हिंदी में लघु पत्रिकाओं को लेकर अब भी खासा
उत्साह बना हुआ है । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में करी सौ साहित्यक पत्रिकाएं
निकल रही हैं जिनके पीछे कोई संस्थागत पूंजी नहीं है । व्यक्तिगत प्रयास से निकलनेवाली
ये साहित्यक पत्रिका ज्यादातर अनियतकालीन निकलती हैं यानि कि इन पत्रिकाओं की आवर्तिता
निश्चित नहीं है । जब साधन और रचनाएं जुट जाएं तो पत्रिका निकल आती है ।हिंदी में साहित्यक
पत्रिकाओं का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है । कई पत्रिकाएं महानगरों से निकलती हैं । दिल्ली
सरकार ने एक वक्त लघु पत्रिकाओं को प्रति अंक तीस हजार रुपए की आर्थिक सहायता देनी
शुरू की थी । उस वक्त कई साहित्यक पत्रिकाएं दिल्ली सरकार की इस सहायता के बाद कब्र
से बाहर निकल आई थी । उनका आवर्तिता भी नियमित हो गई थी । कुछ लोगों का कहना था कि
सरकारी आर्थिक सहायता की वजह से वो नियमित रूप से निकलने लगी थी । बाद में दिल्ली सरकार
की वो स्कीम बंद हो गई तो वो पत्रिकाएं फिर कब्र में चली गई और वहां इंतजार में हैं
कि फिर कोई सरकार आर्थिक सहायता की स्कीम शुरू करे । ये तो रही उन पत्रिकाओं की बात
जो सरकारी सहायता से निकल रही थी । पर खी कई पत्रिकाएं देश के सुदूर इलाकों से निकल
रही हैं जो अपने संपादक की जिद जुनून और मेहनत से निकल रही हैं । उनके पीछे उनका साहित्य
प्रेम तो होता ही है, एक नया पाठक वर्ग तैयार करना भी मकसद होता है । मकसद तो स्थानीय
प्रतिभाओं को मौका देना भी होता है । लघु पत्रिकाओं का यह हिंदी साहित्य को बड़ा योगदान
है । उन पत्रिकाओं से अपने लेखन की शुरुआत करनेवाले लेखकों की एक लंबी फेहरिश्त है
जो अब हिंदी के मूर्धन्य लेखक हैं । कुछ लघु पत्रिकाएं तो स्थानीय बोलियों में भी निकल
रही हैं और उस बोली. भाषा के लेखकों को देश के पाठकों के सामने ला रही है ।
ऐसी ही एक पत्रिका है अंगिका लोक जो खुद को
अंग देश का अमृत मंथन कहती है और अंगिका के मान सम्मान पहचान के लिए संकल्पित है। बिहार
के दरभंगा से निकलनेवाली यह पत्रिका अंगिका भाषा में निकलती है । अंगिका ऐतिहासिक अंग
प्रदेश में बोली जाती है जिसका ओइलाका मुख्यत: भागलपुर, मुंगेर के इलाके हैं । भारत में जिन सोलह जनपदों की बात की जाती
है उसमें काशी और कोशल के बाद अंग का ही नाम आता है । अंग प्रदेश से महाभारत के चरित्र
कर्ण भी जुड़े हुए हैं । पौराणिक कथाओं के मुताबिक मुंगेर के कर्णचौरा से ही अंग प्रदेश
के राजा कर्ण दान किया करते थे । आज उस स्थान पर पूरी दुनिया मे मशहूर बिहार स्कूल
ऑफ योग का मुख्यालय है । अंगिकालोक पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी जानकारी के मुताबिक
यह पत्रिका पिछले ग्यारह सालों से निकल रही है । पत्रिका का ताजा अंक ( अक्तूबर-दिसंबर
2015 ) डॉ लक्ष्मी नाराय़ण सुधांशु पर केंद्रित है । इस पत्रिका में सुधांशु जी के कई
लेख प्रकाशित हैं । संपादकीय भले ही अंगिका में लिखा गया है लेकिन बाकी सामग्री देवनागरी
में ही है । इसमें कुछ रचनाएं अंगिका में भी हैं । अंगिका में कविता पढ़ते समय पाठकों
को एरक अलग ही तरह का स्वाद मिलता है । कई लोग ये कह सकते हैं कि इस तरह की पत्रिकाओं
का दायरा बहुत छोटा होता है । संभव है उसमें सचाई हो लेकिन मुझे लगता है इस तरह की
पत्रिकाओं का दायरा छोटा हो लेकिन इनका फलक बहुत बड़ा होता है । हिंदी में लगभग विस्मृत
लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी के बारे मे हिंदी के नए पाठकों को बताना ही एक बेहद महत्वपूर्ण
काम है । इस तरह की पत्रिकाओं से ही साहित्य समृद्ध होता है और पाठकों का दायरा बढ़ता
है ।
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