बहुधा यह कहा जाता है कि कानून अंधा होता है और न्याय की मूर्ति की आंखों पर बंधी
पट्टी की वजह से उसके फैसले सिर्फ कानूनी, किताबी और तकनीक रूप से दिए जाते हैं । इस
तरह के फैसलों में कानून की किताब में लिखे अक्षरों का तो पालन होता है लेकिन कई बार
वो व्यावहारिकता से कोसों दूर होता है । जैसे दिल्ली के निर्भया रेप कांड का नाबालिग
मुजरिम चंद दिनों के बाद जेल से रिहा गो जाएगा । अब कानून की नजरों में वो नाबालिग
है लिहाजा उसकी बर्बरता पर विचार तो हुआ लेकिन सजा देते वक्त उसको दरकिनार कर दिया
गया । यह वही मुजरिम है जिसने निर्भया के साथ वो हरकतें की थी जिसको देखकर शैतान की
भी रूह कांप जाए । यह भारतीय न्याय व्यवस्था का एक ऐसा पहलू है जिसपर गंभीरता से विचार
होना चाहिए । लेकिन कई बार अपवादस्वरूप न्यायालय के फैसलों में कानून की किताबों से
इतर मानवीयता पर भी विचार किया जाता है । इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने अभी ऐसा
ही एक मानवीय फैसला दिया जो कानून की तमाम तकनीकी पेंचों से अलग है । पूरा मामला एक
तेरह साल की बच्ची से रेप और उसके गर्भवती होने से जुड़ा है । रेप के बाद गर्भ का पता
सात महीने के बाद चला और कानूनी लड़ाई के बाद उसको गर्भ गिराने की इजाजत नहीं मिली
। बलात्कार की शिकार तेरह साल की लड़की ने एक बच्चे को जन्म दिया । गरीबी की वजह से
नाबालिग और उसका पिता ने इस बच्चे को अपने साथ रखने में असमर्थता जताई । मामला कोर्ट
तक गया । हाईकोर्ट ने बच्चे के परवरिश की जिम्मेदारी चाइल्ड वेलफेयर सोसाइटी को सौंपी
। इसके अलावा जो दो और बातें फैसले में कही गई हैं वो बेहद अहम हैं । हाईकोर्ट ने साफ
तौर पर कहा कि बलात्कार से जन्मी संतान का अपने जैविक पिता की संपत्ति में अधिकार होगा
। अदालत ने साफ कहा कि वारिसाना हक के लिए ये बात अप्रासंगिक है कि बच्चे का जन्म बलात्कार
से हुआ या आपसी यौन संबंध से । उसका अपने पिता की संपत्ति में हक होगा । अदालत ने उसके
बाद कई सारी चीजें भी साफ की कि किन परिस्थितियों में ये हक मिलेगा और किन में नहीं
। लेकिन इस फैसले को देखें तो न्यायाधीशों ने मानवीयता को तकनीक पर तरजीह दी । इस फैसले
से रेप को रोकने में मदद मिल सकती है । दूसरी बात जो इस फैसले में कही गई है वो है
राज्य सरकार को निर्देश । राज्य सरकार को बच्चे के बालिग होने तक परवरिश की जिम्मेदारी
सौंपी गई है । ऐसे हालात में जब बच्चे को पालने के लिए कोई आगे नहीं आता है तब सरकार
की जिम्मेदारी बनती है । कानून व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेदारी है और ऐसा प्रतीत
होता है कि उसमें ढिलाई से बढ़ रहे अपराध के नतीजों की जिम्मेदारी भी सरकार होती है
। ये दोनों फैसले अहम हैं और भविष्य में भी नजीर बनेंगे ।
सुप्रीम कोर्ट भी
समय समय पर बलात्कार के खिलाफ अपनी चिंता जता चुका है । चंद महीनों पहले सर्वोच्च अदालत
ने रेप की बढ़ती वारदातों पर ये जानना चाहा था कि क्या समाज और सिस्टम में कोई खामी
आ गई है या सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है या पर्याप्त कानून नहीं होने
की वजह से ऐसा हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसे ठीक से लागू नहीं कर पा
रहे हैं । बलात्कार के खिलाफ कानून लागू करनेवालों के बारे में सुप्रीम कोर्ट का सवाल
उचित है । इसके बारे में पूरे समाज को गंभीरता से विचार करना होगा । लेकिन अगर अदालतें
अपने फैसलों में कानून के काले अक्षरों पर मानवीय पहलुओं पर ज्यादा गंभीरता से ध्यान
देते हुए कानून की व्याख्या करती हैं तो समाज में एक अलग ही संदेश जाएगा जिसके दूरगामी
परिणाम होंगे ।
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