अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के डेढ सौ साल का जश्न देशभर में मनाया गया । दिल्ली में राष्टीय स्तर के कई भव्य आयोजन एवं इसको लेकर कई गोष्ठियां भी आयोजित की गई, जहां विद्वानों ने जमकर बहस- मुबाहिसे किए । अखबारों और पत्रिकाओं ने अपने कई पन्ने आजादी की पहली लड़ाई को समर्पित किए । पत्र पत्रिकाओं के अलावा इस मौके पर कई किताबें भी प्रकाशित हुई । लेकिन किताबों के प्रकाशन में भी एक बार फिर से हिंदी प्रकाशन जगत अंग्रेजी से पिछड़ता नजर आया । जिस तरह से अंग्रेजी के प्रकाशकों ने योजनाबद्ध तरीके से भारतीय स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के विभिन्न पहुलुओं पर किताबें प्रकाशित की वो काबिले तारीफ है । हिंदी में भी कई किताबें प्रकाशित हुई लेकिन इसमें लेखकीय प्रयास ज्यादा, प्रकाशकीय परिश्रम कम नजर आया । जब मैंने अंग्रेजी के लेखकों और प्रकाशकों से बात की तो पता चला कि तीन चार साल पहले से ही आजादी की 150 वीं सालगिरह को ध्यान में रखकर योजनाएं तैयार की हुई थी और बकायदा लेखकों को प्रोजेक्ट सौंप कर किताबें लिखवाई गई । इसका परिणाम ये हुआ कि जब पूरा देश आजादी की इस पहली लड़ाई की सालगिरह का जश्न मना रहा था और देश भर की पत्रिकाओं और अखबरों में इसकी चर्चा हो रही थी तो अंग्रेजी में एक के बाद एक धड़ाधड़ किताबें प्रकाशित हो रही थी । इसका व्यावसायिक फायदा भी अंग्रेजी प्रकाशन व्यवसाय को हुआ । अपने इस लेख में हम अंग्रेजी और हिंदी में वर्ष दो हजार सात-आठ में 1857 की क्रांति पर प्रकाशित पुस्तकों पर विचार करेंगे । इस क्रम में पहले बात अंग्रेजी में प्रकाशित किताबों की ।
आजादी की एक सौ पचासवीं सालगिरह पर जो सबसे महत्वपूर्ण किताब आई वो है विलियम डेलरिंपल की - "द लास्ट मुगल,द फॉल ऑफ अ डायनेस्टी, दिल्ली 1857" (पेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली) । अंग्रेज लेखकों ने भारत के इतिहास को लिखते हुए आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर को लगभग नजरअंदाज कर दिया है । कई अंग्रेज लेखकों ने तो बहादुर शाह जफर को सिर्फ दिल्ली का राजा तक लिखा डाला है । ये तो उस तरह की ही बात हुई कि पोप को रोम का बिशप कह दिया जाए । लेकिन विलियम डेलरिंपल ने बहादुरशाह जफर को केंद्र में रखकर मेहनतपूर्वक उस दौर की तमाम गतिविधियों को कलमबद्ध किया है । विलियम डेलरिंपल ने-' द लास्ट मुगल,द फॉल ऑफ अ डायनेस्टी' में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शुरु होने और उसके अंजाम तक पहुंचने को आखिरी मुगल शासक बहादुरशाह जफर के इर्द गिर्द रखकर परखने की कोशिश की है । विलियम डेलरिंपल ने भारतीय विरोध और विद्रोह के कई अनछुए पहलुओं को सिलसिलेवार ढंग से, व्यापक शोध के आधार पर व्याख्यायित किया है, जिसे पहले के अंग्रेज इतिहासकारों ने या तो असावधानीवश या फिर सायास छोड़ दिया था । अपनी इस किताब में विलियम डेलरिंपल ने दावा किया है उन्होंने तथ्यों को जुटाने में भारतीय पुरात्तव संग्रहालय और बर्मा के राष्ट्रीय संग्रहालय के दस्तावेजों की मदद से उस दौर के इतिहास को नए सिरे से उद्घाटित किया है लेकिन कई भारतीय इतिहासकारों को डेलरिंपल की दिल्ली की घटनाओं की व्याख्या पर ऐतराज भी है ।
पेंग्विन प्रकाशन से ही जूलियन रॉथबॉन की 'द म्यूटिनी-अ नॉवेल' प्रकाशित हुआ । अपने इस ऐतिहासिक उपन्यास में लेखक ने उस दौर में इंगलैंड से भारत आई एक जवान और बेहद खूबसूरत महिला सोफी -जो अपने दुधमुंहे बच्चे को लेकर भारत आई थी - और गदर की हिंसा में फंस गई थी - को केंद्र में रखकर बेहद मार्मिक कहानी लिखी है । दोनों पक्षों के बीच की हिंसा में सोफी का बच्चा कहीं गुम हो जाता है । उस बेहद भयावह दौर में अपने बच्चे को ढूंढने का प्रयास करती दर दर भटकती सोफी की कहानी है इस उपन्यास में । इस क्रम में सोफी गवाह बनती है भारतीय जनता और ब्रिटिश सिपाहियों की लडाई में एक दूसरे को नेस्तानाबूद कर डालने की हद तक की घृणा की । रॉथबॉन, सोफी की इस कहानी को एक व्यापक फलक के साथ उठाते हैं । ये कृति विक्टोरियन एडवेंचर स्टोरी की तरह है, जिसमें लेखक ने उस दौर में जनता और राज के बीच फैली धर्मांधता को लेखकीय कसौटी पर कसा है । इसमें लेखक ने कई बेहद छोटे व्यक्तिगत अनुभवों को इस करीने से पिरोया है कि इसे पढ़ते वक्त पाठकों को लगता है कि सारी घटनाएं उनके सामने घटित हो रही है ।
1857 की घटनाओं के साथ दो धाराएं चलती हैं - एक धारा वो है जो उसे महज सिपाही विद्रोह बताते हैं और दूसरी वो जो इसे भारतीय स्वाधीनता संग्राम का आगाज मानते हैं । 1857 के लगभग डेढ सौ साल से भी ज्यादा बीत जाने के बाद भी ये बहस जारी है कि 1857 में जो हुआ वो क्या था- सिपाही विद्रोह, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या फिर सिपाहियों का राज के खिलाफ स्वत: स्फूर्त भड़का गुस्सा । इसपर इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है, इसका परिणाय ये हुआ कि उस विषय पर प्रचुर मात्रा में सामग्री उपलब्ध है । 'द पेंग्विन -1857 रीडर' इस ऐतिहासिक घटना को भारतीय, यूरोपीय, अमेरिकन, और ब्रिटिश अखबारों और पत्रिकाओं में उस दौर में बारे में जो कुछ लिखा छपा था, उसका दस्तावेजीकरण है । इसका संपादन-संकलन प्रमोद नायर ने किया है । ये संकलन इस लिहाज से अहम है कि इसमें उस दौर की घटनाओं को अपनी आंखों से देखनेवाले लोगों की टिप्पणियां भी संकलित की गई हैं । व्यक्तिगत अनुभवों के अलावा कार्ल मार्क्स, लॉर्ड मैकाले के विचारों भी यहां हैं । मिर्जा गालिब की डायरी के वो अहम अंश भी है जिसमें बहादुर शाह जफर के मुकदमे के ट्रायल का विवरण है । इस किताब की भूमिका में विश्व इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना के कई आयामों को पकड़ने की कोशिश की गई है ।
प्रमोद नायर की ही दूसरी किताब - 'द ग्रेट अपराइजिंग' भी मई दो हजार सात में प्रकाशित हुई । इस किताब में नायर ने 1857 की क्रांति के दौर में विद्रोह और उसको दबाने के ब्रिटिश राज के नृशंस तौर तरीकों पर विस्तार से लिखा है । इसमें 1857 के दौर के मुख्य किरदारों - हेनरी लॉरेंस, लॉर्ड कैनिंग, नाना साहिब, लक्ष्मीबाई, जॉन निकोलसन, के साथ साथ बहादुर शाह जफर के कारनामों का जिक्र है । इस किताब में प्रमोद नायर ने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ साथ उस दौर की साहित्यिक कृतियों से भी सामग्री लेकर गंभीरता पूर्वक विचार किया है । इस किताब के आखिर में ये भी बताया गया है कि किस तरह से 1857 की क्रांति ने यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया ।
पिछले वर्ष रुद्रांग्सु मुखर्जी की लगभग ढाई सौ पृष्टों की किताब- स्पेक्ट्रम ऑफ वायलेंस - भी छपकर आई । इस किताब में 27 जून 1857 को कानपुर के सत्तीचुरा घाट पर लगभग तीन सौ ब्रिटिश लोगों के मारे जाने के कारणों की तह में जाने की कोशिश की गई है । ब्रिटिश इतिहासकारों के मुताबिक इस सामूहिक हत्याकांड में बच गए लोगों को 15 जुलाई को बीबीघर के पास कत्ल कर दिया गया । कहा जाता है कि जब विद्रोहियों ने कानपुर पर कब्जा किया तो ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों को जलमार्ग से वाया भागलपुर, कलकत्ता भेजने की योजना के तहत जहाज से रवाना किया गया । लेकिन विद्रोही वहां पहुंचकर मरने मारने पर उतारू हो गए । लेकिन निहत्थे महिलाओं और बच्चों को देखकर उनपर हमला करने को लेकर विद्रोही दो गुटों में बंट गए । लेकिन कुछ विद्रोहियों ने आगे बढ़कर हमले की कमान संभाली । उनका तर्क ये था कि उनपर बर्बरता की हद तक अत्याचार तो ये महिलाएं ही करती हैं । कालांतर में सत्तीचूरा का ये घाट मैसेकर घाट के नाम से जाना गया । ब्रिटिश इतिहासकार इस कत्लेआम पर तो जमकर टसुए बहाते नजर आते हैं, लेकिन वो जनरल हॉवलॉक के अत्याचारों को नजरअंदाज कर देते हैं । दो दिन बाद ही जनरल हॉवलॉक और कर्नल जोम्स नील के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने फिर से कानपुर पर कब्जा कर लिया और आम जनता पर इतने अत्याचार किए कि नाजियों की रूह भी कांप जाए । मुखर्जी ने विद्रोहियों में हिंसा पर उतारू होने की प्रवृति को भी परखने का प्रयास किया । लेखक के मुताबिक इस हिंसा से संबंधित विद्रोहियों का कोई पक्ष उपलब्ध नहीं है । जो उपलब्ध है वो है ब्रिटिश नागरिकों के बयान और सरकारी दस्तावेज । तो इस एकतरफा बयानों और दस्तावेजों के आधार पर इतिहास बनाने की कोशिशों को 'स्पेक्ट्रम ऑफ वायलेंस' रोकता है और ब्रिटिश इतिहासकारों को हिंसा के कारणों को फिर से परिभाषित करने की चुनौती भी देता है ।
रूपा एंड कं. से पत्रकार और लेखक अमरेश मिश्रा की दो खंडों में भारी भरकम ग्रंथ- वॉर ऑफ सिविलाइजेशन- भी प्रकाशित हुआ । अमरेश इसके पहले भी मंगल पांडे और लखनऊ पर किताब लिककर 1857 में अपनी रुचि का संकेत दे चुके हैं । अमरेश ने अपनी इस किताब में 1857 की क्रांति को दो सभ्यताओं की लड़ाई बताया है । साथ ही लेखक का जोर इस बात पर भी है कि ये भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था । दो हजार पृष्ठों की इस किताब में अमरेश लगातार पश्चिमी इतिहासकारों की इस अवधारणा- कि ये सिपाही विद्रोह था- को निगेट करते चलते हैं । हलांकि ये कोई नई बात या नई प्रस्थापना नहीं है । लेखक इस किताब में भारत में जातिवाद और संप्रदायवाद की खाई बढाने के लिए उस दौर के अंग्रेजी शासनकाल को भी जिम्मेदार ठहराते हैं । उनका कहना है कि अंग्रेजों के आने के बाद न केवल विभिन्न जातियों बल्कि समुदायों के बीच वैमनस्यता बढी । जो एक बड़ी बात अमरेश अपनी इस किताब में उठाते हैं, वो ये है कि उस दौर में 1 करोड़ से ज्यादा लोग सिर्फ उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा में मारे गए थे । अमरेश अपने इस निष्कर्ष के लिए उस दौर के लेबर रिपोर्ट्स को आधार बनाते हैं । अमरेश की इस किताब में कई नई बातें हैं जो आनेवाले दिनों में बहस के लिए एक आधार प्रदान करती है । अंग्रेजी के प्रसिद्ध अखबार गार्डियन में इस किताब की समीक्षा के बाद ब्रिटिश इतिहासकारों और लेखकों के बीच बहस की नई जंग के आगाज के संकेत मिलने लगे हैं । क्योंकि मिश्रा ने 1857 के विद्रोह को दबाने के लिए जो कत्लेआम ब्रटिश फौजियों ने किया उसे दुनिया का पहला नरसंहार करार दिया है ।
रोली बुक्स ने भी क्रिकेट इतिहासकार बोरिया मजुमदार और शर्मिष्ठा गुप्तू के संपादन में - रिविजिटिंग 1857, मिथ, मेमेरी, हिस्ट्री का प्रकाशन किया । इसमें कई दिलचस्प लेख संकलित हैं । इस किताब की जो बेहद दिलचस्प बात है वो ये कि 1857 में हुई क्रांति को भारतीय सिपाहियों और ब्रिटिश अफसरों के बीच उस दौर में हुए क्रिकेट मैचों के द्वारा परखने की कोशिश की है । इस तरह से ये किताब एक बिल्कुल ही अलग चश्मे से 1857 की क्रांति को देखता है ।
'डेटलाइन 1857- रिवोल्ट अगेंस्ट द राज' प्रमोद कपूर और रुद्रांग्सु मुखर्जी के संपादन में एक अद्भुत संकलन है । इस पुस्तक में बैरकपुर से लेकर झांसी तक की क्रांति की दास्तां दर्ज है । एक सौ चवालीस पृष्ठ की इस किताब में भी लेखों के अलावा कई महत्वपूर्ण मानचित्र, क्रांति के छह प्रमुख फोटोग्राफ, तबाही के कई चित्र हैं । ये वो चित्र या फोटोग्राफ जो बाद के दिनों में भी स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एकजुट करने में मददगार साबित हुए । प्रमोद कपूर ने इस किताब में श्रमपूर्वक तस्वीरों को इकट्ठा किया है । जो तस्वीर सुलभ नहीं हो सकी उसकी भारपाई उस दिन के अखबार की कटिंग को संकलित कर किया गया है । इस किताब को पढ़ते हुए पाठकों को उस दौर की सामाजिक हलतल का भी अंदाजा मिलता है । अंग्रेजी में इसके अलावा भी कई किताबें आईं लेकिन सबको समेटना नामुमकिन है । लेकिन उपरोक्त किताबें महत्वपूर्ण हैं और इनके चयन के समय मेरे जेहन में ये बात थी ऐसी कृतियों को ही चुनुं जो कि कुछ नए तथ्य या नई प्रस्थापनाएं लेकर आई हों । इसका ये मतलब कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि अन्य प्रकाशित किताबों में कुछ नया नहीं है ।
एक ओर जहां अंग्रेजी में योजनाबद्ध तरीके से 1857 की क्रांति की 150वीं सालगिरह पर काम हुआ वहीं हिंदी में बेहद ही एडहॉक तरीका अपनाया गया । हो सकता है कि हिंदी के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों को मेरी ये बात बुरी लगे लेकिन हकीकत यही है । क्योंकि अंग्रेजी के बरक्स अगर आप हिंदी में प्रकाशित कृतियों को देखें तो ये बात साफ-साफ नजर आती है । हिंदी में 1857 की क्रांति की डेढ सौवीं सालगिरह के मौके पर कई पत्रिकाओं ने अपने अंक केंद्रित किए। सबसे पहले नागपुर से प्रकाशित होनेवाले 'लोकमत समाचार' ने 2006 के अपने दीवाली विशेषांको को 1857 पर केंद्रित किया, जिसका संपादन प्रकाश चंद्रायन ने किया । इसमें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम का लेख बेहद दिलचस्प और जानकारीपूर्ण है । विनोद अनुपम ने फिल्मों में 1857 पर श्रमपूर्व लिखकर कई तथ्यों को सामने लाने का काम किया है । यहां भी पत्रिकाओं ने प्रकाशकों से बाजी मार ली । जिन पत्रिकाओं ने अपने अंक केंद्रित किए उनमें - समयांतर( संपादक - पंकज बिष्ठ), उदभावना ( संपादक -अजेय कुमार), नया पथ( संपादन- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी), वर्तमान साहित्य( संपादक- कुंबरपाल सिंह) । लेकिन आश्चर्यजनक रूप से बिहार सरकार की पत्रिका- बिहार समाचार- ने भी अपना एक अंक 1857 पर केंद्रित किया । इस अंक में पीर अली की कहानी विलियम टेलर की जुबानी को देखकर अच्छा लगा । इसके अलावा इस अंक में श्रीकांत और प्रेम कुमार मणि के लेख भी महत्वपूर्ण हैं । उद्भभावना का अंक तो बाद में - 1857 निरंतरता और परिवर्तन- के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुआ । पत्रिकाओं के अलावा अखबारों ने भी 1857 पर सीरीज छापी । लेकिन दिल्ली से प्रकाशित 'दैनिक हिंदुस्तान' ने तो गदर के 150 साल पर महीनों तक, हर सप्ताह एक पूरा पृष्ठ छापा । इन पन्नों पर 1857 से संबंधित कई महत्वपूर्ण दस्तावेज तो छपे ही , जमकर विचार विमर्श भी हुआ। मुझे नहीं पता कि इसमें किसने पहल की लेकिन चाहे जिसने भी इसकी परिकल्पना की वो बधाई के पात्र हैं ।
सामयिक प्रकाशन दिल्ली से आदित्य अवस्थी की किताब - दिल्ली क्रांति के 150 वर्ष- प्रकाशित हुआ । आदित्य अवस्थी पेशे से पत्रकार हैं और अपनी इस शोधपरक किताब में उन्होंने दिल्ली को केंद्र में रखकर 1857 की क्रांति पर विचार किया है । उस दौर में दिल्ली के किन मुहल्लों में क्रांति की चिंगारी फूटी थी, का विस्तारपूर्वक वर्णन इसमें है । दिल्ली के लिहाज से ये किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहां के बाशिदों को अपने शहर के गौरवशाली इतिहास की जानकारी उन्हें मिल सकती है वो भी डिटेल में । मधुकर उपाध्याय ने भी मराठी में प्रकाशित 'मांझा प्रवास' का हिंदी अनुवाद किया वो इस लिहाज से अहम है कि इसमें 1857 के विद्रोह को अंग्रेजी मानसिकता से इतर आम जनता की नजर से देखा गया है ।
राजकमल प्रकाशन से श्रीकांत और वसंत चौधरी की किताब -बिहार में 1857- प्रकाशित हुई । इसमे बिहार के प्रत्येक जिले में उस दौर में क्या हुआ था का सिलसिलेवार विवरण है । व्यापक शोध और श्रम इस किताब में सहज ही परिलक्षित की जा सकती है । इसके अलावा पेंग्विन हिंदी ने भी -गदर के 150 साल- का प्रकाशन किया । इसमें पीसी जोशी, हीरालाल बछोरिया के लेख महत्वपूर्ण हैं । इसके अलावा भी लगभग दर्जभर किताबें विश्व पुस्त मेले के दौरान देखने को मिली लेकिन उसमें शम्सुल इस्लाम के संपादन में वाणी से प्रकाशित किताब '1857 के दस्तावेज' अहम है । इसके अलावा अनामिका प्रकाशन से कर्मेंदु शिशिर की किताब- 1857 की राज्य क्रांति , विश्लेषण और विचार- भी प्रकाशित हुई ।
अगर मैं इस लेख में मध्यप्रदेश के पुरातत्व विभाग द्वारा प्रकाशित किताबों का जिक्र न करूं तो ये अधूरा रह जाएगा । पुरातत्व विभाग ने पंकज राग और गीता सबरवाल के संपादन में कई किताबें अंग्रेजी और हिंदी में छापीं । 'द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस- डॉक्यूमेंट्स ऑफ जबलपुर एंड मांडला' तो अंग्रेजी में प्रकाशित की गई । इसके अलावा 1857 - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम खंड 2 -हिंदी में है । इसमें उस दौर के बुंदेली अभिलेख तो हैं ही उसके जरिए क्रांति के सूत्रों को पकड़ने की कोशिश भी है । 1857 - प्रथम स्वतंत्रता संग्राम खंड-3 भी हिंदी में ही है । इसमें उर्दू और फारसी के अभिलेख हैं,इसका संपादन भी पंकज राग और गीता सबरवाल ने किया है लेकिन अनुवादक हैं हाशिम अल सादिक और मुमताज खान । इसके अलावा पंकज राग की किताब 'रेलिक्स ऑफ 1857' भी अहम है । इसमें मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों - मंदसौर,नीमच, झाबुआ, सिहोर, भोपाल, विदिशा, बैतूल, सागर में मौजूद शिलालेखों में क्या लिखा है, इसको इकट्ठा कर विश्लेषित किया गया है । इन किताबों का जिक्र अलग से इसलिए किया कि ये सरकारी प्रयासों से छपी है।
---------------------------------------------
1 comment:
भाई मेरे, ऐसी ही एक और क्रांति ला दे!
Post a Comment