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Saturday, October 15, 2016

जंगल के बीच साहित्यक विमर्श

विजयादशमी का दिन, जिम कॉर्बेट का विशाल जंगली इलाका और साहित्य पर मंथन करने जुटे करीब डेढ सौ लेखक-पत्रकार-कवि और बुद्धिजीवी । यह एक ऐसा अवसर और मंच था जिसको मुहैया करवाया कुमांऊ लिटरेरी फेस्टिवल ने । दरअसल अक्तूबर के महीने से पूरे देश में इस तरह के साहित्यक महोत्सवों या लिटरेरी फेस्टिवल्स की शुरुआत हो जाती है जो मार्च तक चलता है । इन छह महीनों में देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग भाषाओं में और अलग अलग फॉर्मेट में साहित्यक महोत्सवों का आयोजन होता है । कुमांऊ लिटरेरी फेस्टिवल उस वक्त आयोजित हुआ जिस वक्त देश में राष्ट्रवाद और उसके तरीकों और प्रकारों को लेकर बहस चल रही है । लिहाजा कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल में राजनैतिक और अन्य बहसों में भी ये विषय सायास या अनायास आ ही जा रहा था । कुछ सत्र भी इस तरह के विषयों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे और वक्ताओं को चयन भी उसी हिसाब से था । लिटरेरी फेस्टिवल कि शुरुआत में ही मैगसेसे अवॉर्ड से हाल ही में नवाजे गए टी एम कृष्णा ने इस मुद्दे को बेहद संजीदगी से उठा दिया था । जब उन्होंने तमिल लेखक मुरुगन से लेकर कई अन्य उदाहरण देते हुए साझा करने की संस्कृति को मजबूत करने पर जोर दिया था और उसके क्षरण पर अपनी चिंता प्रकट की थी । मंच पर पवन वर्मा और तरुण विजय मौजूद थे लिहाजा राष्ट्रवाद पर कैसी बहस हो सकती थी इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है । पवन वर्मा ने अपनी पार्टी लाइन के हिसाब से बात की तो तरुण विजय ने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया । मंच पर मौजूद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ए के सीकरी ने अपने भाषण में संजीदगी से साहित्य लेखन पर प्रकाश डाला था । उन्होंने कहा कि जज जब फैसले लिखता है तो वो भी सृजनात्मक कार्य कर रहा होता है बस फर्क इतना होता है कि कविता, कहानी और उपन्यास की पहुंच काफी ज्यादा होती है जबकि जजों के फैसले प्रभावित लोग या फिर उस तरह के केस करनेवाले वकीलों के काम ही आता है । उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट के लेखक मुरुगन पर दिए फैसले को बेहतरीन बताया । साहित्य महोत्सव के उद्धाटन से इस बात के संकेत मिल गए थे कि बाकी बचे राजनीतिक विषयों के सत्र कैसे होंगे ।
महोत्सव के दूसरे दिन एक सत्र हुआ जिसका विषय था आपका राष्ट्रवाद बनाम हमारा राष्ट्रवाद । वक्ताओं में वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व सांसद शाहिद सिद्दिकि, हाल ही में अपनी किताब गुजरात फाइल्स की वजह से चर्चा में आई राणा अयूब, उद्योगपति और प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य सुनील अलघ और लेखक-पत्रकार हिंडोल सेनगुप्ता । सर्जिकल स्ट्राइक के बाद या उसके थोड़ा पहले से देश का जो माहौल है उसमें बदलते भारत की, उसकी नई पहचान की और नए आयाम की काफी चर्चा हो रही है । देशभक्त- देशद्रोह, मजबूत भारत, मजबूत नेतृत्व तमाम तरह के शब्दों की गूंज सुनाई देती है । जब भी नेशनिज्म की बात होती है तो सवाल यही कि किस तरह का राष्ट्रवाद होना चाहिए । आजादी के पहले गांधी ने भी राष्ट्रवाद को उभारा था । उन्होंने एक सभ्यता को राष्ट्र में बदला और देशभक्ति की भावना जगाकर उद्देश्य की एकता लाने की महिम चलाई । ये 1920 का दौर था । गांधी ने यूरोपीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया था । भाषा को राष्ट्रवाद से अलग किया गया । सभी भाषा और क्षेत्र के नेताओं को राष्ट्रवाद को प्रचारित करने का जिम्मा दिया गया था ।  वन लैंग्वेज वन नेशन को गांधी ने निगेटकिया था ।  अगर उक्त सिद्धांत को माना गया होता तो आजादी के बाद भारत में कई छोटे-बड़े राष्ट्र होते । नेशनलिज्म पर यह सत्र बेहद गर्मागर्मी वाला रहा । सुनील अलघ ने नेशनलिज्म और पैट्रियॉटिज्म को शब्दकोश के हवाले से अलग बताते हुए उस अवधारणा पर अपनी बात रखी । इस सत्र में हिंडोल सेनगुप्ता और राणा अयूब के बीच तीखी बहस हुई । राणा अयूब ने जैसे ही सर्जिकल स्ट्राइक से फायदा उठाने की बात की तो लेखक हिंडोल सेनगुप्ता ने उसका तीखा प्रतिवाद किया । पाकिस्तानी कलाकारों के मुद्दे पर हिंडोल का तर्क था कि जब दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद अपने चरम पर था तब वहां के क्रिकेटरों के खेलने पर पाबंदी थी और ओलंपिक में अफ्रीकी खिलाड़ी शामिल नहीं हो पाते थे । हिंडोल सेनगुप्ता का कहना था कि पाकिस्तान के कलाकारों की पाबंदी को अतीत के आलोक में देखा जाना चाहिए । इस बहस में इतनी गर्मागर्मी हो गई कि श्रोताओं को कहना पड़ा कि टीवी डिबेट जैसी बहस ना करें जिसमें कुछ सुनाई नहीं देता है । शाहिद सिद्दिकी के तर्क थे कि ना तो इस्लाम में दिक्कत है और ना ही हिंदुत्व में बल्कि दिक्कत तो अतिवाद में है। उनका कहना था कि जब भी नेशनलिज्म में अतिवाद हो जाता है तो दिक्कत शुरू हो जाती है । श्रोताओं के बीच बैठे कांग्रेस के सांसद अभिषेक मनु सिंघवी ने अभिव्यक्ति की सीमा का सवाल उठाया जिसका जवाब संचालक ने दिया कि सीमा तो वही है जो जवाहरलाल नेहरू ने पहले संविधान संशोधन के वक्त तय कर दी थी ।
इसी तरह का एक सत्र भारत की नई राजनीति को लेकर भी हुआ । जिसमें अभय कुमार दूबे, तरुण विजय और पाणिनी आनंद ने हिस्सा लिया । इस सत्र में बहस ब्रैंड मोदी पर रहा जिसको लेकर तरुण विजय और पाणिनी के बीच तीखी नोंक झोंक हुई । इस सत्र में नफरत की विचारधारा और अघोषित आपातकाल जैसे जुमले सुनने को मिले । अभय दूबे ने कहा कि देश अबतक के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है और कई सिस्टम पिछले पचास साल में सड़ गए हैं जिसको बदले बिना नई राजनीति की कल्पना बेमानी है । महिलाओं से जुड़े मुद्दे और उनको संसद में आरक्षण के सवाल पर प्रियंका चतुर्वेदी, नूपुर शर्मा, तुहीन सिन्हा ने अपनी बातें रखीं । पर ऐसा नहीं था कि सभी सत्र राजनीतिक विषयों पर ही थे । साहित्य और फिल्मों पर भी बेहद गंभीरता से विमर्श हुआ । दरअसल इस लिटरेरी फेस्टिवल की विशेषता ये रही कि यहां लेखकों के बीच ही संवाद हुआ और पाठकों और श्रोताओं की भागीदारी लगभग नहीं के बराबर थी, लिहाजा आपाधापी कम थी ।
एक दिलचस्प बातचीत स्टारडम को लेकर हुई जिसमें राजेश खन्ना के बॉयोग्राफर गौतम चिंतामणि और यासिर उस्मान के अलावा असीम छाबड़ा ने हिस्सा लिया । इसमे वक्ताओं ने स्टारडम के वैश्विक फेनोमिना पर विस्तार से बात की । इस सत्र के दौरान ये सवाल भी उठा कि क्या बॉलीवुड में सिर्फ अभिनेता ही स्टार हो सकते हैं । क्या किसी अभिनेत्री में स्टारडम की क्षमता नहीं है । कमोबेश इसपर सभी विशेषज्ञों की राय नकारात्मक थी लेकिन भारतीय सिनेमा के उस दौर को वो भूल गए जब संगीतकार नौशाद किसी भी कलाकार से ज्यादा पैसा लेते थे और उनका नाम पोस्टर पर प्रमुखता से छपता था । बल्कि ये भी माना जाता था कि नौशाद ने अगर संगीत दे दिया है तो फिल्म के हिट होने की गारंटी है । इसका फिल्म समीक्षक मयंक शेखर ने मॉडरेट किया । एक और दिसचस्प सत्र रहा जिसमें राखी बक्षी ने लेखक गुरुचरण दास से उनकी किताब डिफिकल्टी ऑफ बीइंग गुड के आधार पर महाभारत के चरित्रों के पुनर्पाठ को लेकर बातचीत की । महाभारत पर लिखी अपनी इस किताब में गुरुचरण दास ने पात्रों की चरित्रगत विशेषताओ को ध्यान में रखकर उनके पुनर्पाठ की कोशिश की है । इस किताब में दास ने अन्यान्य जगहों पर देसी-विदेशी लेखकों को उद्धृत किया है लेकिन उन्होंने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को भुला दिया है । अब ऐसा अज्ञानतावश किया गया या जानबूझकर ये कहना मुश्किल है । इन विषयों के अलावा हिन्दुस्तानी कविता पर भी संजीदगी से बात हुई जिसमें रक्षंदा जलील ने विद्वतापूर्ण तरीके अपनी बात रखी । अंग्रेजी के लेखक अमीष त्रिपाठी की लगभग हर फेस्टिवल में एक स्थायी मौजूदगी होने लगी है । जैसे कुछ दिनों पहले तक गुलजार ऐसे आयोजनों में स्थायी रूप से मौजूद रहा करते थे हलांकि दोनों की मौजूदगी की वजहें अलहदा हैं । इस फेस्टिवल में आकर्षण के एक और केंद्र रहे पंद्रह साल के उपन्यास लेखक विश्वेष देसाई जिनको राणा कपूर अवार्ड से नवाजा गया ।

तीन दिनों तक कॉर्बेट के जंगल में साहित्य, संस्कृति, राजनीति, सिनेमा पर मंथन के बाद दो दिनों तक धानाचुली में फिल्मों पर चर्चा हुई । दरअसल इस आयोजन के सर्वेसर्वा सुमंत बत्रा फिल्मों से जुड़ी चीजों को इकट्ठा करते रहे हैं और उन्होंने धानाचुली में एक बेहतर कलेक्शन जमाकर संग्रहालय बनाने की कोशिश की है । अब अंत में हम ये पूछ सकते हैं कि इस लिटरेरी फेस्टिवल का हासिल क्या रहा क्योंकि यहां वृहत्तर पाठक वर्ग से जुड़ने की कोशिश तो है नहीं । आयोजकों का कहना है कि वो इस साहित्यक उत्सव को गंभीर विमर्श का स्वरूप देना चाहते हैं ताकि किसी विषय विशेष पर बगैर किसी शोरगुल, विवाद और हल्ला गुल्ला के विद्वान आपस में बैठकर मंथन कर सकें ।   

1 comment:

Anonymous said...

ऐसे आयोजन साहित्य को समृद्ध करते हैं।