अभी पिछले दिनों मैं
अपने ट्वीटर अकाउंट को देख रहा था तो मैंने पाया कि कुछ लोगों ने मुझे ब्लॉक कर रखा
है । मुझे हैरानी तब हुई जब मैंने देखा कि ब्लॉक करनेवालों की फेहरिश्त में अलग अलग
विचारधारा के नेता, एक्टिविस्ट और हमारी पत्रकार बिरादरी के सदस्य भी हैं । आश्चर्य
तब और ज्यादा हुआ जब मैंने देखा कि विश्व प्रसिद्ध लेखक सलमान रश्दी ने भी मुझे ब्लॉक
कर रखा है । मैं सोच में पड़ गया कि सलमान रश्दी ने मुझे क्यों ब्लाक किया । नैतिकता
के उच्च मानदंडों की बात करनेवाले दो तीन नेताओं ने तो मुझे इस वजह से ब्लॉक किया है
कि उनको मेरे सवालों से दिक्कत थी । मेरे सवाल उनको सार्वजनिक तौर पर असहज कर रहे थे
। सलमान रश्दी ने जब मुझे ब्लॉक किया तो मुझे हैरानी इस वजह से हुई कि वो तो लेखकीय
स्वतंत्रता के लिए जाने जाते हैं । उन्होंने अपनी पोजिशनिंग इस तरह की बनाई है लेखकीय
स्वतंत्रता के लिए उन्हें कितना झेलना पड़ा । झेलना भी पड़ा है । उनको जिसके बारे में
वो बहुधा बताते भी रहते हैं । अपनी किताब जोसेफ एंटन में उन्होंने इस पर विस्तार से
लिखा भी है । मैंने जोसेफ एंटन की विस्तृत समीक्षा लिखी थी उसमें अन्य बातों के अलावा
मैंने ये कहा था कि उसको थोडा और कसने की जरूरत है और उस उपन्यास में उबाऊ होने की
हद तक विस्तार दिया गया है । खैर जोसेफ एंटन की समीक्षा लिखे जाने तक हमारा ट्विटर
संवाद था, बहुधा एकतरफा । मैंने अपनी लिखी समीक्षा के लिंक उनको टैग भी किए थे । जयपुर
लिटरेचर फेस्टिवल में जब सलमान रश्दी के भारत आने को लेकर विवाद हुआ था, तब भी मैंने सलमान रश्दी के पक्ष में स्टैंड लिया
था। देशभर के कई अखबारों में लंबे लंबे लेख लिखे थे । उस वक्त भी ट्विटर पर उनके साथ
जुड़ाव था, मैं उनको फॉलो करता था । मुझे लगता है गड़बड़ी की शुरुआत, रश्दी और भालचंद
नेमाड़े के बीच हुए विवाद में मेरे स्टैंड को लेकर हुआ । भालचंद नेमाडे को जब ज्ञानपीठ
पुरस्कार देने का एलान किया गया था तब सलमान रश्दी ने एक घोर आपत्तिजनक ट्वीट किया
था- ग्रम्पी ओल्ड बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज ऐंड से थैंक्य यू नाइसली । आई डाउट
यू हैव इवन रेड द वर्क यू अटैक । दरअसल नेमाडे ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान
सलमान की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन को औसत कृति करार दिया था । सलमान के गाली गलौच भरे
ट्वीट के खिलाफ मैंने जनसत्ता में एक लेख लिखा था – ताक पर मर्यादा, जो
इसी वर्ष पंद्रह फरवरी को प्रकाशित हुआ था । अपने उस लेख में मैंने सलमान रश्दी के
आपत्तिजनक ट्वीट के बहाने से उनके कृतित्व पर भी अपने विचार रखे थे । ट्वीट पर तो उनको
जवाब दिया ही था, जनसत्ता का लिंक भी टैग कर दिया था । लेकिन कभी भी मैंने सलमान रश्दी
की तरह भाषिक मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं किया, हां उनकी कृतियों को तर्क की कसौटी
पर अवश्य कसा । उनके ट्वीट को भाषा की मर्यादा की हदों से बाहर जानेवाला करार दिया
। अब एक बात मेरी समझ से परे है । इतना बड़ा लेखक, जो वर्षों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बना हो वो अपनी कृतियों के खिलाफ, अपने भद्दे ट्वीट्स के
खिलाफ कुछ भी सुनने का माद्दा नहीं रखता है । दरअसल अब मुझे लगने लगा है कि सलमान रश्दी
के तरह के जो लेखक हैं उनको अपने खिलाफ सुनना अच्छा नहीं लगता है । रचनात्मकता के उस
दौर में जब कलम नपुंसक होने लगती है और उसके पुंसत्व पर सवाल खड़े करते लेख या टिप्पणी
प्रकाशित हो तो लेखक बिलबिलाने लगता है । यही बिलबिलाहट लेखक को दूसरे की राय को ब्लॉक
करने के लिए उकसाती है । जब कोई काम प्रतिक्रिया में या बदले की भावना से किया जाता
है तब उस वक्त हर इंसान मतिभ्रम का शिकार हो जाता है । मतिभ्रम होने की स्थिति में
इसी तरह के काम होते हैं जैसा कि सलमान रश्दी ने किया । आदर्श स्थिति तो वह होती जिसमें
मेरे तर्कों पर बहस होती और वो अपने तर्क रखते । संभव है कि वो इतने बड़े लेखक हैं
कि मुझ जैसे अदने शख्स से बहस नहीं करना चाहते हों । ये उनका फैसला हो सकता है, इसमें
मुझ समेत किसी को भी आपत्ति नहीं । आपत्ति तो इसमें भी नहीं कि उन्होंने ट्विटर पर
ब्लॉक कर दिया, लेकिन सवाल तब उठते हैं जब ऐसा किसी खास मकसद और मंशा से किया गया हो
। मकसद साफ है और मंशा भी । सलमान रश्दी में अपना सार्वजनिक आलोचना सहने की क्षमता
नहीं है ।
दरअसल यह एक प्रवृत्ति
है । इस प्रवृत्ति के शिकार वैसे सभी लोग होते हैं जिनको लगता है कि वो आलोचनाओं से
परे हैं । इस तरह के लोगों को यह भी लगता है कि समाज में उनका जो स्थान है वो इतना
पवित्र है कि उसपर उंगली नहीं उठाई जा सकती है । नैतिकता के जिस पायदान पर वो खड़े
हैं वहां तक सवालों की पहुंच नहीं हो सकती है । लिहाजा जब उनको लगता है कि असहज करनेवाले
सवाल उनतक पहुंचने लगे हैं तो वो इसी तरह के कदम उठाते हुए खुद को एक्सपोज कर देते
हैं । अन्ना आंदोलन के दौरान जब किरण बेदी के टिकटों के मसले पर उनसे सवाल पूछे गए
थे तो उन्होंने भी ट्विटर पर व्लॉक कर दिया था । इसी तरह से मधु किश्वर को भी जब लगा
कि असहज करनेवाले सवालों में वो घिर रही हैं तो उन्होंने भी ब्लॉक करने का रास्ता अख्तियार
किया । लेकिन इन सारे लोगों में एक साझा सूत्र दिखाई देता है अपने को आलोचना से उपर
देखने, रखने का । इस तरह के लोग हमेशा से लोकतंत्र की भी दुहाई देते हैं, लोकतांत्रिक
होने का दावा भी करते हैं लेकिन अपने तौर तरीकों में लोकतांत्रिक होने में उनको तकलीफ
होती है । यह उसी तरह का मामला है कि क्रांति की चाहत हमेशा पड़ोसी के घर में होती
है । यह भी सचाई है कि सोशल साइट्स पर गाली गलौच होती है, हर तरह के अपशब्द कहे जाते
हैं, भद्दी टिप्पणियां की जाती हैं । उनको ब्लॉक करने का हक होना चाहिए । लेकिन जब
आप सार्वजनिक जीवन में हैं तो आपको अपनी रचनात्मक आलोचना तो सुननी ही होगी । आपके बयानों
के आलोक में उठ रहे सवालों या सच का समाना तो करना ही होगा । मर्यादा में रहते हुए
अगर आपकी टिप्पणियों की धज्जियां उड़ेंगी तो उसको झेलना ही होगा अन्यथा अभिव्यक्ति
की आजादी की ध्वजा लहराने वाले सलमान रश्दियों की बातें खोखली लगेंगी ।
5 comments:
अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों का यह हाल! हद हो गई। दूसरों को नसीहत देना कितना आसान है। पर जब अपनी बारी आती है तो बगले झांकने के सिवा चारा ही क्या रह जाता है? मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने वाले ऐसे ही लोग आपातकाल के दौरान रहे होंगे, जिन्हें इंदिरा गांधी ने झुकने के लिए कहा था तो वे रेंगने लगे थे।
क्या सलमान रुश्दी हिन्दी जानते हैं जो वे जनसत्ता में आप का लेख पढ़ते ? ट्विटर पर आप की संक्षिप्त टिप्पणी अँगरेजी में होती होंगी । बड़े लोग प्राय: हम जैसे छोटे लेखकों को जवाब नहीं देते । मैं आप को छोटा नहीं बता रहा। आप का यह लेख भी वे नहीं पढ़ेंगे । तो अपनी शक्ति क्यों ख़र्च कर रहे हैं ?
अजीब तर्क है कि सलमान रुश्दी हिन्दी नहीं पढ़ते या अनन्त विजय को नहीं पढ़ते तो उन पर चर्चा ही न हो?
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