पिछले कुछ वर्षों से लेखकों की सामाजिक भूमिका लगभग खत्म हो गई है । कहीं से भी ये लगता ही नहीं है कि लेखकों का समाज से कोई जुड़ाव भी है । किसी भी बड़े सामाजिक प्रश्न पर इनकी एकजुटता नजर नहीं आती है । वे छोटे-छोटे गुटों में बनाई अपनी ही दुनिया में संतुष्ट नजर आते हैं, जबकि साहित्य और संस्कृति के सामने संकट गहराता जा रहा है । लेखकों की सामाजिक सक्रियता को लेकर लेखक संगठों की स्थापना की गई थी । कहने को तो आज हिंदी में तीन लेखक संगठन हैं और ये तीनों अलग-अलग कम्युनिस्ट पार्टियों से संबद्ध हैं । प्रगति लेखक संघ, सीपीआई से , जनवादी लेखक संघ, सीपीएम से और जन संस्कृति मंच, सीपीआई-एमएल से । लेकिन ये संगठन इन पार्टियों के पिछलग्गू ही साबित हो रहे हैं । जब सन 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई थी तो दो दशकों तक इसने सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से लेखकों को जोड़कर गंभीरता से काम किया लेकिन समय बीतने के साथ ये संगठन कमजोर होता गया और आज तो हालत ये है कि कुछ शहरों को छोड़ दें तो ये लगभग मृतप्राय है । यही हाल जलेस और जसम का भी है । अब तो ये तक पता नहीं चलता है कि इनके अध्यक्ष और सचिव कौन हैं । इन संगठनों का पता तब चलता है जब किसी लेखक की मृत्यु होती है । इसके बाद लेखक संगठन एक शोकसभा का आयोजन करते हैं और उसमें मर्सिया पढकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं । यह सही और दुखद है कि लेखक लोग या तो किसी शोकसभा में मिलते हैं या पुस्तक विमोचन के अवसर पर । मुद्दों को लेकर लेखकों ने आपस में मिलना बंद कर दिया है ।
दूसरी सबसे शर्मनाक बात ये है कि इन लेखक संगठनों को किसी लेखक के मरने के बाद ही ही उसकी महत्ता समझ में आती है । लेखक के जीवित रहते ये संगठन लेखकों की रचनाओं पर कुछ भी करने से कतराते रहते हैं लेकिन उनके मरते ही उसे महान तथा उसकी रचनाओं को बेहद अहम बताने लग जाते हैं । इससे लगता तो ये है कि ये लेखक संगठन लेखकों की मरने की प्रतीक्षा कर रहा होता है । पिछले दिनों हिंदी के कवि सुदीप बनर्जी का निधन हुआ और तामम संगठनों के बीच उन्हें महान साबित करने की होड़ लग गई लेकिन मुझे नहीं याद कि उनके जीवित रहते किसी भी संगठन ने कोई मग्तवपूर्ण कार्यक्रम सुदीप बनर्जी पर आयोजित किया ।
कई साल पहले हिंदी के एक वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने एक बातचीत में कहा था कि लेखक संगठन लेखकों के यूनियन नहीं है जो कॉपीराइट आदि के मुद्दे पर संघर्ष करें । उनका मानना था कि ये वैचारिक संगठन हैं जिनका काम साहित्य की दुनिया में वैचारिक संवेदना का प्रचार करना है । अगर मंगलेश की बातों को मान भी लिया जाए तो सवाल ये उठता है कि वैचारिक संवेदना के प्रचार के लिए भी लेखक संगठन क्या कर रहे हैं ?
आज जरूरत इन लेखक संगठों की भूमिका पर पुन्रविचार की है । इन संगठनों की निष्क्रियता के पीछे वामपंथी राजनीति की हिम्मतपरस्ती और अवसरवादिता की राजनीति है । लेखको के बीच भी पद और पुरस्तार पाने की लोलुपता बढ़ती जा रही है । वैचारिकता पर अवसरवादिता हावी हो गई है । तमाम लेखक इस दंद-फंद में जुटे रहते हैं कि किस संगठन से जुड़कर उन्हें लाभ हो सकता है और ये तय करते ही वो उन संगठनों से जुड़कर साहित्यिक मठाधीशों का आशीर्वाद प्राप्त कर लेता है । सच तो ये है कि इन दिनों लेखक संगठनों से न तो कोई उर्जा प्राप्त कर पा रहे हैं और न ही कोई वैचारिक दिशा ।
लेखक संगठनों का इतना बुरा हाल है कि वो अपने ही साथी लेखकों के हित के लिए कुछ बी नहीं कर पा रहा है । कॉपीराइट हिंदी में लेखकों के लिए आज एक बड़ा मु्दा है और तमाम लेखक इसके शिकायत हो रहे हैं । लगातार प्रकाशकों द्वारा लेखकों के शोषण की बात सामने आती रहती है लेकिन आजतक लेखक संगठनों ने इस शोषण के खिलाफ कोई ठोस आवाज नहीं उठाई है, आंदोनल की बात तो दूर । इसके अलावा भी की मुद्दे हैं जिनपर लेखक संगठनों की खोमोशी चिंतनीय है ।
दरअसल अब प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, और जन संसकृति मंच को आपसी भेदभाव भुलाकर साथ आकर एक नया सांस्कृतिक और साझा मंच बनाना चाहिए और लेखकों की मर्सिया पढ़ना बंद कर उनके जीवित रहते उनको उनका देय दिलाने के लिए प्रयास करना चाहिए तभी साहित्या का भी भला होगा और साहित्यकारों का भी । अन्यथा लेखक संघ अपने ही साथियों के मरने का इंतजार करनेवाला संगठन बनकर रह जाएगा ।
5 comments:
आपने सही कहा है कि वैचारिकता पर अवसरवाद हावी है। असल में आज साहि
त्य के क्षेत्र में ही मुर्दानगी छाई हुई है तो लेखक संगठनों में होना लाजिमी है। साहित्य का सवाल विचारधारा से जुड़ा है और विचारधारा उ
त्तरआधुनिकता, अस्मितावाद के भंवर में है। जिस समाज के पास बदलाव का कोई सपना न हो वह आगे नहीं बढ़ सकता। लेखक संगठनों की निष्क्रियता इसी सपने के न होने की वजह से है और कोई सपना होने पर ही पैदा हो सकती है।
अब साहित्य में वैचारिकता रह ही नहीं गयी है , साहित्य पर आज अवसर वाद हावी है और संगठनों का कोई चरित्र नहीं रह गया है...
आपने सही विचार प्रस्तुत किये हैं, आपको साधुवाद!
बहुत प्रासंगिक मुद्दा उठाया है अनंत भाई. इसे आगे बढाएं. सच तो यह है कि इन लेखक संगठन सिर्फ़ प्रलेस ही अपने गठन के थोड़े दिनों बाद तक वैचारिक संगठन रहा. तब इसकी सामाजिक सक्रियता भी बिलकुल स्पष्ट थी और आमजन से जुड़े कई मामलों में इसकी सहभागिता भी महत्वपूर्ण रही है. इसके बाद जैसे-जैसे इस पर पार्टी की तानाशाही का शिकंजा कसता गया, समाज और साहित्य-संस्कृति में इसकी भूमिका नगण्य होती गई. सचमुच के लेखक भी या तो इससे अलग होते गए या फिर निष्क्रिय होते गए. बचे केवल बिचौलिए किस्म के लोग, जिनका उद्देश्य ही यूनिवर्सिटी में मास्टरी, अकादमी में सचिवगिरी या संपादकी या फेलोगिरी, पद-पुरस्कार आदि पाने तक ही सीमित था. साहित्य से उनका लगाव बस उतना ही था जितना कसाई का बकरे से होता है. बाद में जो संगठन बने वे तो सिर्फ़ 'अपनी खिचड़ी अलग पकैहों' उर्फ़ 'अपनी पहचान अलग बनाएंगे' वाले जुमले के तहत सिर्फ़ असंतुष्टों के संगठन है. बिलकुल वैसे ही जैसे संसदीय राजनीति में सक्रिय बाक़ी क्म्युनिस्ट पार्टियां. लेखक संगठन बनाना या उनमें शामिल होना कुल मिलाकर केवल तुम हमें ख़ुदा कहो और हम तुम्हें ख़ुदा कहें तक सीमित होकर रह गया है. हिन्दी साहित्य की आज जो दुर्दशा है, उसके लिए और किसी से भी अधिक ज़िम्मेदार ये लेखक संगठन ही हैं. आशा है, आगे आप इनकी भूमिका को और क़ायदे से बेनकाब करेंगे.
यह 'हिम्मतपरस्ती' क्या चीज है, भाई? तुम्हारा
ब्लॉग देखा। दो ही विषय अभी पढ़े। और पढ़कर बताऊँगा। शुभकामनाएं,
- शंकर शरण
चलिए इसी शब्द के चलते आपकी कृपादृष्ठि तो हुई । आपकी राय का इंतजार रहेगा
Post a Comment