इकबाल बानो पर इकबाल रिजवी का लेख हाहाकार के लिए
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विभाजन से पहले। रोहतक का गवर्मेंट गर्ल्स स्कूल। सब बच्चे पढ़ाई शुरू होने से पहले प्रार्थना गा रहे हैं " लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी "। पांचवीं क्लास में पढ़ने वाली इक़बाल बानो भी हाथ जोड़े आंखें बंद किये तल्लीनता से गा रही है। उसकी आवाज़ अपनी सहेलियों की आवाज़ से जुदा है यह एहसास उसकी सहेलियों को ही नहीं उसकी टीचरों को भी है।
इक़बाल बानो अपने पड़ोस के एक कायस्थ परिवार में बैठी गा रही है। इस परिवार की एक लड़की उसकी स्कूल की दोस्त है उसे संगीत सिखान ेके लिये रोज़ एक शिक्षक आते हैं। इक़बाल भी संगीत सीखना चाहती है लेकिन उसके पिता रूढ़िवादी विचारों के हैं उन्हें लड़कियों का गायकी के मैदान में आना गवारा नहीं यह बात नन्ही इक़बाल बानो जानती है इसलिये घर पर गायकी का शौक़ जाहिर नहीं करती। संगीत के प्रति उसके लगाव और उसकी बेहतरीन आवाज़ से प्रभावित उसकी सहेली के पिता अपने पड़ोसी इक़बाल बानो के पिता के पास जाते हैं और कहते हैं कि उनकी बेटी अच्छा गाती है लेकिन इक़बाल बानो को तो क़ुदरत ने बेहतरीन आवाज़ का तोहफ़ा दिया है अगर उसने मेहनत से रियाज़ कर लिया तो एक दिन वह बहुत मशहूर गायिका बनेगी। उनकी बात सुन कर इक़बाल बानो के पिता धर्म संकट में पढ़ जाते हैं उन्हें अपने खानदान की आलोचनाओं का डर हैं लेकिन बेटी की तारीफ़ के आगे आलोचनाओं का डर ख़त्म हो जाता है और वे इक़बाल बानो को संगीत सीखने की इज़ाज़त दे देते हैं।
हालात बदलेते हैं अब इक़बाला बानो का परिवार रोहतक से दिल्ली आ गया है। दिल्ली में इक़बाल बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खां साहब के पास भेजा जाता है। आवाज़ सुन कर उस्ताद भी क़ायल हो गए और उनकी कोशिशों से इक़बाल बानो के अंदर वह कलाकार आकार लेने लगा जिसकी आवाज़ को एक दिन लाखों प्रशंसकों की फ़ौज तैयार करनी थी। उस्ताद चांद खां की कोशिशों से ही इक़बाल बानो को पहली बार दिल्ली रेडियों से गाने का मौक़ा मिला। यह मौक़ा उनके लिये तब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
विभाजन के बाद रोहतक की गौहना तहसील के गांव हरसाना में इक़बाल बानो के परिवार की जायदाद पर लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया। खानदान के कई लोग पाकिस्तान जा चुके थे। इक़बाल बानो का परिवार भी पाकिस्तान चला गया। वे लोग मुलतान में बस गए। पड़ोस में ही पटियाला घराने के उस्ताद आशिक अली रहने के लिये पहुंचे । इक़बाल बानो का परिवार भले ही भारी परेशानियों के बीच सब कुछ दिल्ली और रोहतक में छोड़ कर मुलतान पहुंचा था लेकिन इक़बाल बानो की संगीत की तालीम जारी रखी गयी। वे उस्ताद आशिक अली से संगीत की तालीम लेने लगीं। 1952 में 17 साल की उम्र में इक़ाबल बानो की शादी पाकिस्तान के एक जदागीरदार से हो गयी। शादी से पहले ही उनके पति ने वादा किया कि वे इक़बाल बानो को कभी गाने से नहीं रोकेंगे और उन्होंने मरते दम तक अपना वादा निभाया।1980 में उनकी मृत्यु हो गयी।
इक़बाल बानो की आवाज़ सध चुकी थी। दादरा और ठुमरी गाने में उन्हें कमाल हासिल था साथ ही परंपरागत ग़ज़ल गायकी में भी वे परिपक्व होती जा रही थीं फिर भी उन्हें अपना हुनर दिखाने का मौक़ा नहीं मिल पा रहा था लेकिन उनकी आवाज़ की शोहरत ज़रूर फैल रही थी और एक दिन उनके पास रेडियों से बुलावा आया। वह 1955 का समय था। इक़बाल बानो रेडियो लाहौर बुलायी गयीं। उनकी गायी पहली ग़जल ही उनकी पहचान बन गयी। क़तील शिफ़ाई की लिखी हुई इस ग़ज़ल के बोल हैं
उल्फ़त की नई मंज़िल को चला है डाल के बाहें बाहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल हम भी तो पड़े हैं राहों में
वैसे तो बाद में इक़बाल बानो ने सैकड़ों ग़ज़लें, गीत , ठुमरियां दादरे, लोक गीत और सूफ़ियाना कलाम गाए लेकिन यह गज़ल उन्होंने सबस ेज़्यादा गयी , देश विदेश जहां भी गयीं इस ग़ज़ल की फ़रमाइश ज़रूर हुई। उनकी ग़ज़लों के ज़्यादातर कैसटों और रिकार्डों में उनकी यह ग़ज़ल ज़रूर शामिल की जाती थी।
बहरहाल इक़बाल बानो को अपना हुनर दिखाने के लिये एक मौक़े की तलाश थी और यह मौक़ा उन्हें रेडियो ने दे दिया। इसके बाद क़दम दर क़दम वो गायकी और शोहरत की बुलंदियां तय करती चली गयीं। रेडियो ने इक़बाल बानो को ऐसा प्लेटफ़ार्म दिया जिसके सहारे वो जनता के आम और ख़ास दोनो वर्गों तक पहुंचीं। जब 1957 में लाहौर आर्ट काउंसिल ने उनको पहली बार श्रोताओं से रूबरू कराने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया तो पुलिस को भीड़ को क़ाबू में रखने के लिये भारी मशक्कत करनी पड़ी। लोगों को उनकी उम्मीद से ज़्यादा बेहतर ग़ज़लें सुनने को मिलीं और जिस आवाज़ में ग़ज़लें सुनी वो सबसे अलग और नयी थी।
फ़ैज़ की शायरी ने तो इकबाल बानो पर जादू कर दिया था। फ़ैज़ के कलाम को उन्होंने इतना डूब कर गाया कि उन्हें गायकी के मैदान में फ़ैज़ की ग़ज़लों के विशेषज्ञ गायक के रूप में पहचाना जाने लगा। फ़ैज़ के निधन के बाद 1985 में उनके जन्म दिन पर इक़बाल बानो ने लाहौर में फ़ैज़ की एक नज़्म " हम देखेंगे जब तख़्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे " गायी। वह सैनिक तानाशाह ज़ियाउल हक की सरकार के दिन थे और उन दिनो चार लोगों से अधिक के एक जगह इकट्ठा होने पर प्रतिबंध था लेकिन इक़बाल बानो को सुनने के लिये 50 हज़ार की भीड़ जमा हो गयी। यह एक नमूना था पाकिस्तान में फ़ैज़ की शायरी और इक़बाल बानो की गायकी के संगम का। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से अक्सर मुशायरों में लोग फ़रमाइश कर देते कि इक़बाल बानो वाली ग़ज़लें सुनाईये। फ़ैज़ खुद स्वीकार करते थे कि आम लोगों में उनकी शायरी को लोकप्रियाता दिलाने में इक़बाल बानो का बहुत योगदान था।
फ़ैज के अलावा इक़बाल बानो ने क़तील शिफ़ाई, नासिर काज़मी, अहमद फ़राज और पुराने दौर के शायर ग़ालिब, दाग़ सौदा की ग़ज़लें भी गायीं। उनकी गाई हुई कुछ गज़लों के मिसरे बेहतरीन गायिकी की वजह से लोगों की ज़बान पर चढ़ गए।
पचास के दशक में पाकिस्तान की विकसित हुई फ़िल्म इंडस्ट्री में एक पार्श्व गायिका के तौर पर इक़बाल बानो को कई संगीतकारों ने जगह दी। गुमान, क़ातिल, इंतक़ाम, सरफ़रोश, इश्क-ए-लैला और नागिन वो चुनीदा फ़िल्में हैं जो इक़बाल बानो की गायकी की वजह से भी याद की जाती हैं। लेकिन उनकी दिलचस्पी शास्त्रीय संगीत में ही रही। इसलिये जैसे जैसे पाकिस्तानी फ़िल्मी संगीत में सतहीपन आता गया इक़बाल बानो उससे विमुख होती गयीं और 1977 के बाद उन्होंने फ़िल्मों के लिये गाना बंद कर दिया।
उस समय तक पाकिस्तान में ग़ज़ल गायकी के मैदान में मेंहदी हसन सरताज गयाक के रूप में स्थापित हो चुके थे। ग़ुलाम अली और फ़रीदा ख़ानम ने भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था लेकिन ग़ज़ल में राग रागनियों की शुद्धता के साथ अदायगी के मामले में मेंहदी हसन के अलावा इक़बाल बानो का किसी से कोई मुक़ाबला नहीं था। अस्सी के दशक के बाद भारत और पाकिस्तान दोनो जगह उभरी आधुनिक ग़ज़ल गायकी को इक़बाल बानो ग़ज़ल गायकी के रूप में स्वीकार ही नहीं करती थीं। उनका मानना था ग़ज़ल को ऐसा बना दिया गया है कि जो चाहे वो गाने लगता है। कुछ दिनो में उसका कैसेट आजात है और वो ग़ज़ल गायक के तौर पर मशहूर हो जाता है लेकिन ग़ज़ल गाने के लिये रागों की जानकारी उनका कड़ा रियाज़ और ग़ज़ल का चयन सभी पहलुओं पर ध्यान देना पड़ता है। ग़ज़ल गायकों की नौजवान पीढ़ी को सुन कर ज़्यादातर मायूसी होती है।
इक़बाल बानो जितनी सहजता से वो उर्दू ग़ज़लें सुनाती थीं उतनी ही सहजता से फ़ारसी का कलाम भी। इस वजह से ग़ज़ल गायकी के सूरमाओं में इक़बाल बानो एक मात्र ऐसी गायिका थीं जिन्हें जितना उर्दू वालों ने सिर आंखों पर बैठाया उतना ही फ़ारसी जानने वालों ने भी भारत और पाकिस्तान के साथ साथ वे ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में भी आदर से याद की जाती थीं। 1979 से पहले तक अफ़गानिस्तान में हर साल आयोजित होने वाला जश्न-ए-क़ाबुल में अफ़गानिस्तान के शाह ने इक़बाल बानो की मौजूदगी अनिवार्य बना दी थी। गायकी में रागों की शुद्धता पर कड़ा ध्यान रखने वाली इक़बाल बानो को कई संगीत आलोचक बेगम अख़्तर की गायकी के करीब मानते हैं। खुद इक़बाल बानो भी बेगम अख़तर से प्रभावित रहीं।
हांलाकि इक़बाल बानो दिल्ली में पली बढ़ीं लेकिन वे दूसरे पाकिस्तानी कलाकारों की तरह लगातार दिल्ली में गायकी के कार्यक्रमों में भाग लेने नहीं नहीं आ पाती थीं। 1980 से पहले पाकिस्तानी कलाकारों का भारत में आना कम ही हो पाता था। उसी दौर में इक़बाल बानो के पति का निधन हो गया। इसके बाद उन्होंने ग़ज़ल गायकी के कार्यक्रम बहुत सीमित कर दिये। भारत में अधिकतर इक़बाल बानो निजी तौर पर ही आयीं। 1991 में वे दिल्ली आयीं। होली के दिन शाम को दक्षिणी दिल्ली के तत्कालीन पुलिस उपायुक्त असद फ़ारूक़ी के घर इक़बाल बानो के सम्मान में महफ़िल सजायी गयी। चार दिन को अपने उस दौरे पर इक़बाल बानो पुरानी दिल्ली के उन इलाकों में ख़ूब घूमीं जहां वे बचपन में जाया करती थीं। ख़ासकर चांदनी चौक में मिठाई की मशहूर दुकान घंटेवाले के यहां जहां बचपन में उनके एक नाना उन्हें मिठाई दिलाने ले जाते थे। 1996 में वे फिर दिल्ली आयीं इस बार एक निजी समारोह में ग़ज़ल सुनाने के लिये।
21 अप्रैल को गज़ल गायकी की ये महारानी इस दुनिया को छोड़ गयी। इकबाल बानो के दो बेटे हुमायूं ,अफ़ज़ल और एक बेटी मालिहा है। इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पांच दशक तक गायकी की दुनिया में पाकिस्तान का नाम रोशन करने वाली इक़बाल बानो के जनाज़े में उनके रिश्तेदारों और पड़ोसियों के अलावा सिर्फ़ पाकिस्तानी लोक गायक शौकत अली ही शामिल हुए।