एक थे राजेन्द्र यादव। हिंदी में कहानियां लिखते थे। हंस
पत्रिका के संपादक थे। नामवर सिंह उनको विवादाचार्य कहते थे। राजेन्द्र यादव को
विवादों में मजा आता था। उनके पास खबरों में बने रहने की कला थी। वो तब दुखी होते
थे जब बहुत दिनों तक उनका नाम मीडिया में नहीं उछलता था, अखबारों में नहीं छपता
था। खबरों में बने रहने की उनकी ख्वाहिश पर बात होती थी तो तो वो हरिशंकर परसाईं
का एक व्यंग्य सुनाया करते थे- ‘एक नेता एक दिन अपने घर के बाहर तलवार लेकर
खड़ा था। उसके परिवार वालों ने पूछा कि क्या हुआ? नेता जी बोले
कि आज गला काटना है। अब परिवार वाले और पड़ोसी उनको रोकने लगे। वो इनसे यह कहते
हुए छिटक कर भागे कि गला काट कर ही दम लूंगा। आगे-आगे नेताजी और उनको रोकने के लिए
परिवारवाले और पड़ोसी। सब यही पूछ रहे थे कि गला क्यों काटना चाहते हैं? अगर किसी से कोई भूल-चूक हो गई है तो उसको सुधार लिया जाएगा। नेताजी
रुके और बोले कि जिस गले में सप्ताहभर से कोई माला नहीं पहनाई गई हो उसको तो काट
ही डालना चाहिए।‘ किसी तरह समझा-बुझाकर नेताजी को रोका गया।
यादव जी ये किस्सा सुनाकर कहते कि यार अगर सप्ताह भर से किसी लेखक का नाम अखबारों
में नहीं छपा, किसी पत्रिका में उसकी साहित्यिक या गैर-साहित्यिक गतिविधियों के
बारे में नहीं छपा तो लेखक को हिमालय पर चले जाना चाहिए। राजेंद्र यादव अपने जीते
जी भी और मृत्यु क बाद भी विवादों में बने रहे, चर्चा के केंद्र में रहे। एक बार
विवाद उठाने के चक्कर में बुरे फंसे थे जब उन्होंने भगवान हनुमान को पहला आतंकवादी
बता दिया था। उनके खिलाफ प्रदर्शन आदि को देखते हुए दो सुरक्षाकर्मी लगा दिए गए
थे। वो रात को भी उनके साथ ही रहते थे और उनके फ्लैट में ही बंदूक लेकर सोते थे। राजेन्द्र
यादव जी जैसे स्वछंद जीवन जीने वाले के लिए ये सुरक्षाकर्मी स्थायी बाधा थे। उन्होंने
मिन्नतें करके सुरक्षकर्मियों को हटवाया था।
यादव जी के निधन के बाद हिंदी साहित्य में विवाद कम हो गए। नानवर
जी अलग तरीक़े से चर्चा में बने रहते थे वो किसी भी कृति को सदी की महानतम कृति
बता देते थे या फिर कुछ ऐसा कह या कर देते थे जिससे विवाद हो जाता था। पर वो यादव
जी से अपेक्षाकृत कम विवादों में रहते थे। इन दोनों से अलग रविंद्र कालिया अपने
काम से विवाद उठाते थे। जिस भी पत्रिका का वो संपादन करते थे उसको संपदित करने के
तौर तरीकों से विवाद खड़ा करते थे। एक पत्रिका में उन्होंने लेखकों का परिचय इस
तरह से देना शुरू किया था जिससे विवाद हो गया था।पत्रिका चर्चित हो गई। अगले अंकों
से परिचय लिखने का विवादित तरीका वापस लेना पड़ा। इसी तरह से युवा लेखन के नाम पर
उन्होंने जितने लेखकों को छापा उनकी रचनाओं को लेकर भी सवाल उठे थे, बहसें हुई
थीं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के तत्कालीन कुलपति
विभूति नारायण राय के एक लेख के एक शब्द को लेकर भारी विवाद हुआ था। धरना प्रदर्शन
भी हुए थे, कुलपति को मानव संसाधन विकास मंत्री ने तलब भी किया था। मामला
राष्ट्रपति तक भी पहुँचा था।
इन तीन लेखकों के अलावा बचे अशोक वाजपेयी। 2014 के पहले अशोक जी
को लेकर, उनके वक्तव्यों को लेकर भी काफी विवाद होते रहे, भारत भवन को लेकर भी
उनके दंभ और बड़बोलेपन पर भी सवाल खड़े होते थे। दंभ इसलिए कि हिंदी के लेखकों को
हवाई जहाज पर चढ़ाने की बात उन्होंने ही की थी। बाद के दिनों में अशोक वाजपेयी गलत
वजहों से विवादों में रहे। 2014 के पहले तक अपने स्तंभ के ज़रिए छोटे-मोटे विवाद
उठाते थे। जब तक राजेंद्र यादव, नामवर सिंह और रविंद्र कालिया जीवित रहे विवादों
को हवा देने के मामले में अशोक वाजपेयी चौथे नंबर पर ही रहे। यादव जी, कालिया जी
और नामवर जी के निधन के बाद हिंदी में अशोक वाजपेयी के कद का कोई लेखक बचा नहीं ना
ही अशोक वाजपेयी जितना साधन संपन्न लेखक। तो अब वो विवादाचार्य के सिंहासन पर
आरूढ़ होने के लिए प्रयासरत हैं। अशोक वाजपेयी के पास रजा फाउंडेशन और
सोबती-शिवनाथ फाउंडेशन की आर्थिक शक्ति है, लिहाजा कई वरिष्ठ और कनिष्ठ लेखक उनके
इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। एक कुशल राजनेता की तरह अशोक वाजपेयी को मालूम है कि
किसको कितना और क्या देना है और बदले में क्या करवाना है। कुछ लोग तो बेवजह उनकी
नजर में आने के लिए लाठी भांजते रहते हैं। 2014 के बाद अशोक वाजपेयी साहित्येतर
कारणों और विवादों की वजह से चर्चा में रहे। 2015 में उन्होंने पुरस्कार वापसी
अभियान की अगुवाई की है और उसके बाद सहिष्णुता- असहिष्णुता के मुद्दे पर सेमिनार
और गोष्ठियों करके ख़ुद को चर्चा के केंद्र में बनाए रखा। एक ज़माने में अशोक
वाजपेयी वामपंथियों के बेहद खिलाफ़ हुआ करते थे लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार के
खिलाफ 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में वामपंथियों ने उनका साथ दिया या उन्होंने
लिया यह कहना मुश्किल है। हलांकि मुझसे एक बातचीत में उन्होंने यह स्वीकार किया था
कि वो वामपंथियों के साथ नहीं गए बल्कि वामपंथी उनकी छतरी के नीचे आए। अब मंगलेश
डबराल और असल जैदी जैसे घोषित वामपंथियों को भी बात साफ करनी चाहिए कि किस विचार
बिंदु पर वो और कलावादी अशोक वाजपेयी साथ हुए थे। 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान
के वक्त कलावादी लेखक और वामपंथियों का जो अवसरवादी गठजोड़ बना था उससे भी
साहित्यिक जगत में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हो सका।
अभी अशोक वाजपेयी ने एक साहित्यिक पत्रिका को नामवर सिंह को
केंद्र में रखकर एक इंटरव्यू दिया है। उसमें उन्होंने कई विवादित बातें कही हैं। एक
बात फिर से उन्होंने दोहराई कि नामवर सिंह सत्ता को साधते नजर आते थे। उदाहरणों के
साथ परोक्ष रूप से यह भी बताने की कोशिश की है कि नामवर सिंह का नेताओं के साथ
उठना बैठना था और वो उनसे लाभ लेने की जुगत में रहते थे। अब ये बातें कहने की
नैतिकता अशोक वाजपेयी में शेष नहीं है। नामवर जी से कम नेताओं के साथ उनके संबंध
नहीं है। अर्जुन सिंह से लेकर नीतीश कुमार तक से। साहित्य जगत में यह बात सभी को
मालूम है इसलिए उसको दोहराने का ना तो कोई अर्थ है ना ही औचित्य। बस तुलसीदास की पंक्ति याद की जा सकती है ‘पर उपदेस कुसल
बहुतेरे’। अशोक वाजपेयी ने एक ऐसा प्रसंग उठाया है जिसपर हिंदी के
लेखकों और कवियों को संवाद करना चाहिए। नामवर सिंह को याद करते हुए उन्होंने एक
निजी बातचीत का हवाला दिया। अशोक जी ने कहा कि- ‘कविता पर उनसे
बात होती तो मैं पूछता कि आप हिंदी का सबसे बड़ा कवि किसे मानते हैं।उनका कहना था
कि वो तुलसीदास को हिंदी जाति का सबसे बड़ा कवि मानते हैं। उनका आलोचकीय आकलन था
कि कबीर भी बड़े कवि हैं पर तुलसी में भाषा की जैसी विविधता है, प्रसंगों की जैसी
बहुलता और जीवन छवियां हैं वे कबीर में नहीं हैं। इसी प्रकार उन्होंने मुझसे पूछा
था इस समय हिंदी के कौन सबसे अधिमूल्यित यानि ओवर एस्टिमेटेड पोएट हैं तो मैंने
कहा था केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण। वे तुरन्त सहमत हुए थे।‘ इस पोस्ट को पढ़ते हुए मेरे मन में ये प्रश्न उठा कि क्या अशोक
जी ने ये बात पहले भी सार्वजनिक रूप से कहीं कही या लिखी है। कुछ लेखकों ने बताया
कि वो पहले भी ऐसा कह चुके हैं लेकिन कईयों का कहना है कि अशोक वाजपेयी कुंवर
नारायण के बारे में ऐसा पहले कहते नहीं सुने गए। दूसरी बात ये भी समझ नहीं आई कि
नामवर सिंह केदरानाथ सिंह को एपने समय का ओवर एस्टिमेटेड कवि मानते थे। हो सकता है
कि पहले इसपर चर्चा हुई हो पर ये चर्चा साहित्य के केंद्र में कभी पहुंची नहीं। याद
भी नहीं पड़ता कि कभी अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में इस तरह की चर्चा की हो। अभी
वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर से उनकी तीन पुस्तकें अपने समय में, समय के इर्द गिर्द
और समय के सामने प्रकाशित हुई हैं। ये उनके अखबारी लेखन और तात्कालिक टिप्पणियों
का संग्रह है। अशोक वाजपेयी ने एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि वो सच को खुली
आंखों से देखकर कहने की हिम्मत रखता हूं। पर अपने सच पर सन्देह भी करता हूं। किसी
की भी तानाशाही नहीं हो सकती, अपने सच की भी नहीं। उनको अपने सच के अलावा अपने
लेखन पर भी संदेह करने की जरूरत है, उसको भी खुली आंखों से देखने की जरूरत है
क्योंकि कई बार उनका लेखन या उऩका वचन मुंदी आंखों से लिखा या दिया प्रतीत होता
है। जरूरत तो इस बात की भी है कि उनके सिपहसालार भी सच को खुली आंखों से देखें,
आंखें मूंदकर नहीं।
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