हाल ही में खत्म हुए दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को पाठकों की बढ़ती संख्या, नोटबंदी के दौरान मुद्रा की कमी के
बावजूद बेहतर बिक्री और युवाओं की बढ़ती भागीदारी के लिए तो याद किया ही जाएगा
लेकिन एक और साहित्यक घटना हुई जिसको भी रेखांकित किया जाना आवश्यक है । इस बार के
पुस्तक मेले में वरिष्ठतम और उस पीढ़ी के बाद की पीढ़ी के लेखकों की धमक भी कम
महसूस की गई । पहले तो यह होता था कि नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव,
निर्मला जैन जैसी वरिष्ठतम पीढ़ी की लेखिकाओं को लेकर पुस्तक मेले के हिंदी मंडप
में खासा उत्साह रहता था । हर लेखक चाहता था कि उनकी किताब का विमोचन इन्हीं
महानुभावों के करकमलों से संपन्न हो । याद आता है
वो दौर जब नामवर सिंह को एक पुस्तक मेले के दौरान राजेन्द्र जी
विमोचनाचार्य ही कहते रहे थे । उस दौर में हर लेखक की इच्छा होती थी कि वो नामवर
सिंह जी से अपनी किताब का लोकार्पण करवाए और किताब पर उनके दो शब्द लेखक के लिए अमूल्य
थाती की तरह होते थे । नामवर जी के बाद राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी लेखकों की
पसंद हुआ करते थे । पुस्तक मेले का अतीत इस बात का गवाह है कि इन लोगों ने एक एक
दिन में दर्जनों किताबों का मेलार्पण किया था । नामवर सिंह तो कई किताबों का
विमोचन एक साथ कर देते थे और अपनी विद्धवता की वजह से सारी किताबों पर एक साथ बोल भी
जाते थे । कहानीकारों में राजेन्द्र यादव को लेकर एक खास किस्म का उत्साह देखने को
मिलता था । दावे के साथ तो यह नहीं कही जा सकता है कि उनके द्वारा संपादिक पत्रिका
हंस की वजह से वो लेखकों की पसंद थे या कोई अन्य वजह, लेकिन वो थोक के भाव से
लोकार्पण करते थे । इन दोनों के अलावा
अशोक वाजपेयी से सत्ताशीर्वाद की आकांक्षा रखनेवालों से लेकर एक खास समूह के लेखक
उनसे अपनी किताबों का विमोचन करवाते थे । रवीन्द्र कालिया जी के दिल्ली आने के बाद
वो भी विमोचनों में नजर आने लगे थे ।
लेकिन हाल ही में संपन्न हुए पुस्तक मेले में यह पीढ़ी
लगभग समारोहों से दूर ही नजर आई । नामवर जी ने भले ही पुरानी नई कविता पुस्तकों के
सेट का विमोचन किया, इसके अलावा भी एक दिन दो चार किताबों के विमोचन उन्होंने किया
लेकिन पुस्तक मेले में एक ही प्रकाशक के स्टॉल पर । मेले में उनको लेकर एक खास
किस्म की उदासीनता भी देखने को मिली । यह बात भी थी कि वो अपनी बढ़ती उम्र और
स्वास्थय की वजहों से ज्यादा विमोचन नहीं कर पाए । यादव जी और कालिया जी अब रहे
नहीं । बचते हैं अशोक वाजपेयी तो उनको लेकर मेले में कोई खास उत्साह देखने को नहीं
मिला । लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इन लोगों ने विमोचन नहीं किया तो फिर किताबें
इतनी भारी संख्या में जारी कैसे हुईं और फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया साइट्स इस तरह
के समारोहों की तस्वीरों से भरे कैसे । यहां यही रेखांकित करने की जरूरत है कि इस
मेले में नई पीढ़ी ने अपनी ही पीढ़ी के लेखकों से अपनी किताबों का विमोचन करवा
लिया और उसपर चर्चा भी करवा ली । मैत्रेयी पुष्पा और चित्रा मुद्गल मे करीब दर्जन
भर किताबों का विमोचन किया होगा लेकिन युवा लेखकों ने अपने साथियों के साथ सैकड़ों
किताबों का विमोचन किया । क्या इसको पीढ़ी के विस्थापन के तौर पर देखा जाना चाहिए
। क्या अब नई पीढ़ी ने एलान कर दिया कि पुरानी पीढ़ी का सम्मान है लेकिन वो अपनी
किताबें के लिए उनका मुंह नहीं जोहेगी । यह हर दौर में होता रहा है है लेकिन हिंदी
में इस बार बहुत दिनों बाद हुआ । यह सिर्फ विमोचन के स्तर पर नहीं हुआ रचनात्मक
स्तर पर नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी को विस्थापित कर दिया । पुरानी पीढ़ी की जितनी
किताबें छपी उनसे कहीं ज्यादा नई पीढ़ी के लेखकों की किताबें छपीं। इसपर पहले भी
विचार किया जा चुका है नई पीढ़ी के लेखकों की किताबें छपने में किस तरह के जुगाड़
लगाए गए थे । पर छपे तो ।
यही हाल कविता को लेकर भी देखने को मिला । इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक
है कि हिंदी के स्थापित कवियों के संग्रह मेले के दौरान प्रकाशित नहीं हुए । जैसा
कि उपर कहा चुका है नामवर जी ने कई कवियों के संग्रहों का विमोचन किया लेकिन वो
ज्यादातर पुराने संगहों के नए संस्करण थे । मेले के दौरान हलाला जैसा उपन्यास
लिखनेवाले भगवानदास मोरवाल ने एक ल्कुल नई पहल की । उन्होंने अपनी टीम से मेले के
दौरान करीब चार पांच दिनों तक एक सर्वे करवाया था दिसके नतीजों की सूचना वो फेसबुक
पर साझा करते थे । मोरवाल जी द्वारा करवाए गए सर्वे के मुताबिक
- मेले से हिंदी कविता लगभग पूरी तरह अनुपस्थित है. प्रकाशकों के
स्टाल्स पर एक के बाद एक ,कहानी
संग्रह और उपन्यासों के लोकार्पण और उन पर चर्चा कराई जा रही है ,या हो रही है वहां कविता एक तरह से उपेक्षित-सी रही है.
हिंदी के बड़े कवि कुंवर नारायण,
केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल , लीलाधर जगूड़ी, उदय
प्रकाश,कृष्ण कल्पित , अनामिका, सविता
सिंह , नरेश सक्सेना , लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप का कोई कविता संग्रह मेले में नहीं आया । इसके
अलावा भी संजय कुंदन, पवन
करन, संजय चतुर्वेदी, कात्यायनी , अनीता
वर्मा जैसे उनके बाद की पीढ़ी के कवियों के संग्रह भी प्रकाशित नहीं हुए । इस
सर्वे के मुताबिक लगभग यही स्थिति फेसबुक से उपजे युवा कवि-कवयित्रियों की भी रही।
चर्चा हुई भी होगी तो उस तरह नहीं जिस तरह मंचीय कवियों और ग़ज़लों के नाम पर
लोकप्रिय शायरी को प्रोत्साहित किया जा रहा है । अगर इस सर्वे के नतीजों को सही
माना जाए तो कविता के लिए ये स्थिति उत्साहजनक तो नहीं ही कही जाएगी । कविता एक
ऐसी विधा है जो साहित्य को हमेशा से नये आयाम देती रही है अगर उसपर किसी तरह की
आंच आती है तो यह गंभीर बात होगी । हिंदी के कवियों को इस पर विचार करने की जरूरत
है कि क्या वजह है कि प्रकाशन जगत के इस सबसे बड़े आयोजन में स्थापित कवियों की
अनुपस्थिति दर्ज की गई । क्या पुराने कवि अपने समय से पिछड़ गए उसको पकड़ नहीं पा
रहे हैं । दूसरी बात ये भी देखने को मिली कि छोटे छोटे कई प्रकाशकों की सूची के नए
प्रकाशनों में कविता संग्रहों को अच्छी खासी जगह मिली हुई है । संभव है कि ये
प्रकाशन जगत की नई इकोनॉमी की वजह से हो । मोरवाल जी द्वारा कराए गए सर्वे के आधार
पर इस बात पर तो विचार किया ही जा सकता है कि क्या ये नतीजा भी पीढियों के
विस्थापन का संकेत दे रहा है ।
हिंदी
साहित्य में युवा पीढ़ी को लेकर बहुत शोर मचा था अब भी मच रहा है । युवा लेखन को
लेकर भी कई तरह की बातें होती रहती हैं । कई लेखक तो युवा लेखन को उम्र के खांचे
में बांटने का विरोध करते हैं और उनका कहना है कि लेखन का युवा होना जरूरी है लेखक
का नहीं । इस तर्क के आदार पर ही हिंदी में पचास के करीब के लेखक या उसके पार के
लेखक भी अबतक युवा ही माने जा रहे हैं । युवा उत्सवों और समारोहों में आमंत्रित भी
किए जा रहे हैं। बावजूद इसके इस पीढ़ी के सामने एक तरीके के पहचान का संकट था । समारोहों
से लेकर फेसबुक आदि पर यह पीढ़ी लाख घोषणा करे कि उनको किसी से किसी तरह के समर्थन
आदि की दरकार नहीं है । आलोचकों की जरूरत नहीं है लेकिन उनके मन के कोने अंतरे में
कहीं यह बात गहरे धंसी है कि उनकी पीढ़ी के लेखन को ढंग से रेखांकित नहीं किया जा
रहा है । हमारा मानना है कि पुस्तक मेले में जिस तरह के वरिष्ठतम पीढ़ी के
विस्थापन देखने को मिला वह इस पीढ़ी के लेखकों का गुस्सा भी हो सकता है । उनके मन
में इस तरह की बात तो बैठती ही जा रही है कि पुरानी पीढ़ी के लेखक उनके लेखन पर
गंभीरता से लिखते/ बोलते नहीं हैं । संभव है कि पुस्तक मेले में उनके इसी
गुस्से का प्रकटीकरण देखने को मिला हो । अब जब एक तरीके से पीढ़ियों का विस्थापन के
संकेत मिलने शुरू हो गए हैं तब यह देखना और दिलचस्प होगा कि कथित तौर पर युवा
पीढ़ी के लेखक आगे भी इनसे आशीर्वाद लेने के लिए पंक्तिबद्ध या करबद्ध होते हैं या
नहीं ।अगर अपनी रचनाओं के लिए ये अब भी वरिठतम पीढ़ी से प्रमाणपत्र की अपेक्षा
रखते हैं तो फिर मेले में जो उपेक्षाभाव दिखा था वह अस्थायी माना जाएगा और हो सकता
है कि यह भी मान लिया जाए कि वो पीढ़ियों का विस्थापन ना होकर अपना क्षोभ प्रकट
करने का एक तरीका था ।
1 comment:
सटीक विश्लेषण ।।।।।
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