उत्तर प्रदेश के समाजवादी कुनबे में कलह जारी है । सियासत से लेकर
अंत:पुर में खेले जाने
दांव-पेंच पर पूरे देश की नजर है । तमाम राजनीति विश्लेषक हर रोज रिश्तों की नई
व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं । कोई मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर दांव लगा
रहा है तो कोई शिवपाल-अमर सिंह की जोड़ी के पक्ष में बैटिंग कर रहा है । इन तमाम
सियासी कोलाहल के बीच साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर भी उत्तर प्रदेश इन दिनों
चर्चा में है । पिछले हफ्ते करीब डेढ दशक बाद संगीत नाटक अकादमी अवार्ड बांटे गए ।
दरअसल दो हजार तीन से लेकर दो हजार आठ तक के संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों का ऐलान
महीनों पहले किया गया था लेकिन पुरस्कार बांटे जाने को लेकर कोई तिथि तय नहीं की
गई थी । जिनके नामों का पुरस्कार के लिए ऐलान हुआ था वो भी अंधेरे में थे और कई तो
बातचीत में निराशा भी जाहिर कर चुके थे कि उनको पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । पिछले
हफ्ते आनन फानन में इन पुरस्कारों को बांट दिए गए लेकिन बताया जा रहा है कि कई
पुरस्कृत शख्सियत वक्त पर इत्तला नहीं मिलने की वजह से मौके पर उपस्थित नहीं हो
सके । खबरों के मुताबिक इस समारोह में सड़सठ कलाकारों को अकादमी अवॉर्ड और बारह को
अकादमी रत्न पुरस्कार दिया गया । इस सम्मान समारोह में पुरस्कृत कलाकारों लेखकों
की संख्या इतनी ज्यादा थी कि जल्दी जल्दी नाम पुकारे जाने लगे जिससे अव्यवस्था फैल
गई । कलाकारों को पुरस्कार के तौर पर दिए गए ताम्रपत्र पर पुरस्कार राशि अंकित
करने से भी कलाकारों में क्षोभ दिखा । पंडित शंभू महाराज के बेटों को दो हजार तीन
और चार के लिए अकादमी अवार्ड दिया गया । इन दोनों ने जब ताम्रपत्र पर दस हजार एक
रुपए की राशि का अंकन देखा तो नाराज हो गए और कहा कि ताम्रपत्र पर राशि का उल्लेख
गैरजरूरी है । भारी संख्या में बंटे इन पुरस्कारों को लेकर चर्चा अभी खत्म भी नहीं
हुई थी कि उत्तर प्रदेश सरकार ने थोक के भाव से यशभारती पुरस्कार बांट डाले । यश
भारती पुरस्कार को लेकर इस बार इस वजह से सवाल खड़े हो रहे कि पहले सरकार ने ऐलान
किया था कि चौवन लोगों को इस पुरस्कार से नवाजा जाएगा । उसके बाद इसकी संख्या
बढ़कर चौंसठ हो गई और अंतत: तिहत्तर लोगों को प्रदेश के सबसे बड़े
पुरस्कार से नवाजा गया । हद तो तब हो गई जब पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान दो
लोगों के नाम जोड़े गए । यशभारती पुरस्कार अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव
ने शुरू किया था और यह पुरस्कार साहित्य, कला, सिनेमा, चिकित्सा, खेल, पत्रकारिता,
हस्तशिल्प, शिक्षण, संस्कृति, संगीत, नाटक और उद्योग के अलावा समाजसेवा और ज्योतिष
विद्या के लिए भी दिया जाता है । इस पुरस्कार के तहत पुरस्कृत व्यक्ति को ग्यारह
लाख नकद और आजीवन पचास हजार रुपए हर महीने पेंशन के तौर पर दिया जाता है । इस वर्ष
के पुरस्कार वितरण समारोह से मुलायम सिंह यादव दूर रहे और उनके पुत्र मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव पूरे समारोह के दौरान मुलायम सिंह का नाम लेते रहे । उन्होंने तो यहां
तक कहा कि नेताजी विभूतियों का सम्मान करने में कभी नहीं हिचके और वो उनके घर तक
जाकर उनको सम्मानित किया । इस संदर्भमें अखिलेश यादव ने हरिवंश राय बच्चन का
उदाहरण दिया जिन्हें यश भारती से सम्मानित करने के लिए मुलायम सिंह यादव मुंबई तक
गए थे । बच्चन जी के स्वास्थ्य की वजह से मुंबई में उनके घर पर उनको यश भारती से
सम्मानित किया गया था । हलांकि उसके बाद मुख्यमंत्री सम्मानित शख्सियतों के साथ
मुलायम सिंह यादव के घर पहुंचे औप सबकी उनसे मुलाकात करवाई । ये तो हुई सियासत की
बातें लेकिन सियासत की बात यहीं खत्म नहीं होती है । सियासत या लापरवाही के संकेत
तो यशभारती पुरस्कार से सम्मानित किए गए महानुभावों की सूची को देखने पर भी मिलते
हैं । पुरस्कार वितरण समारोह के चंद दिनों पहले जो सूची जारी की गई उसमें बांदा के
शिल्पकार शाहिद हुसैन का भी नाम था लेकिन जब बांदा के जिलाधिकारी से शाहिद हुसैन
को सूचना देने के लिए संपर्क किया गया तो जो बात पता चली उससे पुरस्कारों की सूची
तैयार करनेवालों के होश उड़ गए । बांदा के जिलाधिकारी ने राज्य सरकार को सूचित
किया कि शाहिद हुसैन नाम का कोई शिल्पकार उनके जिले में नहीं है । बांदा के डीएम
ने अपने पत्र में किसी हामिद हुसैन के नाम का उल्लेख कियाऔर बताया कि वो एक
शिल्पकार के पास काम करते हैं । इस पत्र के बाद संस्कृति विभाग ने आनन फानन में शाहिद
हुसैन का नाम पुरस्कृत होनेवालों की सूची से हटा दिया । लापरवाही का आलम तो वरिष्ठ
उर्दू शायर शारिब रुदौलवी के नाम के साथ भी देखने को मिला । विभागों की फाइल में
उनका नाम शादाब रुदौलबी लिखा था और विभागीय लोग इस नाम के शख्स को ढूंढने में रात
दिन एक किए हुए थे ष बात में पता चला कि उनका सही नाम शारिब रुदौलवी है । फिर जाकर
सूची में संशोधन किया गया । दरअसल इस तरह के वाकए सरकारी विभागों में होते रहते
हैं । कमलेश्वर के निधन के बाद आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में उनको निमंत्रण देने
के लिए विदेश मंत्रालय के अफसरों ने उनके घर पर फोन किया था और बगैर कुछ बताए ये
सूचना फोन उठानेवाले को दी और फोन रख दिया । गनीमत ये रही कि किसी तरह विदेश
मंत्रालय को समय रहते कमलेश्वर के निधन की जानकारी मिल गई वर्ना तो उनका नाम भी
सूची में प्रकाशित कर दिया गया होता ।
अब अगर समग्रता में इस साल दिए गए यश भारती सम्मान से नवाजे गए
लोगों की सूची पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है कि
सम्मानित विभूतियों में भी सामाजिक समीकरणों का ध्यान रखा गया है । संभव है कि
मेधा को भी प्राथमिकता दी गई हो लेकिन जिस तरह से नाम जोड़े और घटाए गए उससे साफ
है कि अकलियत से लेकर जातिगत समीकरणों का भी ध्यान रखा गया । पुरस्कारों के बहाने
से राजनीतिक तौर पर समुदायों और जातियों को खुश करने की कोशिश भी दिखाई दे रही है
। साहित्य, कला, संस्कृति, क्रिकेट, समाजसेवा और पत्रकारिता आदि के लिए यश भारती
सम्मान के नामों का चुनाव करते वक्त अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों को भी
ध्यान में रखा गया । वर्ना ये कैसे संभव था कि बांदा के एक ऐसे शिल्पकार का नाम
सूची में घोषित कर दिया जाता जिस नाम का उस जिले में तो क्या पूरे सूबे में कोई
शिल्पकार ज्ञात नहीं है । क्या सिर्फ नाम देखकर शाहिद हुसैन को पुरस्कार देना तय
कर लिया गया । क्या ये जरूरी नहीं था कि संबंधित विभाग नामों का ऐलान करने के पहले
उसकी जांच करवा लेता । संस्कृति विभाग क सचिव खुद बेहतरीनन शायर हैं और कला
संस्कृति और साहित्य जगत से गहरे जुड़े हुए भी हैं । बावजूद इसके ऐसा हुआ तो इससे
तो ये भी लगता है कि संस्कृति सचिव को उपर से नाम भेजकर उसका ऐलान करने को कहा जा
रहा था । अपने स्तर से जब उन्होंने जांच करवाई तो कई खामियां नजर आईं लेकिन तबतक
तो तीर कमान से निकल चुका था । सवाल यही उठता है कि इन सरकारी पुरस्कारों को लेकर
कोई ठोस पारदर्शी नीति क्यों नहीं बनाई जाती है । कोई मानक क्यों नहीं तय किया
जाता है । जनता को ये क्यों नहीं बताया जाता है कि अमुक नाम के चयन के पीछे की वजह
ये रही है । क्या जनता के पैसे से दिए जानेवाले इन भारी भरकम पुरस्कारों के बारे
में जनता को जानने का हक नहीं है । उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री की छवि अबतक
साफ सुथरी है लेकिन इस तरह के वाकयों से ये तो साफ होता है कि वो भी राजनीति की
काली कोठरी में आकर उससे बचकर निकल नहीं पा रहे हैं । दरअसल हमारे देश में
पुरस्कारों को लेकर कोई ठोस नीति नहीं है । जैसे यूपी में तो यश भारती पुरस्कारों
की संख्या भी निश्चित नहीं है । जो सत्ता में है वो अपने जितने चाहे उतने चहेतों
को पुरस्कृत कर सकता है । ये पुरस्कार भी सरकारी स्कीमों की तरह राजनीति की शिकार
होती रही हैं । सत्ता बदलने पर पुरस्कार या तो बंद कर दिए जाते हैं या दिए ही नहीं
जाते हैं । क्या सरकारें कोई ठोस नीति बनाकर इसको स्थायी नहीं कर सकती हैं जिसमें
पारदर्शिता हो और पुरस्कारों की प्रतिष्ठा भी स्थापित हो सके । संगीत नाटक अकादमी
और यश भारती पुरस्कार इतनी भारी संख्या में बांटे गए कि लगता है कि कोई बच ही नहीं
पाएगा । रही सही कसर हिंदी संस्थान के पुरस्कार पूरी कर देते हैं । नब्बे के आखिरी
दशक में दिल्ली में एक मजाक चलता था कि अगर करोलबाग में पत्थर फेंका जाए तो हर
दूसरा जख्मी शख्स एमबीए डिग्रीधारक होगा । यही हाल उत्तर प्रदेश में पुरस्कारों को
लेकर है ।