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Wednesday, April 29, 2009

ख़ामोश हो गयी वो आवाज

इकबाल बानो पर इकबाल रिजवी का लेख हाहाकार के लिए 

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विभाजन से पहले। रोहतक का गवर्मेंट गर्ल्स स्कूल। सब बच्चे पढ़ाई शुरू होने से पहले प्रार्थना गा रहे हैं " लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी "। पांचवीं क्लास में पढ़ने वाली इक़बाल बानो भी हाथ जोड़े आंखें बंद किये तल्लीनता से गा रही है। उसकी आवाज़ अपनी सहेलियों की आवाज़ से जुदा है यह एहसास उसकी सहेलियों को ही नहीं उसकी टीचरों को भी है।

इक़बाल बानो अपने पड़ोस के एक कायस्थ परिवार में बैठी गा रही है। इस परिवार की एक लड़की उसकी स्कूल की दोस्त है उसे संगीत सिखान ेके लिये रोज़ एक शिक्षक आते हैं। इक़बाल भी संगीत सीखना चाहती है लेकिन उसके पिता रूढ़िवादी विचारों के हैं उन्हें लड़कियों का गायकी के मैदान में आना गवारा नहीं यह बात नन्ही इक़बाल बानो जानती है इसलिये घर पर गायकी का शौक़ जाहिर नहीं करती। संगीत के प्रति उसके लगाव और उसकी बेहतरीन आवाज़ से प्रभावित उसकी सहेली के पिता अपने पड़ोसी इक़बाल बानो के पिता के पास जाते हैं और कहते हैं कि उनकी बेटी अच्छा गाती है लेकिन इक़बाल बानो को तो क़ुदरत ने बेहतरीन आवाज़ का तोहफ़ा दिया है अगर उसने मेहनत से रियाज़ कर लिया तो एक दिन वह बहुत मशहूर गायिका बनेगी। उनकी बात सुन कर इक़बाल बानो के पिता धर्म संकट में पढ़ जाते हैं उन्हें अपने खानदान की आलोचनाओं का डर हैं लेकिन बेटी की तारीफ़ के आगे आलोचनाओं का डर ख़त्म हो जाता है और वे इक़बाल बानो को संगीत सीखने की इज़ाज़त दे देते हैं।

हालात बदलेते हैं अब इक़बाला बानो का परिवार रोहतक से दिल्ली आ गया है। दिल्ली में इक़बाल बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद खां साहब के पास भेजा जाता है। आवाज़ सुन कर उस्ताद भी क़ायल हो गए और उनकी कोशिशों से इक़बाल बानो के अंदर वह कलाकार आकार लेने लगा जिसकी आवाज़ को एक दिन लाखों प्रशंसकों की फ़ौज तैयार करनी थी। उस्ताद चांद खां की कोशिशों से ही इक़बाल बानो को पहली बार दिल्ली रेडियों से गाने का मौक़ा मिला। यह मौक़ा उनके लिये तब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

विभाजन के बाद रोहतक की गौहना तहसील के गांव हरसाना में इक़बाल बानो के परिवार की जायदाद पर लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया। खानदान के कई लोग पाकिस्तान जा चुके थे। इक़बाल बानो का परिवार भी पाकिस्तान चला गया। वे लोग मुलतान में बस गए। पड़ोस में ही पटियाला घराने के उस्ताद आशिक अली रहने के लिये पहुंचे । इक़बाल बानो का परिवार भले ही भारी परेशानियों के बीच सब कुछ दिल्ली और रोहतक में छोड़ कर मुलतान पहुंचा था लेकिन इक़बाल बानो की संगीत की तालीम जारी रखी गयी। वे उस्ताद आशिक अली से संगीत की तालीम लेने लगीं। 1952 में 17 साल की उम्र में इक़ाबल बानो की शादी पाकिस्तान के एक जदागीरदार से हो गयी। शादी से पहले ही उनके पति ने वादा किया कि वे इक़बाल बानो को कभी गाने से नहीं रोकेंगे और उन्होंने मरते दम तक अपना वादा निभाया।1980 में उनकी मृत्यु हो गयी।

इक़बाल बानो की आवाज़ सध चुकी थी। दादरा और ठुमरी गाने में उन्हें कमाल हासिल था साथ ही परंपरागत ग़ज़ल गायकी में भी वे परिपक्व होती जा रही थीं फिर भी उन्हें अपना हुनर दिखाने का मौक़ा नहीं मिल पा रहा था लेकिन उनकी आवाज़ की शोहरत ज़रूर फैल रही थी और एक दिन उनके पास रेडियों से बुलावा आया। वह 1955 का समय था। इक़बाल बानो रेडियो लाहौर बुलायी गयीं। उनकी गायी पहली ग़जल ही उनकी पहचान बन गयी। क़तील शिफ़ाई की लिखी हुई इस ग़ज़ल के बोल हैं

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला है डाल के बाहें बाहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल हम भी तो पड़े हैं राहों में

वैसे तो बाद में इक़बाल बानो ने सैकड़ों ग़ज़लें, गीत , ठुमरियां दादरे, लोक गीत और सूफ़ियाना कलाम गाए लेकिन यह गज़ल उन्होंने सबस ेज़्यादा गयी , देश विदेश जहां भी गयीं इस ग़ज़ल की फ़रमाइश ज़रूर हुई। उनकी ग़ज़लों के ज़्यादातर कैसटों और रिकार्डों में उनकी यह ग़ज़ल ज़रूर शामिल की जाती थी।

बहरहाल इक़बाल बानो को अपना हुनर दिखाने के लिये एक मौक़े की तलाश थी और यह मौक़ा उन्हें रेडियो ने दे दिया। इसके बाद क़दम दर क़दम वो गायकी और शोहरत की बुलंदियां तय करती चली गयीं। रेडियो ने इक़बाल बानो को ऐसा प्लेटफ़ार्म दिया जिसके सहारे वो जनता के आम और ख़ास दोनो वर्गों तक पहुंचीं। जब 1957 में लाहौर आर्ट काउंसिल ने उनको पहली बार श्रोताओं से रूबरू कराने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया तो पुलिस को भीड़ को क़ाबू में रखने के लिये भारी मशक्कत करनी पड़ी। लोगों को उनकी उम्मीद से ज़्यादा बेहतर ग़ज़लें सुनने को मिलीं और जिस आवाज़ में ग़ज़लें सुनी वो सबसे अलग और नयी थी।

फ़ैज़ की शायरी ने तो इकबाल बानो पर जादू कर दिया था। फ़ैज़ के कलाम को उन्होंने इतना डूब कर गाया कि उन्हें गायकी के मैदान में फ़ैज़ की ग़ज़लों के विशेषज्ञ गायक के रूप में पहचाना जाने लगा। फ़ैज़ के निधन के बाद 1985 में उनके जन्म दिन पर इक़बाल बानो ने लाहौर में फ़ैज़ की एक नज़्म " हम देखेंगे जब तख़्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे " गायी। वह सैनिक तानाशाह ज़ियाउल हक की सरकार के दिन थे और उन दिनो चार लोगों से अधिक के एक जगह इकट्ठा होने पर प्रतिबंध था लेकिन इक़बाल बानो को सुनने के लिये 50 हज़ार की भीड़ जमा हो गयी। यह एक नमूना था पाकिस्तान में फ़ैज़ की शायरी और इक़बाल बानो की गायकी के संगम का। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से अक्सर मुशायरों में लोग फ़रमाइश कर देते कि इक़बाल बानो वाली ग़ज़लें सुनाईये। फ़ैज़ खुद स्वीकार करते थे कि आम लोगों में उनकी शायरी को लोकप्रियाता दिलाने में इक़बाल बानो का बहुत योगदान था।

फ़ैज के अलावा इक़बाल बानो ने क़तील शिफ़ाई, नासिर काज़मी, अहमद फ़राज और पुराने दौर के शायर ग़ालिब, दाग़ सौदा की ग़ज़लें भी गायीं। उनकी गाई हुई कुछ गज़लों के मिसरे बेहतरीन गायिकी की वजह से लोगों की ज़बान पर चढ़ गए।

पचास के दशक में पाकिस्तान की विकसित हुई फ़िल्म इंडस्ट्री में एक पार्श्व गायिका के तौर पर इक़बाल बानो को कई संगीतकारों ने जगह दी। गुमान, क़ातिल, इंतक़ाम, सरफ़रोश, इश्क--लैला और नागिन वो चुनीदा फ़िल्में हैं जो इक़बाल बानो की गायकी की वजह से भी याद की जाती हैं। लेकिन उनकी दिलचस्पी शास्त्रीय संगीत में ही रही। इसलिये जैसे जैसे पाकिस्तानी फ़िल्मी संगीत में सतहीपन आता गया इक़बाल बानो उससे विमुख होती गयीं और 1977 के बाद उन्होंने फ़िल्मों के लिये गाना बंद कर दिया।

उस समय तक पाकिस्तान में ग़ज़ल गायकी के मैदान में मेंहदी हसन सरताज गयाक के रूप में स्थापित हो चुके थे। ग़ुलाम अली और फ़रीदा ख़ानम ने भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था लेकिन ग़ज़ल में राग रागनियों की शुद्धता के साथ अदायगी के मामले में मेंहदी हसन के अलावा इक़बाल बानो का किसी से कोई मुक़ाबला नहीं था। अस्सी के दशक के बाद भारत और पाकिस्तान दोनो जगह उभरी आधुनिक ग़ज़ल गायकी को इक़बाल बानो ग़ज़ल गायकी के रूप में स्वीकार ही नहीं करती थीं। उनका मानना था ग़ज़ल को ऐसा बना दिया गया है कि जो चाहे वो गाने लगता है। कुछ दिनो में उसका कैसेट आजात है और वो ग़ज़ल गायक के तौर पर मशहूर हो जाता है लेकिन ग़ज़ल गाने के लिये रागों की जानकारी उनका कड़ा रियाज़ और ग़ज़ल का चयन सभी पहलुओं पर ध्यान देना पड़ता है। ग़ज़ल गायकों की नौजवान पीढ़ी को सुन कर ज़्यादातर मायूसी होती है।

इक़बाल बानो जितनी सहजता से वो उर्दू ग़ज़लें सुनाती थीं उतनी ही सहजता से फ़ारसी का कलाम भी। इस वजह से ग़ज़ल गायकी के सूरमाओं में इक़बाल बानो एक मात्र ऐसी गायिका थीं जिन्हें जितना उर्दू वालों ने सिर आंखों पर बैठाया उतना ही फ़ारसी जानने वालों ने भी भारत और पाकिस्तान के साथ साथ वे ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में भी आदर से याद की जाती थीं। 1979 से पहले तक अफ़गानिस्तान में हर साल आयोजित होने वाला जश्न--क़ाबुल में अफ़गानिस्तान के शाह ने इक़बाल बानो की मौजूदगी अनिवार्य बना दी थी। गायकी में रागों की शुद्धता पर कड़ा ध्यान रखने वाली इक़बाल बानो को कई संगीत आलोचक बेगम अख़्तर की गायकी के करीब मानते हैं। खुद इक़बाल बानो भी बेगम अख़तर से प्रभावित रहीं।

हांलाकि इक़बाल बानो दिल्ली में पली बढ़ीं लेकिन वे दूसरे पाकिस्तानी कलाकारों की तरह लगातार दिल्ली में गायकी के कार्यक्रमों में भाग लेने नहीं नहीं आ पाती थीं। 1980 से पहले पाकिस्तानी कलाकारों का भारत में आना कम ही हो पाता था। उसी दौर में इक़बाल बानो के पति का निधन हो गया। इसके बाद उन्होंने ग़ज़ल गायकी के कार्यक्रम बहुत सीमित कर दिये। भारत में अधिकतर इक़बाल बानो निजी तौर पर ही आयीं। 1991 में वे दिल्ली आयीं। होली के दिन शाम को दक्षिणी दिल्ली के तत्कालीन पुलिस उपायुक्त असद फ़ारूक़ी के घर इक़बाल बानो के सम्मान में महफ़िल सजायी गयी। चार दिन को अपने उस दौरे पर इक़बाल बानो पुरानी दिल्ली के उन इलाकों में ख़ूब घूमीं जहां वे बचपन में जाया करती थीं। ख़ासकर चांदनी चौक में मिठाई की मशहूर दुकान घंटेवाले के यहां जहां बचपन में उनके एक नाना उन्हें मिठाई दिलाने ले जाते थे। 1996 में वे फिर दिल्ली आयीं इस बार एक निजी समारोह में ग़ज़ल सुनाने के लिये।
21 अप्रैल को गज़ल गायकी की ये महारानी इस दुनिया को छोड़ गयी। इकबाल बानो के दो बेटे हुमायूं ,अफ़ज़ल और एक बेटी मालिहा है। इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पांच दशक तक गायकी की दुनिया में पाकिस्तान का नाम रोशन करने वाली इक़बाल बानो के जनाज़े में उनके रिश्तेदारों और पड़ोसियों के अलावा सिर्फ़ पाकिस्तानी लोक गायक शौकत अली ही शामिल हुए। 

Monday, April 27, 2009

वो सुबह कभी तो आएगी

अर्जुन सिंह कांग्रेस के लंबे समय तक सिपहसालार रहे हैं, गांधी परिवार के वफादार भी । लेकिन बुढ़ापे में वो पार्टी से जो चाहते वो उनको नहीं मिला. कांग्रेस में डायनेस्टी पालिटिक्स पर वरिष्ठ पत्रकार प्रभात शुंगलू ने हाहाकार के लिए खास तौर पर ये लेख लिखा है ।
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78 साल के अर्जुन सिंह को कांग्रेस ने लॉयल्टी का पुरस्कार दिया। उनके बेटे और बेटी दोनों को ही पार्टी ने टिकट नहीं दिया। अर्जुन सिंह को हार कर अपनी बेटी के खिलाफ भी प्रचार करना पड़ा। ये उसी समय की बात है जिन दिनों प्रियंका गांधी अमेठी में घूम घूम कर भैया राहुल को पीएम मैटिरियल बता रहीं थीं। यानि कुल मिलाकर बता रहीं थी कि केवल गांधी परिवार ही देश पर हुकूमत कर सकता हैं।
 कांग्रेसी कल्चर में गांधी परिवार के अलावा अगर कोई दूसरा प्रधानमंत्री बना तो वो भी डाइनेस्टी के आशीर्वाद से। विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में डाइनेस्टी की कोई जगह नहीं। ऐसा होता तो कैनेडी की हत्या के बाद उनके भाई रॉबर्ट राष्ट्रपति बनते। बुश सीनीयर अपने बेटे के लिये गद्दी छोड़ जाते। लेकिन ऐसा भी नहीं हुया।  अश्वेत ओबामा के प्रेसिडेंट चुने जाने के बाद कहा जा रहा कि अमेरिका के सोचने का नजरिया बदला है। लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आजादी के छह दशकों बाद भी लोगों  को डाइनेस्टी मानसिकता की बेड़ियों ने जकड़ा हुया है।
सवाल ये नहीं कि राहुल पीएम मैटिरियल हैं या नहीं। इस बहस में पड़ने से पहले राहुल के कुछ हमउम्र कांग्रेसी नेताओं की बात छेड़ना लाजमी है। आखिर जितिन प्रसाद में क्या कमी है। उनके पिता ने भी कांग्रेस को अपनी पूरी जिंदगी दी। ज्योतिर्आदित्य सिंधिया प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते। उनके पिता तो सफल राजनीतिज्ञ ही नहीं कुशल मंत्री भी थे। और कांग्रेस के प्रचार करते करते ही शहीद हुये। सचिन पायलेट के पिता राजेश पायलट होम मिनिस्टर रहे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा। जिस समाज से आते हैं वो कुछ राज्यों में ओबीसी श्रेणी में आता है। अर्जुन सिंह तो बस अपने बच्चों के लिये सांसद का टिकट मांग रहे थे। उन्होने पार्टी को 50 साल अपना सर्वस्र दिया। और फिर जिस पार्टी में गांधी परिवार की वफादारी ही पार्टी में उसका ओहदा और दर्जा तय करती आयी हो ऐसे में अर्जुन सिंह सरीखे नेता को वफादाऱी के ईनाम की उम्मीद लगाना कतई गलत नहीं आंका जा सकता।
सवाल डाइनेस्टी का नहीं। क्योंकि ये बहस तो अनंत है। इस कथा पुराण में पड़ेंगे तो फिर पूछा जायेगा कि अगर एक वकील का बेटा वकालत कर सकता है, एक सर्जन का बेटा डाक्टर बन सकता है तो एक नेता का बेटा नेता क्यों नहीं। लेकिन सवाल ये तो पूछा ही जा सकता है कि ये कब हुया कि एक चीफ जस्टिस का बेटा भी चीफ जस्टिस बना हो। एम्स का डायरेक्टर रिटायर होने से पहले अपने युवा बेटे के लिये गद्दी छोड़ जाये। क्योंकि यही सवाल कांग्रेस के सामने है। अगर राहुल पार्टी की सदस्यता लेने के पांच साल के अंदर ही पार्टी महासचिव बना दिये जाते हैं तो ज्योतिर्दित्य सिंधिया क्यों नहीं। सचिन पायलट क्यों नहीं। मीरा कुमार क्यों नहीं अब तक बन पायीं। या क्यों जितिन प्रसाद भी इस लायक नहीं समझे जाते। और एक बार फिर वही मूल प्रश्न कि अगर राहुल पीएम मैटिरियल हैं तो बाकी युवा कांग्रेसियों में ऐसे कौन से बबूल के कांटे लगे हैं। उनके बायोडेटा में क्या कमी है।
एक कमी है। गांधी शब्द की। और यही कमी उन्हे पार्टी में वो ही दर्जा दिलाती है जो कलावती की थी जिससे राहुल विदर्भ में मिल कर आये और जिसकी दशा और व्यथा उन्होने देश की संसद में बयां की। वो कलावती जिसके किसान पति ने कर्ज के बोझ तले आत्महत्या कर ली थी। वो महिला उपेक्षित थी।
 लेकिन किसी की राजनीतिक अपेक्षाओं की उपेक्षा करना क्या सही है। राहुल ने खुद ही तय किया कि चुनाव लड़ेंगे। मां ने तय किया महासचिव बनेंगे। बहन अब प्रधानमंत्री बनाने पर आमादा है। बहन ही क्यों डाइनेस्टी को पूजने वाले, गांधी परिवार की सरपरस्ती के बिना खुद को यतीम मानने वाले कई दिगग्ज कांग्रेसी भी यही चाहते है। जितिन, ज्योतिर्दित्य, सचिन, दिपेन्द्र हूडा, नवीन जिंदल, अजय सिंह, वीणा सिंह, मिलिंद देवड़ा के मन को कभी टटोलने का मौका नहीं मिला। क्या पता कलावती जो पीड़ा अपने पति के मौत की गमी में झेल रही हो वैसी राजनीतिक कसमसाहट ये भी झेलते हों। कलावती को राहुल मिल गये। शायद उसके जीवन में कुछ चैन लौटा हो। मगर राहुल के पास क्या अपने इन युवा साथियों के मन के दर्द को समझने का समय या साहस है।
कहा यही जाता रहा कि गांधी परिवार की सरपरस्ती न हो तो कांग्रेस पार्टी टूट जायेगी। बिखर जायेगी। ये सवाल नेहरू के बाद भी पूछा गया। आफ्टर नेहरू हू। मगर लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी सरीखी राजनीति की छाप छोड़ी। वी पी सिंह कांग्रेस छोड़ कर जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होने भी राजनीति को नई दिशा दी। नरसिंह राव जब आये एकोनॉमिक पॉलिसी का कायाकल्प कर दिया। कांग्रेस फिर भी नहीं टूटी।
अब राहुल के पास एक मौका है। कह दें वो कि अगला कांग्रेसी पीएम गांधी परिवार से नहीं होगा। पीएम ही क्यों पार्टी अध्यक्ष भी गांधी परिवार से नहीं होगा। क्योंकि ऐसा हुया तो इस देश के करोड़ो करोड़ लोगों की मानसिकता पर पड़ी डाइनेस्टी की जंजीरे खुल जायेंगी। फिर प्रधानमंत्री पायलट का बेटा बने या उद्योगपति का बेटा पब्लिक की राजनीतिक महत्वकांक्षा सही मायनों में बुलंद होगी। डाइनेस्टी को ही माई-बाप मानने की उसकी झेंप मिटेगी। फिर नाम से नहीं काम से मेरिट आंकी जायेगी। और जब वो सुबह आयेगी कलावती इतनी निरीह नहीं होगी। नहीं तो जनता को तय करना होगा डाइनेस्टी से पनपी चाटुकारिता संसकृति के मकड़जाल से निकलने के लिये उसके पास क्या विकल्प है। राजे रजवाड़े तो खत्म हो ही चुके हैं।  डाइनेस्टी से निजात पाने के लिये कब और किस तरह वो बड़ी लकीर खींचनी है ये जनता तय कर ले। उस सुबह का भी इंतजार रहेगा।

Thursday, April 23, 2009

रेत में आग

विश्व पुस्तक मेला में पिछले वर्ष जब भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘रेत’ छपकर आया था तो उसकी खासी चर्चा हुई थी । प्रशंसा करने में खासे कंजूस ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव ने न केवल इस कृति की दिलखोलकर तारीफ की बल्कि इसे वर्ष की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार भी किया । राजेन्द्र यादव के अलावा भी इस उपन्यास की प्रशंसा करनेवालों की एक लंबी फेहरिस्त है । आलोचकों और समीक्षकों के अलावा पाठकों ने भी ‘रेत’ को हाथों हाथ लिया और सालभर के अंदर ही इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया । लेकिन इन दिनों ये उपन्यास एक दूसरी ही वजह से चर्चा में है । इस उपन्यास से ‘गिहार’ समुदाय के लोग बुरी तरह से भड़के हुए हैं । उत्तर प्रदेश के छिबरामऊ में इस समुदाय की महिलाओं ने ‘रेत’ को काले कपड़े में बांधकर पहले तो फांसी पर लटकाया फिर इसे आग के हवाले कर उसका अंतिम संस्कार कर डाला । लेकिन विरोध की आग इससे भी ठंढी नहीं हुई तो महिलाओं ने सैयद बंगाले शाह की मजार के पास खड़े एक पेड़ पर रंग बिरंगे फीते बांधकर ‘रेत’ के लेखक भगवानदास मोरवाल के लिए ये मनौती मांगी कि वो धनहीन, यशहीन और विद्याहीन हो जाएं । बात यहीं तक नहीं रुकी । गिहार समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले एक संगठन- भारतीय आदिवासी गिहार विकास समिति के प्रदेश उपाध्यक्ष दिनेश गिहार ने छिबरामऊ के प्रथम श्रेणी ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल समेत कई लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई की मांग कर डाली । लेकिन माननीय अदालत में अबतक इस याचिका पर सुनवाई नहीं हो पाई है ।
दरअसल ये विवाद दिल्ली से प्रकाशित एक साप्ताहिक में इस उपन्यास की समीक्षा के बाद शुरु हुआ । प्रकाशित समीक्षा को ही इस पूरे विवाद की जड़ बना दिया गया है । न तो इस समुदाय के बारे में उपन्यास में कोई चर्चा है और न ही इस समीक्षा में कहीं भी गिहार समुदाय के बारे में कुछ कहा गया है । ये विवाद उपन्यास में ‘माना गुरु’ के नामोल्लेख की वजह से हुआ है । अगर हम उपन्यास के बलर्ब को देखें – उस उपन्यास के केंद्र में है ‘माना गुरु’ और ‘मां नलिन्या’ की संतान कंजर और उसका जीवन । कंजर यानि काननचर अर्थात जंगल में घूमनेवाला । अपने लोक विश्वासों व लोकाचारो की धुरी पर अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष करती एक विमुक्त जनजाति । इस पूरे उपन्यास में कंजर समुदाय की स्त्रियों के स्याह संसार को श्रमपूर्वक, शोध के आधार पर उजागर किया गया है । लेकिन गिहार समुदाय के लोगों का मानना है कि ‘माना गुरु’ उनके इष्टदेव हैं और उनकी संतान यानि कि गिहार समाज की महिलाओं को इस कृति में वेश्यावृति करते दिखाया गया है जो कि घोर आपत्तिजनक है ।
मैंने भी इस उपन्यास को पूरा पढ़ा है । इसमें कहीं से भी ये ध्वनित नहीं होता है कि गिहार समुदाय को टारगेट किया गया है उनको जानबूझकर टारगेट किया गया है । कंजर समुदाय की स्त्रियों को जरूर वेश्वयावृति के धंधे में दिखाया गया है लेकिन वो भी रस लेने या अपमानित करने के इरादे से नहीं बल्कि उनकी समस्याओं को उजागर करने के लिए । इस पूरे उपन्यास में लेखक इस बात को लेकर अतिरिक्त सावधान दिखाई देता है कि कहीं से भी अश्लीललता को चित्रण न हो । ‘माना गुरु’ और वेश्यावृति का प्रसंग जब भी आया है स्त्रियों की बेबसी और इनकी अंधेरी जिंदगी को सामने लाने की कोशिशों के साथ ही ।
दरअसल अगर हम समग्रता में देखें तो ये पूरा का पूरा विवाद अज्ञानता की वजह से उठा प्रतीत होता है । लगता ये है कि किसी ने भी इस उपन्यास को समग्रता में न तो पढ़ने की कोशिश की और न ही उसे समझने की । सिर्फ एक समीक्षा के आधार पर बगैर किसी तार्किक आधार पर सिर्फ भावनाओं में बहकर इतना बड़ा वितंडा खड़ा कर दिया गया । इस पूरे मामले को स्थानीय अखबारों ने भी खूब हवा दी । अखबारों के संवाददाताओं की अज्ञानता उनकी ही रिपोर्ट से जाहिर हो गई । एक दैनिक इसे - गिहार समाज की स्त्रियों के देह व्यापार पर केंद्रित उपन्यास बता डाला तो दूसरे ने इसे – गिहार समाज की महिलाओं पर केंद्रित उपन्यास बतचा डाला । एक तो लोगों की भावनाएं भड़क रही थी उसपर से अखबारों में गलत तथ्यों का आना – आग में घी डालनमे जैसा साबित हुआ, और प्रदर्शन और बढ़ता गया । अखबारों के संवाददाताओं ने भी तथ्यों को परखने की कोई कोशिश नहीं की ।
इस पूरे मसले पर लेखक संगठनों की चुप्पी भी बेहद शर्मनाक है और उनको कठघरे में भी खडा़ करती है । महीनो से चल रहे इस विवाद में किसी भी लेखक संगठन ने इस पूरी घटना पर विचार करने की जहमत उठाई । हद तो तब हो गई जब किसी भी संगठन ने विरोध का बयान जारी करने की रस्म अदायगी भी नहीं की, भर्त्सना करने की बात तो दूर । राजेन्द्र यादव को छोड़कर किसी लेखक ने भी एक शब्द नहीं कहा । इससे पता चलता है कि समाज में क्रांति, बदलाव आदि आदि की बड़ी बड़ी बातें करनेवाले लेखकों के सरोकार कितने छोटे और संकुचित हो गए हैं । इस पूरे मसले पर मुझे मुक्तिबोध की लगभग विस्मृत और ओझल कविता का पूरा शीर्षक याद आ रहा है – ‘आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार हैं खामोश !!’

Wednesday, April 22, 2009

भज्जी,धोनी ने गलती की मगर....

भज्जी और धोनी पद्म पुरस्कार लेने नहीं गए । इसपर जमकर विवाद हुआ, कहा तो यहां तक गया खिलाड़ियों ने मं6लय के फोन तक नहीं उठाए । खेल पत्रकार अभिषेक दूबे ने इस विषय पर हाहाकार के लिए खास तौर पर ये लेख लिखा है ।
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पांच साल पुरानी बात है, तभी मैं क्रिकेट का दीवाना अधिक पत्रकार कम था। मेरा एक दोस्त क्रिकइनफो के लिए एक लेख लिखने के सिलसिले में हरभजन सिंह के घर जालंधर जा रहा था, मैं साथ में चल लिया।
हरभजन के बारे में काफी कुछ सुन रखा था, निगेटिव अधिक, पोजिटिव कम। जालंधर की गलियों से होते हुए जैसे-जैसे मैं हरभजन के घर के नजदीक आता चला गया, अपने घर की याद आने लगी। मैं हरभजन से पहली बार मिल रहा था, लेकिन जैसे-जैसे घर में समय बीतता गया मुझे एक पल के लिए नहीं लगा कि मैं कबाब में हड्डी बनकर चला आया हूं। लगा कि मैं कॉलेज के समय के एक करीब दोस्त से मिल रहा हूं।
जल्द ही हम हरभजन के ड्राइंग रूम से बेडरूम में आ गए और जैसे ही पहली बार इंटरव्यू की चर्चा की, तो आवाज आई बेटा तुमलोग खाना खाओगे तभी इंटरव्यू मिलेगा। दरअसल वो आवाज हरभजन की मां की थी। मेरा दोस्त, मैं और भज्जी खाना खाने बैठे ही थे। मां-बहन खुद खाना परोस रही थी, घर की गर्मा-गर्म रोटी देखती ही, मुंह में पानी आ गया। पहला निवाला लिया ही था कि बहन बोल पड़ी- भैया आप लोग खुद गाड़ी चलाकर आए हो, मैंने दबी जुबान में कहा- साथ ड्राइवर आया है तभी मां ने फरमान जारी किया- उसे बाहर क्यों छोड़ दिया, बेचारा भूखा होगा। चंद ही मिनटों में ड्राइवर हमारे साथ बैठकर खाना खा रहा था। खाने-पीने के बाद इंटरव्यू का दौर शुरू हुआ। भज्जी हर मुद्दे पर दिल खोलकर बोल रहे थे, कई ऐसी बातें जिसे मैं चाहकर भी आपके साथ नहीं बांट सकता।
हाल में हरभजन और धोनी पद्म पुरस्कार लेने नहीं आए और इसे लेकर काफी बवाल मचा। तरह-तरह की प्रतिक्रिया आई। मुझे भी दुख हुआ और मैंने अपनी पीड़ा को अपने चैनल के जरिए लोगों के सामने रखा। जब मैं अपने चैनल पर इसकी आलोचना कर रहा था, तो हरभजन के घर में मेरे दोस्त के साथ बिताए हर पल याद आ रहे थे। मैं ऐसे ही ना जाने कितने अतीतों को जोड़कर मैं समझना चाह रहा था कि इन्होंने ऐसा क्यों किया। दरअसल जो हरभजन, मुनाफ, आरपी, पठान और रैना जैसे क्रिकेटरों की सबसे बड़ी ताकत है, वही सबसे बड़ी कमजोरी भी। जिसने धोनी ब्रिगेड को मैचविनर बनाया है, वही लोगों के आंखों की किरकिरी भी।
क्रिकेट मुंबई-दिल्ली, राजवाड़े और बड़े घरानों से निकलकर अब भारत के दूर-दराज इलाकों में फैल चुका है। जालंधर के हरभजन सिंह, मेरठ के प्रवीण कुमार, मुरादनगर के सुरेश रैना, भरूच के मुनाफ बिंदास नजरिया लेकर क्रिकेट मैदान पर आ रहे हैं। नजफगढ़ के सहवाग को सामने खड़े गेंदबाज के शख्सियत की परवाह नहीं। भज्जी या प्रवीण हेडन या पीटरसन को वैसा ही समझकर गेंद फेंक रहे होते हैं जैसे वो अपने मुहल्ले के बबलू या बंटी को फेंकते आए हैं। ऐसे क्रिकेटर इतिहास के बोझ तले भी दबे नहीं होते। शायद इसलिए जब इनसे पूछा जाता है कि क्या आपको अंदाजा है कि टीम इंडिया अबतक न्यूजीलैंड में हारती आई है तो ये हंसकर जवाब देते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर हम बढ़िया खेलेंगे तो जीतेंगे, अगर खराब खेले तो हारेंगे।
आपको सहवाग का पाकिस्तान में दिया गया मशहूर बयान याद ही होगा। राहुल द्रविड़ के साथ सहवाग ओपनर के तौर पर पंकज रॉय और वीनू मांकड़ की जोड़ी का वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ने के करीब थे। पत्रकार ने जब वीरू से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- कौन पंकज रॉय, मैंने तो इनके नाम तक नहीं सुने। किसी को भला लगे या बुरा, अगर ये वीरू की कमजोरी है तो सबसे बड़ी ताकत भी। लब्बोलुआब ये है कि अगर क्रिकेट के लोकतांत्रिकरण ने भारत को बिंदास खिलाड़ियों की फौज दी है, तो ऐसे कैरेक्टर भी जिन्हें इतिहास, मूल्यों और उसूलों का अंदाजा नहीं।
टीम इंडिया में एक ऐसे मशहूर क्रिकेटर हैं जो इंटरव्यू देना पसंद नहीं करते। टी-20 वर्ल्ड कप के सिलसिले में मैं दक्षिण अफ्रीका में था। प्रिंट के एक पत्रकार ने जब इस क्रिकेटर से कहा कि अगर तुम लम्बी रेस का घोड़ा बनना चाहते हो, तो तुम्हें मीडिया को साथ लेकर चलना होगा। हंसते हुए उस क्रिकेटर ने जवाब दिया- एक बात मैं अच्छे से जानता हूं अगर मैं अच्छा खेला तो आप मेरी तारीफ करने पर मजबूर होंगे और अगर मैं बुरा खेला तो आप लाख चाह लो, मुझे बचा नहीं पाओगे। जैसे ही प्रिंट मीडिया का वो पत्रकार आगे गया, उस क्रिकेटर ने मुझसे कहा- ये दादा को नहीं बचा पाए, मैं किस खेत की मूली हूं।
ऐसा ही एक और वाकया मुझे याद आता है। भारत के सुदूर इलाके से आने वाले एक क्रिकेटर ने मेथ्यू हेडन को आउट करने के बाद जमकर गाली दी। मैच खत्म होने के बाद जैसे ही हमने इस बारे में उस क्रिकेटर से चर्चा की तो उन्होंने कहा- पता है भैया, हमारे बीते जेनेरेशन ने इन कंगारुओं का दिमाग खराब कर दिया है। वो इन्हें बाउंसर फेंकने बाद सॉरी कहते थे। मेरा तो फंडा साफ है, मैं बाउंसर भी फेंकता हूं और दबाकर गाली भी देता हूं।
आत्मविश्वास, बिंदास नजरिया और किसी की परवाह नहीं करना दुधारी तलवार है। अगर इस नजरिए का पोजिटिव इस्तेमाल हो, तो वो मौजूदा टीम इंडिया की तरह चैंपियन टीम बनाती है। अगर इसने अराजक रूप ले लिया तो ये पाकिस्तान क्रिकेट टीम का ड्रेसिंग रूम जैसा माहौल बनाती है। पाकिस्तान में जबतक ऐसे क्रिकेटरों को नेतृत्व करने वाला इमरान खान जैसा लीडर मिला, तो उस टीम का बेहतरीन प्रदर्शन रहा। जैसे ही इमरान ने क्रिकेट को अलविदा कहा पाकिस्तान का ड्रेसिंग रूम अराजकता का प्रतीक बनता गया। अगर भारतीय टीम में भज्जी-वीरू-धोनी जैसे बिंदास क्रिकेटर हैं, तो सचिन, राहुल और लक्ष्मण जैसे अनुभवी और जागरूक इंसान भी जो इन्हें उड़ते वक्त नियंत्रण में रखते हैं।
सवाल ये है कि त्रिमूर्ति की विदाई के बाद ऐसा कौन करेगा। अगर मैं अपने अनुभव को आधार मानूं तो इस लिहाज से गौतम गंभीर में वो माद्दा है। अपने बेहतरीन खेल से वो ना सिर्फ मिसाल बनकर टीम की अगुवाई कर सकते हैं, बल्कि सोच और उसूलों के मामले में वो मौजूदा क्रिकेटरों को सही दिशा भी दे सकते हैं। सच कहता हूं, अगर बिंदास क्रिकेटरों के ब्रिगेड को कोई बिंदास मुखिया मिल गया, तो भारतीय क्रिकेट का बहुत बुरा होगा।
हरभजन और धोनी ने पद्म पुरस्कार के लिए नहीं जाकर बहुत बुरा किया। वो रोल मॉडल हैं और उनके इस रवैये से गलत संदेश जाता है। मैं कतई उनका बचाव नहीं कर रहा। साथ ही मैं दो सवाल छोड़ रहा हूं-पहला सवाल..क्या हम अपने दिल पर हाथ रखकर ये पूछ सकते हैं कि क्या हम राष्ट्रीय प्रतीकों और सम्मानों को उतना ही सम्मान करते हैं जितना हमारे माता-पिता करते आए, क्या अगले जेनेरेशन के मन में उनके लिए उतनी ही इज्जत है जितनी हममें हैं? दूसरा सवाल- क्या भज्जी, पठान, रैना, सहवाग जैसे क्रिकेटरों के आने से भारतीय क्रिकेट मजबूत नहीं हुआ...क्या ऐसे क्रिकेटरों ने तिरंगे की शान को नहीं बढ़ाया?
आजमगढ़ अगर आज कामरान दे रहा है और भरूच मुनाफ, मेरठ अगर प्रवीण दे रहा है और कोच्ची श्रीसंत, इससे भारतीय क्रिकेट का सम्मान बढ़ा है। ये बिंदास जरूर हैं, लेकिन दिल से भोले भी। राजे-राजवाड़ो और पारंपरिक क्रिकेट स्कूलों से आए क्रिकेटरों की तरह ये एलीट तो नहीं, लेकिन मकसद दिखाए जाने पर ये जी-जान लगाना जानते हैं।
जरूरी है इन्हें राष्ट्रीय और समाजिक तौर पर जागरूक करने की, इनकी ताकत को सही दिशा देने की और इनके भोले मन में वसूलों के लिए इज्जत पैदा करने की। ऐसे क्रिकेटरों को लीडरशिप के लिए पहले कॉनवेंट में पढ़े गांगुली चाहिए था और अब एक और कॉनवेंट में पढ़े गंभीर चाहिए। जरूरी है कि हम इन्हें इतना जागरूक करें, कि आने वाले कल में वो अपना लीडर खुद बन सकें।

Tuesday, April 21, 2009

मेरी आवाज़ ही पहचान है

इकबाल रिजवी देश के उन गिने चुने पत्रकारों में हैं जिनकी फिल्म और कला की समझ बेहतरीन है । कल और फिल्म पर समान अधिकार से लेखन करते हैं । इनके लेख देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते रहे हैं । हाहाकार के लिए विशेष रूप से उन्होंने शमशाद बेगम पर लिखा है - अनंत

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फिर पद्म अवार्ड बांटे गए। हर साल की तरह इस बार भी बंदर बांट हुई। कई लोग जो इस सम्मान के लायक नहीं थे उन्हें सम्मानित किया गया लेकिन एक हस्ती ऐसी भी है जिसे यह सम्मान अब दे कर उसका अपमान ही किया गया। इस बार के पद्म सम्मान में सबसे ज़्यादा नाइंसाफ़ी गायिका शमशाद बेगम के साथ हुई। गायकी के उच्चतम शिखर पर पहुंचकर लगभग चालीस साल पहले फिल्मी दुनिया को अलविदा कहने वाली शमशाद बेगम ने फ़िल्मी दुनिया को एक दो नहीं कई कालजयी गीत दिये हैं। 90 साल की उम्र में जब वो व्हील चेयर पर बैठ कर राष्ट्रपति से पुरस्कार लेने आयीं तो यह उनकी सादगी ही थी क्योंकि इस उम्र में उन्हें किसी सम्मान या पुरस्कार की ज़रूरत नहीं रह गयी है। न जाने क्यों उन्होंने यह पुरस्कार ग्रहण किया उनके प्रशंसकों का तो मानना है कि उन्हें यह पुरस्कार लेना ही नहीं चाहिये था। क्योंकि जो सम्मान उन्हें अब दिया गया है वो तो उन्हें बहुत पहले ही मिल जाना चाहिये था। वैसे भी शमशाद बेगम के गाए कालजयी गाने किसी भी पुरस्कार के मोहताज नहीं हैं।

ज़माने के तमाम उतार चढ़ाव की गवाह रहीं शमशाद बेगम स्वभाव से बहुत सरल हैं। उनकी आवाज़ ने जिन संगीतकारों को लोकप्रियता दिलायी उनमें से कई लोगों ने शमशाद से किनारा कर लिया लेकिन शमशाद बेगम ने कभी इसकी शिकायत किसी नहीं की। सत्तर के दश्क में जब उनके गायन की मांग कम होने लगी तो वो बिना किसी से शिकवा किये फ़िल्मी दुनिया से रूख़्सत हो गयीं और उन्होंने अपने आप को इस तरह गुम कर लिया कि तीन दशक तक किसी को उनका बारे में कुछ पता ही नहीं चला। उनके बारे में सिर्फ़ संगीतकार नौशाद और ओ पी नैयर को जानकारी थी लेकिन शमशाद बेगम ने उन्हें सख्ती से मना कर दिया था कि वे किसी को भी उनके बारे में कोई जानकारी न दें। वर्ष 2004 में सिनेमा के स्तंभकार शिशिर शर्मा ने डेढ़ साल की मेहनत के बाद एक दिन उन्हें ढूंढ ही निकाला। इसके बाद उन्हें शमशाद बेगम को बात चीत को राज़ी करने के लिये दो महीने लग गए।

14 अप्रैल को शमशाद बेगम 90 साल की हो गयीं। इस उम्र में याददाश्‍त का कमज़ोर हो जाना आम बात है यही उनके साथ भी हुआ है इसलिए उनसे बातें करना कठिन होता है, लेकिन फिर भी उन्हें अपने दौर की कई बातें याद हैं ख़ासकर वो लोग जिन्होंने शमशाद बेगम से मुंह मोड़ लिया और जिनकी उपेक्षा की वजह से उन्हें फ़िल्मों में गायकी बंद कर देनी पड़ी। संगीतकार मदन मोहन अपनी पहली फिल्म आंखें में उनकी आवाज़ का इस्तमाल किया। शमशाद के गाए गीत लोकप्रिय हुए। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मदन मोहन को पहली कामियाबी दिलाने में शमशाद बेगम की आवाज़ का भी योगदान रहा लेकिन इसके बाद मदन मोहन ने कभी शमशाद बेगम को गाने का मौक़ा नहीं दिया। राजकपूर की निर्माता-निर्देशक के रूप में पहली फिल्म आग बहुत कामयाब रही और इस कामियाबी में शमशाद बेगम के गाए गीतों का उल्लेखनीय योगदान रहा लेकिन इस फिल्म के बाद राजकपूर ने उन्हें अपनी गिनी चुनी फिल्मों में ही गायन का मौका दिया। राजकपूर ने एक बार सार्वजनिक तौर पर माना था कि उनकी शुरूआती सफ़लता में शमशाद बेगम के गीतों का बहुत योगदान है लेकिन साथ ही उन्होंने अफसोस भी जताया था कि वह उनके लिए कुछ नहीं कर सके क्योंकि संगीत निर्देशक शंकर-जयकिशन उनकी आवाज़ को ज़्यादा पसंद नहीं करते थे। लेकिन शमशाद बेगम बिना किसी कटुता के बहुत सहजता से कहती हैं कि जिन्होंने उन्हें नज़र अंदाज़ किया उनसे उन्हें कोई शिकायत नहीं है क्योंकि उन्होंने मेरे साथ ऐसा कोई करार नहीं किया था कि प्रसिद्ध हो जाने के बाद वह उन्हें साइन करेंगे। शमशाद बेगम की आवाज़ का सबसे अधिक और सबसे अच्छा इस्तेमाल नौशाद और ए पी नैय्यर ने किया। ओ पी ने 23 फ़िल्मों में उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया। ओपी नय्यर का कहना था कि शमशाद बेगम की आवाज मंदिर की घंटी की तरह स्पष्ट और मधुर है।

हांलाकि उनके आखरी गीत को लेकर विवाद है। जिस फ़िल्म में अंतिम बार उनकी आवाज़ शामिल हुई वह थी 1981 में रिलीज़ हुई फिल्म "गंगा मांग रही बलिदान" लेकिन इस फ़िल्म के गीत रिलीज़ होने से काफ़ी पहले रिकार्ड हो गए थे। शमशाद बेगम के मुताबिक उनका गया अंतिम गीत कजरा मोहबब्त वाला था। जो फ़िल्म क़िस्मत के लिये उन्होंने 1968 में रिकार्ड करवाया था।

मिया हुसैन बख्श और गुलाम फातिमा की आठ संतानों में से एक शमशाद को प्रकृति ने सुरीला स्वर दिया था। लाहौर में उनके घर में रखा बड़ा सा ग्रामाफ़ोन नन्ही शमशाद के लिये हैरत की चीज़ हुआ करता था। ग्रामाफ़ोन बजने पर शमशाद उसके पास आकर बैठ जातीं और फिर उसमें से जो आवाज़ आती उसे दोहराया करतीं। इसके अलावा मोहर्रम के दौरान जब मर्सिये पढ़े जाते तो शमशाद उन्हें याद कर पढ़ा करती थीं। उनका ये शौक देख कर उनके चाचा उन्हें गाने के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। धीरे धीरे शमशाद बेगम की आवाज़ सुरों को साधने लगी और हज़ारों आवाज़ों के बीच अलग से पहचानी जाने वाली उनकी खनकदार आवाज़ सुनने वालों पर असर डालने लगी। एक दिन शमशाद के चाचा 13 साल की शमशाद को लेकर जीनोफ़ोन रिकार्डिंग कंपनी गए जहां शमशाद की आवाज़ बहुत पसंद की गयी और उनकी आवाज़ में एक पंजाबी गाना रिकार्ड हुआ जिसके बोल थे " हथ जोड़ परखियां दा " यह एक गैर फ़िल्मी गाना था जो बेहद लोकप्रिय हुआ। इस गीत की लोकप्रियता के कारण कंपनी ने साल भर में शमशाद बेगम की आवाज़ में करीब 200 गाने रिकार्ड किये। जीनोफ़न कंपनी के स्थायी संगीतकार ग़ुलाम हैदर थे। शमशाद के उच्चारण की शुद्धता से प्रभावित गुलाम हैदर ने शमशाद को गायकी की बारीकियों से परिचित कराया। उनके प्रति बेहद श्रद्धा रखेने वाली शमशाद बेगम का कहना है कि गुलाम हैदर जैसे संगीतकार सदियों में एक बार पैदा होते हैं।

1937 में शमशाद को लाहौर रेडियो स्टेशन से नियमित गाने का मौका मिला और उनकी शीशे जैसी साफ़ और खनकती आवाज़ घर घर लोकप्रिय होने लगी। इससे पहले ही 1939 में 15 की उमर में बैरिस्टर गणपतलाल बट्‌टो के साथ विवाह हो गया था। उन्हें पहली बार फ़िल्मों में गाने का मौका मिला पंजाबी फ़िल्म "यमला जट"(1940) में । इस फिल्म में शमशाद बेगम ने आठ गाने गाए। इसके बाद एक और पंजाबी फ़िल्म "चौधरी (1941) में उन्होंने गाने गाए दोनो फ़िल्में अपने गीत और संगीत के कारण हिट रहीं। इसके बाद पंचोली आर्ट फ़िल्म ने हिंदी में "खज़ांची" नाम की फ़िल्म बनायी। इसमें शमशाद के गाए गीत "लौट गयी पापी अंधियारिन" , " मन धीरे धीरे रोना " और "एक कली नाज़ों से पली" ने धूम मचा दी। खज़ांची के बाद शमशाद बेगम ने चार पांच और फ़िल्मों में गया और सभी अपने गीत संगीत की वजह से हिट रहीं।

शमशाद बेगम का यह सौभाग्य रहा कि कड़े परंपरागत परिवार में जन्म लेने और फिर शादी हो जाने के बाद भी उनके गाने के शौक़ पर किसी ने भी रोक नहीं लगायी। रेडियो स्टेशन पर उन्हें नियमित गाने के लिये जाना पड़ता था। यहां तक की पंजाबी फ़िल्मों के ज़रिये जब शमशाद बेगम की आवाज़ की खनक पूरे देश में गुंजने लगी तो मुम्बई की फ़िल्मी दुनिया से शमशाद को बुलावा मिला। सबसे पहले महबूब ने अपनी फ़िल्म "तक़दीर(1943) " में अंजुम पीलीभीती का लिखा गाना "बाबू जी दरोगा जी कौन कसूर पर धर लियो सैंया मोर" गवाने के लिये शमशाद बेगम को पूना बुलाया तब भी शमशाद को वहां जाने से किसी ने नहीं रोका। उनके इस सफ़र ने ही आगे चल कर मुम्बई की फ़िल्मी दुनिया में उनके लिये रास्ते खोले।

शमशाद बेगम के गायन का एक रोचक तथ्य यह भी है कि उन्होंने पुरूष अभिनेताओं के लिये भी पार्शव गायन किया। उन्होंने दारा सिंह के लिए एक फिल्म में गीत गाया। निर्माता-निर्देशक राजकुमार कोहली की 1965 में रिलीज़ हुई फिल्म लुटेरामें दारा सिंह एक समुद्री जहाज़ पर औरत के भेस में गीत गाते हैं- पतली कमर, नाज़ुक उमर, अरे, हट मुए मुझे लग जाएगी नज़र। यही बात उस दौर के चॉकलेटी हीरो विश्वजीत पर भी उसी तरह लागू होती है। 1968 की फिल्म किस्मतका मशहूर गीत कजरा मोहब्बत वालाका शमशाद बेगम वाला हिस्सा विश्वजीत पर और आशा भोंसले वाला हिस्सा बबिता पर फिल्माया गया था। विश्वजीत उस समय औरत के भेस में थे।

शमशाद बेगम ने अपने गायन काल के दौरान अपना फोटो कभी नहीं खिंचवाया। जब भी फ़ोटो खिंचने का मौक़ा आता वे बहुत सफ़ाई से बच निकलती। दरअसल उन्हें हमेशा यह एहसास रहा कि वे सुंदर नहीं हैं इसलिये उन्होंने चित्र नहीं खिंचवाए। बरसों तक लोग उन्हें उनकी सुरीली आवाज के जरिए ही उन्हें पहचानते रहे। 1965-66 के आस पास शमशाद के पास फ़िल्मों से गाने के प्रस्ताव आने बहुत कम हो गए। उनकी आवाज़ में कोई कमी नहीं आयी थी। ऐसा भी नहीं था कि फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में आ रहे बदलाव में शमशाद बेगम की आवाज़ मिस फिट होने लगी थी।उनका व्यवहार भी बहुत सरल था। फिर भी शमशाद को नज़र अंदाज़ किया जाने लगा। संभवत: इसकी वजह थी फ़िल्मी दुनिया में बढ़ती खेमेबाज़ी और राजनीति। शमशाद इस मुद्दे पर बात करना पसंद नहीं करतीं कि आखिर उनके खिलाफ़ कौन सी ताकतें राजनीति कर रही थीं। फ़िल्मी दुनिया से अलग हो कर शमशाद पूरी तरह अपनी बेटी ऊषा और दामाद रिटायर लेफ़्टिनेन्ट कर्नल वाई रात्रा पर निर्भर हो गयीं। रात्रा का जहां भी तबादला होता शमशाद उनके साथ ही चली जातीं। बीच बीच में मुम्बई आने पर वे केवल नौशाद और ओ पी नैय्यर से ही संबंध साधती थीं। रिटाटर होने के बाद जब रात्रा नियमित रूप से मुम्बई में रहने आ गए तो शमशाद भी उन्हीं के साथ रहने लगीं और आज भी रह रही हैं।

कुछ समय पहले शमशाद बेगम के बारे में एक समाचार यह भी छप गया था कि उनका निधन हो गया। शमशाद बेगम के एक प्रशंसक और गणित के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर चंद्रकांत मोहन लाल ने सात सालों की मेहनत के बाद एक किताब लिखी है जिसका नाम है "खनकती आवाज़ .. शमशाद बेगम" इस किताब की सामग्री जुटाने के लिये वे लाहौर तक गए। यही नहीं उन्होंने शमशाद बेगम को भारतरत्न, दादा साहेब फालके सम्मान, पद्‌मविभूषण आदि दिलाने के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार से बार-बार संपर्क किया। फ़िलहाल शमशाद बेगम पद्म सम्मान लेकर वापस अपनी बेटी ऊषा रात्रा के साथ मुम्बई में रह रही हैं।


Sunday, April 19, 2009

किताबों में क्रांति

अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के डेढ सौ साल का जश्न देशभर में मनाया गया । दिल्ली में राष्टीय स्तर के कई भव्य आयोजन एवं इसको लेकर कई गोष्ठियां भी आयोजित की गई, जहां विद्वानों ने जमकर बहस- मुबाहिसे किए ।  अखबारों और पत्रिकाओं ने अपने कई पन्ने आजादी की पहली लड़ाई को समर्पित किए । पत्र पत्रिकाओं के अलावा इस मौके पर कई किताबें भी प्रकाशित हुई । लेकिन किताबों के प्रकाशन में भी एक बार फिर से हिंदी प्रकाशन जगत अंग्रेजी से पिछड़ता नजर आया । जिस तरह से अंग्रेजी के प्रकाशकों ने योजनाबद्ध तरीके से भारतीय स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के विभिन्न पहुलुओं पर किताबें प्रकाशित की वो काबिले तारीफ है । हिंदी में भी कई किताबें प्रकाशित हुई लेकिन इसमें लेखकीय प्रयास ज्यादा, प्रकाशकीय परिश्रम कम नजर आया । जब मैंने अंग्रेजी के लेखकों और प्रकाशकों से बात की तो पता चला कि तीन चार साल पहले से ही आजादी की 150 वीं सालगिरह को ध्यान में रखकर योजनाएं तैयार की हुई थी और बकायदा लेखकों को प्रोजेक्ट सौंप कर किताबें लिखवाई गई । इसका परिणाम ये हुआ कि जब पूरा देश आजादी की इस पहली लड़ाई की सालगिरह का जश्न मना रहा था और देश भर की पत्रिकाओं और अखबरों में  इसकी चर्चा हो रही थी तो अंग्रेजी में एक के बाद एक धड़ाधड़ किताबें प्रकाशित हो रही थी । इसका व्यावसायिक फायदा भी अंग्रेजी प्रकाशन व्यवसाय को हुआ । अपने इस लेख में हम अंग्रेजी और हिंदी में वर्ष दो हजार सात-आठ में 1857 की क्रांति पर प्रकाशित पुस्तकों पर विचार करेंगे । इस क्रम में पहले बात अंग्रेजी में प्रकाशित किताबों की । 
आजादी की एक सौ पचासवीं सालगिरह पर जो सबसे महत्वपूर्ण किताब आई वो है विलियम डेलरिंपल की - "द लास्ट मुगल,द फॉल ऑफ अ डायनेस्टी, दिल्ली 1857" (पेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली) । अंग्रेज लेखकों ने भारत के इतिहास को लिखते हुए आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर को लगभग नजरअंदाज कर दिया है । कई अंग्रेज लेखकों ने तो बहादुर शाह जफर को सिर्फ दिल्ली का राजा तक लिखा डाला है । ये तो उस तरह की ही बात हुई कि पोप को रोम का बिशप कह दिया जाए ।  लेकिन विलियम डेलरिंपल ने बहादुरशाह जफर को केंद्र में रखकर मेहनतपूर्वक उस दौर की तमाम गतिविधियों को कलमबद्ध किया है । विलियम डेलरिंपल ने-' द लास्ट मुगल,द फॉल ऑफ अ डायनेस्टी' में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शुरु होने और उसके अंजाम तक पहुंचने को आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह जफर के इर्द गिर्द रखकर परखने की कोशिश की है । विलियम डेलरिंपल ने भारतीय विरोध और विद्रोह के कई अनछुए पहलुओं को सिलसिलेवार ढंग से, व्यापक शोध के आधार पर व्याख्यायित किया है, जिसे पहले के अंग्रेज इतिहासकारों ने या तो असावधानीवश या फिर सायास छोड़ दिया था । अपनी इस किताब में विलियम डेलरिंपल ने दावा किया है उन्होंने तथ्यों को जुटाने में भारतीय पुरात्तव संग्रहालय और बर्मा के राष्ट्रीय संग्रहालय के दस्तावेजों की मदद से उस दौर के इतिहास को नए सिरे से उद्घाटित किया है लेकिन कई भारतीय इतिहासकारों को डेलरिंपल की दिल्ली की घटनाओं की व्याख्या पर ऐतराज भी है ।
पेंग्विन प्रकाशन से ही जूलियन रॉथबॉन की 'द म्यूटिनी-अ नॉवेल' प्रकाशित हुआ । अपने इस ऐतिहासिक उपन्यास में लेखक ने उस दौर में इंगलैंड से भारत आई एक जवान और बेहद खूबसूरत महिला सोफी -जो अपने दुधमुंहे बच्चे को लेकर भारत आई थी - और गदर की हिंसा में फंस गई थी - को केंद्र में रखकर बेहद मार्मिक कहानी लिखी है । दोनों पक्षों के बीच की हिंसा में सोफी का बच्चा कहीं गुम हो जाता है । उस बेहद भयावह दौर में अपने बच्चे को ढूंढने का प्रयास करती दर दर भटकती सोफी की कहानी है इस उपन्यास में । इस क्रम में सोफी गवाह बनती है भारतीय जनता और ब्रिटिश सिपाहियों की लडाई में एक दूसरे को नेस्तानाबूद कर डालने की हद तक की घृणा की । रॉथबॉन, सोफी की इस कहानी को एक व्यापक फलक के साथ उठाते हैं । ये कृति विक्टोरियन एडवेंचर स्टोरी की तरह है, जिसमें लेखक ने उस दौर में जनता और राज के बीच फैली धर्मांधता को लेखकीय कसौटी पर कसा है । इसमें लेखक ने कई बेहद छोटे व्यक्तिगत अनुभवों को इस करीने से पिरोया है कि इसे पढ़ते वक्त पाठकों को लगता है कि सारी घटनाएं उनके सामने घटित हो रही है । 
1857 की घटनाओं के साथ दो धाराएं चलती हैं - एक धारा वो है जो उसे महज सिपाही विद्रोह बताते हैं और दूसरी वो जो इसे भारतीय स्वाधीनता संग्राम का आगाज मानते हैं । 1857 के लगभग डेढ सौ साल से भी ज्यादा बीत जाने के बाद भी ये बहस जारी है कि 1857 में जो हुआ वो क्या था- सिपाही विद्रोह, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या फिर सिपाहियों का राज के खिलाफ स्वत: स्फूर्त भड़का गुस्सा । इसपर इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है, इसका परिणाय ये हुआ कि उस विषय पर प्रचुर मात्रा में सामग्री उपलब्ध है । 'द पेंग्विन -1857 रीडर' इस ऐतिहासिक घटना को भारतीय, यूरोपीय, अमेरिकन, और ब्रिटिश अखबारों और पत्रिकाओं में उस दौर में बारे में जो कुछ लिखा छपा था, उसका दस्तावेजीकरण है । इसका संपादन-संकलन प्रमोद नायर ने किया है । ये संकलन इस लिहाज से अहम है कि इसमें उस दौर की घटनाओं को अपनी आंखों से देखनेवाले लोगों की टिप्पणियां भी संकलित की गई हैं । व्यक्तिगत अनुभवों के अलावा कार्ल मार्क्स, लॉर्ड मैकाले के विचारों भी यहां हैं । मिर्जा गालिब की डायरी के वो अहम अंश भी है जिसमें बहादुर शाह जफर के मुकदमे के ट्रायल का विवरण है । इस किताब की भूमिका में विश्व इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना के कई आयामों को पकड़ने की कोशिश की गई है । 
प्रमोद नायर की ही दूसरी किताब - 'द ग्रेट अपराइजिंग' भी मई दो हजार सात में प्रकाशित हुई । इस किताब में नायर ने 1857 की क्रांति के दौर में विद्रोह और उसको दबाने के ब्रिटिश राज के नृशंस तौर तरीकों पर विस्तार से लिखा है । इसमें 1857 के दौर के मुख्य किरदारों - हेनरी लॉरेंस, लॉर्ड कैनिंग, नाना साहिब, लक्ष्मीबाई, जॉन निकोलसन, के साथ साथ बहादुर शाह जफर के कारनामों का जिक्र है । इस किताब में प्रमोद नायर ने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ साथ उस दौर की साहित्यिक कृतियों से भी सामग्री लेकर गंभीरता पूर्वक विचार किया है । इस किताब के आखिर में ये भी बताया गया है कि किस तरह से 1857 की क्रांति ने यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया । 
पिछले वर्ष रुद्रांग्सु मुखर्जी की लगभग ढाई सौ पृष्टों की किताब- स्पेक्ट्रम ऑफ वायलेंस - भी छपकर आई । इस किताब में 27 जून 1857 को कानपुर के सत्तीचुरा घाट पर लगभग तीन सौ ब्रिटिश लोगों के मारे जाने के कारणों की तह में जाने की कोशिश की गई है । ब्रिटिश इतिहासकारों के मुताबिक इस सामूहिक हत्याकांड में बच गए लोगों को 15 जुलाई को बीबीघर के पास कत्ल कर दिया गया । कहा जाता है कि जब विद्रोहियों ने कानपुर पर कब्जा किया तो ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों को जलमार्ग से वाया भागलपुर, कलकत्ता भेजने की योजना के तहत जहाज से रवाना किया गया । लेकिन विद्रोही वहां पहुंचकर मरने मारने पर उतारू हो गए । लेकिन निहत्थे महिलाओं और बच्चों को देखकर उनपर हमला करने को लेकर विद्रोही दो गुटों में बंट गए । लेकिन कुछ विद्रोहियों ने आगे बढ़कर हमले की कमान संभाली । उनका तर्क ये था कि उनपर बर्बरता की हद तक अत्याचार तो ये महिलाएं ही करती हैं । कालांतर में सत्तीचूरा का ये घाट मैसेकर घाट के नाम से जाना गया । ब्रिटिश इतिहासकार इस कत्लेआम पर तो जमकर टसुए बहाते नजर आते हैं, लेकिन वो जनरल हॉवलॉक के अत्याचारों को नजरअंदाज कर देते हैं । दो दिन बाद ही जनरल हॉवलॉक और कर्नल जोम्स नील के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने फिर से कानपुर पर कब्जा कर लिया और आम जनता पर इतने अत्याचार किए कि नाजियों की रूह भी कांप जाए । मुखर्जी ने विद्रोहियों में हिंसा पर उतारू होने की प्रवृति को भी परखने का प्रयास किया । लेखक के मुताबिक इस हिंसा से संबंधित विद्रोहियों का कोई पक्ष उपलब्ध नहीं है । जो उपलब्ध है वो है ब्रिटिश नागरिकों के बयान और सरकारी दस्तावेज । तो इस एकतरफा बयानों और दस्तावेजों के आधार पर इतिहास बनाने की कोशिशों को 'स्पेक्ट्रम ऑफ वायलेंस' रोकता है और ब्रिटिश इतिहासकारों को हिंसा के कारणों को फिर से परिभाषित करने की चुनौती भी देता है । 
रूपा एंड कं. से पत्रकार और लेखक अमरेश मिश्रा की दो खंडों में भारी भरकम ग्रंथ- वॉर ऑफ सिविलाइजेशन-  भी प्रकाशित हुआ । अमरेश इसके पहले भी मंगल पांडे और लखनऊ पर किताब लिककर 1857 में अपनी रुचि का संकेत दे चुके हैं । अमरेश ने अपनी इस किताब में 1857 की क्रांति को दो सभ्यताओं की लड़ाई बताया है । साथ ही लेखक का जोर इस बात पर भी है कि ये भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था । दो हजार पृष्ठों की इस किताब में अमरेश लगातार पश्चिमी इतिहासकारों की इस अवधारणा- कि ये सिपाही विद्रोह था- को निगेट करते चलते हैं । हलांकि ये कोई नई बात या नई प्रस्थापना नहीं है । लेखक इस किताब में भारत में जातिवाद और संप्रदायवाद की खाई बढाने के लिए उस दौर के अंग्रेजी शासनकाल को भी जिम्मेदार ठहराते हैं । उनका कहना है कि अंग्रेजों के आने के बाद न केवल विभिन्न जातियों बल्कि समुदायों के बीच वैमनस्यता बढी । जो एक बड़ी बात अमरेश अपनी इस किताब में उठाते हैं, वो ये है कि उस दौर में 1 करोड़ से ज्यादा लोग सिर्फ उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा में मारे गए थे । अमरेश अपने इस निष्कर्ष के लिए उस दौर के लेबर रिपोर्ट्स को आधार बनाते हैं । अमरेश की इस किताब में कई नई बातें हैं जो आनेवाले दिनों में बहस के लिए एक आधार प्रदान करती है । अंग्रेजी के प्रसिद्ध अखबार गार्डियन में इस किताब की समीक्षा के बाद ब्रिटिश इतिहासकारों और लेखकों के बीच बहस की नई जंग के आगाज के संकेत मिलने लगे हैं । क्योंकि मिश्रा ने 1857 के विद्रोह को दबाने के लिए जो कत्लेआम ब्रटिश फौजियों ने किया उसे दुनिया का पहला नरसंहार करार दिया है । 
रोली बुक्स ने भी क्रिकेट इतिहासकार बोरिया मजुमदार और शर्मिष्ठा गुप्तू के संपादन में - रिविजिटिंग 1857, मिथ, मेमेरी, हिस्ट्री का प्रकाशन किया । इसमें कई दिलचस्प लेख संकलित हैं । इस किताब की जो बेहद दिलचस्प बात है वो ये कि 1857 में हुई क्रांति को भारतीय सिपाहियों और ब्रिटिश अफसरों के बीच उस दौर में हुए क्रिकेट मैचों के द्वारा परखने की कोशिश की है । इस तरह से ये किताब एक बिल्कुल ही अलग चश्मे से 1857 की क्रांति को देखता है । 
'डेटलाइन 1857- रिवोल्ट अगेंस्ट द राज' प्रमोद कपूर और रुद्रांग्सु मुखर्जी के संपादन में एक अद्भुत संकलन है । इस पुस्तक में बैरकपुर से लेकर झांसी तक की क्रांति की दास्तां दर्ज है । एक सौ चवालीस पृष्ठ की इस किताब में भी लेखों के अलावा कई महत्वपूर्ण मानचित्र, क्रांति के छह प्रमुख फोटोग्राफ, तबाही के कई चित्र हैं । ये वो चित्र या फोटोग्राफ जो बाद के दिनों में भी स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एकजुट करने में मददगार साबित हुए । प्रमोद कपूर ने इस किताब में श्रमपूर्वक तस्वीरों को इकट्ठा किया है । जो तस्वीर सुलभ नहीं हो सकी उसकी भारपाई उस दिन के अखबार की कटिंग को संकलित कर किया गया है । इस किताब को पढ़ते हुए पाठकों को उस दौर की सामाजिक हलतल का भी अंदाजा मिलता है । अंग्रेजी में इसके अलावा भी कई किताबें आईं लेकिन सबको समेटना नामुमकिन है । लेकिन उपरोक्त किताबें महत्वपूर्ण हैं और इनके चयन के समय मेरे जेहन में ये बात थी ऐसी कृतियों को ही चुनुं जो कि कुछ नए तथ्य या नई प्रस्थापनाएं लेकर आई हों । इसका ये मतलब कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि अन्य प्रकाशित किताबों में कुछ नया नहीं है । 
एक ओर जहां अंग्रेजी में योजनाबद्ध तरीके से 1857 की क्रांति की 150वीं सालगिरह पर काम हुआ वहीं हिंदी में बेहद ही एडहॉक तरीका अपनाया गया । हो सकता है कि हिंदी के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों को मेरी ये बात बुरी लगे लेकिन हकीकत यही है । क्योंकि अंग्रेजी के बरक्स अगर आप हिंदी में प्रकाशित कृतियों को देखें तो ये बात साफ-साफ नजर आती है । हिंदी में 1857 की क्रांति की डेढ सौवीं सालगिरह के मौके पर कई पत्रिकाओं ने अपने अंक केंद्रित किए। सबसे पहले नागपुर से प्रकाशित होनेवाले 'लोकमत समाचार' ने 2006 के अपने दीवाली विशेषांको को 1857 पर केंद्रित किया, जिसका संपादन प्रकाश चंद्रायन ने किया । इसमें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम का लेख बेहद दिलचस्प और जानकारीपूर्ण है । विनोद अनुपम ने फिल्मों में 1857 पर श्रमपूर्व लिखकर कई तथ्यों को सामने लाने का काम किया है । यहां भी पत्रिकाओं ने प्रकाशकों से बाजी मार ली । जिन पत्रिकाओं ने अपने अंक केंद्रित किए उनमें - समयांतर( संपादक - पंकज बिष्ठ), उदभावना ( संपादक -अजेय कुमार), नया पथ( संपादन- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी), वर्तमान साहित्य( संपादक- कुंबरपाल सिंह) । लेकिन आश्चर्यजनक रूप से बिहार सरकार की पत्रिका- बिहार समाचार- ने भी अपना एक अंक 1857 पर केंद्रित किया । इस अंक में पीर अली की कहानी विलियम टेलर की जुबानी को देखकर अच्छा लगा । इसके अलावा इस अंक में श्रीकांत और प्रेम कुमार मणि के लेख भी महत्वपूर्ण हैं । उद्भभावना का अंक तो बाद में - 1857 निरंतरता और परिवर्तन- के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुआ । पत्रिकाओं के अलावा अखबारों ने भी 1857 पर सीरीज छापी । लेकिन दिल्ली से प्रकाशित 'दैनिक हिंदुस्तान' ने तो गदर के 150 साल पर महीनों तक, हर सप्ताह एक पूरा पृष्ठ छापा । इन पन्नों पर 1857 से संबंधित कई महत्वपूर्ण दस्तावेज तो छपे ही , जमकर विचार विमर्श भी हुआ। मुझे नहीं पता कि इसमें किसने पहल की लेकिन चाहे जिसने भी इसकी परिकल्पना की वो बधाई के पात्र हैं । 
सामयिक प्रकाशन दिल्ली से आदित्य अवस्थी की किताब - दिल्ली क्रांति के 150 वर्ष- प्रकाशित हुआ । आदित्य अवस्थी पेशे से पत्रकार हैं और अपनी इस शोधपरक किताब में उन्होंने दिल्ली को केंद्र में रखकर 1857 की क्रांति पर विचार किया है । उस दौर में दिल्ली के किन मुहल्लों में क्रांति की चिंगारी फूटी थी, का विस्तारपूर्वक वर्णन इसमें है । दिल्ली के लिहाज से ये किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहां के बाशिदों को अपने शहर के गौरवशाली इतिहास की जानकारी उन्हें मिल सकती है वो भी डिटेल में । मधुकर उपाध्याय ने भी मराठी में प्रकाशित 'मांझा प्रवास' का हिंदी अनुवाद किया वो इस लिहाज से अहम है कि इसमें 1857 के विद्रोह को अंग्रेजी मानसिकता से इतर आम जनता की नजर से देखा गया है । 
राजकमल प्रकाशन से श्रीकांत और वसंत चौधरी की किताब -बिहार में 1857- प्रकाशित हुई । इसमे बिहार के प्रत्येक जिले में उस दौर में क्या हुआ था का सिलसिलेवार विवरण है । व्यापक शोध और श्रम इस किताब में सहज ही परिलक्षित की जा सकती है । इसके अलावा पेंग्विन हिंदी ने भी -गदर के 150 साल- का प्रकाशन किया । इसमें पीसी जोशी, हीरालाल बछोरिया के लेख महत्वपूर्ण हैं । इसके अलावा भी लगभग दर्जभर किताबें विश्व पुस्त मेले के दौरान देखने को मिली लेकिन उसमें शम्सुल इस्लाम के संपादन में वाणी से प्रकाशित किताब '1857 के दस्तावेज' अहम है । इसके अलावा अनामिका प्रकाशन से कर्मेंदु शिशिर की किताब- 1857 की राज्य क्रांति , विश्लेषण और विचार- भी प्रकाशित हुई । 
अगर मैं इस लेख में मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग द्वारा प्रकाशित किताबों का जिक्र न करूं तो ये अधूरा रह जाएगा । पुरातत्व विभाग ने पंकज राग और गीता सबरवाल के संपादन में कई किताबें अंग्रेजी और हिंदी में छापीं । 'द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस- डॉक्यूमेंट्स ऑफ जबलपुर एंड मांडला' तो अंग्रेजी में प्रकाशित की गई । इसके अलावा 1857 - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम खंड 2 -हिंदी में है । इसमें उस दौर के बुंदेली अभिलेख तो हैं ही उसके जरिए क्रांति के सूत्रों को पकड़ने की कोशिश भी है । 1857 - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम खंड-3 भी हिंदी में ही है । इसमें उर्दू और फारसी के अभिलेख हैं,इसका संपादन भी पंकज राग और गीता सबरवाल ने किया है लेकिन अनुवादक हैं हाशिम अल सादिक और मुमताज खान । इसके अलावा पंकज राग की किताब 'रेलिक्स ऑफ 1857'  भी अहम है । इसमें मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों - मंदसौर,नीमच, झाबुआ, सिहोर, भोपाल, विदिशा, बैतूल, सागर में मौजूद शिलालेखों में क्या लिखा है, इसको इकट्ठा कर विश्लेषित किया गया है । इन किताबों का जिक्र अलग से इसलिए किया कि ये सरकारी प्रयासों से छपी है।
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Friday, April 17, 2009

लेखकों के मरने का इंतजार करते लेखक संगठन !

पिछले कुछ वर्षों से लेखकों की सामाजिक भूमिका लगभग खत्म हो गई है । कहीं से भी ये लगता ही नहीं है कि लेखकों का समाज से कोई जुड़ाव भी है । किसी भी बड़े सामाजिक प्रश्न पर इनकी एकजुटता नजर नहीं आती है । वे छोटे-छोटे गुटों में बनाई अपनी ही दुनिया में संतुष्ट नजर आते हैं, जबकि साहित्य और संस्कृति के सामने संकट गहराता जा रहा है । लेखकों की सामाजिक सक्रियता को लेकर लेखक संगठों की स्थापना की गई थी । कहने को तो आज हिंदी में तीन लेखक संगठन हैं और ये तीनों अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टियों से संबद्ध हैं । प्रगति लेखक संघ, सीपीआई से , जनवादी लेखक संघ, सीपीएम से और जन संस्कृति मंच, सीपीआई-एमएल से । लेकिन ये संगठन इन पार्टियों के पिछलग्गू ही साबित हो रहे हैं । जब सन 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई थी तो दो दशकों तक इसने सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से लेखकों को जोड़कर गंभीरता से काम किया लेकिन समय बीतने के साथ ये संगठन कमजोर होता गया और आज तो हालत ये है कि कुछ शहरों को छोड़ दें तो ये लगभग मृतप्राय है । यही हाल जलेस और जसम का भी है । अब तो ये तक पता नहीं चलता है कि इनके अध्यक्ष और सचिव कौन हैं । इन संगठनों का पता तब चलता है जब किसी लेखक की मृत्यु होती है । इसके बाद लेखक संगठन एक शोकसभा का आयोजन करते हैं और उसमें मर्सिया पढकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं । यह सही और दुखद है कि लेखक लोग या तो किसी शोकसभा में मिलते हैं या पुस्तक विमोचन के अवसर पर । मुद्दों को लेकर लेखकों ने आपस में मिलना बंद कर दिया है ।
दूसरी सबसे शर्मनाक बात ये है कि इन लेखक संगठनों को किसी लेखक के मरने के बाद ही ही उसकी महत्ता समझ में आती है । लेखक के जीवित रहते ये संगठन लेखकों की रचनाओं पर कुछ भी करने से कतराते रहते हैं लेकिन उनके मरते ही उसे महान तथा उसकी रचनाओं को बेहद अहम बताने लग जाते हैं । इससे लगता तो ये है कि ये लेखक संगठन लेखकों की मरने की प्रतीक्षा कर रहा होता है । पिछले दिनों हिंदी के कवि सुदीप बनर्जी का निधन हुआ और तामम संगठनों के बीच उन्हें महान साबित करने की होड़ लग गई लेकिन मुझे नहीं याद कि उनके जीवित रहते किसी भी संगठन ने कोई मग्तवपूर्ण कार्यक्रम सुदीप बनर्जी पर आयोजित किया ।
कई साल पहले हिंदी के एक वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने एक बातचीत में कहा था कि लेखक संगठन लेखकों के यूनियन नहीं है जो कॉपीराइट आदि के मुद्दे पर संघर्ष करें । उनका मानना था कि ये वैचारिक संगठन हैं जिनका काम साहित्य की दुनिया में वैचारिक संवेदना का प्रचार करना है । अगर मंगलेश की बातों को मान भी लिया जाए तो सवाल ये उठता है कि वैचारिक संवेदना के प्रचार के लिए भी लेखक संगठन क्या कर रहे हैं ?
आज जरूरत इन लेखक संगठों की भूमिका पर पुन्रविचार की है । इन संगठनों की निष्क्रियता के पीछे वामपंथी राजनीति की हिम्मतपरस्ती और अवसरवादिता की राजनीति है । लेखको के बीच भी पद और पुरस्तार पाने की लोलुपता बढ़ती जा रही है । वैचारिकता पर अवसरवादिता हावी हो गई है । तमाम लेखक इस दंद-फंद में जुटे रहते हैं कि किस संगठन से जुड़कर उन्हें लाभ हो सकता है और ये तय करते ही वो उन संगठनों से जुड़कर साहित्यिक मठाधीशों का आशीर्वाद प्राप्त कर लेता है । सच तो ये है कि इन दिनों लेखक संगठनों से न तो कोई उर्जा प्राप्त कर पा रहे हैं और न ही कोई वैचारिक दिशा ।
लेखक संगठनों का इतना बुरा हाल है कि वो अपने ही साथी लेखकों के हित के लिए कुछ बी नहीं कर पा रहा है । कॉपीराइट हिंदी में लेखकों के लिए आज एक बड़ा मु्दा है और तमाम लेखक इसके शिकायत हो रहे हैं । लगातार प्रकाशकों द्वारा लेखकों के शोषण की बात सामने आती रहती है लेकिन आजतक लेखक संगठनों ने इस शोषण के खिलाफ कोई ठोस आवाज नहीं उठाई है, आंदोनल की बात तो दूर । इसके अलावा भी की मुद्दे हैं जिनपर लेखक संगठनों की खोमोशी चिंतनीय है ।
दरअसल अब प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, और जन संसकृति मंच को आपसी भेदभाव भुलाकर साथ आकर एक नया सांस्कृतिक और साझा मंच बनाना चाहिए और लेखकों की मर्सिया पढ़ना बंद कर उनके जीवित रहते उनको उनका देय दिलाने के लिए प्रयास करना चाहिए तभी साहित्या का भी भला होगा और साहित्यकारों का भी । अन्यथा लेखक संघ अपने ही साथियों के मरने का इंतजार करनेवाला संगठन बनकर रह जाएगा ।

Sunday, April 12, 2009

जूता, कांग्रेस और अपराध बोध

पत्रकार जरनैल के जूते ने जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार का टिकट कटवा दिया । इस बारे में अपनी राय रख रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार प्रभात शुंगलू
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नेता और जूता। क्या नेताओं को जूते की भाषा में तौला जायेगा। जो जरनैल ने किया वो कतई अशोभनीय था। पत्रकार की पहचान जूता नहीं कलम है। जरनैल अपने इमोशन पर काबू नहीं ऱख पाये इस पर उन्होने खेद भी जताया। 

जरनैल का ये जूता चिदंबरम को भले न लगा हो मगर जनता भांप गयी जूता किस पर फेंका गया था। जूता चिदंबरम पर नहीं कांग्रेस की उस राजनीतिक सोच पर फेंका गया था जिसके तहत वो कुछ ऐसे लोगों को पाल पोस रही थी जिनपर 25 साल पहले दिल्ली में सिखों के खिलाफ दंगे भड़काने का आरोप लगा। 1984 के अक्टूबर नवंबर के उन चार दिनों में दिल्ली की सड़कों पर 3000 से ज्यादा लाशे बिछीं थीं। कत्लेआम का ऐसा घिनौना रूप की इसकी दर्दनाक कहानी जल्लाद बैतुल्ला महसूद भी सुने तो शर्मसार हो उठे।

सवाल ये उठता है कि चुनाव के ऐन वक्त सरकार के हाथ की कठपुतली कहे जानी वाली सीबीआई ने टाइटलर को क्लीन चिट क्यों दिया। आखिर कांग्रेस को टाइटलर को बचाने की क्या जरूरत आन पड़ी। मोदी की राजनीति को गरियाने वाली कांग्रेस, अपने आप को सेक्यूलरिज्म का चौकीदार बताने वाली कांग्रेस,  वरूण के जहरीले बयान पर गीता का पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस को आखिर जगदीश टाइटलर को टिकट देने की क्या जरूरत पड़ गयी थी। सीबीआई के क्लीन चिट देने से क्या सिखों के दिलो-दिमाग से वो तस्वीरें पोछी जा सकती हैं जो वो अपने जहन में आरकाइव कर चुके हैं। 

टाइटलर पर जब 2005 में दोबारा सिख विरोधी दंगो का मुकद्दमा खुला तो मनमोहन मंत्रिमंडल से उन्हे इस्तीफा देना पड़ा था। सीबीआई ने भले ही उन्हे क्लीन चिट दे दी हो मगर उनके खिलाफ दिल्ली की अदालत में आज भी मुकद्दमा चल रहा है। तो क्या इस देश में अब सीबीआई तय करेगी कौन अपराधी है और कौन निर्दोष। इसका मतलब जब सोनिया गांधी सीबीआई चलायेंगी तो वो तय करेंगी टाइटलर निर्दोष हैं और जब आडवाणी चलायेंगे तो वो कहेंगे माया कोडनानी निर्दोष हैं। लोकतंत्र का स्तंभ कहे जाने वाली ज्यूडिशियरी फिर क्या करेगी। दस जनपथ और 7 रेसकोर्स रोड में आने जाने वालों की प्रेस विज्ञप्ति जारी करेगी। 

कांग्रेस ने मनमोहन को प्रधानमंत्री बना कर किसी हद तक अपनी गिल्ट फीलिंग पर काबू पा लिया था। मनमोहन सिंह ने संसद में 1984  के सिख विरोधी दंगो को 'नेश्नल शेम' करार दिया था। मगर हाई कमांड सोनिया बस अफसोस जता कर रह गयीं। दिल में सज्जन कुमार और टाइटलर की फांस कहीं न कहीं उसे इस अपराध बोध से उबरने में रूकावटें भी डाल रही थी। तो एक को जब अदालत ने बरी कर दिया तो उसे टिकट थमा दिया तो दूसरे को खुद ही दोष मुक्त बता दिया। ताकि पार्टी के अपराध बोध को किरपाण के एक झटके में खत्म कर दिया जाये और कांग्रेस फिर से सीना तान के अपनी राजनीतिक रोटी सेंके।

लेकिन कांग्रेस का ये अपराध बोध विरासत में मिला है। कांग्रेस पर एक हिंदुवादी पार्टी होने का आरोप पार्टी के जन्म के समय से ही लगता रहा है। मुस्लिम लीग के जन्म की एक वजह कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व था। बाल गंगाधर तिलक हों या लाला लाजपत राय। तिलक मंदिर में आरती कराकर लोगों ( इसे हिंदुओं पढ़िये ) को अंग्रेजो के खिलाफ गोलबंद करते थें तो नेहरू 1939 के चुनाव में मुस्लिम लीग से सरकार में भागीदारी पर कन्नी काट लेते हैं। महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर बैन लगाते हैं और चीन युद्ध के बाद आरएसएस को गणतंत्र दिवस की परेड में शिरकत करने का न्योता देते हैं। नेहरू 1949 में अयोध्या में राम लला की मूर्ति स्थापित करवाते है और लगभग चालीस साल बाद उनके नाती राजीव  अयोध्या मंदिर के ताले खुलवाकर अपने हिंदुत्व का प्रमाण पेश करते हैं। पुरषोत्तम दास टंडन हों या इंदिरा गांधी। देश में कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में अनगिनत देंगे हों या असम में 1983 के अख्लियतों की हत्यायें। मेरठ हो या मुरादाबाद के दंगे। अयोध्या में मस्जिद गिराये जाते समय नरसिंह राव का नीरो की तर्ज पर सोते रहना भी सॉफ्ट हिंदुत्व की कैटिगरी में ही तो आयेगा। और फिर चाहे वो 1984 का दिल्ली हो या कानपुर। 

इंदिरा ने भिंदरनवाले को पाल पोस कर फ्रैन्किस्टीन न बनाया होता तो ऑप्रेशन ब्लू स्टार की नौबत न आती। भिंद्रनवाले ने पंजाब में मार काट मचाये रखी मगर केन्द्र की इंदिरा सरकार सोती रही। हिंदु कार्ड भी खेला और अकालियों को सबक सिखाने की अपनी जिद भी पूरी की। इंदिरा के लिये ये जानलेवा साबित हुया। हिंदु मुस्लिम रिश्तों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा।

और फिर जो राजीव नें तब बोला क्या वो सेक्यूलर  भाषा थी - जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती कांप उठती है। यानि जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और हरकिशन लाल भगत के खिलाफ सिखों के खिलाफ देंगा भड़काने के जो आरोप लगे, वो गलत थे ? देश में दर्जन भर कमीशनों ने 84 दंगों की तफ्तीश की क्या वो हवा में थी। चलो राजीव तो राजनीति में नये थे तो क्या उनकी सॉफ्ट हिंदुत्व की कांग्रेसी 'कोटरी'  ने उन्हे ये बयान जारी करने की मुगली घुट्टी पिलायी थी। अल्लाह जाने। 

लेकिन जरनैल के जूता कांड से पंजाब से लेकर दिल्ली और जम्मू तक सिखों के प्रदर्शन उग्र होने लगे। तब कांग्रेस को लगा शायद टाइटलर और सज्जन को टिकट देकर गल्ती हो गयी। इन राज्यो में करीब 20-25 सीटों पर सिख वोटर पार्टी की किस्मत तय कर सकते हैं। इसलिये कांग्रेस का अपराध बोध ने एक बार फिर उसका गिरेबान पकड़ कर कहा अब बच के कहां जाओगे बच्चू। इस अपराध बोध से बच निकलने का एक ही रास्ता दिखा। पब्लिक ने कहा ना तो ना। पब्लिक परसेप्शन के आगे झुकना पड़ा। क्योंकि सवाल तो है ज्यादा लाओगे तो ज्यादा पाओगे। गद्दी भी तो बचानी है। 

कांग्रेस के अपराध बोध का एक हाथ उसके गिरेबान पर था तो उसके दूसरे हाथ में जूता था। जरनैल वाला नहीं। ये जूता पब्लिक परसेप्शन का था। ये जूता बड़ा सेक्यूलर है। ये जूता जनता जनार्दन के कान्शेन्स का है। जो सिर्फ उसपर पड़ता है जो राजनीति के नाम पर समाज को बांटता है। 


Thursday, April 9, 2009

हिंदी साहित्य का राग 'कुलपति'

28 मार्च को दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा की तीन पत्रिकाओं का पुनर्जीवन समारोह हुआ । नए संपादकों के साथ तीन पुरानी पत्रिकाओं- बहुबचन (संपादक- राजेन्द्र कुमार), हिंदी ( संपादक- ममता कालिया) और पुस्तक वार्ता ( संपादक- भारत भारद्वाज) का विमोचन समारोह बेहद सफल रहा । त्रिवेणी सभागार श्रोताओं से खचाखच भरा था और लोग सीढियों पर बैठे थे और मंच पर हिंदी साहित्य की तीन विभूतियों- नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी के साथ श्रद्धेय कवि कुंवर नाराय़ण और कुलपति विभूति नारायण राय थे । लेकिन असली किस्सा तो समारोह शुरू होने के पहले और बाद का है । समारोह के पहले हर छोटे-बड़े साहित्यकार के बीच कुलपति महोदय के चरणों की धूल लेकर अपने को धन्य करने की होड़ सी मची थी । कुलपति के सामने हाजिरी बजाने की हड़बड़ी में एक वरिष्ठ कवि ये भी भूल गए कि आसपास भी लोग खड़े हैं । उन्होंने तो सरेआम अपने से उम्र में छोटे कुलपति के से कहा कि मुझ गरीब पर कृपा-दृष्टि बनाए रखिए । उनके बात करने का जो अंदाज था वो चापलूसी की सारी हदें तोड़ रहा था । याचक का ये अंदाज सिर्फ इन वरिष्ठ कवि का ही नहीं बल्कि वहां मौजूद कई साहित्यकारों का था जो कुलपति से आशीर्वाद लेने के लिए लाइन में खड़े थे । 
दरअसल कुलपति के इर्द गिर्द ये जमावड़ा सिर्फ उस दिन नहीं लगा था, ये हालत तो तब से हो गई है जबसे उन्होंने विश्वविद्यालय का कार्यभार संभाला है । लेकिन ये शर्मनाक स्थिति सतह के उपर जितनी दिखाई देती है, सतह के नीचे उससे कहीं ज्यादा शर्मनाक है । हर छोटा बड़ा साहित्यकार विभूति नारायण राय के पीछे पड़ा है- कोई चाहता है कि विश्वविद्यालय उसे प्रमुख साहित्यकारों पर फिल्म बनाने का ठेका दे दे, किसी की ख्वाहिश है कि संचयिता के संपादन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी जाए, कोई विश्वकोष का प्रस्ताव लिए दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, कोई चाह रहा है कि विश्वविद्यालय द्वारा खरीदी जानेवाली पत्रिकाओं में उसकी पत्रिका का भी नाम डाल दिया जाए,  हद तो ये हो गई कि विभूति नाराय़ण राय को कुलपति की दौड़ से बाहर करार देने वाला तथा अखबार में लेख लिखने के एवज में महिला लेखिकाओं से 'फेवर' मांगनेवाला एक पत्रकार मीडिया सेंटर में निदेशक बनने के लिए अपना बायोडाटा लिए गणेश परिक्रमा कर रहा था । और एक बेहद चतुर अधिकारी की तरह कुलपति हर किसी को विश्वविद्यालय मुख्यालय वर्धा आने का न्योता दे रहे थे । इस वजह से सबकी आकांक्षाएं हिलोरे ले रही थी । 
इस पूरे किस्से को बयां करने के पीछे हिंदी के साहित्याकारों की याचक मानसिकता को उजागर करना है । दरअसल आज हिंदी साहित्य की स्थिति इतनी शर्मनाक हो गई है कि जहां भी साहित्यकारों को कुछ लाभ दिखाई देता है वहीं वो हाथ फैलाए खड़े नजर आते हैं । सारे आदर्श और ज्ञान सिर्फ लेखन तक सिमटकर रह गए हैं । जब भी अपनी बारी आती है तो सारे आदर्श और सिद्धांत ताक पर रख दिए जाते हैं । एक जमाने में जब अशोक वाजपेय़ी इस विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो एक वरिष्ठ आलोचक ने उन्हें समकाली कविता का प्रमुख हस्ताक्षर करार दे दिया जबकि यही आलोचक महोदय वाजपेयी को पतनोन्मुख परंपरा के सबसे सशक्त और खूबसूरत हस्ताक्षर बताते नहीं थकते थे । उन्हें कलावादी बताकर उनके लेखन को कारिज कर दिया करते थे । ये अलग बात है कि बाद में उन्हीं आलोचक को विश्विविद्यालय के संचयिता का संपादन मिला। ये हाल तो शीर्ष आलोचक का था तो बाकिय़ों की तो छोड़िए । 
मेरे कहने का आशय ये है कि हिंदी के लेखकों से जिस तरह की गरिमापूर्ण और गंभीर व्यवहार की अपेक्षा की जाती है वो उसके आसपास भी नहीं पहुंच पाते हैं । कुछ लेखकों को अगर छोड़ दें तो आप पाएंगें कि तमाम लेखक इस दंद-फंद में जुटे रहते हैं कि कहीं से कुछ प्राप्त हो जाए । आप हिंदी के प्रकाशकों से बात करिए तो आपको ये पता चलेगा कि किताबों के विमोचन समारोह में आने के लिए भी वरिष्ठ साहित्यकार सौदा करते हैं, मार्ग व्यय से लेकर मानदेय तक की बात तय करते हैं । इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन ये सौदेबाजी टुच्चेपन की हद तक चली जाती है ।  
तो आज जिस तरह से हिंदी साहित्य में राग 'कुलपति' गूंज रहा है और हर कोई इस राग में डूबकर 'गीला' होना चाहता है तो दिमाग में यही गूंजता है - हाय रे ! हमारे मूर्धन्य, हाय रे ! हमारे नायक, हाय रे ! लेखकीय आदर्श