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Saturday, October 8, 2016

साहित्यक उत्सवों की सार्थकता ?

त्योहार का मौसम आते ही साहित्य में भी उत्सवों के आयोजन की शुरुआत हो जाती है । पिछले कई सालों से देशभर में कई साहित्य उत्सवों के आयोजन शुरी हुए हैं । अलग अलग क्षेत्रों और अलग अलग भाषाओं में सालाना साहित्य उत्सवों को लेकर साहित्य प्रेमियों के बीच एक उत्सुकता का वातावरण बना है । इस बात को लेकर साहित्यकारों के बीच मतैक्य नहीं है कि इस तरह के उत्सव साहित्य के लिए कितने लाभकारी हैं या देशभर में साहित्यक वातावरण बनाने में कितने मददगार होते हैं । कई लोगों का मानना है कि इन साहित्य उत्सवों की आड़ में कारोबार होता है तो कई लोग इस बात की वकालत करते नजर आते हैं कि इन साहित्यक उत्सवों से विमर्श के नए आयाम खुलते और उद्धघाटित होते हैं । देशभर में साहित्यक उत्सवों की संस्कृति के विकास में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की अहम और महती भूमिका रही है । नमिता गोखले, विलियम डेलरिंपल और संजोय की टीम को इस बात का श्रेय जाता है कि साहित्य को सेमिनार कक्षों से निकालकर उन्होंने जनता के बीच पहुंचाया । हलांकि अब उनके आयोजनों में कई तरह की चीजों ने प्रवेश कर लिया है । एक साहित्योत्सव है जो इन सबसे थोड़ा अलग हटकर साहित्य, कला और सिनेमा को शहरों से निकालकर गांवों की ओर ले जा रहा है और ये साहित्य महोत्सव है कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल । इस लिटरेचर फेस्टिवल की खासियत ये है कि ये एक जगह पर आयोजित नहीं होता है । इस बार भी कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल धानचुली और जिम कार्बेट दो जगहों पर आयोजित है । पांच दिनों तक चलनेवाले इस कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में इस बार देशभर के कई भाषाओं के करीब एक सौ पैंतीस लेखक शामिल हो रहे हैं । कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल का ये दूसरा संस्करण है और अपनी स्थापना के एक साल के अंदर ही इस लिटरेचर फेस्टिवल ने अपनी गंभीरता और गांव में साहित्योत्सव की वजह से अपनी एक अलग पहचान बनाई है ।
देशभर में पाकिस्तानी कलाकारों के विरोध को देखते हुए इस बार कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने पाकिस्तानी लेखकों से किनारा कर लिया है । फेस्टिवल की घोषणा के बाद कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने बताया था कि पाकिस्तान से भी कई लेखक इसका हिस्सा होंगे । उड़ी में पाकिस्तानी आतंकवादियों के सेना पर हमले के बाद से देश में बने माहौल के बाद आयोजकों ने बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला लिया । पाकिस्तानी लेखकों से किनारा करने के आयोजकों के फैसले से एक बात और साफ होती है कि उनकी विवादों में नहीं बल्कि गंभीर विमर्श में रुचि है । पाकिस्तान के कुछ लेखकों को तो भारत सरकार ने वीजा दे दिया था और अगर आयोजक चाहते तो उनको बुलाकर हंगामा खड़ा कर देते लेकिन इस फेस्टिवल के संस्थापक सुमंत बत्रा ने साफ किया कि हंगामा खड़ाकर प्रचार पाना उनका मकसद नहीं है । पेशे से वकील सुमंत बत्रा कई सालों से साहित्य और सिनेमा के लिए काम कर रहे हैं । इस बार कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल के वक्ताओं की सूची पर नजर डालने से साफ लगता है कि विमर्श का रेंज काफी व्यापक है । एक तरफ कवि हैं तो दूसरी तरफ नेताओं के नाम हैं । सूची में उन नेताओं को चुना या रखा गया है जिनका सरोकार कहीं ना कहीं लेखन से है । हिंदी साहित्य के अलावा फिल्मों पर भी गंभीर चर्चा के संकेत मिल रहे हैं । दरअसल सुमंत बत्रा खुद ही फिल्मों से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं । उनके पास फिल्मों के अतीत से जुड़ा काफी सामान है जिसको वो संग्रहित करते रहे हैं और अब उन्होंने उसको एक जगह व्यवस्थित कर दिया है । वक्ताओं की सूची पर नजर डालने से एक बात और साफ होती है कि यहां तात्कालिकता के अलावा ऐतिहासिकता पर भी ध्यान रखा गया है । वक्ताओं में अगर विनय सीतापति हैं तो सत्या सरण भी हैं । विनय की पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहाराव पर लिखी गई किताब हाफ लॉयन इन दिनों चर्चा में है । लता मंगेशकर पर गंभीरता के साथ लता सुरगाथा के लेखक यतीन्द्र मिश्र के किताब भी इन दिनों संगीत प्रेमी पाठकों के बीच चर्चा में है । यतीन्द्र के अनुभवों को सुनना मजेदार होगा कि कैसे छह सात सालों तक वो लता से बात करते थे और उसको रिकॉर्ड करके उन्होंने किताब की शक्ल दी ।
गंभीरता के अलावा लोकप्रियता को भी इस फेस्टिवल में खासी जगह और तवज्जो दी गई है । अंग्रेजी के लेखक अमीष त्रिपाठी की लगभग हर फेस्टिवल में एक स्थायी मौजूदगी होने लगी है । जैसे कुछ दिनों पहले तक गुलजार ऐसे आयोजनों में स्थायी रूप से मौजूद रहा करते थे हलांकि दोनों की मौजूदगी की वजहें अलहदा हैं । अमीष के अलावा कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में इस बार जासूसी उपन्यासों के पितामह सुरेन्द्र मोहन पाठक भी होंगे । सुनना तो दिलचस्प होगा अंडरवर्ल्ड डॉन पर किताब लिखनेवाले विवेक अग्रवाल को भी ।
अब सवाल ये उठता है कि इस तरह के आयोजनों की सार्थकता क्या है । क्या इससे देश में साहित्यक संस्कृति का निर्माण होने में मदद मिलेगी । क्या इस तरह के आयोजनों में होनेवाले विमर्शों की गूंज लंबे समय तक विधा विशेष में सुनाई देगी या फिर ये साहित्य और संस्कृति का मीना बाजार बनकर रह जाएंगे ?  इन सवालों के जवाब ढूंढने पर कई तरह के उत्तर सामने आते हैं । इस तरह के आयोजनों की सार्थकता तभी तक है जबतक कि इसमें विमर्श का एक स्तर हो और वक्ता कुछ नई बात रख सकें वर्ना आमतौर पर तो होता ये है कि पुरानी घिसी-पिटी बातों पर ही बहस आदि होकर आयोजन खत्म हो जाता है । इस तरह के आयोजनों से देश में साहित्यक संस्कृति के विकास में तो अवश्य मदद मिलती है लेकिन उस साहित्यक परंपरा को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है या नहीं जो भारत में पहले से मौजूद है, इस बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि इस तरह के आयोजनों की उम्र अभी बहुत कम है । इस तरह के आयोजनों की एक बड़ी सार्थकता तो ये है कि ये भाषाओं के बीच सेतु का काम करते हैं । अलग अलग भाषा के लेखक एक मंच पर होकर अपनी भाषा में हो रहे नए प्रयोगों या प्रवृत्तियों पर अपनी बात रखते हैं जिससे कि आवाजाही में सहूलियत होती है । लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इस तरह के कुछ साहित्यक मेले या उत्सव मीना बाजार जैसे हो गए हैं जहां साहित्य, कला और संस्कृति तो नेपथ्य में होता है  और उसके अलावा सारी चीजें सामने होती हैं ।  


1 comment:

Anonymous said...

ऐसे आयोजन होते रहने चाहिए।बहुत बढ़िया।