कई सालों से यह कहा जाता रहा है कि दिल्ली देश की साहित्यक राजधानी भी है । चंद
सालों पहले तक यह भी कहा जाता था कि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी इस राजधानी
के सत्ता केंद्र हैं । इन्हीं चर्चाओं के बीच रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक
बनकर दिल्ली आए तो वो भी एक सत्ता केंद्र के तौर पर देखे जाने लगे थे हलांकि वो इस
बात से लगातार इंकार करते थे । राजेन्द्र यादव जी और रवीन्द्र कालिया जी का निधन हो
गया । नामवर जी अपनी बढ़ती उम्र की वजह से उतने सक्रिय नहीं हैं और अशोक वाजपेयी की
सत्ता से दूरी उनको केंद्र से उठाकर परिधि तक पहुंचा चुकी है। ऐसी स्थिति में देश की
कथित साहित्यक राजधानी में कोई सत्ता केंद्र रहा नहीं, छोटे-छोटे मठनुमा केंद्र बचे
हैं लेकिन वो लेखकों के बड़े समुदाय को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं । सेमिनार,
गोष्ठियों में बुलाकर उपकृत भर कर सकने की क्षमता इन मठाधीशों के पास है । हिंदी में
जो तीन चार साहित्यक पत्रिकाएं निकल रही हैं उनमें से भी सत्ता केंद्र बनने की ललक
किसी संपादक में दिखाई नहीं देती है । नया ज्ञानोदय के संपादक लीलाधर मंडलोई पत्रिका
को संजीदगी से निकाल रहे हैं और विवाद आदि से दूर ही रहते हैं । कथादेश के संपादक हरिनारायण
जी पत्रिका के शुरुआती दौर से ही पत्रिका की आवर्तिता को लेकर ही संघर्षरत रहे हैं
और वहां जो भी लोग जुड़े हैं वो सभी लगभग मध्यमार्गी रहे हैं, लिहाजा पत्रिका नियमित
निकालकर ही संतुष्ट नजर आते है । अब रही साहित्यक पत्रिका हंस की बात तो राजेन्द्र
यादव के निधन के बाद संजय सहाय ने उसका जिम्मा संभाला । अपने संपादकीय में वो लगातार
हमलावर और आक्रामक दिखते हैं लेकिन अमूमन सभी संपादकीयों में उनकी पसंद और नापसंदगी
दिखने लगती है, विचारधारा के स्तर पर विरोध कम दिखता है । इसके अलावा संजय सहाय की
अगुवाई में जो अंक निकल रहे हैं उसमें ज्यादातर में योजना का अभाव दिखता है । सामान्य
कहानी, कविता, लेख , स्तंभ आदि आते रहते हैं और छपते रहते हैं । संजय जी के सामने यादव
की विरासत एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ी है और उस चुनौती से मुठभेड़ करना आसान नहीं है,
इस बात को वो स्वीकार भी कर चुके हैं । अभी हंस का एक विशेषांक निकला है रहस्य रोमांच,
भूत-प्रेत आदि पर । संपादकीय संयोजन में कोई खास छाप यह अंक नहीं छोड़ पाई ।
प्रेम भारद्वाज के सापंदन में पाखी में बहुधा एक स्पार्क दिखता है, यादव जी की
तरह साहित्य की जमीन पर विवाद उठाने की ललक भी दिखाई देती है । कई बार तो विवाद उठाने
में सफल भी होते रहे हैं । अभी हाल ही में अल्पना मिश्र के साक्षात्कार पर साहित्य
जगत में काफी हलचल दिखी । जिस तरह के प्रश्न और उत्तर थे वो पत्रिका की विवाद उठाने
की मंशा को साफ कर रहे थे । पाखी में इल तरह के प्रयोजनों से यह सवाल उठता है कि क्या
कोई साहित्य में राजेन्द्र यादव होना चाहता है । फेसबुक पर इस बारे में सवाल और कई
दिलचस्प उत्तर भी पोस्ट किए जा चुके हैं । इस सिलसिले मुसाफिर कैफे जैसी चर्चित कृति
के युवा लेखक और दिल्ली की साहित्यक राजनीति से दूर मुंबई में रहनेवाले दिव्य प्रकाश
दूबे की बात का स्मरण हो रहा है । मुंबई में एक साहित्यक बैठकी के दौरान दिव्यप्रकाश
जी ने कहा था कि हिंदी में कई लेखक इस वक्त राजेन्द्र यादव होना चाहते हैं । ज्यादातर
लेखकों के मन के कोने-अंतरे में ये ख्वाहिश पलती रहती है और वो हमेशा राजेन्द्र यादव
होने की फिराक में लगे रहते हैं । संभव है दिव्य ने ये बातें मजाक में कही हों लेकिन
दिल्ली के कई लेखकों पर यह बात लागू होती है । लेखक राजेन्द्र यादव तो होना चाहते हैं
लेकिन उनके अंदर वो आग, वो साहस, वो सक्रियता, वो आकर्षण, वो नवाचारी स्वभाव कहां हैं
। इसके अलावा नए लोगों को आगे बढ़ाने की कला भी तो नहीं है ।
राजेन्द्र यादव के छिहत्तरवें जन्मदिन पर जब भारत भारद्वाज और साधना अग्राल के
संपादन में हमारे युग का खलनायक नाम की पुस्तक का प्रकाशन हुआ था तब उसके शीर्षक पर
हिंदी जगत चौंका था लेकिन यादव जी ने खूब मजे लिए थे । यह राजेन्द्र यादव का जिगरा
था कि उन्होंने इस शीर्षक को भी इंज्वाय किया था । इस पुस्तक के संपादक भारत भारद्वाज
ने लिखा था - ‘राजेन्द्र यादव के लेखन का रेंज ही बहुत बड़ा नहीं है, उनकी दिलचस्पी और रुचि का
रेंज भी । इन्होंने विश्व साहित्य का अधिकांश महत्वपूर्ण पढ़ रखा है , ठीक है कि वो
सार्त्र भी होना चाहते हैं और अपनी दुनिया में अपने लिए एक सिमोन भी तलाश करते रहते
हैं । घर-बार भी इन्होंने छोड़ा, यह छोटी बात नहीं है । हमें देखना यह है कि अपनी जिंदगी
में कितनी छूट इन्होंने ली ।‘ अब इसमें सिमोन और सार्त्र वाली बात ही यादव जी के बाद की पीढ़ी के लेखकों को आकर्षित
करती है । राजेन्द्र यादव होने की चाहत पालने वाले कई लेखक सार्त्र तो होना चाहते हैं,
सिमोन की तलाश में मंडी हाउस से लेकर साहित्यक गोष्ठियों में नजर भी आते हैं , लेकिन
उनमें यादव जी वाला साहस नहीं है । राजेन्द्र यादव जी ने जो किया वो खुल्लम खुल्ला
किया, प्यार किया तो डंके की चोट पर, फलर्ट तो वो खुले आम करते ही रहते थे । जब मन्नू
जी ने उनको घर से निकाला था तब भी उन्हें किसी तरह का कोई मलाल नहीं था, बल्कि वो उस
अप्रिय प्रसंग को भी अपनी आजादी के तौर पर देखते थे ।
उनकी जिंदगी के आखिरी दिनों में जब एक अप्रिय प्रेम प्रसंग आया तो भी वो डरे नहीं,
लड़ाई झगड़े के बाद जब पंचायत बैठी तो हंस के दफ्तर में उन्होंने अपनी पुत्री और वकीलों
के सामने स्वीकार किया कि वो प्रेम में हैं और उसी लड़की से प्रेम करते हैं । किस शख्स
में इतनी हिम्मत होती है कि वो बुढ़ापे में सार्वजनिक तौर पर समाज के सामने अपने प्रेम
को स्वीकार करने का साहस दिखा सके । यहां तो लोग जवानी में अपने प्रेम को छिपाते घूमते
हैं । सार्त्र बनने के लिए इसी तरह के साहस और समाज से टकराने के जज्बे की जरूरत होती
है । लेकिन दिल्ली में मौजूद हिंदी के लेखक बगैर इस साहस और जज्बे के राजेन्द्र यादव
बनना चाहते हैं । मुझे याद आता है कि करीब दस-बारह साल पहले एक पत्रिका में राजेन्द्र
यादव के पंज प्यारे के नाम से किसी ब्रह्मराक्षस का लेख छपा था जिसमें उनके शिष्यों
की सूची थी । जिसमें संजीव, शिवमूर्ति, प्रेम कुमार मणि,भारत भारद्वाज आदि के नाम थे
। इस सूची का भी कोई लेखक भी यादव जी वाला साहस नहीं दिखा पाया । अगर हम राजेन्द्र
यादव की शख्सियत पर विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि यह उनके व्यक्तित्व का
वो हिस्सा है जो उनकी ही वजह से प्रचारित हुआ और उनको बदनामी भी दिलाया । लेकिन राजेन्द्र
यादव को अपना छपा हुआ नाम और फोटो देखकर बहुत खुशी होती थी और वो इसके लिए कई तरह के
जोखिम उठाने को तैयार रहते थे।
राजेन्द्र यादव बनने के लिए समकालीन साहित्यक परिदृश्य पर पैनी नजर होनी चाहिए
। ऐसी नजर जो नए से नए और पुराने से पुराने लेखकों से बेहतर लिखवाने का उपक्रम कर सके
। यादव जी को यह भी मालूम होता था कि किस लेखक में क्या लिखने की क्षमता है और एक संपादक
के लिए इस दृष्टि का होना बेहद आवश्यक है । इसके अलावा एक संपादक के तौर पर राजेन्द्र
यादव ने कई घपले भी किए । उन्होंने कहानीकारों की खूबसूरत तस्वीरें छापनी शुरू की,खासकर
महिला कथाकारों की । उनको लगता था कि पाठक कहानीकारों की तस्वीरों को देखकर हंस खरीद
लेंगे । यह परंपरा आज भी कायम है । हंस के माध्यम से यादव जी ने लेखकों को उठाने और
गिराने का खेल भी खूब खेला । जैसे मैत्रेयी पुष्पा और संजीव की कृतियों की कई कई समीक्षाएं
एक साथ छापकर उसको स्थापित करने की चाल चलते थे । इतना ही नहीं वो तो समीक्षाओं में
लेखक को बगैर बताए अपनी तरफ से जोड़ भी देते थे । यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है जब उन्होने
मेरे एक लेख के अंत में कुछ ऐसा जोड़ दिया जो बिल्कुल वांछित नहीं था । गिराने का खेल
इस तरह होता था कि जिसको वो पसंद नहीं करते थे या जो उनके दरबार में मत्था नहीं टेकता
था उसकी नोटिस भी नहीं लेते थे । यहां सिर्फ एक अपवाद काम करता था कि रचना अगर उनको
पसंद आ जाए तो फिर किसी की नहीं सुनते थे । राजेन्द्र यादव बनने की चाहत रखने के लिए
जोखिम उठाने के लिए तैयार रहना होगा, तभी सार्त्र की सिमोन की तलाश पूरी होगी ।
4 comments:
बढिया लेख । बधाई
Congratulations Anant Vijay
बहुत अच्छा लेख इसी तरह सक्रिय रहें।
बढिया लेख ।राजेन्द्र यादव जी से एक बार हंस के दफ्तर में मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं बहुत कच्चे उम्र का था। जो सीख उन्होंने मुझे दी तब मुझे हत्तोसाहित करनेवाला लगा था।पर बाद में मैं समझ गया
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