राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी । हिंदी के दो शीर्षस्थ कथाकार । दोनों की प्रतिष्ठा इतनी कि पाठक तो क्या लेखक भी नतमस्तक । लेकिन पिछले लगभग एक दशक से दोनों ने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं लिखा है । राजेन्द्र यादव ने हंस के संपादकीय के बहाने समकालीन समय में जरूर सार्थक हस्तक्षेप किया है, लेकिन साथ ही ये स्वीकार भी किया है कि – इधर शब्द संकट बहुत बढ़ गया है- जो लिख रहा हूं उसे लेकर दुहराव की कचोट अलग बनी रहती है......अब तो मुझे दो तीन ड्राप्ट करने पड़ते हैं, उन्हें संशोधित करना पड़ता है । इधर एक बैठक में चार पांच सौ से ज्यादा शब्द नहीं लिख पाता- वह भी सुबह पांच-छह बजे के एकांत में ( हंस फरवरी का संपादकीय) । वर्षों बाद मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा लिखी लेकिन उस आत्मकथा में भी साहस और ईमानदारी का आभाव आलोचकों को दिखा । मन्नू जी अपनी आत्मकथा में भी राजेन्द्र यादव से ऑबसेस्ड दिखी । ये कहने का मेरा मतलब दोनों की साहित्यिक लेखन पर प्रश्नचिन्ह लगाना नहीं है और ना ही इनकी महानता पर सवाल खड़ा करना ।
लेकिन हाल के दिनों में इन दोनों बुजुर्ग लेखकों ने अपनी शादी को लेकर जो कहा लिखा है उससे मन में ये सवाल उठने लगा है कि क्या हिंदी के इन दो प्रतिष्ठित लेखकों के पास लिखने के लिए अब कुछ नहीं रह गया है ।
हिंदी पत्रिका कथादेश के मार्च अंक में मन्नू भंडारी ने एक लंबा लेख लिखा है – सच को स्वीकार करने का साहस हो तभी साक्षात्कार दें । इस पूरे लेख में मननू जी ने ये साबित करने की कोशिश की है कि कथादेश के जनवरी अंक में राजेन्द्र यादव ने जो साक्षात्कार दिया उसमें दोनों की शादी को लेकर यादव जी ने गलत कहा और अब मन्नू भंडारी उसे ठीक कर रही हैं । एक आम हिंदी पाठक को इस बात से क्या लेना देना कि दोनों की शादी किन परिस्थितियों में हुई, क्यों हुई, किसने पहल की आदि आदि । मन्नू भंडारी, राजेन्द्र यादव से सच कहने की अपेक्षा करती हैं लेकिन मन्नू भंडारी में भी तो ये साहस नहीं है कि वो ये बता सकें कि मीता का असली नाम क्या था। इन दोनों के संबंधों में मीता तो वैसी ही हो गई है जैसी कि हिंदी साहित्य में स्नोबा बार्नो, जिसके बारे में सुना तो खूब जा रहा है लेकिन देखा किसी ने भी नहीं । साथ ही मन्नू ने किन परिस्थितियों में और किसकी वजह से राजेन्द्र यादव को घर से निकाला, ये बताने का साहस मन्नू भंडारी आजतक क्यों नहीं कर पाई ? बेहद चतुराई से इस, बात का उन्होंने अपनी आत्मकथा में उल्लेख नहीं किया और बचकर निकल गई । तो अगर खुद सच कहने और लिखने का साहस न हो तो दूसरों से ये अपेक्षा करना बेमानी है ।
रही बात राजेन्द्र यादव की तो वो तो पिछले दो दशकों से विवादों को जानबूझकर न्योता देते आ रहे हैं । लेकिन पहले राजेन्द्र यादव की रुचि साहित्यिक विवाद में हुआ करती थी जो हाल के दिनों में व्यक्तिगत विवादों तक पहुंच गी है । प्रचार पाने के लिए इस तरह से अपने संबंधों को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना देना हिंदी के पाठकों के साथ छल है । लेकिन जिस तरह से हाल के दिनों में गंभीर छवि वाली मन्नू भंडारी विवाद वीर हो गई हैं, वाकई वो चौंकानेवाला है । आज हिंदी का पाठक ये जानना चाहता है कि राजेन्द्र यादव या मन्नू भंडारी ने नया क्या लिखा है । ये जानने में उसकी कोई रुचि नहीं है कि दोनों की शादी में क्या हुआ था । दोनों के व्यक्तिगत झगड़ों को छापने के लिए संपादक भी कम जिम्मेदार नहीं है । एक संपादक में इतना साहस तो होना ही चाहिए कि वो ये कह सके कि राजेन्द्र जी या मन्नू जी आपके इस व्यक्तिगत झगड़े को हम अपनी अपनी पत्रिका में जगह नहीं दे सकते । लेकिन कथादेश संपादक से ये अपेक्षा बेमानी है । इन व्यक्तिगत विवादवीर बुजुर्ग लेखकों की वजह से आज हिंदी साहित्या शर्मसार है । शर्मसार हम भी हैं क्योंकि ये हमारे सबसे प्रतिष्ठित लेखकों में से एक हैं । गुजारिश ये कि बंद करो ये आपसी झगड़े और विशाल हिंदी पाठक समुदाय के बीच जो आपकी छवि और प्रतिष्ठा है उसको नेस्तानाबूद न करें ।
अनंत विजय
( ये एक बड़ा प्रश्न है, अगर बहस शुरु हो सके तो साहित्य का भला होगा )
11 comments:
ham jis samay mein rah rahe hain, usamein logon ka dhyaan ab vyatigat chijon ki taraf kafi ho gaya hai. log ab personal batein janana chahate hain, patrika, akhbar, media sab vahi kar rahe hain., aj keval in donon e hi nahi, auron se bhi poochhen ki vyaktigat prem sabandhon ya sex ki baaton ka khulaasaa kar ke ve hamein yani pathako ko kya de rahe hain? pathak rachnayen chahata hai, ye log un sabko apana shaaririk ya mansik vilas paros rahe hain.
सहमत।
लेखन के नाम पर कचरा फ़ैलाया जा रहा है और शायद होड़ की प्रवृत्ति भी पनप रही है। राजेन्द्र यादव तो जनम का झूठा व्यक्ति है, उसकी बराबरी में मन्नू जी भी उसी के फ़ैलाए जाल में फ़ँसती जा रही हैं और अपनी डिग्निटी कम कर रही हैं।
चटखारे लेने वालों को ही सामग्री उपलब्ध कराने में लग गए लगते हैं दोनों।
मैंने भी पढ़ी थी मन्नू भंडारी की आत्मकथा...निष्पक्षता का अभाव लगा! आत्मकथा में अपने साथ हुए अन्याय को दिखाने का मंतव्य ज्यादा नज़र आ रहा था....
इसमे दोष राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी से भी ज़्यादा उन लोगों का लगता है जिन्होंने राजेंद्र के स्त्री और दलित-विमर्श से घबरा कर, बजाय उनका तार्किक और वैचारिक विरोध करने के, सारे जासूसी कुत्ते उनकी चारपाई के नीचे छोड़ दिए। ऐसी पत्रिकाओं ने और कितनी लेखिकाओं पर विशेषांक निकाले हैं पता नहीं, पर क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि विशेषांक चित्रा मुद्गल या गगन गिल पर निकले और आधी पत्रिका अ.न. मुद्गल या निर्मल वर्मा के चरित्र-हनन से भरी हो। क्या कभी निर्मल और गगन या चित्रा और अ.न. के लेखन की परस्पर ऐसी तुलना देखने में आयी है जैसी राजेंद्र और मन्नू के लेखन की की जा रही है ? लगता यही है कि बहस के बहाने, दलितों और स्त्रियों के लिए साहित्य में राजेंद्र यादव द्वारा बनाए माहौल का क्रेडिट छीनने की कोशिश की जा रही है। ऐसी छल-प्रधान रणनीतिओं की मूल-प्रतियां इतिहास में आसानी से तलाशी जा सकती हैं। यह तो राजेंद्र यादव जैसे कुछ लोगों ने उनकी मजबूरी बना दी अन्यथा तो स्त्री और दलित-विमर्श ऐसी पत्रिकाओं और ऐसे लोगों के एजेंण्डे में कहीं था ही नहीं।
राजेंद्र यादव वगैरह तो चरम पर हैं लेकिन कटघरे में तो पूरे हिन्दी साहित्य के कर्ताधर्ताओं को करने की जरूरत है। कमोबेश पूरा हिन्दी जगत की स्थिति यह है कि कई लाख के फ्लैटों में जिंदगी बिताते हुए आम जनता और उसके जीवन से पूरी तरह कट गए हैं और मिडिल क्लास की तमाम गलाजतों को अलां लेखन फलां लेखन के काल्पनिक नामों से बेचकर धंधा पानी कर रहे हैं। इस देश की 80 फीसदी के सरोकार इनके लिए बेमानी हो चुके हैं। समाज आज जिस गतिरोध का शिकार है उसी की सड़न और उसका प्रतिबिंब इन लोगों में दिख रहा है। वैसे अनंत भाई एक सुझाव है, बात को थोड़ा फैलाते हुए हिन्दी साहित्य की दुर्दशा की मूल वजहों पर भी लिखिए।
aur bhi bujurg hain jo sharmsaar kar rahe hain, unke baare men bhi agle lekh men jaankar den
आपने लिखा तो ठीक है लेकिन क्या कीजियेगा दो सीनियर सिटीज़न यादों की दीवार पर रंग रोगन कर कुछ छिपा रहे हैं कुछ दिखा रहे है तो क्या किया जाए। पाठक नामक जीव मूर्ख नहीं होता
इक़बाल रिज़वी
क्या ये लोग इतने महत्वपूर्ण हैं कि इन पर बहस की जाये? या कोई विचार प्रकट किये जायें?
हिटलर भाई, राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी हिंदी की बेहढ अहम शख्सियत हैं । इनके लेखन को देख पढ़कर एक नहीं बल्कि दो पीढी जवान हुई हैं । इनके लेखन पर जमकर चर्चा हुई है । इनपर बहस तो होनी ही चाहिए - बाकी मैं पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं
Yea loag Joa kar rahy hai. Vo sahe hai ya nahe is k baaray main toa kuch nahe kahoonga per aap k post main kaafi sach hai or is koa nakaara nahe ja sakta. Kuanke sahitya srajan ka dusara naam hai na ke vivaad paida kar free ke Publicity pana.
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