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Sunday, November 1, 2015

लेखक संगठनों की शतरंजी बिसात

देश में पुरस्कार वापसी के माहौल में अचानक से लेखक संगठनों की सक्रियता चौकानेवाली है । साहित्य अकादमी के खिलाफ प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के साझा बैनर के तले दिल्ली में चंद लेखकों ने मौन जुलूस निकालते हुए क्रांति का बिगुल फूंका था। लगभग सुसुप्तावस्था में पड़े इन लेखक संगठनों ने जिस तरह से आनन फानन में विरोध किया उसके बाद उनकी मंशा पर सवाल खड़े होने लगे हैं । साहित्य जगत में मौजूद ये तीन लेखक संगठन दरअसल अपनी अपनी राजनीतिक पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ हैं । लिहाजा जिस तरह से राजनीतिक दलों के बौद्धिक प्रकोष्ठ काम करते हैं उसी तरह से ये भी ऑपरेट करते हैं । जैसे जैसे इन राजनीतिक दलों में विभाजन होता गया लेखक संगठन भी बंटते चले गए । प्रगतिशील लेखक संघ सीपीआई का बौद्धिक प्रकोष्ठ है । इसी तरह से सीपीएम का जनवादी लेखक संघ और सीपीआई माले का जन संस्कृति मंच । लेखकों के नाम पर बने इन पार्टियों के बौद्धिक संगठनों ने लेखकों का कुछ भला किया हो या लेखकों की बेहतरी के लिए कोई लड़ाई लड़ी हो, याद नहीं पड़ता । ये अपने हर कदम के लिए पहले अजय भवन आदि की ओर देखते हैं और वहां से ग्रीन सिग्नल मिलने के बाद ही कोई कदम आगे बढ़ा पाते हैं । समाज में बढ़ रही असहिष्णुता और लेखकों पर कथित सुन्योजित हमलों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले इन लेखक संगठनों को कभी भी कॉपीराइट औप रॉयल्टी जैसे अहम मसलों पर विमर्श करते हुए नहीं देखा गया है । हिंदी में तो कम से कम से कम रॉयल्टी एक अहम मुद्दा है । बहुधा लेखकों की तरफ से ऐसे बयान आते हैं कि उनको प्रकाशककों से उचित रॉयल्टी नहीं मिलती है । लेखकों को लगता है कि प्रकाशक उनका हक मारकर मोटा मुनाफा कमाते हैं । यह बात भी बार बार कही जाती है कि हिंदी के लेखक गरीब होते जा रहे हैं जबकि प्रकाशक लगातार अमीर होते जा रहे हैं। हिंदी के इस सबसे अहम मुद्दे पर इन तीनों लेखक संगठनों ने कभी कोई आंदोलन नहीं किया । कभी कोई मौन जुलूस लेकर किसी प्रकाशक के दफ्तर पर प्रदर्शन नहीं किया । धरना प्रदर्शन आदि की बात छोड़ भी दें तो क्या इन लेखक संगठनों ती तरफ से इस बारे में कोई पहल की गई । इसका जवाब अबतक तो नहीं है । इस वक्त साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर सुर्खियों में आए मंगलेश डबराल ने कहा था लेखक संगठन लेखकों के यूनियन नहीं हैं जो क़पीराइट आदि के मुद्दों पर संघर्ष करें । ये तो वैचारिक संगठन हैं जिनका काम साहित्य की दुनिया में वैचारिक संवेदना का प्रचार करना है । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि किस तरह की वैचारिक संवेदना को फैलाने का काम इन लेखक संगठनों ने किया । इसके अलावा इन लेखक संगठनों ने लेखकों की मदद के लिए कभी कोई पहल की, इस बारे में भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । हिंदी के कई लेखक मुफलिसी में जिंदगी काटकर गुजर गए, कई गंभीर बीमारी और आर्थिक संकट की वजह से अपना समुचित इलाज नहीं करवा पाने की वजह से चल बसे लेकिन इन लेखक संगठनों ने उनकी कोई सुध नहीं ली । कई लेखक तो ऐसे थे जो कि इन संगठनों में बेहद सक्रिय थे लेकिन जब वो बीमार पड़े या फिर उनके सामने आर्थिक संकट आया तो लेखक संगठनों ने उनको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका । आज कन्नड़ के लेखक कालबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी के शोक नहीं मनाने, जो कि तथ्यहीन है, को लेकर सड़कों पर उतरे साहित्यकारों को स्मरण दिलाना चाहता हूं कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक अरुण प्रकाश की मौत के बाद लेखक संगठन कितने निष्क्रिय रहे थे । अरुण प्रकाश दिल्ली का निधन दिल्ली के मयूर विहार इलाके में हुआ था । लेखक संगठनों से जुड़े तमाम वरिष्ठ साहित्यकार उनके फ्लैट के आधे एक किलोमीटर के दायरे में रहते हैं लेकिन कोई उनके घर शोक व्यक्त करने तक नहीं पहुंचा था । उनके अंतिम संस्कार में भी गिने चुने साहित्यकार थे । इस तरह की संवेदनहीनता के दर्जनों उदाहरण इन लेखक संगठनों के सर पर कलगी की तरह लगे हैं । दुखद ये कि इन लेखक संगठनों को अपनी इस संवेदनहीनता पर शर्मिंदगी भी नहीं है । इसके अलावा साहित्य अकादमी में सालों से चली आ रही गड़बड़ियों को लेकर भी लेखक संगठनों ने कभी कोई आवाज वहीं उठाई, क्योंकि इन लेखक संगठनों से जुड़े लेखकों को वहां से फायदा मिल रहा था । वो पुरस्कृत हो रहे थे, साहित्यक विदेश यात्राएं कर रहे थे,, देश भर में सेमिनार आदि के नाम पर घूमना फिरना हो रहा था । उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद साहित्य अकादमी का इतिहास घोटालों और घपलों का रहा है । उसपर किसी तरह का स्पंदन उस वक्त साहित्य जगत में नहीं दिखा । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष गोपीचंद नारंग पर कई तरह के संगीन इल्जाम लगे थे लेकिन पंकज विष्ठ के अलावा किसी लेखक ने आवाज उठाई हो याद नहीं पड़ता, लेखक संगठन की बात तो दूर  । इसी तरह से साहित्य अकादमी के सचिव को घपलों के आरोप में सस्पेंड किया गया था । उनके खिलाफ जांच बैठी थी । इस बीच उनको रिटायर कर दिया गया । उनके घपलों की जांच रिपोर्ट के नतीजे क्या आए, ये जानने की कोशिश किसी लेखक संगठन ने की या नहीं इसको देखने की आवश्यकता है । साहित्य जगत में इस बात की चर्चा लगातार रही कि उक्त सचिव ने कई वामपंथी लेखकों को उपकृत किया था लिहाजा उन सबों का अकादमी पर दबाव था कि इस मामले को रफा दफा कर दिया जाए। वही हुआ । विश्वनाथ तिवारी उन घपलों की जांच कर रहे थे लेकिन नतीजा क्या रहा पता नहीं चल पाया । सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में घुमा-फिरा कर टाल दिया गया ।  
अब जरा इन लेखक संगठनों के क्रियाकलापों पर नजर डालते हैं। इन लेखक संगठनों में विश्वविद्लाय के शिक्षकों के दबदबे पर राजेन्द्र यादव ने कहा था- साहित्यकारों में ज्यादातर प्राध्यापक हैं, क्या ईमानदारी से इनमें से कोई वो काम करता है जिसके लिए उनको वेतन मिलता है । ये लोग ना तो अपने पाठ्यक्रम के साथ न्याय करते हैं न अपने छात्रों के साथ । साहित्य में उतरकर उनका लगभग यही उठाईगीर रवैया हम सबके सामने है । पुराने कवियों लेखकों को छोड़कर न इऩमें से किसी ने भी कोई ऐसी पुस्तक लिखी है जो वैचारिक रूप से आंदोलित करे या देश-विदेश के विचारों के परीक्षण का जोखिम उठाए । आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र की तरह सब बाहर से माल लाकर अपना ठप्पा ठोंक देते हैं । कभी कभी मैं सोचता हूं कि हिंदी में कबीर, तुलसी और निराला ना होते तो इन बेचारों की जिंदगी क्या होती । अपनी विद्वता कहां झाड़ते । समीक्षक वीरेन्द्र यादव ने भी माना था लेखक संगठनों की निष्क्रियता के मूल में वामपंथी राजनीति कीपस्त हिम्मती, सुविधाजीविता और परिप्रेक्ष्यविहीनता है, वहीं लेखकों के बीच पद, प्रतिष्ठा व पुरस्कार आदि को लेकर लोलुपता बढ़ी है । वैचारिक उदारतावाद का स्थान नग्न अवसरवाद ले रहा है । इन्हीं दुर्गुणों को प्रगतिशील लेखक संघ में लक्ष्य करके जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच का गठन हुआ था , लेकिन ये संगठन भी कमोबेश आज के प्रगतिशील लेखक संघ की तरह झंडा-बैनर अधिक रह गए, सक्रिय लेखक संगठन कम ( कोलाहल कलह में-पृ 60)। यहां वीरेन्द्र यादव, मंगलेश से इतर विचार रखते हैं जब वो कहते हैं कि लेखक संगठनों को कॉपीराइट आदि के मुद्दों पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है । लेखक संगठनों को लेकर इनसे वैचारिक और सांगठनिक रूप से जुड़े लेखकों के बीच जबरदस्त कंफ्यूजन की स्थिति है और यह कंफ्यूजन इनकी निष्क्रियता की वजह है ।

अब जरा हम इन लेखक संगठनों के क्रियाकलापों में पारदर्शिता की परख करते हैं । इन लेखक संगठनों का सालाना या द्वैवार्षिक अधिवेशन होता है । उन अधिवेशनों में क्या क्या प्रस्ताव आदि पारित होते हैं उसका कोई दस्तावेजी रिकॉर्ड कहीं मिलता नहीं है । इन लेखक संगठनों से जुड़े मठाधीशों ने अपने कितने चेले चपाटों की किताबें छपवाकर उनको प्रोफेसर बनवा दिया लेकिन अपने संगठन के क्रियाकलापों के दस्तावेज छपवाने के लिए उनके पास वक्त नहीं है । हो सकता है कि उन अधिवेशनों में जो होता हो उसका रिकॉर्ड रखना संगठन के हित मे ना हो लिहाजा उसको संभालने की उचित व्यवस्था नहीं की गई । अधिवेशनों में पारित प्रस्ताव अगर मौजूद होते तो उसको कसौटी पर कस कर काल और परिस्थिति के मुताबिक इन संगठनों का मूल्यांकन हो सकता था । जो हो नहीं पा रहा है । क्या ये माना जाए कि जानबूझकर इन संगठनों के क्रियाकलापों के सबूत को छिपाकर रखा गया है ताकि उनका मूल्यांकन ना हो सके । निर्मल वर्मा ने कम्युनिस्टों के बारे में कहा था- उनका लगाव और प्रेम अपने सिवा किसी और से नहीं है । उनके शतरंजी खेल में कोई भी वर्ग , चाहे वो कितना भी उत्पीड़ित क्यों ना हो, उनके लिए बाजी जीतने की मुहर से अधिक महत्व नहीं रखता । साहित्य अकादमी के बाहर इकट्ठे लेखक संगठन के लोगों को देखकर यही सवाल मन में कौंधा था कि इस बार शतरंजी खेल में असहिष्णुता के मोहरे का इस्तेमाल हो रहा है । 

2 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, रामायण और पप्पू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Madan Mohan Saxena said...

सुन्दर प्रस्तुति , बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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