चंद सालों पहले तक हिंदी में यह परंपरा थी कि जो लेखक कहानी, कविता, उपन्यास आदि
से विमुख होने लगते थे वो संस्मरण और आत्मकथा की ओर मुड़ते थे । लेकिन पिछले कई सालों
से यह प्रवृत्ति बदली है । यह महज संयोग है या योजनाबद्ध तरीके किया गया, पता नहीं,
लेकिन धीरेन्द्र अस्थाना के साठ वर्ष पूरे होते ही उनकी आत्मकथा ‘जिन्दगी का क्या किया’ प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों पहुंच गई है । धीरेन्द्र अस्थाना
अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली रचनाकारों में से एक हैं लेकिन वो लंबे समय तक
दिल्ली में रहने के बावजूद दिल्ली की साहित्य की राजनीति को समझ नहीं पाए और ना ही
उसका हिस्सा बन पाए, प्रचार प्रसार से भी दूर रहे । ‘जिन्दगी का क्या किया’ एक कथाकार की आत्मकथा नहीं है । इसमें एक पत्रकार का संघर्ष है, एक पुत्र का अपने
पिता से लगातार चलनेवाला विद्रोह है, अपनी पत्नी के साथ जिंदगी को जीने और उसको खूबसूरत
बनाने की कोशिशें हैं, फिर अपने पुत्र की बेहतरी के लिए एक पिता की तड़प है और इन सबके
बीच है एक कहानीकार का अपने अंदर के लेखक को बचाकर रखने की जद्दोजहद । हिंदी में ज्यादातर
आत्मकथा जितना बताते हैं उससे कहीं ज्यादा छुपाते हैं । खुद को कसौटी पर कसने का साहस
हिंदी के आत्मकथा लेखकों में लगभग नहीं के बराबर है लेकिन धीरेन्द्र अस्थाना ने वो
साहस दिखाया है । ऐसा नहीं है कि धीरेन्द्र अस्थाना ने कुछ भी नहीं छुपाया है, लेकिन
अपेक्षाकृत वो अधिक खुले हैं । खुद को भी जिंदगी और परिवार की कसौटी पर कसा है । अपने
पिता और परिवार को लेकर उनके मन में जो था उसको बगैर किसी लाग लपेट के लिखा है । नौकरी
छूटने पर परेशान होकर शराब पीने और फिर अपनी पत्नी पर हाथ उठाने की स्वीकारोक्ति भी
इस आत्मकथा में है ।
मेरठ में पैदा होनेवाले धीरेन्द्र अस्थाना की जिंदगी ने देश के कई शहरों में अपना
पड़ाव डाला । मेरठ से लेकर आगरा, शामली, देहरादून, मुंबई , दिल्ली और फिर आखिकार मुंबई
में आकर जिंदगी खूंटा गाड़कर बैठ गई । धीरेन्द्र अस्थाना की आत्मकथा में आगरा में उनके
प्रेम के बीच में पिता का बाधा के तौर पर उपस्थित होने का वर्णन बेहद रोचक है । बाग
में प्रेमिका की गोद में सर रखकर बैठे नायक का पिता अचानक से वहां उरस्थित हो जाए तो
फिर क्या हालत हो सकती है यह कल्पना करिए । उनके इस गुण को देखते हुए बाद के दिनों
में राजेन्द्र यादव कहा भी करते थे धीरेन्द्र के मरने के बाद कई शहरों में उनकी प्रेमिकाओं
के पत्र और पुत्र दोनों मिलेंगे ।
लेकिन दिल्ली और मुंबई की जिंदगी में धीरेन्द्र् अस्थाना ने जो संघर्ष किया है
वह संघर्ष बगैर उनकी अर्धांगिनी ललिता अस्थाना के असंभव था । अपनी इस आत्मकथा के बहाने
धीरेन्द्र अस्थाना ने दिल्ली और मुंबई की सामाजिकता का भी आंकलन किया है । प्रसंगवश
वो बताते हैं कि दिल्ली की पानी में ही अजनबियत के तत्व तैरते रहते हैं । जबकि मुंबई
वाले पांच सात साल बाद भी मिलें तो आत्मयीता से भरपूर होते हैं । धीरेन्द्र अस्थाना
की इस आत्मकथा में मुंबई में उनकी पहली पारी का बेहद सुंदर चित्रण है तो दूसरी पारी
में खुद को एडजस्ट करने की दास्तां है । कुल मिलाकर अगर देखें तो ‘जिन्दगी का क्या किया’ धीरेन्द्र अस्थाना की एक ऐसी रचना है जो हिंदी की इस विधा में
अपना एक अलग स्थान बनाएगी, अगर आलोचकों ने ईमानदारी से इसका मूल्यांकन किया तो
1 comment:
एक अच्छी कृति पर अच्छी समीक्षा,बधाई हो।
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