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Monday, April 27, 2009

वो सुबह कभी तो आएगी

अर्जुन सिंह कांग्रेस के लंबे समय तक सिपहसालार रहे हैं, गांधी परिवार के वफादार भी । लेकिन बुढ़ापे में वो पार्टी से जो चाहते वो उनको नहीं मिला. कांग्रेस में डायनेस्टी पालिटिक्स पर वरिष्ठ पत्रकार प्रभात शुंगलू ने हाहाकार के लिए खास तौर पर ये लेख लिखा है ।
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78 साल के अर्जुन सिंह को कांग्रेस ने लॉयल्टी का पुरस्कार दिया। उनके बेटे और बेटी दोनों को ही पार्टी ने टिकट नहीं दिया। अर्जुन सिंह को हार कर अपनी बेटी के खिलाफ भी प्रचार करना पड़ा। ये उसी समय की बात है जिन दिनों प्रियंका गांधी अमेठी में घूम घूम कर भैया राहुल को पीएम मैटिरियल बता रहीं थीं। यानि कुल मिलाकर बता रहीं थी कि केवल गांधी परिवार ही देश पर हुकूमत कर सकता हैं।
 कांग्रेसी कल्चर में गांधी परिवार के अलावा अगर कोई दूसरा प्रधानमंत्री बना तो वो भी डाइनेस्टी के आशीर्वाद से। विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में डाइनेस्टी की कोई जगह नहीं। ऐसा होता तो कैनेडी की हत्या के बाद उनके भाई रॉबर्ट राष्ट्रपति बनते। बुश सीनीयर अपने बेटे के लिये गद्दी छोड़ जाते। लेकिन ऐसा भी नहीं हुया।  अश्वेत ओबामा के प्रेसिडेंट चुने जाने के बाद कहा जा रहा कि अमेरिका के सोचने का नजरिया बदला है। लेकिन विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आजादी के छह दशकों बाद भी लोगों  को डाइनेस्टी मानसिकता की बेड़ियों ने जकड़ा हुया है।
सवाल ये नहीं कि राहुल पीएम मैटिरियल हैं या नहीं। इस बहस में पड़ने से पहले राहुल के कुछ हमउम्र कांग्रेसी नेताओं की बात छेड़ना लाजमी है। आखिर जितिन प्रसाद में क्या कमी है। उनके पिता ने भी कांग्रेस को अपनी पूरी जिंदगी दी। ज्योतिर्आदित्य सिंधिया प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते। उनके पिता तो सफल राजनीतिज्ञ ही नहीं कुशल मंत्री भी थे। और कांग्रेस के प्रचार करते करते ही शहीद हुये। सचिन पायलेट के पिता राजेश पायलट होम मिनिस्टर रहे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा। जिस समाज से आते हैं वो कुछ राज्यों में ओबीसी श्रेणी में आता है। अर्जुन सिंह तो बस अपने बच्चों के लिये सांसद का टिकट मांग रहे थे। उन्होने पार्टी को 50 साल अपना सर्वस्र दिया। और फिर जिस पार्टी में गांधी परिवार की वफादारी ही पार्टी में उसका ओहदा और दर्जा तय करती आयी हो ऐसे में अर्जुन सिंह सरीखे नेता को वफादाऱी के ईनाम की उम्मीद लगाना कतई गलत नहीं आंका जा सकता।
सवाल डाइनेस्टी का नहीं। क्योंकि ये बहस तो अनंत है। इस कथा पुराण में पड़ेंगे तो फिर पूछा जायेगा कि अगर एक वकील का बेटा वकालत कर सकता है, एक सर्जन का बेटा डाक्टर बन सकता है तो एक नेता का बेटा नेता क्यों नहीं। लेकिन सवाल ये तो पूछा ही जा सकता है कि ये कब हुया कि एक चीफ जस्टिस का बेटा भी चीफ जस्टिस बना हो। एम्स का डायरेक्टर रिटायर होने से पहले अपने युवा बेटे के लिये गद्दी छोड़ जाये। क्योंकि यही सवाल कांग्रेस के सामने है। अगर राहुल पार्टी की सदस्यता लेने के पांच साल के अंदर ही पार्टी महासचिव बना दिये जाते हैं तो ज्योतिर्दित्य सिंधिया क्यों नहीं। सचिन पायलट क्यों नहीं। मीरा कुमार क्यों नहीं अब तक बन पायीं। या क्यों जितिन प्रसाद भी इस लायक नहीं समझे जाते। और एक बार फिर वही मूल प्रश्न कि अगर राहुल पीएम मैटिरियल हैं तो बाकी युवा कांग्रेसियों में ऐसे कौन से बबूल के कांटे लगे हैं। उनके बायोडेटा में क्या कमी है।
एक कमी है। गांधी शब्द की। और यही कमी उन्हे पार्टी में वो ही दर्जा दिलाती है जो कलावती की थी जिससे राहुल विदर्भ में मिल कर आये और जिसकी दशा और व्यथा उन्होने देश की संसद में बयां की। वो कलावती जिसके किसान पति ने कर्ज के बोझ तले आत्महत्या कर ली थी। वो महिला उपेक्षित थी।
 लेकिन किसी की राजनीतिक अपेक्षाओं की उपेक्षा करना क्या सही है। राहुल ने खुद ही तय किया कि चुनाव लड़ेंगे। मां ने तय किया महासचिव बनेंगे। बहन अब प्रधानमंत्री बनाने पर आमादा है। बहन ही क्यों डाइनेस्टी को पूजने वाले, गांधी परिवार की सरपरस्ती के बिना खुद को यतीम मानने वाले कई दिगग्ज कांग्रेसी भी यही चाहते है। जितिन, ज्योतिर्दित्य, सचिन, दिपेन्द्र हूडा, नवीन जिंदल, अजय सिंह, वीणा सिंह, मिलिंद देवड़ा के मन को कभी टटोलने का मौका नहीं मिला। क्या पता कलावती जो पीड़ा अपने पति के मौत की गमी में झेल रही हो वैसी राजनीतिक कसमसाहट ये भी झेलते हों। कलावती को राहुल मिल गये। शायद उसके जीवन में कुछ चैन लौटा हो। मगर राहुल के पास क्या अपने इन युवा साथियों के मन के दर्द को समझने का समय या साहस है।
कहा यही जाता रहा कि गांधी परिवार की सरपरस्ती न हो तो कांग्रेस पार्टी टूट जायेगी। बिखर जायेगी। ये सवाल नेहरू के बाद भी पूछा गया। आफ्टर नेहरू हू। मगर लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी सरीखी राजनीति की छाप छोड़ी। वी पी सिंह कांग्रेस छोड़ कर जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होने भी राजनीति को नई दिशा दी। नरसिंह राव जब आये एकोनॉमिक पॉलिसी का कायाकल्प कर दिया। कांग्रेस फिर भी नहीं टूटी।
अब राहुल के पास एक मौका है। कह दें वो कि अगला कांग्रेसी पीएम गांधी परिवार से नहीं होगा। पीएम ही क्यों पार्टी अध्यक्ष भी गांधी परिवार से नहीं होगा। क्योंकि ऐसा हुया तो इस देश के करोड़ो करोड़ लोगों की मानसिकता पर पड़ी डाइनेस्टी की जंजीरे खुल जायेंगी। फिर प्रधानमंत्री पायलट का बेटा बने या उद्योगपति का बेटा पब्लिक की राजनीतिक महत्वकांक्षा सही मायनों में बुलंद होगी। डाइनेस्टी को ही माई-बाप मानने की उसकी झेंप मिटेगी। फिर नाम से नहीं काम से मेरिट आंकी जायेगी। और जब वो सुबह आयेगी कलावती इतनी निरीह नहीं होगी। नहीं तो जनता को तय करना होगा डाइनेस्टी से पनपी चाटुकारिता संसकृति के मकड़जाल से निकलने के लिये उसके पास क्या विकल्प है। राजे रजवाड़े तो खत्म हो ही चुके हैं।  डाइनेस्टी से निजात पाने के लिये कब और किस तरह वो बड़ी लकीर खींचनी है ये जनता तय कर ले। उस सुबह का भी इंतजार रहेगा।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

जो हाल नेताओ का है वही हाल मतदाताओ का है।एक बहुत बड़ा तबका आँखे मूँद कर वोट करता है क्योकि उन्हें नेहरू खानदान के सिवा किसी दूसरे में कोई योग्यता देखने की हिम्मत ही नही है।