अभी हाल में कई खबरें आई जिसपर हमारे देश के प्रगतिशील
साहित्यकारों का ध्यान लगभग नहीं के बराबर गया । चीन के एक विश्वविद्यालय ने अपने
छात्रों के लिए एक फरमान जारी किया । इस फरमान के मुताबिक कैंपस में कोई लड़का या
लड़की एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर नहीं चल सकते हैं । इसी फरमान में ये भी आदेश
दिया गया कि लड़का-लड़की एक दूसरे के कंधे पर हाथ भी नहीं रख सकते हैं और उनको एक
दूसरे को खाना खिलाने पर भी पाबंदी लगाई गई । इसके अलावा भी इस फरमान में कई ऐसी
बातें हैं जो बालिग छात्र-छात्राओं के फैसले लेने पर बाधा बनती है । चीन के एक विश्वविद्यालय
का ये फैसला एक खबर की तरह आया और चला गया । देश में हर बात पर प्रगतिशीलता को गले
में मैडल की तरह जाल कर घूमने वाले बुद्धिजीवी या लेखक संगठनों के मुंह से चूं तक
नहीं निकली । किसी को निजता का हनन नजर नहीं आया । प्रगतिशील जमात में से किसी ने
चीनी विश्वविद्यालय के इस फैसले पर विरोध नहीं जताया, बयान जारी करने तक की
औपचारिकता नहीं निभाई गई । दूसरा मसला भी चीन का ही था । चीन के कम्युनिस्ट पार्टी की
सेंट्रल कमेटी ने एक बार फिर से अजीबोगरीब फरमान जारी कर पूरी दुनिया को चौंका
दिया है । वहां के शासक दल के नए हुक्मनामे के मुताबिक पार्टी कॉडर के गोल्फ खेलने
पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया है । तर्क यह दिया गया है कि इससे
भ्रष्टाचार को रोकने में मदद मिलेगी । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमिटी
के नए फरमान के मुताबिक पार्टी के करीब पौने नौ करोड़ सदस्यों के लिए जिस आठ
सूत्रीय नैतिक फॉर्मूले को जारी किया गया है उसमें गोल्फ के अलावा होटलों में अधिक
खाने पीने की मनाही तो है ही विवाहेत्तर संबंधों पर रोक भी लगा दी गई है । गोल्फ
से तो कम्युनिल्ट पार्टी का पुराना बैर रहा है । माओ ने इसको बुर्जुआ खेल मानते
हुए इसपर पाबंदी लगाई थी । उसके बाद देंग के शासनकाल में गोल्फ को अनुमति मिली थी
लेकिन लगातार इस खेल के खिलाफ चीन में मुहिम चलती रही । चीन की कम्युनिस्ट पार्टी
के इस नए निर्देशों के बाद पूरी दुनिया में मानवाधिकार को लेकर सचेत लोगों ने
विरोध के स्वर तेज कर दिए हैं लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को मानवाधिकार की
कहां फिक्र है । सेंट्रल कमटेी ने अपने कॉडर से साफ तौर पर कहा है कि वो व्यक्तिगत
बातों को पार्टी के साथ साझा करें और फैसले की जिम्मेदारी पार्टी पर छोड़े ।
कार्यकर्ताओं की रुचि से लेकर उसकी व्यक्तिगत जिंदगी तक तो पार्टी के रहमोकरम पर
छोड़ दिया गया है । ‘उनका चेयरमैन हमारा चेयरमैन’ का नारा लगानेवाली
प्रगतिशील जमात चीन के इस कदम पर खामोश है । ये दोनों मसले चीन के थे में
लिहाजा उनके मुंह पर ताला लग गया । जहां से वैचारिक ऊर्जा मिलती हो वहां की हुकूमत
के फैसले के खिलाफ कैसे मुंह खुल सकता है । आस्था से लेकर प्रतिबद्धता का सवाल जो
ठहरा । प्रतिबद्धता के बौद्धिक गुलामों से ये अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए कि वो
चीन के किसी फैसले के खिलाफ कोई आवाज उठाएंगे । यही फैसला अगर बीजेपी शासित किसी
राज्य में हो जाता तो अब तक ये जमात उस राज्य के मुख्यमंत्री समेत देश के
प्रधानंमत्री से जवाब तलब कर रहे होते । देश में निजता के दखल को लेकर छाती कूट
रहे होते । इस तरह की चुनिंदा प्रतिरोध से ही प्रगतिशील जमात के विरोध को देश की
जनता ने गंभीरता से लेना छोड़ दिया । बिहार चुनाव में तमाम वामपंथी दलों ने एकजुट
होकर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा । लोकतंत्र में जब साख
छीजती है तो जनता की अदालत में यही हश्र होता है ।
अब जरा एक और खबर की ओर नजर डाल लेते हैं
। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में एक नाटक में भारतीय चरित्र के लिए श्वेत
अमेरिकी लड़कों के चुनाव के बाद हंगामा मच गया । पश्चिमी पेनसिलवेनिया के एक
सरकारी संस्थान में होनेवाले इस लॉयड सुह के इस नाटक को रद्द कर दिया गया । अपने
नाटक के मंचन का अधिकार लेखक ने नहीं दिया क्योंकि उनका कहना था कि ये नाटक की मूल
भावना के खिलाफ होगा कि श्वेत शख्सियत के चरित्र को कोई अश्वेत निभाए । । उसके बाद पूरे विश्वविद्यालय में
नस्लवाद पर बहस शुरू हो गई है । नाटककार लॉयड ने अपने इस नाटक – जीजस इन इंडिया- के रद्द
होने को जायज ठहराते हुए कहा कि दक्षिण एशिया के लोगों के चरित्र में गोरे लोगों
को दिखाना उचित नहीं होगा । उन्होंने कहा कि ये नाटककार की जिम्मेदारी है कि वो
अपने नाटक में जिल रंग के चरित्र को गढ़ता है उसके मंचन के वक्त उसी रंग या नस्ल
का कलाकार उस चरित्र को निभाए । नाटक को रद्द करने का फैसला लेने के पहले लॉयड ने
विश्वविद्यालय के छात्रों से अभिनय कर रहे छात्रों को बदलने को कहा । बातचीत के
बाद नाटकककार लॉयड ने जब यह कह दिया कि श्वेत चरित्र को अश्वेत कलाकार से अभिनय
करवाना नाटक के साथ अन्याय होगा । इसके बाद बातचीत टूट गई और नाटक का मंचन रद्द
करना पड़ा । इस नाटक के निर्देशक मार्लियो मिशेल ने लेख लिखा और नाटककार को करारा
जवाब देते हुए कहा कि ये निर्देशक का फैसला होता है कि वो अपने किस चरित्र में किस
अभिनेता से अभिनय करवाए । विश्नविद्यालय ने भी नाटककार के फैसले पर दुख जताते हुए
कहा कि इससे छात्रों का दिल टूट गया है और अब वो लॉयड के साथ किसी तरह की बातचीत
नहीं करना चाहते हैं । ये खबर भी भारत के अखबारों में छपी लेकिन नस्लभेद की इस
संगीन घटना पर हमारे यहां किसी भी कोने अंतरे से आवाज नहीं आई । क्या साहित्य जगत
में इस तरह की बातों पर विमर्श नहीं होना चाहिए । क्या दुनिया के किसी कोने में
भारत के लोगों के साथ इस तरह का बर्ताव हो तो हमारे देश के बुद्धिजीवियों को खामोश
रहना चाहिए ।
भारत में बढ़ते असहिष्णुता का आरोप लगाकर उसके खिलाफ
अमेरिका से अपील करनेवालों ने भी नस्लभेद की इस गंभीर घटना पर कुछ नहीं कहा । बात
बात पर संयुक्त राष्ट्र में जाने की बात करनेवाले हमारे सियासतदां ने भी इस खबर को
गंभीरता से नहीं लिया । भारत में बढ़ रही कथित असहिष्णुकता पर अमेरिका के
राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक बयान को उद्धृत करनेवाले भी खामोश हैं । ये खामोशी
बहुत परेशान करनेवाली है । इसी तरह का एक विवाद दो हजार ग्यारह में लंदन रिव्यू ऑफ
बुक्स में पंकज मिश्रा और नील फरग्युसन के बीच हुआ था । दोनों के बीटच नस्लवादी
लेखन पर कई अंकों में लेख-प्रतिलेख छपे थे । नील परग्युसन की किताब- सिविलाइजेशन, द वेस्ट एंड द रेस्ट पर
पंकज मिश्रा ने लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में समीक्षा लिखी थी जिसको लेकर विवाद शुरू
हुआ था । उस वक्त भी भारत के लेखक खामोश रहे थे । हमें इन खामोशियों का मतलब समझ
नहीं आता है । अगर आप बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं, अगर आप किसी विचारधारा की बेड़ियों में जकड़े हुए नहीं हैं
तो साहित्यक और सामाजिक मुद्दों पर आपकी कलम वस्तुनिष्ठ होकर चलनी चाहिए । यही कलम
जब वस्तुनिष्ठ नहीं रहती है और चुनिंदा प्रतिक्रिया देती है तब पाठकों का विश्वास
लेखक से डिगता है । चीन से लेकर अमेरिका से लेकर लंदन तक मे घटी घटनाओं पर लाल कलम
पता नहीं क्यों नपुंसक हो जाती है । कलम में वो धार होनी चाहिए वो तेज होनी चाहिए
जो कि एक न्यायप्रिय शासक के पास हुआ करती थी । जो बगैर धारा, विचारधारा, संगठन, स्वार्थ, जाति समुदाय आदि को देखे
न्याय करता था । कलम को अगर हम किसी खास विचारधारा का गुलाम बनाएंगे या फिर कलम की
धार किसी खास समुदाय के समर्थन में उठा करेगी तो समय के साथ उस कलम पर से पाठकों
का विश्वास उठता चला जाएगा । भारत के
ज्यादातर प्रगतिशील लेखकों के साथ यही हुआ है । उनकी कलम चुनिंदा मसलों पर चलती
रही है । एम एफ हुसैन पर वो बोलते रहे लेकिन तसलीमा पर साजिशन खामोश रहे । हिंदुओं
के बीच बढ़ रहे कथित कट्टरता पर उन्होंने जोरदार प्रतिवाद किया लेकिन जब मुस्लिम
कट्टरपन की बात आए तो एक अजीब तरह की खामोशी या उदासीनता देखने को मिली । यह दोहरा
रवैया प्रगतिशीलों ने जानबूझकर रखा इस बात के तो प्रमाण नहीं हें लेकिन जब कई
मसलों पर ऐसा हुआ तो लगा कि इसके पीछे कुछ है । अब वक्त आ गया है कि प्रगतिशील
जमात अपने पूर्व के कारनामों पर सफाई दे और ये साफ करे कि उनकी प्रतिक्रिया किन
मसलों पर नहीं आई । यह उनके भविष्य के लिए भी अच्छा होगा और लोकतंत्र की मजबूती के
लिए भी क्योंकि विचारों का प्रवाह लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता है ।
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