हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ महीप सिंह का पिछले दिनों
छियासी साल की उम्र में निधन हो गया है । महीप सिंह हिंदी के उन चंद साहित्यकारों में
से थे जो किसी वाद या विवाद से दूर रहकर साहित्य साधना में लगे थे । वो किसी धारा या
गुट के खूंटे से नहीं बंधे, इसका नुकसान भी उनको हुआ । यथोचित प्रसिद्धि उनको नहींमिली
लेकिन वो अपने चुने हुए रास्ते से नहीं डिगे । गैर हिंदी भाषी परिवार में पैदा होने
के बावजूद महीप सिंह ने हिंदी को अपनाया और अपने लंबे साहित्यक जीवन में महीप सिंह
ने इस भाषा में ही कई उपन्यास और कहानियां लिखी । । महीप सिंह का परिवार पाकिस्तान
के झेलम का रहने वाला था लेकिन उनके पिता विभाजन से काफी पहले यानि उन्नीस सौ तीस में
ही उत्तर प्रदेश के उन्नाव आ गए थे । महीप सिंह का जन्म उन्नाव में हुआ था और साहित्यक
लिहाज से उर्वर कानपुर की धरती पर वो पले बढे । फिर वो आगरा चले गए जहां से उन्होंने
उच्च शिक्षा प्राप्त की । कानपुर के बाद आगरा होते हुए डॉ महीप सिंह दिल्ली आ गए और
दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज में अध्यापन शुरू कर दिया । दिल्ली आने के बाद
महीप सिंह की साहित्यक रचना को पंख लगे लेकिन महीप सिंह हमेशा अपनी जड़ों से ना केवल
जुडे रहे बल्कि अपनी माटी के सोंधेपन के साथ साहित्य में मौजूद रहे । देश में जब इमरजेंसी
लगी थी तो लगभग उसी वक्त उन्नीस सौ छिहत्तर में महीप सिंह का एक उपन्यास – यह भी नहीं- प्रकाशित हुआ था । अपने इस उपन्यास में महीप
सिंह ने महानगर की आपाधापी और भागमभाग के बीच स्त्री और पुरुष के संबंधों को केंद्र
में रखा था । स्त्री-पुरुष पात्रों के बीच परस्पर तनाव, मानसिक अवसाद, स्वार्थ, झूठा
दर्प आदि का बेहतर चित्रण महीप सिंह ने अपने इस उपन्यास में किया था । पति पत्नी के
संबंधों को उकेरते हुए महीप सिंह ने उन वजहों की पड़ताल की थी जिनसे किसी के भी दांपत्य
जीवन में जहर घुल जाता है । आज से करीब चार दशक पहले महीप सिंह ने अपने इस उपन्यास
में माहानगरीय जीवन में परिवार के दरकने और संबंधों की संवेदनहीनता का जो चित्रण किया
था वह लगता है कि बस अभी की स्थिति है । सफल लेखक हमेशा अपने समय से आगे की स्थितियों
को भांप लेता है । इस उपन्यास में सोहन और शांता का जो चरित्र महीप सिंह ने गढ़ा था
वो महानगर के दांपत्य जीवन की विश्वसनीय तस्वीर पेश करता है। अब भी महानगरों के कई
घरों में आपको सोहन और शांता मिल जाएंगे जो समाज और अपने इगो की वजह से रिश्तों को
स्वाहा कर रहे होते हैं । यह वो दौर था जब कई लेखक मध्यवर्गीय जीवन को केंद्र में रखकर
कहानियां लिख रहे थे । इस तरह के उपन्यास लेखकों की रचनाओं में योगेश गुप्त का - फैसला,
देवेश ठाकुर का - भ्रमभंग आदि प्रमुख हैं। आजादी के करीब ढाई दशक बाद समाज के सामने
संबंध नए तरीके से परिभाषित हो रहे थे जो लेखकों की रचनाओं में प्रतिबिंबित हो रहे
थे । चार दशक के अपने रचनाकाल में उन्होंने सवा सौ के करीब कहानियां लिखकर हिंदी साहित्य
में अपनी उपस्थिति को गाढा किया । उनकी कहानियों में काला बाप गोरा बाप, पानी और पुल
, सहमे हुए आदि श्रेष्ठ कहानियां हैं । साठ के दशक के अंतिम वर्षों में सचेतन कहानी
को आधार बनाकर महीप सिंह ने संचेतना नाम की पत्रिका की शुरुआत की । इस पत्रिका ने अपनी
कहानियों से हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया । डॉ महीप सिंह ने कई पत्र-पत्रिकाओं
में लगातार समसायमिक विषयों पर लिखा । महीप सिंह के जाने से हिंदी की अपूरणीय क्षति
हुई है लेकिन उनके साहित्य पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ।
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