्प पहलुओं को छोड़ देती है । बॉयोपिक होने का दावा करनेवाली फिल्म में इन प्रसंगों का नहीं होना फिल्मकार की चूक की ओर इशारा करती है । संतोष, परम और चिंटू की भूमिका में कलाकारों ने बेहतर अभिनय किया है । छोटे शहरों में दोस्त कितना कर सकते हैं इसकी बानगी भी देखने को मिलती है । 
इंटरवल के पहले इस फिल्म को नीरज पांडे ने बेहद मजबूती से बुना है और दर्शकों को बांधकर रखने में कामयाब होते हैं लेकिन इंटरवल के बाद धोनी के रोमांस आदि को दिखाने में पांडे को सफलता नहीं मिल पाई है और कहानी ढीली होती चली गई है । धोनी के कैरेक्टर में बिहार-झारखंड के छोटे कस्बे के लड़के के प्यार करने का स्टाइल दिखाने की कोशिश की गई है लेकिन वो दर्शकों के मन पर कोई छाप नहीं छोड़ पाती है । प्रियंका झा के साथ धोनी का अफेयर और फिर उसकी एक्सीडेंट में मौत के बाद साक्षी से ताज बंगाल होटल में मिलने की कहानी में कई झोल हैं । धोनी के बारे में उपलब्ध जानकारी और उनसे जुड़े लोगों का दावा है कि धोनी और प्रियंका की पहली मुलाकात कोची से विशाखापत्तनम जाते वक्त हवाई जहाज में ना होकर उससे काफी पहले यानि धोनी के टीम इंडिया में शामिल होने के पहले हो चुकी थी और फिल्म में जब मुलाकात होना दिखाया गया है तबतक प्रियंका की कार हादसे में मौत हो चुकी थी । इसी तरह से फिल्म में साक्षी औपर धोनी की पहली मुलाकात को लेकर भी फिल्म कुछ छोड़ देती है । साक्षी के पिता भी पहले रांची में रहते थे और दोनों परिवार एक दूसरे से परिचित था लेकिन फिल्म साक्षी और धोनी की नाटकीय मुलाकात करवाई गई है । अब मसाला तो डालना ही होगा । युवराज सिंह से जुड़ा एक छोटा लेकिन बेहद प्रभाववशाली सीन इस फिल्म में है ।

फिल्म रिलीज होने के बाद के पांच दिनों के आंकड़ों पर नजर डालें तो ये फिल्म लगभग चौरासी करोड़ का बिजनेस कर चुकी है ।सवाल यही है कि फिल्म में इतना झोल होने के बावजूद अच्छा बिजनेस कैसे कर रही है । इसका एक पक्ष तो ये है कि फिल्म में मिडिल क्लास के सपनों और उसकी आकांक्षाओं को पूरा होते दिखाया गया है । मिजिल क्लास धोनी के इस संघर्ष से खुद को आईडेंटिफाई करता है । दर्शकों को ये भी पसंद आ रहा है कि कैसे खेल से इतनी शोहरत और इतनी दौलत कमाई जा सकती है । मिडिल क्लास के इस सपने को भुनाने की कला में ये फिल्म सफल रही है लेकिन अगर एक बॉयोपिक के तौर पर देखें तो ये भाग मिल्खा भाग या पान सिंह तोमर के आसपास भी नहीं टिकती है । 

Saturday, October 8, 2016

साहित्यक उत्सवों की सार्थकता ?

त्योहार का मौसम आते ही साहित्य में भी उत्सवों के आयोजन की शुरुआत हो जाती है । पिछले कई सालों से देशभर में कई साहित्य उत्सवों के आयोजन शुरी हुए हैं । अलग अलग क्षेत्रों और अलग अलग भाषाओं में सालाना साहित्य उत्सवों को लेकर साहित्य प्रेमियों के बीच एक उत्सुकता का वातावरण बना है । इस बात को लेकर साहित्यकारों के बीच मतैक्य नहीं है कि इस तरह के उत्सव साहित्य के लिए कितने लाभकारी हैं या देशभर में साहित्यक वातावरण बनाने में कितने मददगार होते हैं । कई लोगों का मानना है कि इन साहित्य उत्सवों की आड़ में कारोबार होता है तो कई लोग इस बात की वकालत करते नजर आते हैं कि इन साहित्यक उत्सवों से विमर्श के नए आयाम खुलते और उद्धघाटित होते हैं । देशभर में साहित्यक उत्सवों की संस्कृति के विकास में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की अहम और महती भूमिका रही है । नमिता गोखले, विलियम डेलरिंपल और संजोय की टीम को इस बात का श्रेय जाता है कि साहित्य को सेमिनार कक्षों से निकालकर उन्होंने जनता के बीच पहुंचाया । हलांकि अब उनके आयोजनों में कई तरह की चीजों ने प्रवेश कर लिया है । एक साहित्योत्सव है जो इन सबसे थोड़ा अलग हटकर साहित्य, कला और सिनेमा को शहरों से निकालकर गांवों की ओर ले जा रहा है और ये साहित्य महोत्सव है कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल । इस लिटरेचर फेस्टिवल की खासियत ये है कि ये एक जगह पर आयोजित नहीं होता है । इस बार भी कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल धानचुली और जिम कार्बेट दो जगहों पर आयोजित है । पांच दिनों तक चलनेवाले इस कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में इस बार देशभर के कई भाषाओं के करीब एक सौ पैंतीस लेखक शामिल हो रहे हैं । कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल का ये दूसरा संस्करण है और अपनी स्थापना के एक साल के अंदर ही इस लिटरेचर फेस्टिवल ने अपनी गंभीरता और गांव में साहित्योत्सव की वजह से अपनी एक अलग पहचान बनाई है ।
देशभर में पाकिस्तानी कलाकारों के विरोध को देखते हुए इस बार कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने पाकिस्तानी लेखकों से किनारा कर लिया है । फेस्टिवल की घोषणा के बाद कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने बताया था कि पाकिस्तान से भी कई लेखक इसका हिस्सा होंगे । उड़ी में पाकिस्तानी आतंकवादियों के सेना पर हमले के बाद से देश में बने माहौल के बाद आयोजकों ने बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला लिया । पाकिस्तानी लेखकों से किनारा करने के आयोजकों के फैसले से एक बात और साफ होती है कि उनकी विवादों में नहीं बल्कि गंभीर विमर्श में रुचि है । पाकिस्तान के कुछ लेखकों को तो भारत सरकार ने वीजा दे दिया था और अगर आयोजक चाहते तो उनको बुलाकर हंगामा खड़ा कर देते लेकिन इस फेस्टिवल के संस्थापक सुमंत बत्रा ने साफ किया कि हंगामा खड़ाकर प्रचार पाना उनका मकसद नहीं है । पेशे से वकील सुमंत बत्रा कई सालों से साहित्य और सिनेमा के लिए काम कर रहे हैं । इस बार कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल के वक्ताओं की सूची पर नजर डालने से साफ लगता है कि विमर्श का रेंज काफी व्यापक है । एक तरफ कवि हैं तो दूसरी तरफ नेताओं के नाम हैं । सूची में उन नेताओं को चुना या रखा गया है जिनका सरोकार कहीं ना कहीं लेखन से है । हिंदी साहित्य के अलावा फिल्मों पर भी गंभीर चर्चा के संकेत मिल रहे हैं । दरअसल सुमंत बत्रा खुद ही फिल्मों से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं । उनके पास फिल्मों के अतीत से जुड़ा काफी सामान है जिसको वो संग्रहित करते रहे हैं और अब उन्होंने उसको एक जगह व्यवस्थित कर दिया है । वक्ताओं की सूची पर नजर डालने से एक बात और साफ होती है कि यहां तात्कालिकता के अलावा ऐतिहासिकता पर भी ध्यान रखा गया है । वक्ताओं में अगर विनय सीतापति हैं तो सत्या सरण भी हैं । विनय की पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहाराव पर लिखी गई किताब हाफ लॉयन इन दिनों चर्चा में है । लता मंगेशकर पर गंभीरता के साथ लता सुरगाथा के लेखक यतीन्द्र मिश्र के किताब भी इन दिनों संगीत प्रेमी पाठकों के बीच चर्चा में है । यतीन्द्र के अनुभवों को सुनना मजेदार होगा कि कैसे छह सात सालों तक वो लता से बात करते थे और उसको रिकॉर्ड करके उन्होंने किताब की शक्ल दी ।
गंभीरता के अलावा लोकप्रियता को भी इस फेस्टिवल में खासी जगह और तवज्जो दी गई है । अंग्रेजी के लेखक अमीष त्रिपाठी की लगभग हर फेस्टिवल में एक स्थायी मौजूदगी होने लगी है । जैसे कुछ दिनों पहले तक गुलजार ऐसे आयोजनों में स्थायी रूप से मौजूद रहा करते थे हलांकि दोनों की मौजूदगी की वजहें अलहदा हैं । अमीष के अलावा कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में इस बार जासूसी उपन्यासों के पितामह सुरेन्द्र मोहन पाठक भी होंगे । सुनना तो दिलचस्प होगा अंडरवर्ल्ड डॉन पर किताब लिखनेवाले विवेक अग्रवाल को भी ।
अब सवाल ये उठता है कि इस तरह के आयोजनों की सार्थकता क्या है । क्या इससे देश में साहित्यक संस्कृति का निर्माण होने में मदद मिलेगी । क्या इस तरह के आयोजनों में होनेवाले विमर्शों की गूंज लंबे समय तक विधा विशेष में सुनाई देगी या फिर ये साहित्य और संस्कृति का मीना बाजार बनकर रह जाएंगे ?  इन सवालों के जवाब ढूंढने पर कई तरह के उत्तर सामने आते हैं । इस तरह के आयोजनों की सार्थकता तभी तक है जबतक कि इसमें विमर्श का एक स्तर हो और वक्ता कुछ नई बात रख सकें वर्ना आमतौर पर तो होता ये है कि पुरानी घिसी-पिटी बातों पर ही बहस आदि होकर आयोजन खत्म हो जाता है । इस तरह के आयोजनों से देश में साहित्यक संस्कृति के विकास में तो अवश्य मदद मिलती है लेकिन उस साहित्यक परंपरा को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है या नहीं जो भारत में पहले से मौजूद है, इस बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि इस तरह के आयोजनों की उम्र अभी बहुत कम है । इस तरह के आयोजनों की एक बड़ी सार्थकता तो ये है कि ये भाषाओं के बीच सेतु का काम करते हैं । अलग अलग भाषा के लेखक एक मंच पर होकर अपनी भाषा में हो रहे नए प्रयोगों या प्रवृत्तियों पर अपनी बात रखते हैं जिससे कि आवाजाही में सहूलियत होती है । लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इस तरह के कुछ साहित्यक मेले या उत्सव मीना बाजार जैसे हो गए हैं जहां साहित्य, कला और संस्कृति तो नेपथ्य में होता है  और उसके अलावा सारी चीजें सामने होती हैं ।  


पहचान के संकट से जूझता कला केंद्र

दिल्ली में इस बात को लेकर अर्से से शोर मच रहा है कि यहां साहित्य और कला प्रेमियों के लिए कोई बैठने की जगह नहीं है । कनॉट प्लेस में कॉफी शॉप बंद होने के बाद से इस तरह की मांग उठती रही है कि विमर्श का एक अड्डा होना चाहिए जहां बैठकर साहित्यकार और कलाकार बहस कर सकें । दिल्ली में पुस्तकालयों को लेकर भी खासी चर्चा होती रही है ।जब भी इस तरह की चर्चा होती है तो नेहरू ममोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी के अलावा हरदयाल लाइब्रेरी और दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का नाम आता है । इन चर्चाओं के बीच दिल्ली के दिल में स्थित एक कैंपस में एक और लाइब्रेरी है जिसका ना तो कभी जिक्र होता है और ना ही इसके बारे में किसी तरह का प्रचार होता आया है । ये पुस्तकालय है जनपथ स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का । इस पुस्तकालय में ढाई लाख किताबें हैं जो कि साहित्य, कला , संस्कृति समेत विभिन्न विषयों पर हैं । इस बड़ी लाइब्रेरी के बारे में दिल्ली के साहित्यप्रेमियों को जरा कम ही पता है । सालभर का शुल्क भी महज पांच सौ रुपए है । इसके अलावा इस पुस्तकालय में नियमित रूप से लेखकों का रचना पाठ भी होता है । होता सबकुछ है यहां लेकिन वो साहित्य प्रेमियों तक ना पहुंचकर एक खास वर्ग के लोगों को ही इसकी जानकारी दी जाती है या उनको मिल पाती है । रचना पाठ के बारे में कभी किसी अखबार में कुछ छपा हो, याद नहीं पड़ता। इतनी समृद्ध लाइब्रेरी के बारे में कभी किसी अखबार ने फीचर किया होगा, स्मरण नहीं आता ।  दरअसल दिल्ली के दिल में छब्बीस एकड़ भूमि पर बने इस राष्ट्रीय कला केंद्र के पास इतना बड़ा खजाना मौजूद है जो कि दिल्ली के साहित्य कला प्रेमियों को समृद्ध कर सकता है लेकिन अबतक इस खजाने के बारे में कोई जानकारी ही नहीं दी जा रही थी । इस केंद्र को एक खास किस्म के अभिजात्य से जोड़कर रखा गया था ताकि यहां आम पाठकों का प्रवेश ही संभव ना हो सके । इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके नाम से स्थापित इस कला केंद्र में लाइब्रेरी तो है ही यहां करीब दो लाख कृतियों की पांडुलिपियां भी सहेज कर रखी गई हैं जो अपने हमारी समृद्ध लेखकीय परंपरा का दस्तावेज है । अबतक इस कला केंद्र के प्रशासन से जुड़े लोगों ने बहुत काम किया । कई कलाकारों के पूरे संग्रह खरीद लिए, कई लेखकों के पूरे संग्रह को संग्रहित करवा दिया, कई बड़े आयोजन कर लिए लेकिन एक जो काम नहीं किया वो ये कि इस केंद्र को आम साहित्य और कला प्रेमियों से नहीं जोड़ा । इस कला केंद्र की स्थापना का जो मूल उद्देश्य था उससे भी ये संस्था भटकती रही या यों कह सकते हैं कि उस राह पर मजबूती से आगे नहीं बढ़ी । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की बेवसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक उन्नीस सौ पचासी में इंदिरा जी के जन्मदिन यानि उन्नीस नवंबर को इसकी कल्पना की गई और चौबीस मार्च उन्नीस सौ सतासी को इसकी शुरुआत की गई । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ट्रस्ट बनाया गया जिसमें राजीव गांधी, आर वेंकटरमण, पी वी नरसिंहाराव, पुपुल जयकर, एच वाई शारदा प्रसाद और कपिला वात्स्यायन । ये इतने बड़े नाम हैं जो किसी भी संस्था के लिए उसके मजबूती के परिचायक हो सकते हैं । यह संस्था जब खबरों में आई थी तो वो विवाद को लेकर जब इसके ट्रस्टियों को बदले जाने पर और आजीवन ट्रस्टी नियुक्त करने पर विवाद हुआ था । तभी देशभर के लोगों ने जाना था कि दिल्ली में एक कला केंद्र हैं जहां के ट्रस्टी का पद कुछ इतना बड़ा होता है कि उसको लेकर सरकार और एक खास परिवार के बीच तलवार भी खिंच सकती है ।
इस केंद्र की परिकल्पना कला के क्षेत्र में अनुसंधान और शैक्षिक उद्यम और प्रचार प्रसार करनेवाली एक स्वायत्त संस्था के रूप में की गई थी । कला का दायरा काफी विस्तृत रखा गया था और उसमें नृविज्ञान से लेकर पुरातत्व तक को इसमें शामिल किया गया था । लेकिन इस संस्था के कर्ताधर्ताओं ने इस संस्था को पता नहीं किस रास्ते पर चलाने का फैसला किया कि ये आम आदमी से दूर होती चली गई और अपनी स्थापना के उद्देश्यों से लगभग भटक कर कुछ लोगों का अरण्य बनकर रह गई । इस संस्था ने कला के क्षेत्र में जो भी अनुसंधान किए हों उसको ना तो प्रचारित किया और ना ही उसके बारे में लोगों तक अपनी बात पहुंचा सके । नतीजा यह हुआ कि जो भी शोध या अनुसंधान हुए वो चंद लोगों तक ही पहुंच कर रह गए या फिर कला केंद्र के कमरों में बंद होकर रह गए । अभी हाल में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को इस संस्था का नया अध्यक्ष बनाया गया था । उस वक्त काफी हो हल्ला मचा था और उसके बाद जब नामवर सिंह के नब्बे साल पूरे होने पर दिनभर का आयोजन हुआ था तब भी एक खास वर्ग के लोगों ने शोर मचाया । उन लोगों से ये पूछा जाना चाहिए कि अब तक इस संस्था को अभिजात्य बनाकर रखा गया था तो क्यों नहीं किसी तरह का कोई शोरगुल मचाया। क्यों नहीं किसी विचारधारा के ध्वजवाहक ने ये सवाल उठाया कि ये संस्था अपने उद्देश्यों से क्यों भटक गई । सवाल तो नामवर सिंह के जन्मदिन के बाद के आयोजनों पर भी नहीं उठाए गए ।
दरअसल अब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में बदलाव की बयार बहती दिखाई दे रही है । सदस्य सचिव सचिदानंद जोशी के मुताबिक उनकी प्राथमिकता में संस्था को लोगों तक पहुंचाने और इसके कामों से लोगों को जोड़ने की है और वो अपनी प्राथमिकता के हिसाब से ही काम कर  रहे हैं । क्या ये बात कल्पना से परे नहीं है कि दिल्ली के दिल में स्थित इस संस्था की लाइब्रेरी के सिर्फ एक सौ तीस सदस्य थे । वो भी तब जब इसका सालाना शुल्क सिर्फ पांच सौ रुपए है । अब नई व्यवस्था में इस पुस्तकालय के दरवाजे खुले हैं तो सदस्य बढ़ने लगे हैं । कला केंद्र के पास इतनी अनूठी चीजें हैं जिसको प्रदर्शित करना शुरू किया गया है । अभी हाल ही में राजा दीनदयाल जिन्हें भारत में फोटोग्राफी का जनक माना जाता है उनसे जुड़ी सारी चीजें एक गैलरी बानकर प्रदर्शित की गई है । राजा दीन दयाल मेरठ के पास अठारह सौ चौवालीस में जन्मे थे और इंजीनियरिंग की पढाई करने के बाद इंदौर चले गए थे । वहां उन्हें इंदौर के शासक महाराज टुकोजी द्वितीय ने संरक्षण दिया और उनको स्टूडिया बनाने के लिए प्रोत्साहित किया । राजा दीन दयाल को ठारह सौ पचासी में वायसराय का ऑफिसिअल फोटोग्राफर नियुक्त कर दिया गया और दो साल बाद उनको क्वीन विक्टोरिया की सेवा करने का मौका मिला । यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि राजा दीन दयाल से जुड़ी चीजें कला केंद्र में मौजूद थी लेकिन उनको गोदाम में रख दिया गया था । अब उसकी प्रदर्शनी से नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से रू ब रू होने का मौका मिल रहा है । उनके कैमरे को देखकर लगता है कि उस जमाने में फोटोग्राफी कितनी मुश्किल रही होगी या फोटोग्राफी की कला तो उस वक्त ही थी जब मशीनों का साथ फोटोग्राफर को नहीं मिलता था ।

शोध और शैक्षणिक उद्यम को बढ़ावा देने के लिए अब इस संस्थान को छात्रों से जोड़ने की योजना भी बन रही है । सांस्कृतिक समझ को विकसित करने के लिए कल्चरल इंफोमैटिक्स का कोर्स शुरू करने जा रही है जिसे एआईसीटीई से मान्यता भीमिल चुकी है । इस कोर्स के अलावा बौद्ध स्टडीज पर भी डिप्लोमा के माध्यम से छात्रों को जोड़ने की योजना है । इस कला केंद्र के पास एक अहम काम संरक्षण और पुनर्स्थापना का भी है । नई पीढ़ी के छात्रों को इस काम से जोड़ना बेहद श्रमसाध्य कार्य है लेकिन इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए संरक्षण और पुनर्स्थापना की पढ़ाई भी शुरू की जाएगी । अब अगर किसी संस्थान के पास दो लाख से ज्यादा पांडुलिपियां हैं तो उसके संरक्षण की चिंता तो करनी ही होगी । इंदिरा गांधी कला केंद्र के पास जितने संसाधन हैं. उसका सार्थक उपयोग इस कला केंद्र को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने के लिए नाकाफी हो सकते हैं लेकिन देश में और कम से कम दिल्ली में इस कला केंद्र को एक अहम पहचान दिलाने के लिए तो काफी हैं । दिल्ली में इतनी बड़ी जगह और उसका उपयोग नई टीम के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । अगर इस संस्था को लोगों से जोड़ पाने की चुनौती कामयाब होती है तो कला के हित में होगा । 

Thursday, October 6, 2016

डेमोक्रेसी और कुनबापरस्ती

अमेरिका के ब्राउन युनिवर्सिटी में इंटरनेशनल स्टडीज और सोशल साइंसेज के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने अपनी किताब बैटल्स ऑफ वन, इंडियाज इंप्रोबेबल डेमोक्रेसी में लिखा है कि भारत में अपनी पहचान को लेकर सजग रहनेवालों की बीच की खाई क्षेत्रीय रही है जिससे देश की केंद्रीय सत्ता के खिलाफ एकजुटता संभव नहीं हो पाई । इसी तरह से वो जाति को राज्य की राजनीति के बीच विभाजक की भूमिका में देखते हैं जो किसी राज्य विशेष को गणतंत्र को मजबूत चुनौती देने से रोकता है । इसके आदार पर कहा जा सकता है कि जातियों के नेता एक राष्ट्र के तौर पर प्रकारांतर से भारतीय गणतंत्र को मजबूती प्रदान करते हैं । यह लोकतंत्र का एक श्वेत पक्ष हो सकता है लेकिन इसका एक स्याह पक्ष भी है । जातियों पर आधारित क्षेत्रीय दलों के नेताओं का परिवारवाद को बढ़ावा देना लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को निगेट करना है । हमारे देश में इसका नमूना कई प्रदेशों में देखने को मिलता है । उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और उनका परिवार, बिहार में लालू यादव और उनका कुनबा, तमिलनाडू में करुणानिधि और उनका परिवार, आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव और उनका परिवार, जम्मू कश्मीर में शेख अबदुल्ला और उनका परिवार । इन बड़े उदाहरणों के अलावा कई छोटे छोटे उदाहरण भी इस वक्त भारतीय राजनीति में मौजूद हैं । जैसे उत्तर प्रदेश में ही अगर देखें तो अपना दल के नेता सोनेलाल पटेल और उनका परिवार । लोकतंत्र में परिवारवाद को बढ़ावा देने के झंझटों से भले ही अलग अलग जातियों के एकजुट होने का खतरा पैदा नहीं होता हो लेकिन इससे लोकतंत्र अलग तरीके से कमजोर होता है ।
राजनीतिक विश्लेषक और शोधकर्ता इसको इस तरह से भी देखते हैं कि यादवों के अलग अलग सूबों में अलग अलग नेता हैं लिहाजा उनका एक साथ खड़े होकर किसी स्थापित मान्यता को चुनौती देना संभव नहीं दिखता है । संभव है कि राजनीति शास्त्र के सिद्धातों की कसौटी पर ये सैद्धांतिकी मजबूत नजर आए लेकिन जिस तरह से इन नेताओं की विरासत को लेकर जंग होती है वो कबीलाई सरदारों की जंग की तरह नजर आती है । फर्क सिर्फ इतना है कि कबीलाओं में सत्ता को लेकर हिंसक झगड़े हुआ करते थे लेकिन इस जंग में खून नहीं बहता है । सत्ता को लेकर सियासी दांव पेंच तो उसी तरह के चलते हैं और अंत में कबीले के सरदार के फैसलों को मानने के लिए सभी बाध्य होते हैं । हाल ही में इसका नमूना उत्तर प्रदेश में देखने को मिला जहां यादवों के नेता मुलायम सिंह यादव की विरासत को लेकर उनके बेटे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई और सूबे में मंत्री शिवपाल यादव के बीच तलवारें खिचीं थी । उपर से देखने पर ये भले ही अमर सिंह या फिर अन्य मसलों को लेकर अधिकारों की लड़ाई लगे लेकिन दरअसल ये पूरा झगड़ा मुलायम की विरासत पर कब्जे की जंग को लेकर है । अखिलेश को लगता है कि मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने की वजह से उनकी सियासी विरासत पर उनका हक है, उधर शिवपाल सिंह यादव लगातार इस बात का संकेत देते रहते हैं कि नेताजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उन्होंने समाजवादी पार्टी को खड़ा किया है । जहां जहां कुनबा बड़ा है वहां सत्ता का ये संघर्ष भी बड़ा है और हर कोई अपने हिस्से को लेकर सजग और आक्रामक दिखाई देता है ।
सुदूर दक्षिण में भी अगर देखें तो अलग अलग मौके पर पांच बार तमिलनाडू में सत्ता संभालने वाले करुणानिधि के कुनबे में भी जो कलह हुआ था उसके पीछे भी वजह तमिल राजनीति के इस पुरोधा की राजीतिक विरासतत ही थी । करुणानिधि के बेटों अड़ागिरी और स्टालिन के बीच जमकर झगड़ा हुआ । एम के स्टालिन ने बहुत करीने से डीएमके कार्यकर्ताओं के बीच अपने को करुणानिधि के वारिस के तौर पर स्थापित करना शुरू कर दिया था उधर अड़ागिरी मदुरै और उसके आसपास के इलाकों में अपनी ताकत बढ़ाने में जुटे थे । दोनों के बीच के संघर्ष में करुणानिधि ने स्टालिन को चुना और अड़ागिरी पार्टी से बाहर हो गए । पारिवारिक सत्ता संग्राम में भाई भतीजों के बीच भी मलाई बंटती है और कालांतर में वो भी इस संघर्ष में इस या उस पक्ष के साथ हो जाते हैं । ये मुलायम परिवार में भी देखने को मिला और यही करुणानिधि के परिवार में भी रेखांकित किया जा सकता है । आंध्र प्रदेश की राजनीति में भी एन टी रामाराव की विरासत को लेकर उनके परिवार में संघर्ष हुआ था । एन टी रामाराव को तो उनके दामाद ने चंद्रबाबू नायडू ने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ कर दिया क्योंकि उनको शक था कि एनटीआर अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को सत्ता सौंपना चाहते थे । उस वक्त एनटी रामाराव के बेटों ने चंद्रबाबू का साथ दिया था लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही को नायडू ने सबको किनारे लगा दिया । अब्दुल्ला परिवार के बेटों और दामाद के बीच सत्ता को लेकर विवाद हुआ था । अभी हाल में बिहार में जब लालू यादव की पार्टी सत्ता में लौटी थी तो उनके बेटों और बेटी के बीच उपमुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद की खबरें आई थी ।

इन पार्टियों में इस तरह का झगड़े इस, वजह से भी होते हैं कि ये किसीएक शख्स के इर्दगिर्द चलनेवाले दल हैं और किसी विचारधारा से इनका बहुत लेना देना होता नहीं है । विचारधाराओं के आधार पर चलनेवाली पार्टियों में सत्ता संघर्ष का इतना वीभत्स रूप दिखाई नहीं देता है । चुनाव की बुनियाद पर टिकी हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और नेशनहुड की बहस के बीच इस प्रवृत्ति पर गंभीरता से विचार की जरूरत है । 

Monday, October 3, 2016

जंग नहीं डिप्लोमेसी में दो मात


पिछले सप्ताह पाकिस्तान में सर्जिकल ऑपरेशन के बाद दो अहम घटनाएं हुईं जिसपर ध्यान देकर पाकिस्तान को अलग थलग करने की जरूरत है । पाकिस्तान के साथ सिंधु नदी समझौते पर पुनर्विचार करने की भारत की मंशा के बीच चीन ने ब्रह्मपुत्र का पानी रोका और संयुक्त राष्ट्र में मुंबई पर हमले के मास्टरमाइंड आतंकवादी हाफिज सईद और लखवी को आतंकवादी घोषित करने की मुहिम पर वीटो कर दिया । हलांकि ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी जियोबुकु का पानीरोकने का भारत पर बहुत मामूली असर पड़ेगा याकह सकते हैं कि इसका कोई असकर नहीं पड़ेगा । लेकिनइस तरह के कदमों के एलाम का एक प्रतीकात्नमक महत्व होता है और चीन उसी महत्व को समझकरऐसा कर रहा है । पाकिस्तान के साथ तनातनी के बीच भारत को चीन को लेकर सतर्क रहना होगा । पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल ऑपरेशन के बाद जिस तरह से भारत के डिप्लोमैट्स ने दुनियाभर की राजधानियों में पाकिस्तान के खिलाफ या भारत के पक्ष में माहौल बनाया वो काबिले तारीफ है । इस राजनयिक जंग की कमान विदेश सचिव एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीक डोबल ने संभाला हुआ है और इसके नतीजे भी मिल रहे हैं । गौरतलब है कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान की हरकतों ने इन दोनों का काम थोड़ा आसान भी कर दिया है । बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान ने जिस तरह से भारत का साथ दिया वो रेखांकित किया जाना चाहिए । सार्क के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन रद्द करते हुए नेपाल ने भी काफी कड़ा रुख अख्तियार किया था । बाद में तो भारत के रुख को मालदीव और श्रीलंका का भी साथ मिला । आतंकवाद के खिलाफ लगभग सभी सार्क देशों ने नई दिल्ली के सुर में सुर मिलाया । अमेरिका ने भी भारत के सर्जिकल हमले को परोक्ष रूप से समर्थन दिया । उसने इस मसले पर तटस्थ रुख अख्तियार किया हुआ है लेकिन पाकिस्तान के आतंकवादियों के खिलाफ लगातार अमेरिका से बयान आ रहे हैं । यह भारत की कूटनीतिक सफलता ही मानी जाएगी । रूस को भी भारतीय राजयनियों ने एक तरह से समझाने में सफलता प्राप्त कर ली है लेकिन भारत की अमेरिका से बढ़ती नजदीकी रूस को पाकिस्तान की ओर ले जा सकती है । इस बारे में भारत के राजनयिकों को सोचना होगा । सर्जिकल अटैक के मुद्दे पर बीजिंग का रुख साफ नहीं था लेकिन जिस तरह से उसने ब्रह्मपुत्र नदी के पानी औप हाफिज सईद और लखवी पर स्टैंड लिया है उससे साफ है कि उसका झुकाव पाकिस्तान की तरफ है । भारत पाकिस्तान के बीच जारी इस माहौल में चीन को तटस्थ रखना या अपने पाले में लाना भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध तो अंतिम विकल्प होना चाहिए उसके पहले ये युद्ध राजनयिक स्तर पर लड़कर जीतने और पाकिस्तान को विश्व पटल पर हाशिए पर धकेलने की कोशिश की जानी चाहिए । क्योंकि युद्ध से नुकसान तो दोनों का होना तय है ।

पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है । स्रजिकल अटैक के बाद बौखलाहट में रावलपिंडी से आतंकवादियों को और मदद मिलेगी और ये तो पाकिस्तान का इतिहास रहा है कि वो नॉन स्टेट एक्टर्स के कंधे पर बंदूक रखकर चलाता रहा है । आजादी के बाद 1947 से लेकर अगर अबतक के दोनों देशों के बीच संघर्ष का इतिहास देखें तो पाकिस्तान हमेशा से नॉन स्टेट एक्टर्स के माध्यम से ही अपनी सीमाओं को बढ़ाने की जुगत में लगा रहा है । इस बार भी पीओके में बारत के सर्जुकल अटैक के बाद माना जा रहा था कि पाकिस्तान की ओर से उसके समर्थित आतंकवादी भारतीय सेना के कैंपों पर हमले कर सकते हैं । इस आशंका के मद्देनजर भारत की सेना और अर्धसैनिक बदल पूरी तरह से ना केवल सजग थे बल्कि वो पलटवार करने को भी तैयार थे । लिहाजा जब रविवार की रात को बारामूला के सेना के कैंप पर आतंकवादियों ने हमला किया तो सैनिकों ने उनको मुंहतोड़ जवाब दिया । राष्ट्रीय राइफल्स के बारामूला के कैंप पर आतंकवादियों ने कैंप से सटे पार्क के रास्ते घुसने की कोशिश की लेकिन चौकन्नी सेना ने आतंकवादियों को देखकर उनको चारों तरफ से घेर कर फायरिंग शुरू कर दी और आतंकवादियों को ढेर कर दिया । इस बीच जम्मू कश्मीर और राजस्थान के कई इलाकों से पाकिस्तानी घुसपैठ को नाकाम करने की खबरें भी हैं । सवाल यही है कि क्या पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए भारत क उसपर हमला कर देना चाहिए । देश में कुछ उत्साही समूह इस तरह की मांग कर रहे हैं लेकिन युद्ध से ज्यादा जरूरी है पाकिस्तान को डिप्लोमैसी में परास्त कर फसको पूरीदुनिया से काट देना । इस काम को बेहद संयम से करना होगा लेकिन डिप्लौमैसी के इस युद्ध को जीतने के लिए पाकिस्तान को लगातार सर्जिकल अटैक जैसे झटके भी नियमित अंतराल पर देते रहने होंगे ।  
(नारद न्यूज- 3 अक्तूबर)

राष्ट्र से बड़ी नहीं कला

भारत के पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों को मार गिराने के बाद से पूरे देश में अलग अलग मुद्दों पर बहस जारी है । इन मुद्दों में से एक मुद्दा है पाकिस्तानी कलाकारों को बॉलीवुड में काम करने की इजाजत मिलनी चाहिए या नहीं । ये बहस उस वक्त और तेज हो गई है जब फिल्म इंडस्ट्री के प्रोड्यूसर्स की सबसे पुरानी संस्था आईएमपीपीए ने पाकिस्तानी कलाकारों पर बॉलीवुड में काम करने की पाबंदी लगा दी । ये बहस इस पाबंदी के बाद तेज होने लगी । कुछ लोगों ने दलीलें देनी शुरू कर दी कि कला की कोई सरहद नहीं होती, कला और गायकी सीमाओ के बंधन में नहीं होती आदि आदि । लेकिन इस बहस में आग में घी डाला सुपर स्टार सलमान खान के उस बयान ने जिसमें उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी कलाकार आतंकवादी नहीं हैं । सलमान खान ने कहा कि पाकिस्तानी कलाकार आतंकवादी नहीं हैं । भारत सरकार ने उनको वर्क परमिट और वीजा दिया है । आतंकवाद और कला को घालमेल करने की जरूरत नहीं है । सलमान खान ने भारतीय सेना के सर्जिकल ऑपरेशन को सही ठहराया लेकिन साथ ही ये जोड़ना भी नहीं भूले कि दोनों देशों के बीच शांति आदर्श स्थिति होगी । सलमान खान भले ही आदर्श स्थिति की बात करें और ये कहें कि पाकिस्तानी कलाकार आतंकवादी नहीं हैं लेकिन क्या पाकिस्तानी कलाकारों ने आतंकवादी हमलों की निंदा की है । किसी भी भारतीय की भारत में काम कर रहे पाकिस्तानी कलाकारों से ये अपेक्षा नहीं है कि वो उड़ी हमले के लिए पाकिस्तान की निंदा करें लेकिन उतनी अपेक्षा तो करते ही हैं कि भारत की सरजमीं पर फल फूल रहे पाकिस्तानी कलाकार कम से कम आतंकवादी हमलों की निंदा करें । क्या किसी पाकिस्तानी कलाकार ने उड़ी में भारतीय सेना के उन्नीस जवानों की शहादत पर एक शब्द भी बोला । पाकिस्तानी कलाकार भले ही आतंकवादी ना हों लेकिन आतंकवादियों की निंदा भी नहीं करते हैं । भारतीय सेना के जवानों की शहादत उनके लिए कोई मायने रखती हो ऐसा उनके किसी बयान या कृत्य से साबित नहीं होता है । जब पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों मे भारतीय सेना के उन्नीस जवानों को मार डाला हो इन हालात में क्या आदर्श स्थिति की कल्पना की जा सकती है । पाकिस्तानी कलाकार फव्वाद खान और माहिरा खान वे अबतक भारतीय सेना के शहीदों पर दो शब्द बोलना इचित नहीं समझा । ऐसा नहीं है कि पातिस्तानी कलाकार आतंक और आतंकवाद पर कुछ नहीं बोलते रहे हैं । अपने देश में आतंकवादी वारदातों पर उनके टसुए बहाने के किस्से आम हैं । उनका दर्द तभी बाहर निकलता है जब कोई पातिस्तानी मरता है उनको हिंदुस्तानियों और हिन्दुस्तान से क्या लेना देना । हिन्दुस्तान को तो वो पैसा कमाने की जमीन की तरह देखते हैं और यहां रहते हुए भी यहां के लोगों के दर्द के साथ खुद का जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं । कम से कम अपने व्यवहार से तो पाकिस्तानी कलाकारों ने कभी ऐसा महसूस नहीं करवाया । सवाल यही उठता है कि जिस फव्वाद खान ने दो हजार चौदह में पेशावर में आतंकी हमले में मारे गए बच्चों के लिए आंसू बहाए थे उन्हीं फव्वाद खान के आंसू उड़ी के शहीदों के लिए सूख क्यों गए । सवाल तो ये भी उठता है कि जिस अली जाफर ने पेशावर के आतंकी हमलों में मारे गए बच्चों की याद में गीत बनाए थे वो अली जाफर उड़ी के आतंकवादी हमले के बाद खामोश क्यों हैं । सवाल तो उन चालीस पाकिस्तानी कलाकारों से भी पूछे जाने चाहिए जिन्होंने पेशावर आतंकवादी हमले के बाद सामूहिक रूप से अपनी पीड़ा का इजहार किया था । लेकिन भारत में काम कर रहे इन चालीस पाकिस्तानी कलाकारों को क्या उड़ी हमले के बाद कोई पीड़ा नहीं हुई । क्या इन पाकिस्तानी कलाकारों ने भारत के खिलाफ घृणा और नफरत उगलनेवाले और आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देनेवाले जैश ए मोहम्मद और आतंकवादी हाफिज सईद का विरोध किया । क्या उनकी निंदा में उनके मुंह से कोई शब निकले । इन सारे सवालों के जवाब नकारात्मक हैं । अगर भारत की जमीन से पैसा कमाने वाले कलाकार भारत के दुश्मनों के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं रखते हैं तो क्या उनको भारत की जमीन पर रहकर पैसे कमाने की इजाजत देनी चाहिए ।

जावेद अख्तर ने सही कहा है कि भारत ने हमेशा खुले दिल से पाकिस्तानी कलाकारों का स्वागत किया और फिल्म इंडस्ट्री ने उनको अपनाया भी लेकिन पाकिस्तान की तरफ से कभी भी ऐसा नहीं किया गया । वो कहते हैं कि पातिस्तान में लता मंगेशकर बेहद लोकप्रिय हैं और वहां उनके प्रशंसकों की संख्या लाखों में है लेकिन कभी पाकिस्तान की तरफ से उनके परफार्मेंस की दावत नहीं आई। इस मसले पर भारत के कुछ बुद्धिजीवी भी पाकिस्तानी कलाकारों के पक्ष में खडे नजर आते हैं । इनके भी वही तर्क हैं कि कला और आतंकवादा को अलग करके देखा जाना चाहिए । इन बुद्धिजीवियों को क्या ये समझाने की जरूरत है कि कला भले ही सरहदों को नहीं मानता हो लेकिन वो किसी भी राष्ट्र से बड़ा नहीं हो सकता है । राष्ट्र की कीमत पर कला को बढ़ाने की वकालत करनेवालों को यह बात समझनी होगी । समझनी को उन पाकिस्तानी कलाकारों को भी होगी कि भारत की जमीन पर रहकर पैसे कमाने पर रोक नहीं है लेकिन भारत के दुश्मनों के खिलाफ आवाज तो उठानी होगी ।     

Saturday, October 1, 2016

साहित्य अकादमी चुनाव की बिसात

दो हजार चौदह के आम चुनाव के बाद देश में विचारधारा की लड़ाई ज्यादा तेज हो गई है । वामपंथ के कमजोर होने और दक्षिणपंथ के मजबूत होने से विचारधारा की इस लड़ाई का असर देश की साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं पर दिखाई देने लगा है । सत्ता से करीबी का लाभ लेकर जिस तरह से वामपंथियों ने देशभर के कला, संस्कृति और साहित्यक प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमाया हुआ था वहां से उनका बोरिया बिस्तर गोल होने लगा । इस बात को लेकर तमाम तरह का वितंडा खड़ा किया गया । एक तर्क ये दिया गया कि दक्षिणपंथियों के पास बुद्धिजीवियों की कमी है । यह सही हो सकता है लेकिन वामपंथियों के किस तरह के बुद्धिजीवी हैं इसकी पड़ताल करने की जरूरत है । वहां तो ज्यादातर उसी तरह के बुद्धिजीवी हैं जो सत्ता की खाद से तैयार किए गए । उनको सत्ता और विचारधारा की सीढ़ी  ने बड़ा बनाया । वामपंथ की एक खासियत तो ये रही है जिसके लिए उनको दाद देनी चाहिए । खासियत ये कि वो अपनी विचारधारा के लेखकों को बड़ा बनाते रहे हैं । लेखक चाहे औसत भी हो, उसकी रचना चाहे मामूली हो लेकिन अगर वो मार्क्सवाद का ध्वजवाहक है और मजबूती से झंडा थाम कर साहित्य की दुनिया में चलने की ताकत रखता है तो उसको बढ़ावा देने में पार्टी से लेकर कार्यकर्ता तक कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । ध्वज वाहकों की पताका के आकार पर लेखक का कद तय होने लगा । जिसकी जितनी बड़ी पताका वो उतना बड़ा लेखक । पताका के आकार के आधार पर उनके लेखन और उनकी कृतियों पर सेमिनार और पुरस्कार आदि तय होने लगे । उनका विरोध करनेवालों की आवाज दबाई जाने लगी । ये बहुत लंबे समय तक चला । इस तरह से वामपंथियों ने अपनी विचारधारा के ध्वजवाहकों को बड़े लेखक के तौर पर स्थापित कर दिया।
इस खेल में दक्षिणपंथी पिछड़ गए और अबतक पिछड़ते ही नजर आ रहे हैं । उन्होंने अपनी विचारधारा के लेखकों को बड़ा बनाने का उपक्रम नहीं किया । लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी की कई प्रदेशों में सरकारें रही हैं लेकिन वहां से भी अनुदान से लेकर साहित्यक पत्रिकाओं में विज्ञापन से लेकर बड़े- बड़े पुरस्कार वामपंथियों या उस तरफ झुकाव रखनेवालों को ही दिए जा रहे हैं । उनकी विचारधारा के लेखकों का ना तो सम्मान हो पाया है और ना ही उनको पुरस्कार आदि देने का उपक्रम । मजेदार तो ये होता है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से आयोजित कार्यक्रमों में भी भारत सरकार को जमकर कोसा जाता है । भारत सरकार की नीतियों को फासीवादी तक करार दिया जाता है । संस्कृति मंत्रालय से सहयोग प्राप्त ऐसे कार्यक्रमों में कोसा तो मंत्रालय को भी जाता है लेकिन इस ओर अब तक भारत सरकार का ध्यान नहीं जा पाया है या अफसरशाही पर उनका नियंत्रण नहीं है जो बगैर जांचे अनुदान आदि देने का फैसला कर लेते हैं । यह बेहद मनोरंजक स्थिति है कि पैसे देकर फासीवादी सरकार का आरोप लगवाना । खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
फिलहाल हम बात कर रहे थे साहित्यक संस्थाओं की । पुरस्कार वापसी के वक्त से चर्चा में आई साहित्यकारों की संस्था साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर वामपंथी लेखकों ने कमर कस ली है । साहित्य अकादमी की मौजूदा जनरल काउंसिल का लगभग एक साल बचा है लेकिन अगले अध्यक्ष को लेकर वाम खेमे में तैयारियां शुरू हो गई हैं । अगले साल अक्तूबर में होनेवाली नई आमसभा के गठन और उसके बाद अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर सुगबुगाह शुरू हो गई है । मौजूदा उपाध्यक्ष और कन्नड़ के लेखक कंबार के नाम पर भी चर्चा चल रही है लेकिन उनकी लेखकों के बीच स्वीकार्यता संदिग्ध है । उनकी सबसे बड़ी कमजोरी या उनकी राह में जो सबसे बड़ी बाधा है वो है उनकी भाषा और उनकी संवाद करने की क्षमता को लेकर है। उनको लेकर किसी भी खेमे में कोई खास उत्साह दिखाई नहीं दे रहा है । अगले आमसभा के चुनाव में मौजूदा आमसभा के सदस्यों की अहम भूमिका होती है लिहाजा मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के कदमों पर भी सबकी निगाहें टिकी हैं । चर्चा तो ये भी है कि विश्वनाथ तिवारी दूसरे कार्यकाल के लिए भी प्रयास कर सकते हैं । दरअसल साहित्य अकादमी के संविधान में दो बार अध्यक्ष बनने पर कोई रोक नहीं है । जानकारों का मानना है कि इसी के मद्देनजर तिवारी जी अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं । विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा से बननेवाले पहले अध्यक्ष हैं, अघर जवाहरलाल नेहरू को छोड़ दियाजाए तो । इसके पहले हिंदी का कोई लेखक साहित्य अकादमी का अध्यक्ष नहीं बन पाया था । अत्यंत मृदुभाषी विश्वनाथ तिवारी को सभी भाषाओं के लेखकों का विश्वास भी हासिल है । पुरस्कार वापसी के वक्त जिस तरह से विश्वनाथ तिवारी ने उस मुहिम को हैंडल किया उसको लेकर भी सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग तिवारी जी से खुश बताए जाते हैं । अब ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि विश्वनाथ तिवारी की क्या इच्छा है और वो कितनी मजबूती से चुनाव लड़ते हैं ।  
साहित्य अकादमी पर कब्जे की जंग इस बार काफी दिलचस्प होगी । पुरस्कार वापसी के वक्त से लेकर अबतक अशोक वाजपेयी ने खुद को वामपंथी या कहें कि तथाकथित वृहत्तर सेक्युलर लेखकों का अगुवा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है । यह कितनी बड़ी बिडंबना है कि जिस अशोक वाजपेयी को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद के चुनाव में वामपंथियों ने एकजुट होकर हरवा दिया था वही वामपंथी इन दिनों अशोक वाजपेयी को अपना नेता मान रहे हैं । ये वही अशोक वाजपेयी हैं जिनको वामपंथियों ने कलावादी कहकर साहित्य से खारिज करने की भरपूर कोशिश की थी । ये तो अशोक जी प्रतिभा और उनका लंबा प्रशासनिक अनुभव था कि उन्होंने वामपंथियों को अप्रसांगिक कर दिया । संभव है ये अशोक वापजेयी की कांग्रेस के नेताओं की संगति का असर हो । अगर आप देखें तो कांग्रेस ने वामपंथियों को सत्ता का लॉलीपॉप देकर बिल्कुल अप्रसांगिक कर दिया था । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद वामपंथी हाशिए पर चले गए थे । दरअसल कांग्रेस ने वामपंथी लेखकों और विचारकों को संस्थाओं और अकादमियों की कुर्सी से लेकर विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों का अधिकार देकर उनके तेवरों को कुंद कर दिया । ये कांग्रेस की रणनीति का ही हिस्सा था कि वामपंथी इल सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़कर अपने आप को सुविधाभोगी बनाते चले गए और संघर्ष और विरोध का उनका माद्दा खत्म होता चला गया । ये तो भला हो जेएनयू प्रकरण का जिसने एक बार फिर से वामपंथियों को मंच से लेकर मौका तक मुहैया करवा दिया ।  

अगले साल होनेवाला साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव दिलचस्प होगा । साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक उसकी जनरल काउंसिल में राज्यों के प्रतिनिधियों के अलावा, विश्वविद्यालयों के नुमाइंदे और सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि होते हैं । इस वक्त देश में ज्यादातर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो यह माना जा सकता है कि अगर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग सजग रहे तो उन राज्यों से उनकी विचारधारा के लोगों के ही नामों का पैनल भेजा जाएगा। यही स्थिति विश्वविद्लायों की भी हो सकती है । ऐसी स्थिति में वामपंथियों को दिक्कत हो सकती है और साहित्य अकादमी के उनके हाथ से निकलने का खतरा पैदा हो सकता है । अगर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग असावधान रहे उनके शासन वाले राज्यों से चुने जानेवाले सदस्यों के पैनल में वामपंथियों का नाम आ गया तो फिर वो हाथ मलते रह जाएंगे । जिस तरह से वाम खेमा अभी से साहित्य अकादमी के चुनाव को लेकर सजग हो गया है उससे इस बात की संभावना प्रबल है कि साहित्य अकादमी अध्यक्ष का चुनाव में कुछ ना कुछ गुल खिलेगा । साहित्य अकादमी के पिछले चार पांच चुनाव से पूर्व अध्यक्ष गोपीचंद नारंग की भूमिका भी अहम रहती आई है और वो बड़े रणनीतिकार माने जाते रहे हैं । हर गुट और विचारधारा में उनके समर्थक रहे हैं और वो उसी तरह से अपनी चालें भी चलते रहे हैं । गोपीचंद नारंग ने मशहूर लेखिका महाश्वतेता देवी को परास्त किया था । उस वक्त भी अशोक वाजपेयी और नामपर सिंह आदि ने हाथ मिला लिया था लेकिन नारंग के आगे उनकी एक नहीं चली थी । इस बार गोपीचंद नारंग की तबीयत नासाज होने की वजह से संभव है कि वो उतने सक्रिय नहीं रह पाएं । साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर जिस तरह से बिसाते बिछने लगी है उसको देखकर तो यही लगता है कि विचारधारा विशेष के लेखक इस संस्था पर कब्जे को लेकर कितने बेचैन हैं कि बारह महीने पहले से ही रणनीति पर काम शुरू हो गया है ।