भज्जी और धोनी पद्म पुरस्कार लेने नहीं गए । इसपर जमकर विवाद हुआ, कहा तो यहां तक गया खिलाड़ियों ने मं6लय के फोन तक नहीं उठाए । खेल पत्रकार अभिषेक दूबे ने इस विषय पर हाहाकार के लिए खास तौर पर ये लेख लिखा है ।
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पांच साल पुरानी बात है, तभी मैं क्रिकेट का दीवाना अधिक पत्रकार कम था। मेरा एक दोस्त क्रिकइनफो के लिए एक लेख लिखने के सिलसिले में हरभजन सिंह के घर जालंधर जा रहा था, मैं साथ में चल लिया।
हरभजन के बारे में काफी कुछ सुन रखा था, निगेटिव अधिक, पोजिटिव कम। जालंधर की गलियों से होते हुए जैसे-जैसे मैं हरभजन के घर के नजदीक आता चला गया, अपने घर की याद आने लगी। मैं हरभजन से पहली बार मिल रहा था, लेकिन जैसे-जैसे घर में समय बीतता गया मुझे एक पल के लिए नहीं लगा कि मैं कबाब में हड्डी बनकर चला आया हूं। लगा कि मैं कॉलेज के समय के एक करीब दोस्त से मिल रहा हूं।
जल्द ही हम हरभजन के ड्राइंग रूम से बेडरूम में आ गए और जैसे ही पहली बार इंटरव्यू की चर्चा की, तो आवाज आई बेटा तुमलोग खाना खाओगे तभी इंटरव्यू मिलेगा। दरअसल वो आवाज हरभजन की मां की थी। मेरा दोस्त, मैं और भज्जी खाना खाने बैठे ही थे। मां-बहन खुद खाना परोस रही थी, घर की गर्मा-गर्म रोटी देखती ही, मुंह में पानी आ गया। पहला निवाला लिया ही था कि बहन बोल पड़ी- भैया आप लोग खुद गाड़ी चलाकर आए हो, मैंने दबी जुबान में कहा- साथ ड्राइवर आया है तभी मां ने फरमान जारी किया- उसे बाहर क्यों छोड़ दिया, बेचारा भूखा होगा। चंद ही मिनटों में ड्राइवर हमारे साथ बैठकर खाना खा रहा था। खाने-पीने के बाद इंटरव्यू का दौर शुरू हुआ। भज्जी हर मुद्दे पर दिल खोलकर बोल रहे थे, कई ऐसी बातें जिसे मैं चाहकर भी आपके साथ नहीं बांट सकता।
हाल में हरभजन और धोनी पद्म पुरस्कार लेने नहीं आए और इसे लेकर काफी बवाल मचा। तरह-तरह की प्रतिक्रिया आई। मुझे भी दुख हुआ और मैंने अपनी पीड़ा को अपने चैनल के जरिए लोगों के सामने रखा। जब मैं अपने चैनल पर इसकी आलोचना कर रहा था, तो हरभजन के घर में मेरे दोस्त के साथ बिताए हर पल याद आ रहे थे। मैं ऐसे ही ना जाने कितने अतीतों को जोड़कर मैं समझना चाह रहा था कि इन्होंने ऐसा क्यों किया। दरअसल जो हरभजन, मुनाफ, आरपी, पठान और रैना जैसे क्रिकेटरों की सबसे बड़ी ताकत है, वही सबसे बड़ी कमजोरी भी। जिसने धोनी ब्रिगेड को मैचविनर बनाया है, वही लोगों के आंखों की किरकिरी भी।
क्रिकेट मुंबई-दिल्ली, राजवाड़े और बड़े घरानों से निकलकर अब भारत के दूर-दराज इलाकों में फैल चुका है। जालंधर के हरभजन सिंह, मेरठ के प्रवीण कुमार, मुरादनगर के सुरेश रैना, भरूच के मुनाफ बिंदास नजरिया लेकर क्रिकेट मैदान पर आ रहे हैं। नजफगढ़ के सहवाग को सामने खड़े गेंदबाज के शख्सियत की परवाह नहीं। भज्जी या प्रवीण हेडन या पीटरसन को वैसा ही समझकर गेंद फेंक रहे होते हैं जैसे वो अपने मुहल्ले के बबलू या बंटी को फेंकते आए हैं। ऐसे क्रिकेटर इतिहास के बोझ तले भी दबे नहीं होते। शायद इसलिए जब इनसे पूछा जाता है कि क्या आपको अंदाजा है कि टीम इंडिया अबतक न्यूजीलैंड में हारती आई है तो ये हंसकर जवाब देते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर हम बढ़िया खेलेंगे तो जीतेंगे, अगर खराब खेले तो हारेंगे।
आपको सहवाग का पाकिस्तान में दिया गया मशहूर बयान याद ही होगा। राहुल द्रविड़ के साथ सहवाग ओपनर के तौर पर पंकज रॉय और वीनू मांकड़ की जोड़ी का वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ने के करीब थे। पत्रकार ने जब वीरू से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- कौन पंकज रॉय, मैंने तो इनके नाम तक नहीं सुने। किसी को भला लगे या बुरा, अगर ये वीरू की कमजोरी है तो सबसे बड़ी ताकत भी। लब्बोलुआब ये है कि अगर क्रिकेट के लोकतांत्रिकरण ने भारत को बिंदास खिलाड़ियों की फौज दी है, तो ऐसे कैरेक्टर भी जिन्हें इतिहास, मूल्यों और उसूलों का अंदाजा नहीं।
टीम इंडिया में एक ऐसे मशहूर क्रिकेटर हैं जो इंटरव्यू देना पसंद नहीं करते। टी-20 वर्ल्ड कप के सिलसिले में मैं दक्षिण अफ्रीका में था। प्रिंट के एक पत्रकार ने जब इस क्रिकेटर से कहा कि अगर तुम लम्बी रेस का घोड़ा बनना चाहते हो, तो तुम्हें मीडिया को साथ लेकर चलना होगा। हंसते हुए उस क्रिकेटर ने जवाब दिया- एक बात मैं अच्छे से जानता हूं अगर मैं अच्छा खेला तो आप मेरी तारीफ करने पर मजबूर होंगे और अगर मैं बुरा खेला तो आप लाख चाह लो, मुझे बचा नहीं पाओगे। जैसे ही प्रिंट मीडिया का वो पत्रकार आगे गया, उस क्रिकेटर ने मुझसे कहा- ये दादा को नहीं बचा पाए, मैं किस खेत की मूली हूं।
ऐसा ही एक और वाकया मुझे याद आता है। भारत के सुदूर इलाके से आने वाले एक क्रिकेटर ने मेथ्यू हेडन को आउट करने के बाद जमकर गाली दी। मैच खत्म होने के बाद जैसे ही हमने इस बारे में उस क्रिकेटर से चर्चा की तो उन्होंने कहा- पता है भैया, हमारे बीते जेनेरेशन ने इन कंगारुओं का दिमाग खराब कर दिया है। वो इन्हें बाउंसर फेंकने बाद सॉरी कहते थे। मेरा तो फंडा साफ है, मैं बाउंसर भी फेंकता हूं और दबाकर गाली भी देता हूं।
आत्मविश्वास, बिंदास नजरिया और किसी की परवाह नहीं करना दुधारी तलवार है। अगर इस नजरिए का पोजिटिव इस्तेमाल हो, तो वो मौजूदा टीम इंडिया की तरह चैंपियन टीम बनाती है। अगर इसने अराजक रूप ले लिया तो ये पाकिस्तान क्रिकेट टीम का ड्रेसिंग रूम जैसा माहौल बनाती है। पाकिस्तान में जबतक ऐसे क्रिकेटरों को नेतृत्व करने वाला इमरान खान जैसा लीडर मिला, तो उस टीम का बेहतरीन प्रदर्शन रहा। जैसे ही इमरान ने क्रिकेट को अलविदा कहा पाकिस्तान का ड्रेसिंग रूम अराजकता का प्रतीक बनता गया। अगर भारतीय टीम में भज्जी-वीरू-धोनी जैसे बिंदास क्रिकेटर हैं, तो सचिन, राहुल और लक्ष्मण जैसे अनुभवी और जागरूक इंसान भी जो इन्हें उड़ते वक्त नियंत्रण में रखते हैं।
सवाल ये है कि त्रिमूर्ति की विदाई के बाद ऐसा कौन करेगा। अगर मैं अपने अनुभव को आधार मानूं तो इस लिहाज से गौतम गंभीर में वो माद्दा है। अपने बेहतरीन खेल से वो ना सिर्फ मिसाल बनकर टीम की अगुवाई कर सकते हैं, बल्कि सोच और उसूलों के मामले में वो मौजूदा क्रिकेटरों को सही दिशा भी दे सकते हैं। सच कहता हूं, अगर बिंदास क्रिकेटरों के ब्रिगेड को कोई बिंदास मुखिया मिल गया, तो भारतीय क्रिकेट का बहुत बुरा होगा।
हरभजन और धोनी ने पद्म पुरस्कार के लिए नहीं जाकर बहुत बुरा किया। वो रोल मॉडल हैं और उनके इस रवैये से गलत संदेश जाता है। मैं कतई उनका बचाव नहीं कर रहा। साथ ही मैं दो सवाल छोड़ रहा हूं-पहला सवाल..क्या हम अपने दिल पर हाथ रखकर ये पूछ सकते हैं कि क्या हम राष्ट्रीय प्रतीकों और सम्मानों को उतना ही सम्मान करते हैं जितना हमारे माता-पिता करते आए, क्या अगले जेनेरेशन के मन में उनके लिए उतनी ही इज्जत है जितनी हममें हैं? दूसरा सवाल- क्या भज्जी, पठान, रैना, सहवाग जैसे क्रिकेटरों के आने से भारतीय क्रिकेट मजबूत नहीं हुआ...क्या ऐसे क्रिकेटरों ने तिरंगे की शान को नहीं बढ़ाया?
आजमगढ़ अगर आज कामरान दे रहा है और भरूच मुनाफ, मेरठ अगर प्रवीण दे रहा है और कोच्ची श्रीसंत, इससे भारतीय क्रिकेट का सम्मान बढ़ा है। ये बिंदास जरूर हैं, लेकिन दिल से भोले भी। राजे-राजवाड़ो और पारंपरिक क्रिकेट स्कूलों से आए क्रिकेटरों की तरह ये एलीट तो नहीं, लेकिन मकसद दिखाए जाने पर ये जी-जान लगाना जानते हैं।
जरूरी है इन्हें राष्ट्रीय और समाजिक तौर पर जागरूक करने की, इनकी ताकत को सही दिशा देने की और इनके भोले मन में वसूलों के लिए इज्जत पैदा करने की। ऐसे क्रिकेटरों को लीडरशिप के लिए पहले कॉनवेंट में पढ़े गांगुली चाहिए था और अब एक और कॉनवेंट में पढ़े गंभीर चाहिए। जरूरी है कि हम इन्हें इतना जागरूक करें, कि आने वाले कल में वो अपना लीडर खुद बन सकें।
1 comment:
जो बात गलत है सो गलत है. राष्ट्र के सम्मान के आगे कोइ तथ्य जायज नहीं. इस पर बात ही नहीं होनी चाहिये.
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