पिछले दिनों
जिस तरह से देश में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर लेखकों ने विरोध जताया, पुरस्कार वापसी
आदि हुआ उससे बाद दिल्ली में पहले सोनिया गांधी की अगुवाई में राष्ट्रपति को ज्ञापन
सौपा गया फिर अभिनेता अनुपम खेर ने मार्च ऑफ इंडिया किया । उसमें भी तमाम कलाकार, गायक,
लेखक, वैज्ञानिक आदि जुड़े । असहिष्णुता की आड़ में जिस तरह से राजनीति की गई उसको
देखते हुए राष्ट्रकवि दिनकर का उन्नीस अक्तूबर उन्नीस सौ पैंतालीस में अखिल भारतीय
हिंदी साहित्य सम्मेलन के तैंतीसवें अधिवेशन में दिया गया भाषण याद आ रहा है । तब दिनकर
ने कहा था – “साहित्य राजनीति
का अनुचर नहीं, वरन उससे भिन्न एक स्वतंत्र देवता है और उसे पूरा अधिकार है कि वो जीवन
के विशाल क्षेत्र में से वह अपने काम के योग्य वे सभी द्रव्य उठा ले जिन्हें राजनीति
अपने काम में लाता है । अगर कार्ल मार्क्स और गांधी जी को यह अधिकार प्राप्त है कि
जीवन के अवस्था-विशेष की अनुभूति से वे राजनीति के सिद्धांत निकाल लें तो एक कवि को
यह अधिकार सुलभ होना चाहिए कि वह ठीक उसी अवस्था की कलात्मक अनुभूति से ज्वलंत काव्य
की सृष्टि करे ।अगर राजनीति अपनी शक्ति से सत्य की प्रतिभा गढ़कर तैयार कर सकती है
तो साहित्य में भी इतनी सामर्थ्य है कि वह उसके मुख में जीभ धर दे ।‘ दिनकर ने आज से सत्तर साल पहले जो कहा था वो आज भी मौजूं है । आज जिस तरह से
असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर लेखक अपने राजनीतिक आकाओं के हाथ के मोहरे बन रहे हैं उससे
बेहतर होता कि वो अपनी लेखनी से सत्य की प्रतिभा गढ़ते और विरोध के मुंह में जीभ धर
देते । दिनकर ने अपने उसी भाषण में यह भी कहा था ‘साहित्य जहां
तक अपनी मर्यादा के भीतर रहकर जीवन के विशाल क्षेत्र में अपना स्वर ऊंचा करता है वहां
तक वह पूज्य और चिरायु है किंतु जभी वह राजनीति की अनुचरता स्वीकार करके उसका प्रचार
करने लगेगा तभी उसकी दीप्ति छिन जाएगी और वह कला के उच्च पद से पतित हो जाएगा ।‘
दशकों तक प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्यकारों ने राजनीति की अनुचरता
स्वीकार करते हुए उसका प्रचार किया । नतीजा
सबके सामने है ।
यह तो एक पहलू
है, लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है जिसपर भी साहित्य जगत को गंभीरता से विचार करना
चाहिए । हिंदी के लेखक रूप सिंह चंदेल ने फेसबुक
पर एक टिप्पणी लिखी – पिछले कुछ समय से व्यस्तावश में
अपने ब्लॉग वातायन को अपेक्षित समय नहीं दे पा रहा था अत: मेंने
व्हाट्सएप पर इसी नाम से एक समूह बनाया और हिंदी के गणमान्य साहित्यकारों को इसमें
जोडा़ । किन्हीं कारणों से बहुत भारी मन के साथ मुझे इस फलते फूलते समूह को बंद करना
पड़ा । इस टिप्पणी के बाद चंदेल ने किसी साथी को दुख पहुंचने पर क्षमा आदि जैसी औपचारिकता
निभाई । सतह पर देखें तो यह लगता है कि ये तो सामान्य बात है और इसका उल्लेख गैरजरूरी
है लेकिन अगर रूप सिंह चंदेल की बातों पर ध्यान दें और उसके शब्दों को ठहरकर देखें
तो एक बड़ी तस्वीर मजर आती है । वह तस्वीर है हिंदी के लेखकों और साहित्यकारों के बीच
बढ़ रही असहिष्णुता की । अपनी आलोचना नहीं सुन पाने की प्रवृत्ति के लगातार ह्रास होने
की । चंदेल ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि उन्होंने साहित्यक समूह में गणमान्य साहित्यकारों
को इससे जोड़ा और फिर भारी मन से बंद करना पड़ा । इस टिप्पणी में इन्हीं दो शब्दों
पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए । गणमान्य साहित्यकार और भारी मन । इन दो शब्दों
की विवेचना करने से हिंदी के लेखकों के बीच बढ़ी असहिष्णुता सामने आती है जिसके नतीजे
में चंदेल जैसे लेखक भारी मन से साहित्यिक समूह बंद करने के फैसले पर विवश होते हैं
।
पुरस्कार वापसी
और उसके विरोध के शोरगुल में साहित्य में बढ़ती असहिष्णुता का मुद्दा लगभग दब सा गया
है । समाज में बढती असहिष्णुता, अगर सचमुच यह बढ़ रही है तो , पर छाती कूटनेवाले लेखकों
को साहित्य में बढ़ती असहिष्णुता नजर नहीं आती । बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि
जो लोग समाज में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर
साहित्यक असहिष्णुता के ध्वजवाहक हैं । समकालीन हिंदी साहित्यक परिदृश्य पर अगर विचार
करें तो इस बात पर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि वो कौन सी वजह थी कि हिंदी
की वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन को यह लिखना पड़ा था कि आलोचना लिखने में हिचक होती है
कि कौन कब नाराज हो जाए । यह सही है कि आलोचकों को किसी के नाराज होने या खफ होने से
डरना नहीं चाहिए लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि अस्सी साल की आलोचक को यह कहने
पर क्योंकर मजबूर होना पड़ा । दरअसल हिंदी में कवियों से लेकर कथाकारों तक में अपनी
आलोचना सुनने सहने की क्षमता का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है । यह इसी बढ़ती प्रवृत्ति
का नतीजा है कि चंदेल जैसे लेखकों को व्हाट्सएप पर चलनेवाले साहित्यक समूह को बंद करना
पड़ा है और अपनी पीड़ा का इजहार फेसबुक पर करना पड़ा है । फेसबुक पर इस बढ़ती असहिष्णुता
के तमाम चिन्ह आपको दिखाई पड़ सकते हैं । व्हाट्स एप पर चलनेवाले ज्यादतर साहित्य समूह
उसको बनानेवालों की प्रशंसा करने का मंच है । जहां इससे विचल होता है वहीं समूह अल्पायु
का हो जाता है या फिर उसके सदस्य एक एक कर अलग होने लगते हैं और फिर जो बच जाते हैं
वो जुलूस की शक्ल में एक दूसरे के लिए नारेबाजी करते नजर आते हैं । व्हाट्सएप पर चलनेवाले
समूहों में आलोचनात्मक टिप्पणी के लिए कोई जगह नहीं है । अगर किसी ने कर दी तो उसकी
खैर नहीं । वहां तो बस एक दूसरे की प्रशंसा करने की होड़ लगी रहती है । जिनको कविता
की समझ नहीं वो खुद को रामविलास शर्मा और जिनको गजल की समझ नहीं वो अपने को दुश्यंत
कुमार मानकर बैठे रहते हैं । अब अगर कोई यह मानकर बैठ जाए कि वो रामविलास शर्मा या
दुश्यंत कुमार है तो फिर वो अपनी रचनाओं की आलोचना कैसे बर्दाश्त कर सकता है । उनके
समर्थक आलोचना करनेवालों पर संगठित होकर हमले करने लगते हैं और अपमानित करने की हद
तक टिप्पणी आपको समूह छोड़ने को विवश कर देता है जो हिंदी साहित्य समाज के असहिष्णु
होने का संकेत है । इस असहिष्णु प्रवृत्ति का विकास युवा लेखकों में ज्यादा हुआ है
। दो चार कविताएं लिखकर अपने को निराला मानने वाले युवा कवियों को ना तो मर्यादा का
ख्याल होता है और ना ही वरिष्ठता का । बीच संवाद में कूदकर उसको खराब कर देना उनका
उद्देश्य होता है । दरअसल फेसबुक ने अपनी आलोचना ना सहने की प्रवृत्ति को खूब हवा दी
है । तुकबंदी कर खुद को कवि मानने वालों पर अखबारों आदि में प्रायोजित टिप्पणी छप जाती
है तो वो बेलगाम हो जाते हैं । मर्यादा भूलते हुए संवाद के बीच में कूदते हैं और बगैर
जाने बूझे बस शुरू हो जाते हैं । हमारे वरिष्ठ लेखकों ने कभी युवा लेखकों के बीच बढ़ती
इस प्रवृत्ति पर कुछ नहीं कहा । कहें भी तो कैसे उनके सामने देश के बड़े सवाल हैं जिनसे
वो टकरा रहे हैं । उनको याद रखना चाहिए कि ये असहिष्णु युवा लेखक ही आनेवाले दिनों
में साहित्य को अपने कंधे पर उठाएंगे तब क्या स्थिति होगी । देश का सामाजिक ताना बाना
तो इतना मजबूत है कि उसको तोड़ने में सदियां लग सकती हैं लेकिन साहित्य की डोर बहुत
कमजोर है उसको टूटते वक्त नहीं लगेगा ।
एक जमाने में
बिहार से निकलनेवाली एक साहित्यक पत्रिका में खराब किताबों की सूची प्रकाशित की जाती
थी और उसके कवर पर लिखा होता था कि इन किताबों को नहीं पढ़ें ये स्तरहीन किताबें हैं
। क्या आज के साहित्यक माहौल में इस तरह की हिम्मत की जा सकती है क्या कोई आलोचक या
समीक्षक इतने बेबाक ढंग से कृतियों पर टिप्पणी कर सकता है । इन दिनों तो हालत ये है
कि किसी उपन्यास या कविता या कहानी पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचना
पड़ता है । यह मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह रहा हूं । करीब चार पांच
साल पहले जब निर्मला जैन की उक्त टिप्पणी छपी थी तो मैंने उसपर प्रति टिप्पणी करते
हुए एक लेख लिखा था कि क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात करना छोड़ देना होगा । तब
लगता था कि निर्मला जैन ने ठीक वहीं कहा है लेकिन अब लगता है कि उन्होंने दशकों के
अपने समीक्षाकर्म के अनुभव के आधार पर अपनी बात कही थी । अब तो हालत ये है कि किसी
कृति की आलोचना आपको रचनाकार से दूर कर सकता है । दरअसल रचनाकार रचना की आलोचना को
अपनी व्यक्तिगत आलोचना मानने लगा है । जैसे ही ये बात उसके दिमाग में घर करती है तो
फिर वो समीक्षक को व्यक्तिगत दुश्मन के तौर पर देखने लगता है उसको निबटाने की रणनीति
पर काम शुरू हो जाता है ।
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