ईरान से एक बार फिर हैरतअंगेज खबर आई है वहां एक लेखिका को कहानी
लिखने के लिए छह साल जेल की सजा सुनाई गई है । गोलरोख इब्राहिमी ईराई नाम की इस
लेखिका का जुर्म इतना भर है कि उसने अपनी कहानी में पत्थर मार कर मौत की सजा देने
को विषय बनाया है । उससे भी दिलचस्प बात ये है कि गोलरोख इब्राहिमी ईराई की ये
कहानी अभी कहीं प्रकाशित भी नहीं हुई है । मसला ये है कि करीब दो साल पहले ये
कहानी ईरान के एक प्रशासनिक अधिकारी के हाथ लग गई थी । उस अप्रकाशित कहानी को
पढ़ने के बाद लेखिका गोलरोख इब्राहिमी ईराई और उसके पति अर्श सादेगी को पुलिस ने
उठा लिया और उसके घर से उसका लैपटॉप, नोटबुक और कई सीडी जब्त करके ले गए । सादेगी
को तो ईरान की इवीन जेल मे बंद कर दिया गया जबकि उनकी पत्नी गोलरोख इब्राहिमी ईराई
को अज्ञात जगह पर ले जाकर पूछताछ की गई । बाद में उसको भी इवीन जेल भेजा गया और
वहां बीस दिनों तक रेवोल्यूशनरी गार्ड्स ने घंटों तक पूछताछ की । पूछताछ के दौरान
उसको बार बार ये कहा जाता था कि तुमने इस्लाम का अपमान किया है लिहाजा तुमको फांसी
की सजा दी जाएगी । दरअसल गोलरोख इब्राहिमी ईराई पर आरोप है कि उसने अपनी अप्रकाशित
कहानी में पत्थर मारने की सजा के खिलाफ आवाज उठाकर इस्लाम और खुदा का अपमान किया
है । ईरान में लागू शरीया कानून के मुताबिक बलात्कार के मुजरिम को पत्थर से मार
मार कर मार डालने की सजा का प्रावधान है । दरअसल बताया जा रहा है कि गोलरोख
इब्राहिमी ईराई ने अपनी कहानी में ईरान की एक सच्ची घटना का जिक्र किया है । इस
घटना में एक महिला फिल्म देखने जाती है जहां रेप के आरोपी को शरीया कानून के
मुताबिक पत्थर से मार मार कर मार डाला जाता है । इस दृश्य के फिल्मांकन से वो
महिला बुरी तरह से आहत होती है और गुस्से में धर्मग्रंथ को जला देती है । इस
काल्पनिक दृश्य का गोलरोख इब्राहिमी ईराई ने अपनी अप्रकाशित कहानी में उल्लेख किया
है । संभव है कि जब वो प्रकाशन के लिए कहीं भेजती तो उसको संपादिक कर देती या फिर
इसके अगले ड्राफ्ट में इस कथित ईशनिंदा के प्रसंग को हटा देती लेकिन उसको तो इसका
मौका ही नहीं मिला । गोलरोख इब्राहिमी ईराई को पिछले दिनों फोन पर छह साल इवीन जेल
में सजा काटने का फरमान सुनाया गया । अब अगर हम इसको देखें तो ईरान के हिसाब से तो
ये बात छोटी सी लगती है लेकिन इसकी जड़ में धर्म के नाम पर लेखकीय स्वतंत्रता पर
कुठाराघात किया गया है । क्या ईरान जैसे मुल्क में अगर किसी ने व्यक्तिगत तौर पर
कुछ लिखकर रख लिया और किसी तरह वो सरकारी नुमाइंदों के हत्थे चढ़ गया तो क्या उसको
भी धर्म की कसौटी पर कसकर सजा दी जाएगी । इस पूरी घटना पर एमनेस्टी के अलावा किसी
भी लेखक संगठन या पेन इंटरनेशनल जैसी लेखकों की संस्था की प्रतिक्रिया नहीं आना चिंता
की बात है । भारत में एकाध छिटपुट घटनाओं के आधार पर सैकड़ों पृष्टों की रिपोर्ट
तैयार करनीवाली संस्था पेन इंटरनेशनल इस तरह की घटनाओं पर कब रिपोर्ट जारी करेगी
या फिर खामोशी का रुख अख्तियार कर लेगी ।
दरअसल ईरान में पिछले दिनों कट्टरता का जोर और बढ़ा है । एक अनुमान
के मुताबिक ईरान में पिछले कुछ महीनों में छह हजार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से
लेकर वकीलों और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है । सब पर लगभग एक ही किस्म का आरोप
है कि वो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए आवाज उठा रहे हैं या फिर वो ईशनिंदा के दोषी
हैं । इस्लाम के नाम पर इस तरह की ज्यादतियां कितनी जायज हैं, इस पर पूरी दुनिया
को विचार करने की जरूरत है । मशहूर इस्लामिक विद्वान आसिफ ए ए फैजी ने अपनी किताब
अ माडर्न अप्रोच टू इस्लाम में इन बातों पर गंभीरता से विचार किया है और उलेमाओं
की मान्यताओं और व्याख्याओं को निगेट भी किया है । उन्होंने लिखा है कि- हमें इस
बात का एहसास होना चाहिए कि अब आत्मविश्लेषण का समय आ गया है । इस्लाम की पुन:व्याख्या की जानी चाहिए,
वरना इसका पारंपरिक रूप इस कदर खो जाएगा कि उसका पुनरुद्धार करना असंभव हो जाएगा ।
फैजी साहब के तर्कों में दम है और वो साफ तौर पर कहते हैं – आदमी को आधुनिक संसार
का सबसे बड़ा तोहफा आजादी है – सोचने की आजादी, बोलने की आजादी और आचरण की आजादी ।
वो इसके आधार पर सवाल खड़े करते हुए पूछते हैं कि इस्लाम क्या करता है –वह
व्याख्या का द्वार बंद कर देता है वह निर्धारित करता है कि विधिज्ञों को कुछ
वर्गों में बांट दिया जाए और कोई वैचारिक स्वतंत्रता नहीं दी जाए । वो मानते हैं
कि इकबाल और अब्दुर्रहीम ने इस सिद्धांत के खिलाफ बगावत की लेकिन बावजूद उसके कोई
व्यक्ति उलमा के गुस्से का सामना करने का साहस नहीं रखता है । फैजी ये बातें साठ के
दशक के शुरू में लिख रहे थे। तब से लेकर हालात कितने बदले या बदतर हुए हैं इसपर
इस्लामिक स्कॉलर्स को विचार करना चाहिए । असगर अली इंजीनियर साहब ने भी कई सवाल
उठाए थे लेकिन उसके बाद क्या हुआ । किसी भी धर्म को तर्कों की कसौटी पर कसने से ही
उसके अंदर की कमियों को दूर किया जा सकता है । कुरान के नाम पर उलेमा ने जिस तरह
की व्यवस्थाएं दी उससे भी जटिलताएं बढ़ीं ।
आज के जमाने में जब पूरी दुनिया इंटरनेट के माध्यम से एक ग्लोबल
गांव की तरह हो गई है तो इस तरह की पाबंदी किसी भी देश के लिए कितना उचित है इसपर
विचार करने की जरूरत है । हमारे देश में भी गोलरोख इब्राहिमी ईराई को छह साल की
सजा देने पर किसी तरह का कोई स्पंदन नहीं हुआ। लेखकीय अभिव्यक्ति को लेकर असीमित
अधिकार के पैरोकारों ने भी गोलरोख इब्राहिमी ईराई की सजा पर एक शब्द भी बोलना उचित
नहीं समझा । ना तो लेखक संगठनों ने और ना ही किसी लेखक ने इसके खिलाफ कोई
हस्ताक्षर अभियान चलाया । यह फिर से चुनिंदा विरोध को उजागर करती है ।
1 comment:
इस्लामी राष्ट्रों में कठमुल्लापन के विरोध या धार्मिक आत्मविश्लेषण की गंभीर आवश्यकता से भला कौन असहमत होगा ! पर इसकी संभावना लगातार घट रही है । भारत में मुल्लाओं द्वारा ' तीन तलाक ' पर चल रहा विरोध और महिलावादी / मानवतावादी / प्रगतिशीलतावादी की चुप्पी देखी जा सकती है । तात्पर्य यह कि शरीयत की गैर-मानवीय व्यवस्था का विरोध या उस पर पुनर्विचार जब भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक देश में संभव नहीं तो इस्लामी मुल्कों में निश्चय ही दुष्कर है । मुस्लिम समाज आँखे खोलने के लिये तैयार नहीं और इसका शिक्षा / सम्पन्नता से कोई सम्बन्ध नहीं ।
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