28 मार्च को दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा की तीन पत्रिकाओं का पुनर्जीवन समारोह हुआ । नए संपादकों के साथ तीन पुरानी पत्रिकाओं- बहुबचन (संपादक- राजेन्द्र कुमार), हिंदी ( संपादक- ममता कालिया) और पुस्तक वार्ता ( संपादक- भारत भारद्वाज) का विमोचन समारोह बेहद सफल रहा । त्रिवेणी सभागार श्रोताओं से खचाखच भरा था और लोग सीढियों पर बैठे थे और मंच पर हिंदी साहित्य की तीन विभूतियों- नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी के साथ श्रद्धेय कवि कुंवर नाराय़ण और कुलपति विभूति नारायण राय थे । लेकिन असली किस्सा तो समारोह शुरू होने के पहले और बाद का है । समारोह के पहले हर छोटे-बड़े साहित्यकार के बीच कुलपति महोदय के चरणों की धूल लेकर अपने को धन्य करने की होड़ सी मची थी । कुलपति के सामने हाजिरी बजाने की हड़बड़ी में एक वरिष्ठ कवि ये भी भूल गए कि आसपास भी लोग खड़े हैं । उन्होंने तो सरेआम अपने से उम्र में छोटे कुलपति के से कहा कि मुझ गरीब पर कृपा-दृष्टि बनाए रखिए । उनके बात करने का जो अंदाज था वो चापलूसी की सारी हदें तोड़ रहा था । याचक का ये अंदाज सिर्फ इन वरिष्ठ कवि का ही नहीं बल्कि वहां मौजूद कई साहित्यकारों का था जो कुलपति से आशीर्वाद लेने के लिए लाइन में खड़े थे ।
दरअसल कुलपति के इर्द गिर्द ये जमावड़ा सिर्फ उस दिन नहीं लगा था, ये हालत तो तब से हो गई है जबसे उन्होंने विश्वविद्यालय का कार्यभार संभाला है । लेकिन ये शर्मनाक स्थिति सतह के उपर जितनी दिखाई देती है, सतह के नीचे उससे कहीं ज्यादा शर्मनाक है । हर छोटा बड़ा साहित्यकार विभूति नारायण राय के पीछे पड़ा है- कोई चाहता है कि विश्वविद्यालय उसे प्रमुख साहित्यकारों पर फिल्म बनाने का ठेका दे दे, किसी की ख्वाहिश है कि संचयिता के संपादन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी जाए, कोई विश्वकोष का प्रस्ताव लिए दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, कोई चाह रहा है कि विश्वविद्यालय द्वारा खरीदी जानेवाली पत्रिकाओं में उसकी पत्रिका का भी नाम डाल दिया जाए, हद तो ये हो गई कि विभूति नाराय़ण राय को कुलपति की दौड़ से बाहर करार देने वाला तथा अखबार में लेख लिखने के एवज में महिला लेखिकाओं से 'फेवर' मांगनेवाला एक पत्रकार मीडिया सेंटर में निदेशक बनने के लिए अपना बायोडाटा लिए गणेश परिक्रमा कर रहा था । और एक बेहद चतुर अधिकारी की तरह कुलपति हर किसी को विश्वविद्यालय मुख्यालय वर्धा आने का न्योता दे रहे थे । इस वजह से सबकी आकांक्षाएं हिलोरे ले रही थी ।
इस पूरे किस्से को बयां करने के पीछे हिंदी के साहित्याकारों की याचक मानसिकता को उजागर करना है । दरअसल आज हिंदी साहित्य की स्थिति इतनी शर्मनाक हो गई है कि जहां भी साहित्यकारों को कुछ लाभ दिखाई देता है वहीं वो हाथ फैलाए खड़े नजर आते हैं । सारे आदर्श और ज्ञान सिर्फ लेखन तक सिमटकर रह गए हैं । जब भी अपनी बारी आती है तो सारे आदर्श और सिद्धांत ताक पर रख दिए जाते हैं । एक जमाने में जब अशोक वाजपेय़ी इस विश्वविद्यालय के कुलपति बने तो एक वरिष्ठ आलोचक ने उन्हें समकाली कविता का प्रमुख हस्ताक्षर करार दे दिया जबकि यही आलोचक महोदय वाजपेयी को पतनोन्मुख परंपरा के सबसे सशक्त और खूबसूरत हस्ताक्षर बताते नहीं थकते थे । उन्हें कलावादी बताकर उनके लेखन को कारिज कर दिया करते थे । ये अलग बात है कि बाद में उन्हीं आलोचक को विश्विविद्यालय के संचयिता का संपादन मिला। ये हाल तो शीर्ष आलोचक का था तो बाकिय़ों की तो छोड़िए ।
मेरे कहने का आशय ये है कि हिंदी के लेखकों से जिस तरह की गरिमापूर्ण और गंभीर व्यवहार की अपेक्षा की जाती है वो उसके आसपास भी नहीं पहुंच पाते हैं । कुछ लेखकों को अगर छोड़ दें तो आप पाएंगें कि तमाम लेखक इस दंद-फंद में जुटे रहते हैं कि कहीं से कुछ प्राप्त हो जाए । आप हिंदी के प्रकाशकों से बात करिए तो आपको ये पता चलेगा कि किताबों के विमोचन समारोह में आने के लिए भी वरिष्ठ साहित्यकार सौदा करते हैं, मार्ग व्यय से लेकर मानदेय तक की बात तय करते हैं । इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन ये सौदेबाजी टुच्चेपन की हद तक चली जाती है ।
तो आज जिस तरह से हिंदी साहित्य में राग 'कुलपति' गूंज रहा है और हर कोई इस राग में डूबकर 'गीला' होना चाहता है तो दिमाग में यही गूंजता है - हाय रे ! हमारे मूर्धन्य, हाय रे ! हमारे नायक, हाय रे ! लेखकीय आदर्श
3 comments:
आपके इस आलेख को पढ़कर एक विचित्रता सी भर गयी है मन में ।
सही रखा है आपने अपने ब्लॉग का नाम - हाहाकार ।
आश्चर्य है कि इतने रोचक, सामयिक और गंभीर विषय पर ललित शैली में लिखे लेख पर एक ही प्रतिक्रिया आई!
आश्चर्य है कि इतने रोचक, सामयिक और गंभीर विषय पर ललित शैली में लिखे लेख पर एक ही प्रतिक्रिया आई!
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