पिछले दिनों एक साहित्यिक जमावड़े में आज के लेखकों के आचार-व्यवहार
पर चर्चा हो रही थी। बहस इस बात पर हो रही थी कि साहित्य में निंदा-रस का कितना
स्थान होना चाहिए। साहित्यकारों के बीच होनेवाले गॉसिप से लेकर एक दूसरे को नीचा
दिखाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी चर्चा होने लगी। वहां मौजूद सबलोग इस बात पर लगभग
एकमत थे कि साहित्य में नकारात्मकता ने सृजनात्मकता का काफी नुकसान पहुंचाया।
साहित् में नकारात्मकता को बढ़ावा देने के लिए फेसबुक को जिम्मेदार ठहरानेवाले भी
मुखरता के साथ अपना पक्ष रख रहे थे। दरअसल ये हमेशा से होता आया है कि जब एक जगह
कई साहित्यकार मिलते हैं तो गॉसिप और निंदा पुराण का दौर चलता ही है। साहित्यक जमावड़े में रसरंजन की तरह ये भी एक अनिवार्य तत्व है।
कई लेखकों ने इस बारे में लिखा भी है लेकिन बहुत कुछ अलिखित रह गया है। हिंदी के
मशहूर उपन्यासकार-नाटककार मोहन राकेश ने 19 जुलाई 1964 को अपनी डायरी में लिखा- ‘कल शाम सी सी आई में चले गए, भारती, गिरधारी, राज और मैं। हम
लोग पहले गए, राज बाद में आया। भारती के साथ ज्यादा साहित्यिक राजनीति की ही बातें
होती रहीं। वात्स्यायन के बंबई आने का किस्सा, जो पहले बार-बार वे लोग सुना चुके
हैं, वह फिर से सुनाने लगा, तो उसे याद दिला दिया कि यह माजरा नया नहीं है। ज्यादा
बातें हुईं- दिल्ली के छुटभैयों के बारे में, टी-हाउस, कॉफी हाउस के बारे में, उन
कहानीकारों के बारे में जिनसे वक्तव्य नहीं मंगवाए गए। उनके बारे में जिन्होंने
वक्तव्य नहीं भेजे। एक मजाक हुआ। राज से गिरधारी ने कहा ‘तुम्हारे मुंह से शराब की गंध आती है।‘ ‘तुम्हारे मुंह से तुलसीपत्र की गंध आती है’ राज ने उससे कहा और फिर बोला, और ‘ये जो दो चले जा रहे हैं, उनके मुंह से प्रेमपत्र की गंध आती
है।‘ इसपर भारती रुककर बोला ‘क्यों गलत बात कहते
हो? राकेश के मुंह से तो हमेशा त्यागपत्र की गंध आती है।’ भारती मतलब धर्मभारती और वात्स्यायन माने अज्ञेय जी। मोहन
राकेश की डायरी के इस अंश में कई तरह के संकेत निकल रहे हैं। पहली ही पंक्ति में कहा गया है कि सबसे ज्यादा बात साहित्यिक
राजनीति की हुई। इसका मतलब है कि उस दौर में भी साहित्य में खूब राजनीति होती थी। जब
राजनीति होगी तभी को बातें होगीं। फिर वात्स्यायन के मुंबई (उस वक्त का बंबई) आने
का किस्सा भी फिर शुरू हुआ था। कोई ऐसा किस्सा जरूर रहा होगा जिसको साहित्यिक
जमावड़े में बार-बार दोहराया जाता होगा। उस किस्से को इतनी बार दोहराया जा चुका था
कि उस दिन उस किस्से को बीच में ही रोक दिया गया। अगर बार-बार दोहराया जाता होगा
तो वो होगा भी दिलचस्प। मुंबई में बैठकर दिल्ली के लेखकों के बारे में भी बातें
होती रही थीं। जाहिर सी बात है कि जिस अंदाज में उस प्रसंग को लिखा गया है उससे इस
बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि या तो निंदा पुराण का पाठ हुआ होगा या फिर
जमकर गॉसिप।
इसके अलावा एक और चीज जो लेखकों के बीच देखने को मिलती थी वो थी
ईर्ष्या। इसके बारे में तो सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं लेकिन मोहन राकेश और
राजेन्द्र यादव का उदाहरण देना इस वजह से उचित लगता है कि ये दोनों काफी गहरे
मित्र भी थे। हिंदी की नई कहानी त्रयी के दो मजबूत स्तंभ थे। तीसरे कमलेश्वर थे। मोहन
राकेश को जब अगस्त, 1959 में उनके नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के लिए संगीत नाटक अकादमी की ओर से सर्वश्रेष्ठ नाटक का अवॉर्ड
देने की घोषणा हुई तो मोहन राकेश ने लिखा कि ‘यादव का व्यवहार फिर
कुछ अजीब सा लगा। न जाने क्यों मुझे छोटा बतलाकर या समझकर उसे खुशी होती है।‘ मोहन राकेश साफ-साफ कह रहे हैं कि
उनके पुरस्कार मिलने से राजेन्द्र यादव को अच्छा नहीं लगा। बात सिर्फ यादव और
राकेश की नहीं है। उपेन्द्र नाथ अश्क और महादेवी के बीच जिस तरह का शीतयुद्ध चलता
था वो जगजाहिर है। दिनकर ने भी अपनी डायरी में एक समकालीन कवि-सांसद के ईर्ष्या
भाव को उजागर किया ही है। बावजूद इन सबके उस दौर में ज्यादातर रचनाकर अपने
समकालीनों पर लिखते भी थे, उनकी अच्छी रचनाओं की तारीफ भी करते थे। राजेन्द्र
यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर के बीच चाहे जितनी ईर्ष्या रही हो लेकिन वो तीनों एक
दूसरे को काफी प्रमोट करते थे। एक दूसरे के बारे में ग़ॉसिप भी करते थे लेकिन
सार्वजनिक मंचों पर एक दूसरे की तारीफ करते थे, लेख लिखकर एक दूसरे की रचनाओं को
स्थापित करते थे।
उस वक्त के साहित्यिक माहौल और अब के साहित्यिक माहौल में थोड़ा
अंतर आ गया है। ईर्ष्या अब भी है, निंदा-पुराण का पाठ अब भी
होता है, लेकिन सार्वजनिक रूप से अपने समकालीनों की तारीफ करने की प्रवृत्ति का
ह्रास हुआ है। आज के ज्यादातर लेखक-लेखिकाओं में अपने समकालीनों को लेकर एक अजीब
किस्म का भाव देखने को मिलता है जिसका फेसबुक पर बहुधा प्रकटीकरण भी हो जाता है।
इसके अलावा गॉसिप में एक आवश्यक दुर्गुण चरित्र हनन का शामिल हो गया है जो कि चिंताजनक है। अगर हम इस पर गंभीरता से विचार करें तो इस तरह की प्रवृत्ति पिछले दस साल
में ज्यादा बढ़ी है। आज से दस-पंद्रह साल पहले लेखन की दुनिया में आए रचनाकारों के
साथ तकनीक की घुसपैठ भी साहित्य में बढ़ी। फेसबुक साहित्यकारों के बीच लोकप्रिय
हुआ। वैसे लेखक जो फेसबुक को एक बुराई के तौर पर देखते थे अब दिनभर वहीं पाए जाने
लगे। फेसबुक ने कई लेखकों को अहंकारी बना दिया। उनकी रचनाओं पर सौ पचास लाइक्स और
कमेंट आने से वो खुद को प्रेमचंद या मन्नू भंडारी समझने लगे। बढ़ते अहंकार ने उनकी
रचनात्मकता को प्रभावित किया। कुछ वाकए तो ऐसे भी सामने आए जिनमें लेखकों या
लेखिकाओं ने अपने समकालीन लेखक या लेखिका के चरित्र पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
कीचड़ उछाला। फेक आईडी के आधार पर एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की
गई। फेसबुक ने निंदा-पुराण और गॉसिप के तंत्र को विकसित होने के लिए एक ऐसा मंच
दिया जो बेहद उर्वर साबित हुआ। यहां मोहल्ले के छुटभैये दादाओं की तरह साहित्यिक
गिरोह बने, उनके सरगना बने और फिर अपने साथियों को निबटाने का खेल खेला गया। अब भी
खेला जा रहा है, यह स्थिति साहित्य सृजन के लिए बेहतर नहीं कही जा सकती है। फेसबुक
की व्यापक पहुंच की वजह से इस तरह के गिरोहों का आतंक भी बढ़ा।
अब अगर हम एकदम नई पीढ़ी की बात करें तो उसमें एक खास किस्म की
सकारात्मकता दिखाई देती है। सत्य व्यास, दिव्य प्रकाश दूबे, अंकिता, विजयश्री
तनवीर की नई वाली हिंदी की टोली से लेकर खुद को गंभीर लेखन की परंपरा के मानने
वाले प्रवीण कुमार, उमाशंकर चौधरी जैसे लेखकों के सार्वजनिक व्यवहार से साहित्य
में सकारात्मकता का एहसास होता है। ये सभी लोग फेसबुक पर सक्रिय हैं लेकिन वहां एक
दूसरे की रचनाओं पर खुश होकर टिप्पणियां करते हैं, चर्चा करते हैं। नई वाली हिंदी
की जो टोली सोशल मीडिया पर है वो आपस में खूब चुहलबाजी करती है, मजाक मजाक में ही
अपनी और अपनी पीढ़ी के अन्य लेखकों की कृतियों का प्रमोशन भी करती चलती है। इस
टोली के किसी सदस्य को कभी नकारात्मक टिप्पणी करते हुए नहीं देखा गया है। यही इस
पीढ़ी की ताकत है और इनको अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अलग भी करती है। इसी वजह से
उनकी व्यापक स्वीकार्यता भी है, ऐसा प्रतीत होता है। इनका एक अपना पाठक वर्ग बना
है जो इनके नाम से पुस्तकों की खरीद करता है। पाठकों को इन लेखकों की साहित्येतर
टिप्पणियों में जो सृजनात्मकता देखने को मिलती है उसके आधार पर ही वो इनकी कृतियों
तक जाने का मन बनाते हैं। नई वाली हिंदी की इस पीढ़ी के ठीक पहले वाली पीढ़ी के कई
लेखकों ने नकारात्मकता को अपनी पहचान बनाई। उसकी वजह से पूरी पीढ़ी को नुकसान हुआ।
फेसबुक पर हमेशा नकारात्मक बातें, सिद्धांत और विचारधारा की आड़ में गाली-गलौच
उनकी पहचान बन गई। उनके व्यक्तित्व के साथ वो नकारात्मक पहचान चिपक गई। अब इस बात
पर विचार किया जाना चाहिए कि उदारीकरण के स्थायित्व प्राप्त कर लेने के बाद
साहित्य में इस तरह की नकारात्मकता क्यों बढ़ी और फिर उसके बाद की जो पीढ़ी आई
उसने खुद को सकारात्मकता के सांचे में डालकर पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल की। हिंदी
साहित्य के अध्येताओं के लिए इसके कारणों की तलाश करनी चाहिए। क्या पता कुछ दिलचस्प
निष्कर्ष निकल आए।
No comments:
Post a Comment