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Saturday, October 1, 2016

मेवात का साहित्यक गजेटियर

हिंदी में संस्समरण और आत्मकथा को लेकर एक बेहद बारीक रेखा है । बहुधा हिंदी के लेखक संस्मरणों की शक्ल में अपनी आत्मकथा प्रस्तुत कर देते हैं । इसमें एक फायदा ये होता है कि उनको सुविधानुसार प्रसंगों को उद्धृत करने का या छोड़ देने की सहूलियत रहती है । आत्मकथा में जिस ईमानदारी की जरूरत होती है वो आवश्यकता संस्मरणों में नहीं होती है । देखा जाए तो संस्मरणों से भी लेखक के व्यक्तिगत जीवन की चौहद्दी ही खिंचती है । हिंदी के वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की स्मृतियों को सहेजते हुए उनकी कृति पकी जेठ का गुलमोहर प्रकाशित हुआ है । वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित मोरवाल की इस कृति में सत्तर के दशक के शुरू होकर करीब करीब नब्बे के दशक तक का मेवात जीवंत हो उठता है । पुस्तक के ब्लर्ब पर सही ही लिखा है – पकी जेठ का गुलमोहर कथाकार भगवानदास मोरवाल की स्मृतियों का अतीत राग या फिर महज उनकी दास्तान भर नहीं है, बल्कि यह बदलते आधुनिक ग्रामीण शहरी समाज के बहाने एक लेखक के क्रमिक विकास के साथ साथ एक समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय अध्ययन भी है । अगर इसमें जोड़ा जा सकता है तो ये कहना उचित होगा कि ये हरियाणा के मेवात इलाके के दो दशकों का सामाजिक राजनीतिक गजेटियर भी ।

भारतीय इतिहास लेखन की एक बड़ी कनमी ये रही है कि उसने साहित्यक कृतियों को स्त्रोत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया । ना ही जीवनियों को और ना ही संस्मरणों को जबकि इन दोनों विधाओं में अपने समय का इतिहास ही तो मौजूद रहता है । भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा पर अगर नजर डालते हैं तो यहां जीवनी के बहाने से इतिहास अनुपस्थित है। अठारह सौ इकतासील में वॉल्डो इमरसन ने लिखा था कि सही मायने में इतिहास जीवनियों से बनता है । उन्नीसवीं शताब्दी में इमरसन ने अमेरिका की स्थिति को ध्यान में रखकर ये टिप्पणी की थी लेकिन भारतीय इतिहास लेखन के मद्देनजर ये सही प्रतीत नहीं होता है । अगर हम ये जानना चाहते हैं कि इमरजेंसी के दौरान मेवात की क्या स्थिति थी या वहां इमरजेंसी के दौरान किस तरह की ज्यादतियों का अंजाम दिया गया था तो भगवानदास मोरवाल की किताब पकी जेठ का गुलमोहर इसके लिए स्त्रोत हो सकता है । इसके अलावा मेवात का सामाजिक जीवन और वहां महिलाओ की स्थिति से लेकर हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर मोरवाल ने बेहद संजीदगी से अपनी इस किताब में लिखा है । मेवात में स्त्रियों की हालात पर मोरवाल की टिप्पणी देखई जा सकती है – हरियाणा वाले मेवों में पैतृक संपत्ति पर केवल पुत्रों का हीअधिका होता है । घर के मुखिया के देहान्त के बाद पत्नी और बेटियां उस संपत्ति ( जिसमें खेत भी शामिल है ) का उपयोग तो कर सकती हैं पर उसको बेच नहीं सकती है और ना ही वो अपने बेटियों के नाम कर सकती हैं । पति के देहान्त के बाद पत्नी भी केवल उसका उपयोग कर सकती हैं बेच नहीं सकती है । पति और पत्नी के देहांत के बाद उस संपत्ति पर, रिवाज-ए-आम के कानून के मुताबिक उसकी बेटियों के बजाय उनके चाचा-ताऊ के बेटों का अधिकार होता है । अब ये गौर करने की बात है कि सत्तर के दशक में भी मेवात में रिवाज-ए-आम ही चलता था । सामाजिक राजनीति परिवेश के अलावा मोरवाल की इस किताब में उस दौर का साहित्यक परिवेश भी आता है । एक बेहद दिलचस्प प्रसंग है उनके पहले कहानी संग्रह के प्रकाशन का । जब वो प्रकाशक के पास पहुंचते हैं और अपने पहले कहानी संग्रह तो देखकर वो फूले नहीं समा रहे होते हैं । अचानक पन्ने पलटते हुए वो संग्रह के अंत कीओर जाते हैं तो वहां धार्मिक अंशों को छपा देख उनके होश उड़ जाते हैं । जब वो प्रकाशक से पूछते हैं कि ये क्या है तो जवाब और दिलचस्प है । प्रकाशक प्रेमचंद शर्मा ने कहा – पुस्तक सिर्फ पांच फर्मे के हो रहे थे, कम से कम छह फर्मे तो होने चाहिए, इसलिए दस-बारह पेज बढ़ाने के लिए इन्हें डाल दिया । तो हम कह सकते हैं कि मेवात के इस लेखक ने अपनी इस किताब में मेवात के दो दशकों के परिदृश्य को एक बार फिर से जीवंत कर दिया है । 

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