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Saturday, July 7, 2012

फिडेल का फरेब ?

क्यूबा-फिडेल कास्ट्रो और अमेरिका जॉन एफ कैनेडी ये दो ऐसे विषय हैं जिनपर अबतक सैकड़ो किताबें लिखी जा चुकी हैं, हजारों लेख लिखे जा चुके हैं । लेकिन क्यूबा और अमेरिका में शह और मात के खेल में साठ के दशक में जो चालें चली गई हैं अब जाकर उनपर से धीरे-धीरे पर्दा हटने लगा है । अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या पर भी सैकड़ों लेखकों ने लिखा, कई फिल्में बनीं, अपराध कथा लेखकों ने राष्ट्रपति की हत्या पर उपन्यास लिखे, टीवी निर्माताओं ने कैनेडी की हत्या और कैनेडी-कास्ट्रो संबंधों पर डॉक्यूमेंट्री बनाईं । कैनेडी की हत्या के चालीस साल बाद भी ये एक ऐसा विषय है जो अब भी लेखकों को झकझकोरते हुए चुनौती देता है । कैनेडी की मर्जर मिस्ट्री को लोग दुनिया की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री करार दे चुके हैं । नतीजा यह है कि इस विषय पर हर साल कई नई किताबें आती है जिसका लेखक शोध का दावा करते हुए कुछ नया अन्वेषण का ऐलान करता है । अब अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए में लंबे समय तक लैटिन अमेरिका मामलों के आला खुफिया अधिकारी ब्रायन लैटल की नई किताब- कास्ट्रोज सीक्रेट्स : द सीआईए एंड क्यूबाज इंटेलिजेंस मशीन- में कई सनसनीखेज खुलासे हुए हैं । ब्रायन का दावा है उन्होंने इस किताब को लिखने के लिए तकरीबन पांच साल तक शोध किया और हजारों दस्तावेज खंगाले । इसके अलावा अमेरिका और क्यूबा के खुफिया एजेंसी के अफसरों से बात की । इस किताब में लेखक का दावा है कि क्यूबा के राष्ट्रपति फिडेल कास्ट्रो को अमेरिका के राष्ट्रपति जे एफ कैनेडी के कत्ल के बारे में पता था और उन्होंने 22 नवंबर 1963 को कैनेडी के कत्ल के बाद झूठ बोला था कि उन्हें इस कत्ल की ना तो कोई जानकारी थी और ना ही आभास । कास्ट्रो ने ये बयान कैनेडी के कत्ल के एक दिन बाद दिया था जिसे उन्होंने अलग अलग जगहों पर कई बार दोहराया भी है । कास्ट्रो ने इस बात से भी इंकार किया था कि कैनेडी के कातिल ओसवाल्ड को वो जानते हैं ।

इस किताब के लेखक ब्रायन ने क्यूबा के पूर्व खुफिया अधिकारी और उसके राजदूतावास में उस वक्त तैनात रहे अफसरों के हवाले से कास्ट्रो के दोनों बयानों को झूठा ठहराया है । ब्रायन ने एक वक्त क्यूबा के डीजीआई इंटेलिजेंस सर्विस के अहम अधिकारी रहे और 1987 में क्यूबा छोड़कर अमेरिका में शरण लेनेवाले फ्लोरेन्टिनो लोम्बार्ड के हवाले से बताया है कि कास्ट्रो को कत्ल की जानकारी थी । लोम्बार्ड के मुताबिक जिस दिन कैनेडी का कत्ल हुआ उस दिन उसको आदेश मिला था कि वो अमेरिका के रेडियो तरंग को पकड़ने के लिए हवाना में लगे एंटिना का रुख मियामी से हटाकर टैक्सास की तरफ कर दें और वहां की हर छोटी बड़ी सूचना से तुरंत ही देश के सर्वोच्च नेता को अवगत कराया जाए। हुक्म देने वाले ने जोर देकर कहा था कि टैक्सास में घटित होनेवाली हर छोटी से छोटी घटना को भी नजरअंदाज नहीं किया जाए । इस हुक्म के चंद घंटों के भीतर ही टैक्सास में अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को ओसवाल्ड ने गोलियों से भून दिया । लेखक का दावा है कि फ्लोरेन्टिनो लोम्बार्ड ने उन्हें यह भी बताया था कि कास्ट्रो को इस बात की पहले से जानकारी थी कि ओसवाल्ड कैनेडी को गोली मारेगा । इसके अलावा लैटेल ने जो दूसरा परिस्थितिजन्य सबूत पेश किया है वो यह है कि ओसवाल्ड के कैनेडी को मारने के इरादे का भी पता कास्ट्रो को था और क्यूबा का राष्ट्रपति उस शख्स को जानता भी था । कैनेडी के कत्ल के पहले ओसवाल्ड ने क्यूबा के मैक्सिको स्थित दूतावास में क्यूबा जाने के लिए वीजा का आवेदन दिया था जिसे दूतावास ने खारिज कर दिया था । वीजा खारिज होने से खफा ओसवाल्ड ने चिल्लाते हुए कहा था कि मैं कैनेडी को मारने जा रहा हूं और कास्ट्रो के समर्थन में नारे लगाए थे । ये बातें कास्ट्रो को उनके दूतावास अधिकारियों ने बताई थी । बाद में कास्ट्रो ने भी एक डबल एजेंट से हुई बातचीत में इस बात को स्वीकार भी किया था ।

इस किताब में इन दो बातों के आधार पर ये साबित करने की कोशिश की गई है कि कास्ट्रो ने कैनेडी के कत्ल की पहले से जानकारी नहीं होने के बारें में झूठ बोला था । लेकिन लेखक इस बात को लेकर बेहद सावधान हैं कि इस किताब से यह ध्वनित नहीं हो कि कैनेडी के कत्ल की साजिश रचने में कास्ट्रो की कोई प्रत्यक्ष भूमिका थी । ब्रायन ने यह स्वीकार किया है कि - उन्हें नहीं मालूम कि फिडेल कास्ट्रो ने कत्ल का हुक्म दिया था । उन्हें यह भी नहीं मालूम कि कातिल ओसवाल्ड कास्ट्रो के इशारे पर काम कर रहा था । ब्रायन के मुताबिक ये मुमकिन हो सकता है कि ओसवाल्ड कास्ट्रो के इशारे पर काम कर रहा हो लेकिन उन्हें अपने शोध के दौरान इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला । उन्होंने ये साबित करने की कोशिश की है कि फिडेल कास्ट्रो को कैनेडी से अपनी जान का खतरा था । इतिहास में इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद हैं हैं बगैर अमेरिकी जनता की जानकारी और अमेरिकी कांग्रेस को विश्वास में लिए जॉन और रॉबर्ट कैनेडी ने आठ बार फिडेल के कत्ल की साजिश रची और आठों बार नाकाम रहे । दरअसल फिडेल कास्ट्रो की खुफिया जानकारियां और रणनीति अमेरिकी खुफिया एजेंसियों और उनकी रणीनित से बेहतर थी । इस वजह से अमेरिका तमाम कोशिशों को बावजूद क्यूबा को झुका नहीं पाया ।
लेकिन ब्रायन लैटल ने की नई किताब - कास्ट्रोज सीक्रेट्स : द सीआईए एंड क्यूबाज इंटेलिजेंस मशीन में जो बातें क्यूबा के कम्युनिस्ट नेता फिडेल कास्ट्रो के बारे में लिखी गई हैं उसका जिक्र कैनेडी हत्याकांड की जांच कर रही किसी एजेंसी ने नहीं किया । कैनेडी की हत्या की जांच करनेवाली वॉरेन कमीशन, द हाउस असेसिनेशन कमेटी और द चर्च कमेटी ने अपनी जांच के दौरान इन तथ्यों को क्यों नजरअंदाज कर दिया । यह एक बड़ा सवाल है । कैनेडी की हत्या पर अमेरिका में वर्षों से शोध हो रहे हैं।  सरकरी कमीशनों और खुफिया एजेंसियों ने इस हत्याकांड और उसे जुड़े तथ्यों को करीब पचास लाख पन्नों में दर्ज कियया है लेकिन उन पचास लाख पन्नों में इन दो तथ्यों का उल्लेख नहीं होना हैरान करनेवाला है । हो सकता है कि कई सालों बाद जब कुछ और वर्गीकृत सूचनाएं सार्वजनिक हों तो इस बात का खुलासा हो लेकिन फिलहाल ब्रायन की इस किताब ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है कि क्या कैनेडी के कत्ल के मामले में फिडेल कास्ट्रो ने झूठ बोला था ।

Saturday, June 30, 2012

लुगदी साहित्य की दुर्दशा

सूरजमुखी, प्सासी नदी, प्यासे रास्ते, पतझड़ का सावन, झील के उस पार, शर्मीली, चिंगारी, पाले खां, चैंबूर का दादा, लाल निशान, नरक का जल्लाद, पिशाच का प्यार, वर्दी वाला गुंडा ये कुछ ऐसे नाम थे जो साठ के दशक से लेकर अस्सी के दशक हिंदी पट्टी में लोकप्रियता का पैमाना हुआ करता था । ये नाम थे उन उपन्यासों के जिनको रानू, गुलशन नंदा, सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लेखक लिखा करते थे । इन उपन्यासों की बिक्री सबसे ज्यादा रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के बुक स्टॉल से हुआ करती थी । उस दौर में इन किताबों की इतनी धूम रहती थी कि लेखकों को अग्रिम रॉयल्टी दी जाती थी । उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग होती थी । कई छोटे शहरों के रेलवे स्टेशन पर तो इन उपन्यासों को छुपाकर रखा जाता था और दुकानदार अपने खास ग्राहकों को काउंटर के नीचे से निकालकर देते थे । लेकिन जब से नब्बे के दशक में टीवी ने दबे पांव लोगों के घरों में दस्तक दी तो उसका सबसे ज्यादा असर इन उपन्यासों पर ही पड़ा । धीरे धीरे टीवी ने हिंदी मध्यवर्गीय पाठकों औप परिवारों पर अपना कब्जा कर लिया और उनकी उस झुधा को शांत करने लगे जिनकी पूर्ति उक्त इपन्यास किया करते थे । कुछ चर्चित टीवी कार्यक्रमों के नाम भी इस तरह के ही होने लगे जुर्म, हत्यारा कौन, सनसनी, सीआईडी, सास बहू और साजिश, बनेगी अपनी बात, तारा आदि । क्राइम और सेक्स की जो भूख लुगदी साहित्य से मिटती थी उसे अब टीवी पूरा करने लग गया था । लिहाजा धीरे-धीरे इस तरह के उपन्यासों की मांग कम होती चली गई और अब तो यह इंडस्ट्री मरणासन्न है ।

अगर हम थोड़ा पीछे जाएं तो हम मान सकते हैं कि हिंदी में पल्प फिक्शन की शुरुआत इब्ने सफी के उपन्यासों से हुई । इब्ने सफी, इब्ने सईद और राही मासूम रजा तीनों दोस्त थे । एक दिन बातचीत में उनके बीच जासीसी उपन्यासों पर चर्चा हो रही थी । बातों बातों में रजा ने कहा कि बगैर सेक्स का तड़का डाले जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है । इब्ने सफी ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और बगैर सेक्स प्रसंग के पहला उपन्यास लिखा । वह उपन्यास जबरदस्त हिट हुआ । फिर तो इब्ने सफी ने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया । इब्ने सफी के इमरान सीरीज के उपन्यासों की बदौलत उनके मित्र अली अब्बास हुसैनी ने एक प्रकाशन गृह खोल लिया । अभी कुछ दिनों पहले एक बार फिर से हॉर्पर कॉलिंस ने इब्ने सफी के उपन्यासों को प्रकाशित करना शुरू किया है । उसी वक्त के आसपास इलाहाबाद से जासूसी पंजा नाम की पत्रिका में अकरम इलाहाबादी भी एक जासूसी सीरीज लिखा करते थे जो उन दिनों बेहद लोकप्रिय था । जासूसी पंजा की लोकप्रियता के मद्देनजर डायमंड पॉकेट बु्क्स और हिंद पॉकेट बुक्स ने एक रुपए की सीरीज की किताबें छापनी शुरू की । लेकिन इस तरह के रहस्य और रोमांच से भरे कथानक वाले उपन्यासों की धूम मची साठ के दशक के बाद जब जब गुलशन नंदा, रानू, सुरेन्द्र मोहन पाठक, अनिल मोहन, कर्नल रंजीत और मनोज जैसे लेखकों ने इस साहित्य को एक नई उंचाई तक पहुंचा दिया । रानू और गुलशन नंदा तो हिंदी पट्टी के तकरीबन हर घर तक पहुंच रहे थे । रानू और गुलशन नंदा महिलाओं और नए नए जवान हुए कॉलेज छात्र-छात्राओ की पहली पसंद हुआ करते थे । गुलशन नंदा तो इतने लोकप्रियय हुए कि उनके उपन्यास- झील के उस पार, शर्मीली और चिंगारी पर फिल्म भी बनी जो हिट रही । गुलशन नंदा ने जब 1962 में अपना पहला उपन्यास लिखा तो उसकी दस हजार प्रतियां छपी । ये प्रतियां बाजार में आते ही खत्म हो गई और मांग के मद्देनजर दो लाख प्रतियां छपवानी पड़ी थी । पहले उपन्यास  की सफलता से उत्साहित प्रकाशक ने फिर तो गुलशन नंदा के उपन्यासों का पहला संस्करण ही पांच लाख का छपवाना शुरू कर दिया । जो कि ऐताहिसक आंकड़ा था । उस दौर में उन उपन्यासों की कीमत पांच रुपय़े हुआ करती थी और सारा खर्चा काटकर भी प्रकाशक को हर प्रति पर एक रुपए का मुनाफा होता था जो कि उस वक्त के लिहाज से बेहतरीन मुनाफा माना जाता था ।  इस तरह के उपन्यासों की मांग यात्राओं के दौरान बेहद ज्यादा होती थी । छोटी और लंबी यात्रा करनेवाले पांच से दस रुपए तक का यह उपन्यास खरीद लेते थे । इनकी लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सुरेन्द्र मोहन पाठक का उपन्यास पैंसठ लाख की डकैती की अबतक पच्चीस लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं । भले ही चालीस साल में ये आंकड़ा हासिल हुआ हो लेकिन हिंदी के लिए यह स्थिति अकल्पनीय है । इस तरह के उपन्यासों की लोकप्रियता को देखते हुए कई घोस्ट राइटर्स ने भी पैसे की खातिर लिखना शुरू कर दिया । मनोज ऐसा ही काल्पनिक नाम था जिसकी आड़ में कई लेखक लिखा करते थे ।

जासूसी और हल्की रोमांटिक कथाओं का बड़ा बाजार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और कुछ कुछ राजस्थान के अलावा दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर भी थे । इन रोमांटिक उपन्यासों में जिस तरह का हल्का फुल्का सेक्स प्रसंग होता था उसने भी इन्हें लोकप्रिय बनाया ।  सा सत्तर के दशक में भारतीय समाज में सेक्स प्रसंगों को लेकर इस तरह का खुलापन नहीं था । लोग बाग घर परिवार में भी सेक्स प्रसंगों के बारे में बातें करते हुए कतराते थे । घर की लड़कियां और महिलाएं तो इस बारे में सिर्फ सोचकर ही रह जाती थी । उस माहौल में रोमांस और सेक्स प्रसंगों की चर्चा करके लेखकों ने अपनी कृतियों को पठनीय बना दिया था । कई घरों में तो किशोरवय के लड़के लड़कियां रानू और गुलशन नंदा को अपने अभिभावकों से छिपकर पढ़ते थे । उस दौर में इन उपन्यासों के लोकप्रिय होने के सामाजिक कारण थे । लेकिन जब नब्बे के दशक में टीवी आया तो रोमांस और सेक्स प्रसंगों पर सीरियल्स में खुलकर बातें होने लगी थी । इससे गुलशन नंदा और रानू के उपन्यासों के पाठक कम होने लगे । टीवी में इन प्रसंगों की जैसे जैसे बढ़ोतरी हुई वैसे वैसे पल्प फिक्शन खत्म होने लगा । दर्शक में तब्दील हो चुके पाठकों को टीवी में उपन्यास से ज्यादा मसाला मिलने लगा । सास बहू सीरियल्स के रूप में महिलाओं को एक नया स्वाद मिला और वो अपने आप को उन पात्रों से आईडेंटिफाई करने लगी । हम कह सकते हैं कि पल्प फिक्शन या लुगदी साहित्य का आखिरी लोकप्रिय उपन्यास वर्दी वाला गुंडा था । इसके लेखक वेद प्रकाश शर्मा हैं । राजीव गांधी की हत्या को केंद्र में रखकर लिखे गए इस उपन्यास के लिए उत्तर भारत के शहरों में होर्डिंग लगे थे, एडवांस बुकिंग हुई थी । नतीजा यह हुआ कि जब यह उपन्यास बाजार में आया तो आते ही खत्म हो गया । रीप्रिंट पर रीप्रिंट करने पड़े । वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों का बाजार अब भी थोडा़ बहुत बचा है । लेकिन वो स्वर्णिम दौर खत्म हो गया लगता है । इसके साथ ही खत्म हो गया मेरठ से चलनेवाला यह कारोबार । हिंदी के ये उपन्यास मेरठ से छपा करते थे और वहीं से देशभर में भेजे जाते थे । टेलीविजन ने भारत में इस लोकप्रिय विधा को लगभग समाप्त कर दिया कई लोगों को इस बात पर आपत्ति है लेकिन तमाम आपत्तियों और तर्कों के बावजूद इतना तो तय है कि टीवी ने इनकी लोकप्रियता को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया । हाल के दिनों में जिस तरह से कुछ नए प्रकाशकों ने इन पुराने उपन्यासों को छापकर बेचने की योजना बनाई है उससे एक बार इसके फिर से जी उठने की उम्मीद जगी है । उम्मीदें कितनी कामयाब होती है यह अभी समय के गर्भ में हैं ।

Saturday, June 23, 2012

संबंधों और विमर्श की नदी

हिंदी में इन दिनों स्त्री विमर्श के नाम पर रचनाओं में जमकर अश्लीलता परोसी जा रही है । स्त्री विमर्श की आड़ में देहमुक्ति के नाम पर पुरुषों के खिलाफ बदतमीज भाषा का जमकर इस्तेमाल हो रहा है । कई लेखिकाओं को यह सुनने में अच्छा लगता है कि आपकी लेखनी तो एके 47 की तरह हैं । माना जाता है कि हिंदी में स्त्री विमर्श की शुरुआत राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में की । नब्बे के शुरुआती वर्षों में । उस वक्त विमर्श के नाम पर काफी धांय-धांय हुई थी । कई अच्छे लेख लिखे गए । कई शानदार रचनाएं आई । लंबी लंबी बहसें हुई । लेकिन कुछ साल बाद स्त्री और विमर्श दोनों अपनी अपनी अलग राह चल पड़े और उनकी जगह ले ली एक तरह की अश्लील और बदतमीज लेखन ने । शुरुआत में तो पाठकों को उस तरह का बदतमीज या अश्लील लेखन एक शॉक की तरह से लगा था जिसकी वजह से उसकी चर्चा भी हुई और लोगों को पसंद भी आई । बाद में जब हर कोई फैशन की तरह बदतमीज लेखन करने लगा तो उसकी शॉक वैल्यू खत्म हो गई और पाठकों के साथ साथ आलोचकों ने भी उस तरह से लेखन को नकारना शुरू कर दिया । सवाल भी उठे कि क्या स्त्री विमर्श का मतबल परिवार तोड़कर, परिवार छोड़कर, रिश्तों से आजादी है । क्या देहमुक्ति का मतलब अवारागर्दी है । क्या स्त्रियां देहमुक्ति के नाम पर जब चाहे जिससे चाहे शारीरिक संबंध बना लें और उसका वर्णन हमारे साहित्य का हिस्सा बन जाए । इन सवालों से टकराते हुए स्त्री विमर्श की मुहिम पर ब्रेक लगा ।

उस मुहिम पर ब्रेक भले ही लग गया हो लेकिन उस दौर में लिखने की शुरुआत कर रही कई लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श के मूल को पकड़ा और इंटरनेट युग की युवतियों की छटपटाहट, बेचैनी, मुक्त होने की लालसा, अपनी देह की मालकिन होने की अभिलाषा, अपनी आजादी और स्वतंत्रता के लिए किसी भी हद तक जाने की जिद को अपनी रचनाओं का विषय बनाया । कुछ वरिष्ठ लेखिकाएं भी अपने तरीके से अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उठाए रही । अभी हाल ही में मैने युवा लेखिका जयश्री राय का पहला उपन्यास औरत जो नदी है पढ़ा । करीब डेढ सौ पन्नों के इस उपन्यास में स्त्री मन की आजादी का कोमल और संवेदनशील चित्रण है । उपन्यास की शुरुआत बेहद ही नाटकीय तरीके से होती है । नायक अशेष त्यागी एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करता है तबादले के बाद गोवा पहुंचता है । वो शादी शुदा और बाल बच्चेदार आदमी है लेकिन तबादले की वजह से पत्नी और परिवार के बगैर गोवा में मिलेज लोबो के घर उसे ठिकाना मिलता है । अकेला और आजाद । वहां उसकी मुलाकात दामिनी नाम की एक युवती से होती है । उपन्यास के शुरुआत में फोन नंबर का प्रसंग एक तिलस्म की तरह है जो धीरे-धीऱे खुलता है । बेहद दिलचस्प । दामिनी और अशेष की मुलाकात होती है और बिना प्यार में जीने मरने की कसमें खाए बगैर दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनते हैं । जयश्री राय ने उन अंतरंग क्षणों का बेहद संवेदनशीलता के साथ वर्णन किया है बगैर अश्लील हुए । लोग तर्क दे सकते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच जब अंतरंग संबंध बनते हैं तो उसका जो वर्णन होगा उसमें खुलापन तो होगा । लेकिन जयश्री ने उन क्षणों का वर्णन इस तरह से किया है कि उससे जुगुप्सा नहीं बल्कि बेहतरीन गद्य को पढने का सुख मिलता है । उस वक्त लेखिका की भाषा काफी संयत लेकिन आज के जमाने के हिसाब है । प्रतीकों में तो बातें कहती है लेकिन रीतिकालीन भाषा में नहीं । गौर फर्माइये- अपने तटबंधों को गिराते हुए मुझमें किसी बाढ़ चढी नदी की तरह उफन आई थी वह । प्रेम के क्षणों में जितनी कोमल थी वह कभी-कभी उतनी ही आक्रामक भी- एक सीमा तक हिंसक ! अपनी देह पर खिले अनवरत टीसते हुए नीले फूलों को देखकर पीड़ा का ऐसा स्वाद ऐसा मधुमय भी हो सकता है, यह उसी रात महसूस कर पाया था मैं ।
इस तरह के कई प्रसंग हैं उस उपन्यास में लेकिन सभी मर्यादा में रहकर । इस उपन्यास में एक जगह इस बात का संकेत है कि अंतरंग क्षणों में स्त्रियों को कष्ट पहुंचाने से कईयों को ज्यादा आनंद की अनुभूति होती है । यहां सिर्फ संकेत मात्र है लेकिन अंग्रेजी में इस विषय पर कई उपन्यास लिखे गए हैं । अभी हाल ही में पूर्व टीवी पत्रकार ई एल जेम्स की तीन किताबें आई हैं फिफ्टी शेड्स आफ ग्रे, फिफ्टी शेड्स डॉर्कर और फिप्टी शेड्स फ्रीड । जेम्स की इन किताबों में नायक ग्रे और नायिका एना के बीच के सेक्स संबंध को बीडीएमएस के तौर पर दिखाया गया है । यूरोप और अमेरिका में ये किताबें कई हफ्तों से बेस्ट सेलर की सूची में हैं । सेक्स प्रसंगों की वजह से कुछ आलोचकों ने तो इसे मम्मी पॉर्न का खिताब दे डाला है तो कुछ इसको वुमन इरोटिका लेखन के क्षेत्र में क्रांति की तरह देख रहे हैं । उसके पहले भी 1965 में पॉलिन रेग का उपन्यास स्टोरी ऑफ ओ आया था । स्टोरी ऑफ ओ में एक खूबसूरत पर्सियन फोटोग्राफर अपने प्रेमी के साथ सेक्स संबंधों में गुलाम की तरह का व्यवहार किया जाना पसंद करती थी । उसको लेकर उस वक्त फ्रांस में काफी बवाल मचा था और पुस्तक पर पाबंदी की मांग भी उठी थी, शायद पाबंदी लगी भी थी । लेकिन हिंदी में फीमेल इरोटिका पर अब भी पाठकों को एक बेहतरीन कृति का इंतजार है ।
जयश्री के इस उपन्यास में अशेष और दामिनी के बीच जब संबंधों की शुरुआत होती है तो अशेष उससे झूठ बोलता है कि उसका अपनी पत्नी से संबंध ठीक नहीं है आदि आदि । यह प्रसंग रोचक है । अमूमन ऐसा होता ही है । लेखिका ने उसको भी स्त्री मन से जोड़कर उसे एक उंचाई दे दी है । पत्नी से खराब संबंध की बात सुनकर दामिनी के मन में जो भाव उठते हैं उसे जयश्री नायक के मार्फत इस तरह से व्यक्त करती है- ...मैं जानता था वह मेरा होना चाह रही थी, मगर रस्म निभा रही थी- दुनियादारी की रस्म । यह जरूरी हो जाता है, ऐसे क्षणों में जब हमन किसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हों, अपनी ग्लानि को कम करना जरूरी हो जाता है । दिमाग जिसे नहीं स्वीकारता, मन उसे अस्वीकार नहीं कर पाता । इस तरह से स्त्री के मन में चलनेवाले द्वंद को भी जहां मौका मिला है बेहतर तरीके से उघारा गया है । इस उपन्यास में दामिनी की मां की एक समांतर कहानी चलती है । किस तरह से दामिनी के पिता ने उसकी मां के साथ इमोशनल अत्याचर किया । वो उससे बात ही नहीं करते थे, जिसका मनोवैज्ञानिक असर जानलेवा साबित हुआ और अएक दिन उनकी मृत्यु हो जाती है । दामिनी के मन पर इस घटना का जबरदस्त प्रभाव आखिर तक बना रहता है ।

अशेष और दामिनी के बीच का प्यार चरम पर होता है उसी वक्त एक और स्त्री रेचल का प्रवेश कथा में होता है । अशेष उसके भी देहमोह में फंसता है । एक दिन रेचल के साथ रात बिताकर बिस्तर में ही होता है कि अचानक सुबह सुबह दामिनी उसके कमरे पर आ जाती है । स्त्री तो आखिर स्त्री ही होती है । जब वो पुरुष के साथ संबंध में होती है तो उसे दूसरी स्त्री बर्दाश्त नहीं होती है । दामिनी के साथ भी वही होता है । वो रेचल को बर्दाश्त नहीं कर पाती है । दोनों के संबंध दरक जाते हैं । संबंधों की उष्मा भाप बनकर उड़ जाती है । अलगाव होता है और फिर उसी तरह के ओवियस भी संवाद होते हैं । स्त्री के मन और मनोविज्ञान का भरपूर वर्णन । उपन्यास का अंत भी बेहद बोल्ड हो सकता था जहां दामिनी, अशेष और रेचल के संबंधों को सहजता से लेती और मस्त रहती । लेकिन मुमकिन है कि लेखिका पारंपरिक अंत करके स्त्री विमर्श की चौहद्दी तोड़ना नहीं चाहती । हमारे समाज में अभी लड़कियां कितनी भी बोल्ड हो जाएं पर वो जिसे प्यार करती हैं उसे दूसरी महिला के साथ बिस्तर में बर्दाश्त नहीं कर सकती ।  
उस उपन्यास में इन दो कहानियों के साथ साथ भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति और पुरुषों की मानसिकता पर भी टिप्पणी चलते रहती है । कभी दामिनी की विदेशी दोस्तों और अशेष के संवाद के रूप में तो कभी दामिनी की सहयोगी उषा की मौत के पहले के उसके बयान से । इस दौर मे जयश्री राय की भाषा से उपन्यास का कथ्य चमक उठता है । भाषा इस उपन्यास की ताकत है जब जयश्री लिखती हैं- सूरज का सिंदूर समंदर के सीने में उतरकर न जाने कब एकदम से घुल गया । जयश्री राय के इस उपन्यास की आने वाले दिनों में हिंदी साहित्य में चर्चा होनी चाहिए और आलोचकों और पाठकों के बीच जयश्री के उठाए सवालों पर बहस भी ।

Wednesday, June 20, 2012

इतिहास का ड्राफ्ट

दो हजार में जब बिहार से अलग हटकर झारखंड राज्य अस्तित्व में आया था उस वक्त उम्मीद जगी थी कि इलाके के आदिवासियों का समुचित विकास होगा और उनकी समस्याओं पर बेहतर तरीके से ध्यान दिया जाएगा । लेकिन पिछले एक दशक में झारखंड विकास के बजाए लूट की उर्वर भूमि में तब्दील हो चुकी है । राज्य के नेताओं में सत्ता की भूख इतनी ज्यादा है कि वो किसी भी पार्टी से हाथ मिलाने को तैयार हैं बशर्तें कि उनके समर्थन से सरकार बन सके । चाल चरित्र और चेहरा के अलावा सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात करनेवाली भारतीय जनता पार्टी भी झारखंड में सत्ता के लिए कई बार नापाक गठजोड़ कर चुकी है । सूबे में प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं । इस वजह से बड़े औद्योगिक घरानों की नजर वहां लगी रहती है । औद्योगिक घरानों की इस नजर में ही राजनेताओं को संभावनाएं दिखाई देती हैं । आदिवासियों की राजनीति करनेवाले नेताओं को हवस है सिर्फ पैसे की । इसी हवस ने राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री और कई मंत्रियों को जेल भिजवाया और कई तो जेल जाने की लाइन में लगे हैं । प्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व का इस कदर नैतिक पतन हो चुका है कि वहां सरेआम घूस लेने देने की बात होती है । एक पार्टी के मुखिया तो खुलेआम अफसरों से कहते हैं कि वैसी फाइल ढूंढो जिससे पैसे निकल सकें । इन हालातो में मीडिया की जिम्मेदारी बनती थी कि घोटालों, घपलों और राजनेताओं के चेहरे से नकाब उजागर करे । झारखंड में इस भूमिका को वहां से एक छोटे से अखबार(हरिवंश जी के शब्द) प्रभात खबर ने बखूबी निभाया । झारखंड बनने के दस साल पहले और झारखंड बनने के दस साल बाद वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश की अगुवाई में प्रभात खबर ने कई घपलों घोटालों को उजागर किया । खुद हरिवंश ने कई विचारोत्तजक लेख लिखकर झारखंड के इतिहास में अपनी जोरदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई । उनके करीब दो दशकों के लेखों का संग्रह दो खंडो में प्रकाशित हुआ है । पहले खंड- झारखंड-समय और सवाल में 48 लेख हैं जो 1991 से 2007 के बीच लिखे गए हैं । दूसरे खंड झारखंड-सपने और यथार्थ में 2007 के बाद के लेख हैं । अपनी किताब की भूमिका में हरिवंश ने चर्चिल को कोट करते हुए लिखा है कि- अतीत को जितना पीछे तक देख सकते हैं, देखें । इससे भविष्य की दृष्टि (विजन) मिलेगी । हरिवंश जी ने पहले खंड में झारखंड के एक दशक के अतीत को एक सावधान संपादक की आंखों से देखा है । हरिवंश जी अपने अखबार में उन मुद्दों को उठाने के लिए जाने जाते हैं जो समाज से जुड़े हर तबके के लोगों के मुद्दे हों । हो सकता है शुरू में ये मुद्दे स्थानीय और लोकल लेवल के लगते हों लेकिन बाद में वही मुद्दे राष्ट्रीय महत्व के हो जाते हैं । अपनी किताब की भूमिका में हरिवंश ने माना है कि उनकी पत्रकारिता जंगल जल और जमीन जुड़ी रही है और वो इन मुद्दों को उठाते रहे हैं । इन लेखों से यह साबित भी होता है । किताब का पहला ही लेख पलामू अकाल सं संदर्भ लेते हुए गुमला के गुमनाम से प्रखंड बिशुनपुर फैली बीमारी के बहाने हरिवंश ने बेहद बारीक तरीके से सरकारी व्यवस्था की खामियों पर चोट किया है । जैसे जब वो लिखते हैं कि 25 हजार की दवाइयां बांटने के लिए तीन लाख का अमला नियुक्त किया गया है । उनके मुताबिक उस अंचल में पांच स्वास्थ्य केंद्र हैं जहां प्रतिवर्ष पांच हजार की दवाइयां आती हैं यानि कि पांचों उपकेंद्र मिलाकर पच्चीस हजार की दवाइयां । लेकिन उन दवाइयों को बांटने के लिए एक एमबीसीएस डॉक्टर समेत वहां साठ लोग तैनात हैं जिनके वेतन आदि पर प्रतिवर्ष तीन लाख रुपए का खर्च होता है । सिर्फ एक अंचल का उदाहरण देकर हरिवंश ने पूरे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों की ओर संकेत किया है । आज भी अगर स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का ऑडिट किया जाए तो इस तरह की कई विसंगतियां सामने आ सकती हैं । बल्कि मेरा तो मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति और भी बुरी हो सकती है ।
अपनी किताब की भूमिका में हरिवंश जी ने कहा है जब 1992-93 में प्रभात खबर ने पशुपालन घोटाला का मुद्दा उठाया तब प्रभात खबर सिर्फ रांची से छपता था । लेकिन बाद में उसी पशुपालन घोटाला ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था । बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव समेत पूर्व मुख्यमंत्री और कई मंत्रियों के अलावा बड़े अफसरशाह इस गोटाले में नपे । लालू को तो जेल भी जाना पड़ा, बिहार पर बीस साल राज करना का लालू का सपना चकनाचूर हो गया । लालू के सपने में प्रभात खबर की पत्रकारिता ने ही पलीता लगया, ऐसा कहा जा सकता है । दरअसल जब प्रबात खबर रांची से निकलता था तब भी उसकी एक जुजारू छवि थी और लोग मानते थे कि वो अखबार मुद्दों को प्रधानता देता है, इसका श्रेय अखबार की टीम के कप्तान को जाता है कि वो अखबार को किस दिशा में ले जाना चाहता है ।
हरिवंश के लेखों की भाषा और उसके शीर्षक बेहद मारक होते हैं । जैसे इस किताब में एक लेख है- जिसका शीर्षक है चरित्रहीन पार्टियां, ब्लैकमेलर विधायक, रंगबाज मंत्रीऔर असहाय झारखंड । अब इस शीर्षक से ही पूरी कहानी साफ हो जाती है कि लेखक क्या कहना चाहता है । झारखंड की पतनशील राजनीति का जो समीकरण सात सितंबर 2006 के लेख में हरिवंश ने खींचा है वो है- झूठ + प्रपंच + छल + षडयंत्र + तिकड़म  । हरिवंश इसको राजनीति का नया समीकरण कहते हैं लेकिन उनसे थोड़ा सा आगे जाने की धृष्टता करते हुए मन करता है कि उनके समीकरण झूठ + प्रपंच + छल + षडयंत्र + तिकड़म में भ्रष्टाचार जोड़कर = सत्ता कर दूं तो वो और मौजूं हो जाएगा । अपने लेखों मे हरिवंश अंग्रेजी के शब्दों का इस तरह से इस्तेमाल करते हैं कि वो और भी मारक हो जाता है । अंग्रेजी के शब्दों के अलावा हरिवंश  खांटी देशज शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उसे और भी स्वीकार्य बना देते हैं । जैसे हम शर्मिंदा है कि आप विधायक हैं शीर्षक लेख में हरिवंश ने लिखा है झारखंड में लोकतंत्र अविश्वसनीय बन जाए, इसके लिए हमारे विधायक खूब खट रहे हैं । अब ये जो शब्द खट है वो खांटी देशड शब्द है, स्थानीय स्तर पर बोली जाती है । इसता मतलब है मेहनत करना । लेकिन अपने वाक्य में खट का इस्तेमाल कर हरिवंश के तंज का दंश गहरा गया है । उसी तरह से झारखंड के चुनाव पर एल लेख सबसे गरीब जनता, सबसे अमीर विधायक वाले लेख में भी हरिवंश की भाषा बेहद मारक है । एक जगह विधायकों के बारे में लिखते हैं- इस तरह परफॉरमेंस में सिफर, पर सुविधाओं में सबसे आगे । तंज कसते हुए गंभीर बातें कह देने की जो कला हरिवंश में है उस बाद की पीढ़ी के पत्रकारों को एक सीख देती है ।
हरिवंश की ये दोनों किताबें झारखंड के दो दशक का राजनीतिक घटनाक्रमों का इतिहास है, जिनके लेखों से घझारखंड की कड़वी सचाई सामने आती है  । हलांकि हरिवंश ने भूमिका में लिखा है कि पत्रकारिता को इतिहास का पहला ड्राप्ट कहा जाता है । पर इस पुस्तक में सामाजिक इतिहास बताने या दर्ज करने का मकसद नहीं । पर कौन सी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांसकृतित धाराएं और उपधाराएं इस दौर को प्रबावित कर रही हैं और राज्य व देश की राजनीति को भविष्य में प्रभावित करेंगी, उन्हें रेखांकित और उजागर करने की कोशिश है । झारखंड-दिसुम मुक्तिगाथा और सृजन के सपने, जोहार झारखंड, जमसरोकार की पत्रकारिता समते कई अन्य पुस्तकों के लेखक हरिवंश की प्रतिष्ठा में ये दोनों किताबें तो इजाफा करती ही हैं, झारखंड के समय समाज और राजनीति की समझ को विकसित करने में पाठकों को एक नई और याथार्थपरक दृष्टि भी देती है ।

Thursday, June 14, 2012

टीम अन्ना बनाम टीम अरविंद

इंडिया अगेंस्ट करप्शन की बेवसाइट पर कई वीडियो लगे हैं । दो वीडियो ऐसे हैं जिनमें भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रही टीम अन्ना के अंदरखाने की कहानी साफ बयां हो रही है । वीडियो में अरविंद केजरीवाल को बोलते दिखाया गया है और उनके पीछे बैकग्राउंड में अन्ना हजारे की एक पेंटिंग लगी हुई है । यह तस्वीर प्रतीकात्मक हो सकती है लेकिन प्रतीकों से कई बार कहानी पूरी तरह से साफ हो जाती है । भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना के आंदोलन का जो वर्तमान है उसमें अन्ना हजारे नेपथ्य में चले गए हैं और अरविंद केजरीवाल केंद्र में आने की तैयारी प्राणपण से जुटे हैं । खुद को केंद्र में लाने की बिछात भी बिछा दी गई है । भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आंदोलन की शुरुआत और इसकी पूरी योजना अरविंद केजरीवाल ने ही बनाई थी । अपने आंदोलन को एक विश्वसनीय चेहरा देने के लिए अरविंद ने अन्ना हजारे को खोज निकाला था । अन्ना के रूप में अरविंद को आंदोलन का एक ऐसा मुखौटा भी मिल गया था जो मंदिर में रहता था, जिसका कोई परिवार नहीं था, जिसने अपने गांव में विकास के काफी काम किए, जो गांधी टोपी के अलावा धोती कुर्ता पहनता था । ये सारी ऐसी चीजें ऐसे प्रतीक है जो अब भी भारतीय जनमानस को गहरे तक प्रभावित करते हैं, कई बार आंदोलित भी । इन सारे गुणों के साथ जब एक बुजुर्ग अन्न जल त्याग कर दिल्ली के रामलीला मैदान से भारत में भ्रष्टाचार खत्म करने का हुंकार भरता था तो घूसखोरी से आजिज आ चुकी जनता को उसमें एक मसीहा दिखाई देने लगा था । अन्ना के प्रति आस्था और आंदोलन की भावना में डुबकी लगा रहे कई उत्साही लोगों ने उन्हें छोटा गांधी तक करार दे दिया था । हलांकि छोटा गांधी कहना बहुत जल्दबाजी थी और समय के साथ ये विशेषण खुद ही गायब हो गया ।

मुंबई में अन्ना के अनशन से उनकी विश्वसनीयता और आंदोलन के उद्देश्य पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया था जब बीजेपी के मुतल्लकि पूछे सवाल पर अन्ना उठकर चले गए थे और अरविंद ने भी कन्नी काट ली थी । मुंबई के बाद आंदोलनकारियों के तेवर ढीले पड़ गए थे । बीच-बीच में अरविंद केजरीवाल सांसदों को बुरा भला कह कर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखे थे । लेकिन टीम के बीच मनभेद की खबरें आती रही । खबरों से बाहर होने की वजह से टीम हताश थी और इस हताशा में मीडिया पर भी आरोप मढे जाने लगे । यह सब चलता रहा । इस बीच अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में मजबूत लोकायुक्त की मांग को लेकर प्रदेश भर का दौरा किया । महाराष्ट्र के दौरे पर अरविंद केजरीवाल और टीम का कोई भी अहम सदस्य अन्ना के साथ नहीं रहा । एकाध दिन के लिए कोई मिलने चला गया हो तो अलग बात है । वहां से अरविंद और अन्ना के बीच पहली बार एक खिंचाव, एक दूरी दिखाई दी । कहा तो यहां तक गया कि अरविंद केजरीवाल ने जिन 15 केंद्रीय मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं उनमें विलासराव देशमुख का नाम शामिल करने पर अन्ना को आपत्ति थी । इस वजह से वो उस प्रेस कांफ्रेंस में शामिल नहीं हुए जिसमें इन मंत्रियों पर टीम अरविंद ने आरोप जड़े । लेकिन टीम अरविंद ने अन्ना की आपत्ति को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों पर आरोप लगाए । अन्ना की कभी हां और कभी ना वाले बयानों से भ्रम की स्थिति बनी । पहले मनमोहन सिंह को दोषी करार देना, फिर ठाणे में उन्हें क्लीन चिट देने से अन्ना की स्टैंड लेने और उसपर कायम रहने पर सवाल खड़े होने लगे । उधर टीम अरविंद ने प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों पर हमलावर रुख जारी रखकर अन्ना हजारे को भी एक संदेश दे दिया कि अब उनका रुख अंतिम और सर्वमान्य नहीं है । मनभेद- मतभेद में बदला ।

रही सही कसर दिल्ली के संसद मार्ग पर रामदेव के साथ अन्ना की गलबहियां ने पूरी कर दी । अन्ना की सबसे बड़ी ताकत उनका नैतिक बल था । रामदेव के साथ गले लगते ही वो नैतिक बल निस्तेज हो गया । रामलीला मैदान पर भारत माता की जय की हुंकार लगाने वाले अन्ना हजारे रामदेव के सुर में सुर मिलाने लग गए । भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहे अन्ना हजारे एक ऐसे शख्स के साथ गले लग रहे थे जिसके ट्रस्टों के खिलाफ इंकम टैक्स समेत कई सरकारी विभाग जांच कर रहा है । जिस शख्स के ट्रस्ट पर कई एकड़ जमीन हथियाने का आरोपों पर खासा बवाल मचा था । जो शख्स अपने एक आंदोलन के दौरान पुलिस के डर से  महिलाओं के कपड़े पहनकर आंदोलन छोड़कर भागता हुआ पकड़ा गया था । लेकिन अन्ना हजारे कह रहे थे कि उस शख्स के साथ आने से आंदोलन को ज्यादा मजबूती मिलेगी । मंच पर बालकृष्ण भी बैटे थे जिनके फर्जी पासपोर्ट की जांच चल रही है । उसी मंच पर बैठने से अन्ना और अरविंद केजरीवाल की साख को तगड़ा झटका लगा । अरविंद केजरीवाल बीमारी की बात कहकर वहां से चले गए लेकिन जो नुकसान होना था वो हो गया ।

दरअसल रामदेव को लेकर टीम अन्ना में दो धारा है । एक धारा का प्रतिनिधित्व खुद अन्ना हजारे करते हैं और उनके साथ हैं किरण बेदी हैं जो लगातार बैठकों में रामदेव के साथ आने की वकालत करते है । वहीं दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण हैं जिन्हें रामदेव के नाम से ही चिढ़ है ।कई बार बैठकों में इस बात पर जमकर बहस भी हुई है ।  टीम में ये विभाजन बहुत साफ है । दिखता भी है ।  रामदेव की मंशा और राजनीति बहुत साफ है । रामदेव अब चाहे जो भी कहें लेकिन एकाधिक बार अपने साक्षात्कार में वो यह बात स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं हैं । वो तो पार्टी बनाकर हर सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने की बात भी कह चुके हैं । जबकि अब तक टीम अन्ना चुनाव से दूर रहने की बात करती आई है । खुद अन्ना ने भी चुनाव की राजनीति को अपने आंदोलन से अलग रखा था ।

अन्ना और रामदेव के ताजा गठजोड़ से भ्रम और गहरा गया है । रामदेव सबसे पहले समर्थन के लिए गडकरी के पास पहुंचते हैं जहां वो उनका पांव छूकर आशीर्वाद लेते हैं । गडकरी के पांव छूने के अलग निहितार्थ है । रामदेव हर नेता के दर पर मत्था टेक कर काला धन के खिलाफ समर्थन मांग रहे हैं । विडंबना देखिए कि शरद पवार और मुलायम से भी काला धन के खिलाफ लड़ाई में रामदेव समर्थन मांग रहे हैं । जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जंग से टीम अन्ना ने नेताओं को दूर ही रखा था और खुद भी उनसे दूर रहे थे ।

रामदेव के साथ आने से इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन की दिशा भटक गई है । काला धन और भ्रष्टाचार एक दूसरे से जुड़े जरूर हैं लेकिन एक और जहां काला धन रोज रोज लोगों को प्रभावित नहीं करता है वहीं भ्रष्टाचार से हर रोज आम आदमी का वास्ता पड़ता है । इंडिया अगेंस्ट करप्शन की मूल लड़ाई उसी भ्रष्टाचार के खिलाफ थी जो रामदेव के साथ आने से भटक सी गई लगती है । अब टीम अन्ना की मांगें भी खंड़ित हो गई हैं । जनलोकपाल की मूल मांग के समांतर काला धन और पंद्रह मंत्रियों के खिलाफ आरोप की जांच की मांग ने  आंदोलन को मूल से भटका दिया है । अपने आंदोलन को राह से भटकते देख फौरन अरविंद केजरीवाल ने रणनीति बनाई और बेहद सफाई से  जनलोकपाल की मांग से दूर हटकर मंत्रियों के भ्रष्टाचार को मुद्दा बना लिया । बीच बीच में जनलोकपाल की मांग उठाते रहने की रणनीति बनी । एक बार फिर से 25 जुलाई से अनशन का ऐलान है लेकिन अन्ना तबियत खराब होने की वजह से अनशन नहीं करेंगे । पूरा शो अरविंद केजरीवाल का होगा । उस दिन ही अरविंद केजरीवाल का और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का भी भविष्य तय हो जाएगा ।

Monday, June 11, 2012

कहां गई 'पार्टी विद अ डिफरेंस'

कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए 2 सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बुरी तरह घिरी हुई है । सरकार महंगाई पर काबू पाने में बुरी तरह से नाकाम रही है । पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं, देशभर में आम जनता त्राहिमाम कर रही है । राजनीति में इस तरह की स्थितियां प्रमुख विपक्षी दल के आइडियल होती हैं । उन्हें बैठे बिठाए मुद्दा मिल जाता है और सत्तारूढ दल या गठबंधन को पछाड़ने का हथियार । याद हो कि वी पी सिंह ने सिर्फ चौंसठ करोड़ के बोफोर्स घोटाले को लेकर देशभर में इतना बड़ा जनज्वार पैदा कर दिया था कि सरकार बदल गई थी। लेकिन इस वक्त ऐसा होता नहीं दिख रहा । प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी में इतनी ज्यादा खींचतान है कि वो फिलहाल जनता को बेहतर विकल्प देने का भरोसा नहीं दे पा रही है । मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे जिस तरह से शीर्ष नेतृत्व के बीच मतभेद का इजहार हुआ वो पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं । नरेन्द्र मोदी और संजय जोशी का प्रकरण नेतृत्व की लाचारी दिखा गया । नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष को दूसरा कार्यकाल देने के लिए जब पार्टी संविधान में संशोधन का प्रस्ताव पास हो रहा था तो आडवाणी नदारद थे । बाद की रैली में आडवाणी के साथ सुषमा स्वराज भी गायब रही । बीजेपी भले ही उपर से एकजुट दिखने का प्रयास करे लेकिन हर जगह पार्टी आंतरिक कलह और अपने नेताओं की महात्वाकांक्षा से जूझ रही है । प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले नेताओं के बीच शह और मात का खेला जा रहा है तो कोई मुख्यमंत्री बनने के लिए बेताब है । इस अंतर्कलह के बीच पार्टी के लौहपुरुष आडवाणी रेसकोर्स जाने के अपने सपने को पूरा करना चाहते हैं । आडवाणी ने अपने ब्लॉग में जिस तरह से गडकरी पर निशाना साधा है उससे कलह खुलकर सामने आ गई है ।

केंद्रीय नेतृत्व की होड़ के बीच बीजेपी शासित राज्यों में भी हालात कोई अच्छे नहीं हैं । राजस्थान में वसुंधरा राजे ने आलाकमान के खिलाफ खुली बगावत करके उन्हें घुटने टेकने को मजबूर कर दिया संगठन के उपर व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा की जीत हुई । कर्नाटक में भी येदुरप्पा के बगावती तेवर पार्टी नेताओं को परेशान कर रहे हैं । इस वक्त जब पार्टी को चुनाव की तैयारी में जुटना चाहिए था और कांग्रेस को परास्त करने की रणनीति बनानी चाहिए थी तो नेता खुद की पार्टी को परास्त करने की बिसात बिछा रहे हैं । येदुरप्पा खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं और अनंत कुमार फल टपकने के इंतजार में हैं । गुजरात में इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं । वहां के संगठन में भी हालात बेहतर नहीं हैं । केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता और कांशीराम राणा जैसे कद्दावर नेता लगातार मोदी को कमजोर करने में जुटे हैं । गुजरात से निकलकर अगर महाराष्ट्र बीजेपी की बात करें तो प्रमोद महाजन के बाद पार्टी के सबसे बड़े और पिछड़े वर्ग से आने वाले गोपीनाथ मुंडे गाहे बगाहे बगावती तेवर दिखाते रहते हैं । गडकरी से उनकी अदावत पुरानी है । कांग्रेस-एनसीपी के बदतर प्रदर्शन के बावजूद पार्टी के अंतर्कलह से बीजेपी सत्तारूढ गठबंधन को चुनौती देने की हालत में नहीं है । मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान भी पार्टी से बड़े हो गए हैं । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त जब उमा भारती की पार्टी में वापसी का फैसला होनेवाला था तो शिवराज सिंह ने शर्त रख दी थी कि उमा भारती मध्यप्रदेश में कदम नहीं रखेंगी। आलाकमान के इस शर्त मानने के बाद ही भारती की पार्टी में वापसी संभव हुई । दिल्ली में तो शीला दीक्षित करीब पंद्रह साल से राज कर रही है लेकिन वहां डेढ़ दशक के बाद भी बीजेपी शीला को चुनौती देनेवाला नेता नहीं ढूंढ पाई है । झारखंड का मसला बहुत पुराना नहीं है जब राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन को लेकर यशवंत सिन्हा और गडकरी में ठन गई थी । बाद में पार्टी को एक धनवान उम्मीदवार के समर्थन के फैसले को बदलना पड़ा था जिससे आलाकमान की खासी किरकिरी हुई थी।
पार्टी में अंतर्कलह का नतीजा यह हुआ कि बीजेपी संसद से लेकर सड़क तक यूपीए सरकार के खिलाफ कोई ठोस मुद्दा पेश नहीं कर सकी । पिछले साल महंगाई के मुद्दे पर बीजेपी ने देशभर में सड़कों पर उतरने का ऐलान किया था लेकिन जनता को बेहतर विकल्प का भरोसा नहीं दे पाने की वजह से अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिला और मुहिम टांय टांय फिस्स हो गई । जब बीजेपी 1998 में सत्ता में आई थी तो उस वक्त उनका नारा था सार्वजनिक जीवन में शुचिता और पार्टी विद अ डिफरेंस । नरसिंह राव, देवगौड़ा और गुजराल जैसे नेताओं के शासन से उब चुकी जनता को बीजेपी में उम्मीद दिखी थी ।  पिछले तीन साल से संसद में बीजेपी यूपीए सरकार की नाकामी और भ्रष्टाचार पर वॉक आउट और शोर-शराबे के अलावा रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने में अबतक सफल नहीं हो पाई है । उनको लगता है कि यूपीए की नाकामी ही उनके लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करेगी । पार्टी की आस नकारात्मक वोट से है लिहाजा सकारात्मक वोट पाने की कोशिश नहीं हो रही ।  

बीजेपी को हमेशा से मजबूत केंद्रीय नेतृत्व से ताकत मिलती थी । वैसा नेता जो जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हो, चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्मा हो या फिर लालकृष्ण आडवाणी की सख्त और कट्टर हिंदूवादी छवि । उस दौर में केंद्रीय नेतृत्व अपने हर अहम फैसले के पहले पार्टी क्षत्रपों से बात कर उनको विश्वास में लेते थे । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से पार्टी की शीर्ष निर्णायक कमेटियों कोर ग्रुप, पार्लियामेंट्री बोर्ड, सेंट्रल इलेक्शन कमेटी से जमीन से जुड़े नेताओं को बाहर रखा गया, उससे मुश्किलें और बढ़ गई । जनता के बीच जानेवाले नेताओं के बजाए एयरकंडीशंड कमरों में रहनेवाले नेताओं की पूछ बढ़ गई है।  नतीजा यह हुआ कि पार्टी पक्षाघात का शिकार हो गई और दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेताओं की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा संगठन पर हावी होती चली गई ।

इस वक्त जब बीजेपी के सामने सत्ता वापसी का सुनहरा मौका है लेकिन इस वक्त पार्टी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं का कोलाज बन गई है । अंतर्कलह चरम पर है । बीजेपी के पास अब भी दो साल का वक्त है । अगर समय रहते पार्टी नहीं चेती और उसके नेता व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं को त्याग कर एकजुट होकर जनता का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हुए तो 2104 में भी उनके लिए दिल्ली दूर ही साबित होगी ।

Saturday, June 2, 2012

दबाव की राजनीति

भारतीय जनता पार्टी की मुंबई में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पहले, उस दौरान और उसके बाद जमकर ड्रामा हुआ । कार्यकारिणी की बैठक के पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के वहां पहुंचने को लेकर लगातार सस्पेंस बना रहा । अटकलबाजियों और कयासों के बीच मोदी खेमे से ये प्रचारित करके पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाया गया कि नरेन्द्र मोदी बैठक में शामिल नहीं होंगे । मोदी की नाराजगी उनके पूर्व सहयोगी संजय जोशी को पार्टी में लगातार मिल रही अहमियत को लेकर थी । मोदी खेमा ने गडकरी तक साफ संदेश भिजवा दिया कि या तो संजय जोशी या फिर नरेन्द्र मोदी । इस संदेश के बाद गडकरी मोदी के अर्दब में आ गए और आनन फानन में संजय जोशी का राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा हो गया । सुबह जोशी का इस्तीफा हुआ और उसके चंद घंटों बाद ही नरेन्द्र मोदी विजेता के भाव से सम्मेलन स्थल पर पहुंचे । मोदी ने जिस तरह से संजय जोशी के मसले पर पार्टी आलाकमान को झुकाया उसके बाद उनको कुछ लोग पार्टी से बड़े नेता के तौर पर देखने लगे । कुछ का कहना था कि संघ ने मोदी के सामने घुटने टेक दिए । कईयों ने ये कहकर संतोष जताया कि कार्यकर्ताओं के बीच संजय जोशी का सम्मान इस वजह से बढ़ गया कि उन्होंने संगठन के लिए त्याग किया । इस शोर के बीच जो एक बात उभर कर सामने आई वो यह कि बीजेपी जैसी कैडर आधारित पार्टी में जहां संगठन सर्वोपरि हुआ करता था वहां अब संगठन पर व्यक्ति हावी होने लगे हैं । माधव सदाशिव गोलवलकर ने विचार नवनीत में लिखा है - कोई भी व्यक्ति चाहे वो कितना भी महान क्यों ना हो, राष्ट्र के लिए आदर्श नहीं बन सकता । राष्ट्र जीवन की अनंतता की तुलना में व्यक्ति का जीवन बहुत क्षणभंगुर है । लेकिन बीजेपी के नेताओं को अब गोलवलकर, सावरकर और दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतों की फिक्र कहां है ।
मोदी-जोशी के इस प्रकरण में मोदी की आलोचना करनेवाले बहुधा यह भूल जाते हैं कि पार्टी नेतृत्व को ठेंगे पर रखकर अपनी बात मनवाने की प्रवृत्ति के जनक वरिष्ठ नेता अरुण जेटली हैं । बात सिर्फ तीन साल पुरानी है । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह ने प्रमोद महाजन के करीबी रहे कारोबारी सुधांशु मित्तल को पू्र्वोत्तर राज्यों का सहप्रभारी बना दिया । राजनाथ सिंह के इस कदम से खफा अरुण जेटली ने उन सब बैठकों के बहिष्कार का फैसला ले लिया जिनकी अध्यक्षता पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह कर रहे थे । लिहाजा चुनाव के ठीक पहले जब उम्मीदवारों के बारे में अंतिम फैसले पर माथापच्ची हो रही थी उस वक्त बीजेपी अंतर्कलह में उलझ गई । उस दौरान अरुण जेटली लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के चुनाव प्रभारी थे । जिस दिन उन्होंने सीईसी की बैठक का बहिष्कार किया उस दिन बिहार की सीटों के तालमेल के लिए बैठक होने वाली थी । नीतीश कुमार से जेटली की कमेस्ट्री बेहतर थी । बीजेडी से पार्टी का गठबंधन टूटा था और बीजेपी नीतीश से कोई पंगा नहीं ले सकती थी । मौका देख जेटली ने पार्टी पर दबाव बनाया कि सुधांशु मित्तल को हटाए बगैर वो राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली बैठकों में नहीं जाएंगें । संघ से जुडे सुरेश सोनी ने जेटली को मनाने की लाख कोशिशें की लेकिन वो नहीं माने । लालकृष्ण आडवाणी ने भी बीच का रास्ता निकालने की असफल कोशिश की थी । अरुण जेटली झुकने को तैयार नहीं थे और राजनाथ भी सुंधाशु को हटाने को राजी नहीं थे । उस वक्त इस तरह की खबरें भी आई थी राजनाथ सिंह ने सुधांशु मित्तल को नियुक्त करने से पहले सुषमा स्वराज की सहमति ली थी । लेकिन अरुण जेटली को अपनी अहमियत का अहसास था लिहाजा वो अड़े रहे और बाद में आरएसएस से जुड़े पार्टी के वरिष्ठ नेता रामलाल और लालकृष्ण आडवाणी की पहले के बाद जेटली-राजनाथ के बीच की बर्फ पिघली । सुंधाशु मित्तल सिर्फ नाम के बने रहे, बैठकों और कार्यक्रमों से दूर । इस तरह बीजेपी में पहली बार किसी नेता ने अध्यक्ष को झुकने पर या फिर उनके निर्णय को बदलने पर मजबूर किया ।
अरुण जेटली ने पार्टी में जिस प्रवृत्ति की नींव डाली उसपर चंद महीनों बाज ही वुसंधरा राजे ने इमारत खड़ी कर ली । राजस्थान के चुनावों में पार्टी की हार के बाद राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को घेरने के लिए प्रदेश अध्यक्ष से इस्तीफा दिलवाकर उनपर नेता विपक्ष का पद छोड़ने का दबाव बनाया । लेकिन राजनाथ सिंह को ये दांव उल्टा ही पड़ गया । वसुंधरा ने राजनाथ का फरमान मानने से इंकार कर दिया और खुलेआम अपने समर्थकों से ये संदेश दिलवाया कि लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की हार हुई है लिहाजा राजनाथ सिंह को भी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए । हफ्तों तक दोनों के बीच रस्साकशी चलती रही । पार्टी और अध्यक्ष दोनों की फजीहत के बाद वसुंधरा ने नेता विपक्ष का पद तो छोड़ा लेकिन अपनी तमाम शर्तों को मनवाने के बाद ।
एक बार फिर संगठन पर व्यक्ति हावी हुआ । पार्टी विद अ डिफरेंस और अनुशासित पार्टी पर सवाल उठे। वसुंधरा ने राजस्थान में नेता विपक्ष के पद पर किसी की नियुक्ति नहीं होने दी और जब राजनाथ सिंह के बाद नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तो वो फिर से राजस्थान में नेता विपक्ष बनीं । लेकिन वसुंधरा एक बार फिर से संगठन पर हावी हो गई । कुछ दिनों पहले अध्यक्ष नितिन गडकरी से हरी झंडी मिलने के बाद संघ से जुड़े राजस्थान के नेता गुलाब चंद कटारिया ने प्रदेश भर में यात्रा का ऐलान किया । ये ऐलान वसुंधरा को रास नहीं आया और एक बार फिर से विधायकों के इस्तीफों की झड़ी लगवाकर वसुंधरा ने पार्टी को झुकने पर मजबूर कर दिया गया । यही हाल कर्नाटक का भी है जहां लगभग बागी हो चुके येदुरप्पा जब चाहे तक संगठन को ब्लैकमेल कर केंद्रीय नेतृत्व को घुटनों पर ला देते हैं । येदुरप्पा पर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम हैं, बाबजूद इसके उनके सामने बीजेपी आलाकमान की बेबसी दयनीयता के स्तर पर पहुंच जाती है । मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने उमा भारती को पार्टी में तभी शामिल होने दिया गया जब आलाकमान ने ये भरोसा दिया कि वो मध्य प्रदेश से बाहर रहेंगी । दरअसल अरुण जेटली ने पार्टी नेताओं को जो राह दिखाई उसके बाद से बीजेपी के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है ।
संजय जोशी को पार्टी कार्यकारिणी से बाहर निकलवाने के लिए नरेन्द्र मोदी की लानत मलामत करनेवाले अरुण जेटली और राजनाथ सिंह के झगड़े को भूल जाते हैं । अरुण जेटली को इस बात का श्रेय जाता है कि संगठन पर व्यक्ति के हावी होने की राह के अन्वेषक वही बने । दरअसल बीजेपी में कई नेताओं को इस बात का अंहकार हो गया है वो पार्टी के लिए अनिवार्य हो गए हैं । अनिवार्यता के इस दंभ में उन्हें लगने लगा है कि वो पार्टी और संगठन से बड़े हो गए हैं, लिहाजा वो मनमानी पर उतारू हैं । बीजेपी नेताओं के बढ़ते अहंकार पर गुरूजी गोलवलकर ने बेहद सटीक टिप्पणी की थी- जब कार्य बढता है तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करते हुए प्रभावी होने लगता है, तब लोग स्वभावत: ही कार्यकर्ताओं की प्रशंसा करना आरंभ कर देते हैं ।कार्यकर्ता के लिए वही खतरे का स्थान है । उसमें अपनी योग्यता और प्रभाव की चेतना जागृत होती है और उसमें एक प्रकार का मिथ्याभिमान उत्पन्न हो जाता है । गोलवलकर ने जिस मिथ्याभिमान की बात की है उसके शिकार हुए बीजेपी नेताओं को अपने पूजनीयों का भी ख्याल नहीं ।

सियासत का खूनी खेल !

केरल के मार्क्सवादी नेता के एक बयान ने सीपीएम के चेहरे से नकाब हटा दिया है और पूरी पार्टी के कठघरे में खड़ा कर दिया है । केरल के इडुक्की जिला सीपीएम के अध्यक्ष और राज्य कमेटी के सदस्य एम एम मणि ने ये कहकर सनसनी फैला दी कि उनकी पार्टी राजनैतिक विरोधियों की हत्या करवाने में यकीन रखती है । मणि ने ये बातें खुलेआम एक रैली में की । इस बयान को जोश में होश खो देने वाला बयान बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि मणि ने अपने मरने मारनेवाले बयान के बाद उसके समर्थन में उदाहरण देकर उसी सही भी ठहराया और कहा कि पार्टी को उन हत्याऔं की जिम्मेदारी लेने से कोई गुरेज भी नहीं है जो उसने करवाई है । पहले तो मणि ने खुलेआम ये कहा कि हमें मरने और मार डालने की आदत है । इसलिए उनकी पार्टी सीपीएम और उसके कार्यकर्ताओं को कोई धमकी ना दे । उन्होंने सरेआम ये ऐलान किया कि जो भी पार्टी के खिलाफ काम करेगा उसे रास्ते से हटा दिया जाएगा । मणि के मुताबिक सीपीएम ने 1982 में तेरह लोगों की सूची बनाई थी जिन्हें कत्ल करना था । इस सूची में से एक को गोली मारकर हत्या कर दी गई । दूसरे की सरेआम पीट-पीट कर हत्या कर दी गई और तीसरे शख्स को तो चाकुओं से गोदकर मार डाला गया । आरोपों को मुताबिक कत्ल किए गए दो लोगो कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और एक भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करता था । इंतहां तो तब हो गई थी जब इनमें से एक हत्या के चश्मदीद का भी कत्ल हो गया । इन हत्याओं के आरोप उस वक्त भी सीपीएम पर लगे थे । लेकिन उन हत्याओं में पड़ताल कहां तक पहुंची इसका पता ही नहीं चल पाया ।

मणि के इस बयान के बाद केरल समेत देश की राजनीति में भूचाल आ गया है । केरल सीपीएम के ताकतवर नेता पिनयारी विजयन ने इस बयान पर सफाई दी और कहा कि मणि ने सार्वजनिक रूप से बयान देकर गलत किया है और यह पार्टी के स्थापित मानदंडों के खिलाफ है । यहां यह बात गौर करने लायक है कि विजयन ने मणि के बायन को गलत नहीं ठहराया बल्कि सार्वजनिक रूप से बयान देने को गलत करार दिया । तो क्या यह मान लिया जाए कि विजयन की मणि के बयानों से सहमति हैं । केंद्रीय नेतृत्व को ये साफ करना होगा । मणि के इस बयान और विजयन की सफाई को केरल में हाल ही में सीपीएम छोड़कर अपनी पार्टी बनाने वाले टी पी चंद्रशेखरन की हत्या से जोड़कर देखा जाने लगा है । चंद्रशेखरन की हत्या के बाद पिनयारी विजयन के बयान को देखें तो उससे भी हिंसा की इस राजनीति की तस्वीर थोड़ी और साफ होती है । चंद्रशेखरन के कत्ल के बाद विजयन ने कहा था कि वो दलबदलू और विश्वासघाती थे । विजयन ने ये बयान उस वक्त दिय़ा था जब केरल के कद्दावर कम्युनिस्ट नेता वी एस अच्युतानंदन उनको श्रद्धांजली दे रहे थे । पिनयारी विजयन के इस बयान के अपने निहितार्थ हैं जिसको मणि के बयानों ने उजागर कर दिया है । एम एम मणि के बयान को सीपीएम के आला केंद्रीय नेता यह कहकर दबा देने के चक्कर में हैं कि वो पार्टी का एक बहुत छोटा नेता है लिहाजा उसके बयान को पार्टी की विचारधारा नहीं मानी जानी चाहिए । ये सही भी है कि किसी भी ऱाष्ट्रीय पार्टी(अगर सीपीएम अब भी है तो) के एक जिले के अध्यक्ष के बयान को पार्टी की विचारधारा नहीं माना जा सकता है लेकिन अगर उस जिलाध्यक्ष का इतना रुतबा हो कि विधानसभा चुनाव के वक्त अपनी पार्टी के शीर्ष नेता और सूबे के मुख्यमंत्री को प्रचार के लिए अपने इलाके में नहीं आने दे तो उसके रुतबे का अंदाजा लगाया जा सकता है । पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त मणि ने अच्युतानंदन को इडुक्की नहीं आने दिया था । ये है मणि की पार्टी में हैसियत और ताकत । उसके अलावा एम एम मणि पच्चीस साल से ज्यादा वक्त से जिलाध्यक्ष हैं और पार्टी में कोई कार्यकर्ता उनके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर सकता । क्यों नहीं कर सकता, इसकी वजह मणि ने खुद साफ कर दी है ।

ऐसा नहीं है कि वामपंथी दलों के शासन वाले राज्यों में पहली बार राजनीतिक हिंसा की बात सामने आ रही है । पश्चिम बंगाल में भी दशकों तक मार्क्सवादियों ने राज किया किया लेकिन उनका दामन भी सियासी हत्याओं से दागदार रहा है । ममता बनर्जी की पार्टी के नेता तो उस दौरान पचास हजार से ज्यादा राजनीतिक हत्या का आरोप लगाते रहे हैं । हो सकता है उसमें अतिशोक्ति हो लेकिन तटस्थ विश्लेषकों की मानें तो वामपंथी शासनकाल के दौरान तकरीबन चार हजार राजनैतिक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई । उन्नीस सौ सतहत्तर से लेकर अब तक पंद्रह सौ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई और तकरीबन बीस हजार परिवारों को घर छोड़कर भागना पड़ा । तृणमूल कांग्रेस के भी दो हजार कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप सीपीएम पर लगे। जब ममता बनर्जी सूबे में सत्तारूढ हुई तो कई सीपीएम नेताओं घर के पिछवाड़े में बने गार्डन से नरकंकाल बरामद होने से इन आरोपों को और बल मिला है ।  

दरअसल मणि के बयानों ने पार्टी की एक सचाई को उजागर कर दी । सीपीएम की बुनियाद और विचारधारा का आधार ही हिंसा रहा है । उन्नीस सौ साठ में जब कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्कसवादी का गठन हुआ तो उनकी आत्मा और विचारधारा चीन की तरफ झुकी हुई थी । सीपीआई तो सिस्टम में बनी रही लेकिन सीपीएम सशस्त्र संघर्ष के जरिए भारतीय गणतंत्र को हथियार के बल पर जीतने की ख्वाहिश पाल बैठी । उनके सामने माओवादी चीन का मॉडल था और वो बड़े फख्र के साथ नारा लगाया करते थे चीन का चेयरमैन, हमारा चेयरमैन । जाहिर तौर पर बात माओ की होती थी । माओ ने चीन में जिस विचारधारा की बुनियाद रखी चीन कमोबेश उसी पर आगे चलता रहा है । हलांकि माओ के विचारधारा पर डेंग जियाओपिंग ने उन्नीस सौ सत्तर में लगाम लगा दी थी लेकिन थियेन अन मन चौक पर जिस तरह से प्रदर्शनकारियों को टैंकों से कुचल दिया गया वह माओ की ही विचारधारा की परिणति थी। चीन में भी राजनीतिक विरोध करनेवालों को कुचला गया, सामूहिक नरसंहार किया गया । उसी चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में अब खुलेआम अपने राजनैतिक विरोधियों के कत्ल की बात करने लगी है ।

लेकिन चीन के चेयरमैन माओ की विचारधारा को सही मानने वाले लोग यह भूल गए कि भारत गांधी का देश है और यहां हिंसा और नफरत की राजनीति करनेवाले लोग सियासत में ज्यादा दिन टिक नहीं पाते हैं । बंगाल और केरल में में हार के बाद सीपीएम जिस तरह से पूरे देश में सिमट गई है उससे यह लगने लगा है कि हिंसा की बुनियाद पर राजनीति करने वाले कुछ वक्त के लिए तो प्रासंगिक हो सकते हैं लेकिन फिर जनता उनको नकार ही देती है । देश में कम्युनिस्टों के लाल झंडे को लहराने के पचहत्तर साल हो गए हैं । बाइस मई उन्नीस सौ सैंतीस को अलापुझा के राधा थिएटर में पहली बार हशिया और हथौड़ा वाला लाल झंडा फहराया गया ता लेकिन सिर्फ पचहत्तर साल में लाल रंग फीका पड़ने लगा है । दिक्कत ये है कि हमारे यहां के मार्कसवादी भारत को माओ के सिद्धांतो के अनुरूप बदलना चाहते हैं । उनको ये बिल्कुल गंवारा नहीं कि माओ के सिद्धांतों को भारतीयता के अनुरूप बदला जाए । जिस दिन वो इस बात को समझ पाएंगे उस दिन से सियासत का खूनी खेल बंद हो जाएगा और उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ जाएगी ।  

Sunday, May 27, 2012

इंदिरा गांधी के बहाने

भारतीय राजनेताओं में महात्मा गांधी के बाद इंदिरा गांधी लेखकों और राजनीति टिप्पणीकारों की पसंद हैं । उनपर प्रचुर मात्रा में लिखा गया और अब भी लिखा जा रहा है । महात्मा गांधी अपने विचारों को लेकर लेखकों को चुनौती देते हैं वहीं इंदिरा गांधी अपनी राजनीति और अपने निर्णयों और उसके पीछे की वजह सें लेखकों के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है । इंदिरा गांधी पर एक अनुमान के मुताबिक सौ के करीब किताबें लिखी जा चुकी हैं जिनमें कैथरीन फ्रैंक, इंदर मल्होत्रा और पुपुल जयकर आदि प्रमुख हैं । मशहूर पत्रकार और लंबे समय तक न्यूजवीक और न्यूयॉर्क टाइम से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रणय गुप्ते ने इंदिरा गांधी की राजनीतिक जीवनी लिखी है- मदर इंडिया, अ पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ इंदिरा गांधी । तकरीबन छह सौ पन्नों में लिखी गई इस किताब में आजाद भारत की सबसे जटिल राजनीतिक शख्सियत इंदिरा गांधी के दर्द गिर्द भारतीय राजनीति का भी द्स्तावेजीकरण किया गया है । इंदिरा गांधी की इस किताब के बारे में लेखक का मानना है कि यह सामान्य पाठकों के लिए है खासकर उन विदेशी फाठकों के बारे में जो समकालीन भारतीय इतिहास में रुचि रखते हैं । इसमें इंदिरा गांधी का जीवन तो है ही साथ ही साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन और बढ़ती जनसंख्या जैसी समस्या पर भी लेखक ने विस्तार से लिखा गया है । ये दोनों विषय़ इंदिरा गांधी के लिए बेहद अगम थे । जब पूरे विश्व में शीत युद्ध चल रहा था तो उस वक्त इंदिरा गांधी ने बेहद संतुलन और राजनैतिक कौशल के साथ अमेरिका और रूस के खेमों से अलग हटकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन को मजबूती देकर विश्व नेता के तौर पर अपनी छवि मजबूत की । इस किताब में जनसंख्या नियंत्रण पर इंदिरा गांधी की नीतियों को प्रणय ने कसौटी पर कसा है और बहुधा आलोचनात्मक दृष्ठि के साथ ।

इमरजेंसी इंदिरा गांधी के जीवन का काला दाग है । 1975 में जब इंदिरागांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद देश में लोकतंत्र को खत्म करने की ठानी तो पूरा देश उनके खिलाफ एक जुट हो गया । ट्रांसफॉरमिंग डेमेक्रेसी नाम के अध्याय में प्रणय गुप्ते ने मिनट दर मिनट का हवाला देते हुए पूरे घटनाक्रम को परखा है । इंदिरा गांधी ने किन परिस्थितियों में इमरजेंसी लगाने का फैसला लिया और कौन कौन से सलाहकार थे जिनकी सलाह पर लोकतंत्र पर हमले की साजिश रची गई । इमरजेंसी में हुए ज्यादतियों के अलावा उस दौर में किस तरह से जयप्रकाश नारायण ने संघर्ष का ताना बाना बुना, उसका भी दस्तावेजीकरण है इस किताब में । 1936 में जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस की नीतियों से मतभेद होने के बाद पार्टी से इस्तीफा दे दिया था लेकिन करीब 40 साल के बाद फिर जब जयप्रकाश नारायण को लगा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है  तो उन्होने मोरारजी देसाई के साथ मिलकर जनता मोर्चा बनाया और संघर्ष का बिगुल फूंक दिया। इस किताब में प्रणय गुप्ते ने बेहद बारीकी से उस दौर की राजनीति को पकड़ते हुए उसका विश्लेषण किया है ।

इस किताब में इंदिरा गांधी के विचारों को उनके दोस्तों के हवाले से, उनको लिखे पत्रों के हवाले से और उपलब्ध सामग्री के आधार सामने रखा गया है । लेखक खुद मानते हैं कि यह किताब दूसरों के शोध पर आधारित है । लेकिन उन्नीस सौ चौरासी में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जो वातावरण बना था उसके गवाह लेखक खुद बने हैं । उस वक्त उन्होंने देशभर में दौरा किया, पंजाब में लंबा वक्त बिताया और सिखों के मनोविज्ञान को समझा और फिर उन अनुभवों के आधार पर संकट के उन क्षणों को याद किया है । मोटो तौर पर लेखक ने इंदिरा गांधी की इस जीवनी को पांच भागों में बांटा है । शुरुआत उनकी हत्या और बाद के हालातों से की गई है । दूसरे भाग में उनके किशोरावस्था से लेकर फिरोज गांधी से उनके प्रेम विवाह और फिर उनसे अलगाव की गाथा है । तीसरे भाग में इंदिरा गांधी की राजनीति शिक्षा से लेकर पार्टी में उनके ताकतवर होकर उभरने के कालखंड को परखा गया है । इन अध्यायों में प्रणय गुप्ते ने इस दौर के नेताओं के बयानों और बाद के लेखकों को उद्धृत करके इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को सामने लाया है । चौथे भाग में इंदिरा गांधी के शक्तिशाली नेताओं से टकराव और उनकी जीत के बाद खुद को देश की राजनीति की केंद्रीय धुरी बनने की कहानी है । इसी अध्याय में इंदिरा गांधी की राजनीति के काले चेहरे इमरजेंसी के बारे में विस्तार से वर्णन है कि किन परिस्थितियों में वो इमरजेंसी तोपने पर मजबूर हुई और फिर किन हालातों में उनको लोकतंत्र के सामने मजबूर होकर हथियार डालना पड़ा ।

प्रणय गुप्ते की इस किताब में इंदिरा गांधी के बारे में नया कुछ भी नहीं है लेकिन जिस तरह से इंदर मल्होत्रा से अपनी किताब में तथ्यों को प्रधानता दी है और कैथरीन फ्रैंक ने अपनी किताब को सनसनीखेज बनाया था उससे अलग हटकर प्रणय गुप्ते ने वस्तुनिष्ठता के साथ घटनाओं, तथ्यों और उपल्बध सामग्री को एक जगह इकट्ठा कर अपने सामान्य पाठकों के लिए किताब के लिखने के उद्देश्य में सफलता पाई है । इस किताब में घटनाओं औप प्रसंगों के दुहराव को रोकने के लिए सख्त संपादन की जरूरत है ।

Thursday, May 24, 2012

दक्षिण में कमजोर होती कांग्रेस

कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में यूपीए ने लगातार आठ साल पूरे कर लिए । लेकिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की हालत अच्छी नहीं है । गिनती के चंद राज्यों में कांग्रेस की सरकार है । हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी की उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में करारी हार हुई । हार के बाद एंटनी कमेटी ने उसके वजहों पर माथापच्ची की और पार्टी अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट सौंप दी । रिपोर्ट में नेताओं के बेतुके बयानबाजी, बड़बोलापन को उत्तर प्रदेश में हार के लिए जिम्मेदार माना गया है लेकिन जो एक वजह तीनों जगह हार की बनी वो है गलत उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना । दूसरी तरफ दिल्ली के नगर निकाय चुनाव में भी कांग्रेस का एक तरह से सफाया हो गया । लेकिन उस हार के लिए बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस खुद जिम्मेदार है । पार्टी में उस हार के बाद से सर फुटौव्वल जारी है । लेकिन उत्तर भारत के इन राज्यों में चुनावी हार के शोरगुल के बीच कांग्रेस को दक्षिणी राज्यों में पार्टी की लगातार होती बुरी गत की चिंता है, इसके संकेत भी नहीं मिल रहे हैं । कुछ मौकों को छोड़कर दक्षिण हमेशा से परंपरागत रूप से  कांग्रेस के पक्ष वाले राज्य रहे हैं । इंदिरा गांधी भी अपने सबसे बुरे दौर में आंध्र प्रदेश के मेढक से चुनाव लड़ी थी । उसी तरह सोनिया गांधी ने भी उत्तर प्रदेश के अलावा कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा था । लेकिन अगर राज्यवार विश्लेषण करें तो दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है । दक्षिणी राज्यों से कांग्रेस के पास चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, के कामराज और जी के मूपनार जैसे मजबूत नेता हुए । लेकिन तमिलनाडू (उस वक्त के मद्रास)में भाषाई आधार पर 1962 के हिंसक आंदोलन के बाद से सूबे में कांग्रेस लगभग खत्म सी हो गई है । कभी करुणानिधि के डीएमके तो कभी जयललिता के एआईएडीएमके की उंगली पकड़कर कुछ सीटें हासिल कर लेती है । कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडू में अपनी स्थिति सुधारने की कोई कोशिश की हो ऐसा सतह पर तो दिखाई देता नहीं है । मूपनार तमिलनाडू से आखिरी मजबूत कांग्रेंसी नेता थे । उनको भी पार्टी संभाल नहीं पाई और अब चिंदबरम जैसे नेता तो हैं लेकिन कोई जमीनी नेता नहीं दिखता जो जयललिता या करुणानिधि को टक्कर दे सके । पांडिचेरी में भी पार्टी की हालत कमोबेश एक जैसी है ।

आंध्र प्रदेश में दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया और बयालीस में से तैंतीस सीटें जीती । आंध्र प्रदेश में वाई एस राजशेखर रेड्डी कांग्रेस के खेवनहार बने। राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री रहते उनके बेटे जगन रेड्डी पर अकूत दौलत कमाने का आरोप लगा । सीबीआई इसकी जांच कर रही है, हो सकता है जगम मोहन रेड्डी गिरफ्तार भी हो जाएं । राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद आंध्रप्रदेश में कांग्रेस बिखर गई । पार्टी आलाकमान उनके बेटे जगन रेड्डी की महात्वाकांक्षाओं को समझने में गलती कर बैठी और उसके खिलाफ मोर्चा खोलकर पार्टी के लिए मुसीबत मोल ले ली । आज की तारीख में आंध्र प्रदेश की राजनीति में जगन एक मजबूत प्लेयर है । हो सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले चंद सीटों के लिए कांग्रेस जगन से समझौता कर लेकिन उस संभावित समझौते से जगन की ही ताकत बढ़ेगी, कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की तो कम होगी । आंध्र के हालात को समझने में सिर्फ जगन ही नहीं बल्कि चिरंजीव और तेलंगाना के मुद्दे पर भी कांग्रेस आलाकमान बुरी तरह से असफल रहा । केंद्रीय नेतृत्व चिरंजीव को तो साथ ले आए लेकिन बुरी तरह से बेइज्जत करने के बाद उनको राज्यसभा में लेकर आए । उसी तरह तेलंगाना के मुद्दे को चिदंबरम ने एक बयान में लगभग नए राज्य के गठन की बात मान ली थी । बाद में उससे पलटने से पार्टी की खासी किरकिरी हुई । यह सब इस वजह से हो रहा है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कड़े फैसले नहीं ले रहा या फिर उनके फैसलों पर अमल नहीं हो पा रहा । इंदिरा गांधी पर तानाशाह होने का आरोप लगता है लेकिन उनके वक्त किसी भी पार्टी क्षत्रप की औकात नहीं थी कि केंद्रीय नेतृत्व के फैसले को हल्के में ले ले । जब तेलंगाना में जबरदस्त हिंसा हो रही थी तो केंद्र की ओर से बातचीत की पहल हो रही थी लेकिन कोई भी केंद्रीय नेता आंदोलनकारियों के बीच जाने की हिम्मत नहीं कर पाया था । इस मामले में इंदिरा गांधी के साहस और दूरदर्शिता की कमी खलती है । 1965 की बात है जब 26 जनवरी को अंग्रेजी की जगह हिंदी को राष्ट्र भाषा का स्थान लेना था । उलके विरोध में तमिलनाडू में जबरदस्त हिंसा शुरू हो गई थी । उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को ये भरोसा था कि वक्त के साथ आंदोलन थम जाएगा । हिंसा और कांग्रेस विरोध इतना था कि कामराज जैसा बड़ा कांग्रेसी नेता भी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे और दिल्ली में बैठे थे । उसी वक्त इंदिरा गांधी ने तय किया और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को बिना बताए मद्रास पहुंच गई । वहां जाकर उन्होंने स्थानीय नेताओं से बात की और उन्हें ये भरोसा दिलाने में कामयाब हो गई कि केंद्र सरकार तमिलनाडू की जनता को विश्वास में लिए बगैर कोई कदम नहीं उठाएगी । इंदिरा गांधी के वहां पहुंचते और स्थानीय नेताओं से बातचीत के फौरन बाद हिंसा रुक गई । देश-विदेश में इंदिरा के इस कदम की तारीफ हुई थी । लेकिन जब तेलंगाना जल रहा था तो कांग्रेस के किसी नेता में यह साहस नहीं था कि वो आंदोलनकारियों के बीच जाकर उनसे बात कर उनका भरोसा जीतें । लिहाजा आंध्र प्रदेश के तेलांगना इलाके में पार्टी बेहद कमजोर हो गई है । रही सही कसर आंध्र के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी ने पूरी कर दी है । उन्हें तो क्लू लेस चीफ मिनिस्टर तक कहा जाने लगा है ।

यही हालत कर्नाटक की भी है । वहां बीजेपी में घमासान मचा है और पार्टी नेताओं पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे है उस स्थित में वहां कांग्रेस आसानी से कम मेहनत से सत्ता में वापस आ सकती है । लेकिन कांग्रेस के नेता हालात से फायदा उठाने की बजाए एक दूसरे की जड़ें काटने में लगे हैं । वहां भी आलाकमान जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो ना देकर डी के शिवकुमार और बी के हरिप्रसाद जैसे हवाई नेताओं की सलाह पर फैसले कर रहा है । कुछ दिनों पहले इस तरह की खबरें आई थी क बार फिर से विदेश मंत्री एस एम कृष्णा को कर्नाटक की कमान सौंपी जाएगी। अगर ऐसा होता है तो सिद्धरमैया, बी एल शंकर, कृष्णा बायरे गौड़ा और शरण प्रकाश जैसे जमीनी नेताओं से पार्टी को सहयोग मिल पाएगा इसकी उम्मीद कम ही है । आज वहां जरूरत इस बात की है कि कृष्णा जैसे बुढाते नेताओं की बजाए शंकर और बायरे गौड़ा जैसे नेताओं को आलाकमान मजबूती से आगे बढ़ाए । नहीं तो येदुरप्पा की सत्ता वापसी की तड़प और बेल्लारी बंधुओं की बेहिसाब दौलत फिर से भारतीय जनता पार्टी को सूबे में सत्तारूढ कर सकती है ।

केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में बमुश्किल कांग्रेस की सरकार बन पाई थी । इसी के आधार पर कांग्रेस को लोकसभा चुनाव की तैयारी करनी चाहिए । हलांकि पार्टी के नेता ओमान चांडी की क्षमताओं पर कोई शक नहीं है लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने मुस्लिम लीग के सामने जो समझौतावादी चेहरा दिखाया है वह अच्छा संकेत नहीं है । मुस्लिम लीग को एक मंत्रिपद देने के उनके फैसले पर पार्टी के अंदर गहरा असंतोष है । अब वक्त आ गया है कि सोनिया गांधी पार्टी को लेकर कुछ कड़े फैसले लें और असंतुष्ट नेताओं के मामलों में इंदिरा गांधी की तरह कड़ा रुख अख्तियार करे वर्ना उत्तर भारत में जो हश्र पार्टी का हुआ वही दक्षिण भारत में दुहराया जा सकता है । तीन साल पूरे होने के मौके पर सोनिया ने इस बात के संकेत अवश्य दिए हैं ।


  

Saturday, May 19, 2012

रिश्तों की गर्माहट का संग्रह

चौथी दुनिया में लगभग तीन साल से ज्यादा से लिख रहे अपने स्तंभ में कविता और कविता संग्रह पर बहुत कम लिखा । साहित्य से जुड़े कई लोगों ने शिकायती लहजे में इस बात के लिए मुझे उलाहना भी दिया । कईयों ने कविता की मेरी समझ पर भी सवाल खड़े किए । दोनों चीजें जायज हैं । शिकायत भी लाजिमी है क्योंकि इतने लंबे समय से हर हफ्ते लिखे जाने वाले स्तंभ में मैंने दो या तीन बार कविता पुस्तकों की चर्चा की । जहां तक समझ की बात है वो भी बहुत हद तक सही ही है । मेरी कविता में इस वजह से रुचि नहीं है या फिर समझविकसित नहीं हो पाई कि क्योंकि जिस तरह की ज्यादातर कविताएं पिछले तीन-चार दशकों में लिखी गई वो या तो बहुत दुरुह हैं या फिर उसमें बेहद सपाट बयानी है । दोनों हालत में कविता का जो रस होता है वह गायब है, लिहाजा उसको समझना कम से कम मेरे लिए आसान नहीं है । उस तरह की कविताओं में क्रांति की, यथार्थ का, सामाजिक विषमताओं का इतना ओवरडोज है कि वह आम हिंदी पाठकों से दूर होती चल गई । यह अनायास नहीं है कि आज कविता के पाठक क्यों कर कम होते जा रहे हैं । क्यों कवि सम्मेलनों का आयोजन सिमटता चला जा रहा है । जो हो भी रहे हैं वो दस बीस कवियों के बीच बैठकर एक दूसरे की कविताओं को सुन लेने भर जैसा आयोजन होता है । पाठकों और कविता प्रेमियों से कविता दूर होती चली जा रही है । मुझे जो वजह समझ में आती है वह यही है कि कविता में जो रस तत्व होता था या जिसको सुनना अच्छा लगता था वह यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । लिहाजा कविता में एक रूखापन सा आ गया । कविताएं नारेबाजी में तब्दील हो गई । कविताएं क्रांति करवाने में जुट गई । मेरे तर्कों को कविता प्रेमी यह कह कर खारिज करने की कोशिश करेंगे कि यह बहुत पुरना तर्क है  और तुकांत और अतुकांत कविताओं को लेकर उठे विवाद में ये तर्क लंबे समय से दिए जाते रहे हैं । चलिए अगर एक बारगी यह मान भी लिया जाए तो कि तर्क पुराने हैं और उसकी बिनाह पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है तो फिर उन आलोचकों को मैं चुनौती देता हूं कि वो इस बात की खोज करें और हिंदी साहित्य को यह बताएं कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि जन और लोक की बात करनेवाले कवियों और आलोचकों ने ही कविता को लोकप्रिय होने से रोक दिया है । कविता को शोध आधारित कथ्य और अति बौद्धिक बनाने के चक्कर में यथार्थ से भर दिया गया । इसी अति बौद्धिकता और भोगे हुए यथार्थ ने कविता को लोक और जन से दूर कर दिया और उसको किताबों में या फिर आलोचकों के लेखों का विषय बना दिया । अंग्रेजी के कवि विलियम वर्ड्सवर्थ का भी मानना था कि पॉएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरपुल फीलिंग्स रीकलेक्टेड उन ट्रैंक्विलिटीज ।
काफी दिनों पहले मुझे कवि मित्र तजेन्दर लूथरा के घर पर आयोजित छोटी से कवि गोष्ठी में जाने का अवसर मिला था । जिसमें विष्णु नागर, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, पंकज सिंह, सविता सिंह, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, राजेन्द्र शर्मा समेत कई दिग्गज कवियों को सुनने का अवसर मिला था। उस कवि गोष्ठी में कुछ कवियों को छोड़कर वैसी ही दुरूह कविताएं सुनने को मिली । मैं उन कवियों का नाम लेकर नाहक विवाद खड़ा नहीं करना चाहता लेकिन कई कवियों की कविताएं तो मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आई थी । मैं उनकी कविताओं को नहीं बल्कि अपनी समझ को इसके लिए जिम्मेदार मानता हूं । हां उस कवि गोष्ठी में ही कई कवियों की कविताएं बेहतरीन थी और समझ में आनेवाली भी थी । मैं उन कवियों का भी नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि इससे भी एक अलग तरह का खतरा है । हिंदी साहित्य की राजनीति को जाननेवालों के लिए उस खतरे को समझना आसान है । मैं यहां सिर्फ एक कवयित्री का नाम ले रहा हूं जिनकी कविताएं मुझे पसंद आई थी- उनका नाम है ममता किरण । मैं उनकी कविताओं का जिक्र चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में पहले भी कर भी चुका हूं । ममता किरण का नाम मैंने जरूर सुना था लेकिन कविता की राजनीति और उसका भविष्य तय करनेवालों की सूची में कभी उनका नाम देखा-पढ़ा नहीं था । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो पहली कवि गोष्ठी में उन्होंने स्त्री और नदी नाम की कविता का पाठ किया था । कविता मुझे पसंद आई । गोष्ठी खत्म होने के बाद मैं उनको बधाई देना चाहता था लेकिन किन्हीं वजहों से वह संभव नहीं हो पाया । छह आठ महीने बाद एक बार फिर से तजेन्दर जी के यहां ही गोष्ठी हुई । फिर से अन्य कवियों के अलावा ममता किरण ने अपनी कविताएं सुनाकर वहां मौजूद लोगों की प्रशंसा बटोरी । दूसरी गोष्ठी के बाद मैंने उनको उनकी कविताओं के लिए बधाई दी । स्त्री और नदी कविता के लिए भी ।
अभी हाल ही में जब मुझे डाक से ममता किरण का नया कविता संग्रह- वृक्ष था हरा भरा (किताबघर प्रकाशन, अंसारी रोड, नई दिल्ली) मिला तो मैंने संग्रह की 56 कविताएं एक झटके में पढ़ ली। कविताओं से गुजरते हुए मुझे अच्छा लगा । कवयित्री का रेंज बहुत व्यापक है । उनकी कविताओं में परिवार प्रमुखता से आता है वहां मां है, मां का हठ है , बेटी है , बड़े भैया हैं । मां पर लिखते हुए कवयित्री परोक्ष रूप से बेटे के नौकरी या फिर कारोबार(जो भी कवयित्री ने सोचा हो ) करने को लेकर बाहर चले जाने के बाद मां के दर्द को समेटा है । मां अपने बेटे को खत लिखवाती हैं जिसमें होता है अब जरूरत नहीं/तुम्हारे भेजे/पैसे और दवाओं की/सिर्फ तुम आ जाओ/बैठो मेरे पास/तुम्हारे बचपन की स्मृतियों में/ तलाशूं /अपना अतीत/अपने जीवन की संतुष्टि । इस एक छोटी सी कविता में गांव से लेकर महानगर तक की मां का दर्द है । जिस बच्चे को पढ़ा लिखाकर अपने सीने से लगाकर पाला पोसा बड़ा किया वह उसे छोड़कर चला गया है । उसका ख्याल भी रखता है । उम्र के उस पड़ाव पर जब देखभाल से ज्यादा जरूरत होती है इमोशनल सपोर्ट की तब मां को अकेलेपन का दंश झेलना पड़ता है । ठीक उसी तरह बड़े भैया कविता में भी कवयित्री ने एक पूरी पीढ़ी के ट्रांसफॉर्मेशन को अपनी कविकता के माध्यम से कहा है । एक लड़का जब पिता बनता है तो उसमें अपने मां की वही सारी आदतें आ जाती है जिसका वो जवानी में मजाक उड़ाया करता था । उम्र के साथ संतान मोह में किस तरह से लोगों की मानसिकता बदलती है उसका चित्रण है इस कविता में । इस संग्रह में एक कविता है संबोधन- कंक्रीट के इस जंगल में/एकदमन अप्रत्याशित/एक बुजुर्ग से अपने लिए/बहूरानी संबोधन सुनकर/जिस तरह मैं चौंकी/उसी तरह अनायास/श्रद्धा से झुक भी गई/बहूरानी कहनेवाले के सामने । इस कविता के बारे में संग्रह के ब्लर्ब पर कवि केदारनाथ सिंह लिखते हैं- इस संग्रह में जहां जाकर मैं रुका वह संबोधन शीर्षक कविता थी । इन पंक्तियों में एक मानवीय संस्पर्श है जो अच्छा लगता है । कहीं कहीं शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ती है कुछ पंक्तियों में और शायद इस रचनाकर्मी की कविता का मूल स्वर भी यही है । केदार जी को इस बात का संशय क्यों है कि शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि ममता किरण की कविताओं का मूल स्वर है । मूल ना भी कहें तो अनेक स्वरों में से एक स्वर यह भी है जो एक छुपी हुई धारा की तरह कमोबेश हर जगह मौजूद है । इस कविता की भूमिका अनामिका ने लिखी है और उन्होंने बिल्कुल सही लिखा है कि ग्रहण के समय खाने-पीने की चीजों में मां तुलसी-पत्र डाल देती थी जैसे हम किताबों में फूल डाले देते थे परंपरा के पन्नों में ममता किरण जी की कविता ऐसा ही कुछ डाल देती है और काफी नफासत से । अब यहां मैं पाठकों पर छोड़ता हू कि वो तय करें कि कविता को लेकर मेरी जो राय है उसको अनामिका का कथन पुष्ट करता है या नहीं । क्योंकि अनामिता ग्रहण और तुलसी-पत्र के प्रतीकों में बहुत बड़ी बात कह गई हैं। सोचिए समझिए और निषकर्ष पर पहुंचिए । आमीन ।

Saturday, May 12, 2012

अन्ना रामदेव-लाचारी में गठजोड़

बाबा रामदेव जो हजारों भक्तों के समर्थन का दावा करते हैं । देशभर में लाखों लोगों को योग सिखा चुके हैं । आयुर्वेद का उनका लंबा चौड़ा कारोबार है । लेकिन इस योग गुरू ने ठानी थी काला धन के खिलाफ मुहिम चलाने की । सालभर पहले भी एक आंदोलन किया था जिसकी परिणिति हुई थी दिल्ली के रामलीला मैदान में जहां अनशन पर दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई की थी । बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस कार्रवाई के लिए पुलिस के साथ साथ रामदेव को भी जिम्मेदार माना था । बाबा रामदेव इस वक्त एक बार फिर से काले धन के खिलाफ देशव्यापी मुहिम को लेकर यात्रा पर हैं । जनलोकपाल कीमांग को लेकर सरकार को हिला देने वाले अन्ना हजारे एक बार फिर से महाराष्ट्र में मजबूत लोकायुक्त की मांग को लेकर पूरे सूबे का दौरा कर रहे हैं । लेकिन दोनों के दौरे के पहले दिल्ली में एक अहम घटना हुई । अन्ना हजारे और रामदेव ने एक साझा प्रेस कांफ्रेस कर एक बार फिर से साथ आने का ऐलान किया था । ऐलान के फौरन बाद ही टीम अन्ना के अहम सदस्य और मास्टर स्ट्रैजिस्ट अरविंद केजरीवाल ने एक चतुर राजनेता की तरह सफाई दी थी कि यह साथ सिर्फ मुद्दों का है और वो भ्रष्टाचार और कालेधन के मुद्दे पर साझा आंदोलन कर रहे हैं । अरविंद की बातों को मान भी लिया जाए कि सिर्फ मुद्दों के आधार पर अन्ना और रामदेव के बीच समझौता हुआ है तो एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है । कल को सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, बंगारू लक्ष्मण और सुखराम भ्रष्टाचार विरोधी मोर्चा बनाते हैं तो क्या टीम अन्ना उनके साथ भी समझौता कल लेगी और उन्हें एक साथ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाने में कोई गुरेज नहीं होगा ।

रामदेव और उनके ट्रस्ट पर पर सैकड़ों एकड़ जमीन कब्जा करने से लेकर और भी कई संगीन इल्जाम हैं । कुछ दिनों पहले उनकी दवाइयों को लेकर जा रहे ट्रकों की जब्ती की खबर आई थी ।उनके बेहद करीबी सहयोगी बालकृष्ण पर फर्जी पासपोर्ट का केस चल रहा है । लेकिन टीम अन्ना इन रामदेव और उनके सहयोगियों पर लगे इन तमाम आरोपों को अलग हटाकर रामदेव के साथ हाथ मिला रही है । दरअसल अगर हम इसकी पड़ताल करें तो जो तस्वीर सामने आती है उस पर शक के गर्दोगुबार मौजूद हैं।

रामलीला मैदान में पिछले साल जून में बाबा रामदेव के अनशन के दौरान की उनकी गतिविधियों ने उनकी विश्वसनीयता को संदिग्ध कर दिया था । एक तरफ वो भ्रष्टाचाकर के खिलाफ हुंकार भर रहे थे तो दूसरी तरफ परदे के पीछे मनमोहन सरकार के मंत्रियों से डील कर रहे थे । अनशन के दौरान ही सरकार ने रामदेव की पोल खोल दी थी । उसके बाद जब रामलीला मैदान में पुलिस ने लाठीचार्ज किया था तो महिलाओं के वेष में रामदेव के भागने को लेकर भी रामदेव की खासी फजीहत हुई थी । महिला के वेष में अनशन छोड़कर भागने का मलाल रामदेव को इतना है कि जब भिंड की एक सभा में एक शख्स ने उनसे इस बाबत सवाल पूछा तो उनके समर्थकों ने रामदेव के सामने उसकी जमकर पिटाई कर दी । वो शख्स पिटता रहा और सत्य अहिंसा की बात करनेवाले बाबा खामोश रहे । इन फजीहतों के बाद भी उनपर कई संगीन इल्जाम लगे जिसने बाबा की छवि को तार-तार कर दिया । वो हरिद्वार के अपने आश्रम में अनशन पर भी बैठे लेकिन जब कहीं से किसी ने नोटिस नहीं लिया तो आनन-फानन में श्री श्री रविशंकर से अनशन तुड़वाया गया । नतीजा यह हुआ कि रामदेव के सामने विश्वसनीयता का एक बडा़ संकट खड़ा हो गया और वो इससे निकलने का रास्ता तलाशने लगे ।

उधर अन्ना हजारे भी अपने घटते जनसमर्थन और उनकी टीम मीडिया में तवज्जो नहीं मिलने से बेहद परेशान थी । पिछले साल दिसंबर में जब मुंबई में अन्ना हजारे ने अनशन किया तो वहां लोगों की भीड़ नहीं आई । चैनलों पर कवरेज के तमाम इंतजाम धरे रह गए क्योंकि मैदान खाली था। अचानक से माहौल बना कि अन्ना की तबियत खराब हो रही है और उस वजह से वो अनशन तोड़ेंगे । कई लोगों ने अनशन खत्म करने के फैसले के पीछे अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिलना बताया था । अनशन खत्म होने के बाद जब पत्रकारों से बातचीत हो रही थी तो उस वक्त बीजेपी से रिश्तों को लेकर पूछे सवाल पर अन्ना का उठकर चले जाना और अरविंद केजरीवाल का साफ जबाव नहीं देना भी पूरे आंदोलन को सवालों के चक्रव्यूह में फंसा गया । जिससे निकल पाना टीम अन्ना के लिए आसान नहीं था । नतीजा यह हुआ कि हर वक्त टीवी कैमरे और पत्रकारों से से घिरी रहनेवाली टीम अन्ना को भाव मिलना बंद हो गया । उनका कहा सुर्खियों से गायब होने लगा । मुंबई में बीजेपी पर टीम अन्ना के लिए स्टैंड से उनकी विश्वसनीयता और साख दोनों कम हो गई । बाद में अरविंद केजरीवाल ने प्रचार की खोई जमीन हासिल करने के लिए संसादों के खिलाफ बयान दिया जिससे उन्हें संजीवनी मिली । अब बाबा रामदेव की तरह टीम अन्ना भी नई जमीन की संभावना तलाशने की जुगत में लग गई । सारी संभावनाओं पर माथापच्ची और विकल्पों पर विचार करने के बाद टीम अन्ना को बाबा रामदेव में ही फिर से समझौते की संभावना नजर आई और तय हुआ कि बाबा रामदेव के साथ मिलकर काम किया जाए । इस पर टीम अन्ना में मतभेद रहा । टीम अन्ना के कुछ लोग रामदेव की मह्त्वाकांक्षा को इस समझौते में बाधा मानते थे । खैर समझौता हुआ और कहना ना होगा कि यह समझौता मजबूरी में किया गया क्योंकि दोनों के सामने सरवाइवल का संकट था । टीम अन्ना को रामदेव के कार्यकर्ताओं की जरूरत थी और रामदेव को टीम अन्ना की बची खुची विश्वसनीयता की । मजबूरी में दोनों एक साथ तो आ गए लेकिन दोनों को इस समझौते से फायदा होगा यह तो भविष्य के गर्भ में हैं । मजबूरी में किए गए समझौतों में मन नहीं मिला करते और इस तरह के आंदोलन में अगर शीर्ष नेतृत्व का मन नहीं मिला तो दोनों पक्ष बहुत आगे नहीं जा सकते हैं । फौरी फायदा मुमकिन है लेकिन दीर्घकालीन लक्ष्य की प्राप्ति नहीं सकती है ।

जब यह कहा जा रहा है कि टीम अन्ना और बाबा रामदेव के बीच समझौते में मन नहीं मिले हैं और मजबूरी की वजह से क्षणिक फायदे के लिए किया गया समझौता है तो उसके पीछे ऐतिहासिक वजहें हैं । दो हजार दस के नवंबर में जब अरविंद केजरीवाल और कुछ अन्य आरटीआई कार्यकर्ता सुरेश कलमाडी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने की सोच रहे थे तो किरण बेदी ने रामदेव का नाम सुझाया था । रामदेव को इस वजह से साथ लिया गया कि आंदोलन को एक चेहरा मिले । बाद में जब रामदेव को लगा कि अरविंद और उनकी टीम उनका इस्तेमाल कर रही है तो उन्होंने किनारा कर लिया । बाद में अरविंद की टीम ने अन्ना हजारे को खोज निकाला । उसके बाद की घटनाएं तो इतिहास बन गई हैं । रामदेव के मन में टीस बरकरार रही और वो अन्ना के जंतर मंतर के पहले अनशन में शुरू में शरीक नहीं हुए । जब उन्हें लगा कि हजारे पूरा मजमा अन्ना लूट रहे हैं तो हारे को हरिनाम की तर्ज पर वहां पहुंचे । लेकिन मन में जो टीस थी उसकी परिणति रामलीला मैदान के जवाबी अनशन के रूप में सामने आया । लेकिन वहां एक नया लेकिन मनोरंजक इतिहास बना । आजाद भारत के इतिहास में अनशन को छोड़कर भागने की यह अपने तरह की पहली और अनूठी घटना थी जिसे लोगों ने टीवी पर रियलिटी शो की तरह देखा । आनेवाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि मजबूरी में साथ आए ये दोनों दिग्गज कहां तक और कितनी दूर साथ चल पाते हैं ।