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Saturday, October 8, 2016

पहचान के संकट से जूझता कला केंद्र

दिल्ली में इस बात को लेकर अर्से से शोर मच रहा है कि यहां साहित्य और कला प्रेमियों के लिए कोई बैठने की जगह नहीं है । कनॉट प्लेस में कॉफी शॉप बंद होने के बाद से इस तरह की मांग उठती रही है कि विमर्श का एक अड्डा होना चाहिए जहां बैठकर साहित्यकार और कलाकार बहस कर सकें । दिल्ली में पुस्तकालयों को लेकर भी खासी चर्चा होती रही है ।जब भी इस तरह की चर्चा होती है तो नेहरू ममोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी के अलावा हरदयाल लाइब्रेरी और दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का नाम आता है । इन चर्चाओं के बीच दिल्ली के दिल में स्थित एक कैंपस में एक और लाइब्रेरी है जिसका ना तो कभी जिक्र होता है और ना ही इसके बारे में किसी तरह का प्रचार होता आया है । ये पुस्तकालय है जनपथ स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का । इस पुस्तकालय में ढाई लाख किताबें हैं जो कि साहित्य, कला , संस्कृति समेत विभिन्न विषयों पर हैं । इस बड़ी लाइब्रेरी के बारे में दिल्ली के साहित्यप्रेमियों को जरा कम ही पता है । सालभर का शुल्क भी महज पांच सौ रुपए है । इसके अलावा इस पुस्तकालय में नियमित रूप से लेखकों का रचना पाठ भी होता है । होता सबकुछ है यहां लेकिन वो साहित्य प्रेमियों तक ना पहुंचकर एक खास वर्ग के लोगों को ही इसकी जानकारी दी जाती है या उनको मिल पाती है । रचना पाठ के बारे में कभी किसी अखबार में कुछ छपा हो, याद नहीं पड़ता। इतनी समृद्ध लाइब्रेरी के बारे में कभी किसी अखबार ने फीचर किया होगा, स्मरण नहीं आता ।  दरअसल दिल्ली के दिल में छब्बीस एकड़ भूमि पर बने इस राष्ट्रीय कला केंद्र के पास इतना बड़ा खजाना मौजूद है जो कि दिल्ली के साहित्य कला प्रेमियों को समृद्ध कर सकता है लेकिन अबतक इस खजाने के बारे में कोई जानकारी ही नहीं दी जा रही थी । इस केंद्र को एक खास किस्म के अभिजात्य से जोड़कर रखा गया था ताकि यहां आम पाठकों का प्रवेश ही संभव ना हो सके । इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके नाम से स्थापित इस कला केंद्र में लाइब्रेरी तो है ही यहां करीब दो लाख कृतियों की पांडुलिपियां भी सहेज कर रखी गई हैं जो अपने हमारी समृद्ध लेखकीय परंपरा का दस्तावेज है । अबतक इस कला केंद्र के प्रशासन से जुड़े लोगों ने बहुत काम किया । कई कलाकारों के पूरे संग्रह खरीद लिए, कई लेखकों के पूरे संग्रह को संग्रहित करवा दिया, कई बड़े आयोजन कर लिए लेकिन एक जो काम नहीं किया वो ये कि इस केंद्र को आम साहित्य और कला प्रेमियों से नहीं जोड़ा । इस कला केंद्र की स्थापना का जो मूल उद्देश्य था उससे भी ये संस्था भटकती रही या यों कह सकते हैं कि उस राह पर मजबूती से आगे नहीं बढ़ी । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की बेवसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक उन्नीस सौ पचासी में इंदिरा जी के जन्मदिन यानि उन्नीस नवंबर को इसकी कल्पना की गई और चौबीस मार्च उन्नीस सौ सतासी को इसकी शुरुआत की गई । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ट्रस्ट बनाया गया जिसमें राजीव गांधी, आर वेंकटरमण, पी वी नरसिंहाराव, पुपुल जयकर, एच वाई शारदा प्रसाद और कपिला वात्स्यायन । ये इतने बड़े नाम हैं जो किसी भी संस्था के लिए उसके मजबूती के परिचायक हो सकते हैं । यह संस्था जब खबरों में आई थी तो वो विवाद को लेकर जब इसके ट्रस्टियों को बदले जाने पर और आजीवन ट्रस्टी नियुक्त करने पर विवाद हुआ था । तभी देशभर के लोगों ने जाना था कि दिल्ली में एक कला केंद्र हैं जहां के ट्रस्टी का पद कुछ इतना बड़ा होता है कि उसको लेकर सरकार और एक खास परिवार के बीच तलवार भी खिंच सकती है ।
इस केंद्र की परिकल्पना कला के क्षेत्र में अनुसंधान और शैक्षिक उद्यम और प्रचार प्रसार करनेवाली एक स्वायत्त संस्था के रूप में की गई थी । कला का दायरा काफी विस्तृत रखा गया था और उसमें नृविज्ञान से लेकर पुरातत्व तक को इसमें शामिल किया गया था । लेकिन इस संस्था के कर्ताधर्ताओं ने इस संस्था को पता नहीं किस रास्ते पर चलाने का फैसला किया कि ये आम आदमी से दूर होती चली गई और अपनी स्थापना के उद्देश्यों से लगभग भटक कर कुछ लोगों का अरण्य बनकर रह गई । इस संस्था ने कला के क्षेत्र में जो भी अनुसंधान किए हों उसको ना तो प्रचारित किया और ना ही उसके बारे में लोगों तक अपनी बात पहुंचा सके । नतीजा यह हुआ कि जो भी शोध या अनुसंधान हुए वो चंद लोगों तक ही पहुंच कर रह गए या फिर कला केंद्र के कमरों में बंद होकर रह गए । अभी हाल में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को इस संस्था का नया अध्यक्ष बनाया गया था । उस वक्त काफी हो हल्ला मचा था और उसके बाद जब नामवर सिंह के नब्बे साल पूरे होने पर दिनभर का आयोजन हुआ था तब भी एक खास वर्ग के लोगों ने शोर मचाया । उन लोगों से ये पूछा जाना चाहिए कि अब तक इस संस्था को अभिजात्य बनाकर रखा गया था तो क्यों नहीं किसी तरह का कोई शोरगुल मचाया। क्यों नहीं किसी विचारधारा के ध्वजवाहक ने ये सवाल उठाया कि ये संस्था अपने उद्देश्यों से क्यों भटक गई । सवाल तो नामवर सिंह के जन्मदिन के बाद के आयोजनों पर भी नहीं उठाए गए ।
दरअसल अब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में बदलाव की बयार बहती दिखाई दे रही है । सदस्य सचिव सचिदानंद जोशी के मुताबिक उनकी प्राथमिकता में संस्था को लोगों तक पहुंचाने और इसके कामों से लोगों को जोड़ने की है और वो अपनी प्राथमिकता के हिसाब से ही काम कर  रहे हैं । क्या ये बात कल्पना से परे नहीं है कि दिल्ली के दिल में स्थित इस संस्था की लाइब्रेरी के सिर्फ एक सौ तीस सदस्य थे । वो भी तब जब इसका सालाना शुल्क सिर्फ पांच सौ रुपए है । अब नई व्यवस्था में इस पुस्तकालय के दरवाजे खुले हैं तो सदस्य बढ़ने लगे हैं । कला केंद्र के पास इतनी अनूठी चीजें हैं जिसको प्रदर्शित करना शुरू किया गया है । अभी हाल ही में राजा दीनदयाल जिन्हें भारत में फोटोग्राफी का जनक माना जाता है उनसे जुड़ी सारी चीजें एक गैलरी बानकर प्रदर्शित की गई है । राजा दीन दयाल मेरठ के पास अठारह सौ चौवालीस में जन्मे थे और इंजीनियरिंग की पढाई करने के बाद इंदौर चले गए थे । वहां उन्हें इंदौर के शासक महाराज टुकोजी द्वितीय ने संरक्षण दिया और उनको स्टूडिया बनाने के लिए प्रोत्साहित किया । राजा दीन दयाल को ठारह सौ पचासी में वायसराय का ऑफिसिअल फोटोग्राफर नियुक्त कर दिया गया और दो साल बाद उनको क्वीन विक्टोरिया की सेवा करने का मौका मिला । यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि राजा दीन दयाल से जुड़ी चीजें कला केंद्र में मौजूद थी लेकिन उनको गोदाम में रख दिया गया था । अब उसकी प्रदर्शनी से नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से रू ब रू होने का मौका मिल रहा है । उनके कैमरे को देखकर लगता है कि उस जमाने में फोटोग्राफी कितनी मुश्किल रही होगी या फोटोग्राफी की कला तो उस वक्त ही थी जब मशीनों का साथ फोटोग्राफर को नहीं मिलता था ।

शोध और शैक्षणिक उद्यम को बढ़ावा देने के लिए अब इस संस्थान को छात्रों से जोड़ने की योजना भी बन रही है । सांस्कृतिक समझ को विकसित करने के लिए कल्चरल इंफोमैटिक्स का कोर्स शुरू करने जा रही है जिसे एआईसीटीई से मान्यता भीमिल चुकी है । इस कोर्स के अलावा बौद्ध स्टडीज पर भी डिप्लोमा के माध्यम से छात्रों को जोड़ने की योजना है । इस कला केंद्र के पास एक अहम काम संरक्षण और पुनर्स्थापना का भी है । नई पीढ़ी के छात्रों को इस काम से जोड़ना बेहद श्रमसाध्य कार्य है लेकिन इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए संरक्षण और पुनर्स्थापना की पढ़ाई भी शुरू की जाएगी । अब अगर किसी संस्थान के पास दो लाख से ज्यादा पांडुलिपियां हैं तो उसके संरक्षण की चिंता तो करनी ही होगी । इंदिरा गांधी कला केंद्र के पास जितने संसाधन हैं. उसका सार्थक उपयोग इस कला केंद्र को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने के लिए नाकाफी हो सकते हैं लेकिन देश में और कम से कम दिल्ली में इस कला केंद्र को एक अहम पहचान दिलाने के लिए तो काफी हैं । दिल्ली में इतनी बड़ी जगह और उसका उपयोग नई टीम के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । अगर इस संस्था को लोगों से जोड़ पाने की चुनौती कामयाब होती है तो कला के हित में होगा । 

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