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Sunday, November 29, 2015

हिंदी विरोध बहाना, वोट निशाना

आजाद भारत ने पचास और साठ के दशक में भाषा के आधार पर बेहद हिंसक आंदोलन देखा है । भाषा के आधार 1953 में सबसे पहले आंद्र प्रदेश का गठन हुआ था । उसके बाद भाषाई आधार पर राज्यों के बंटवारे को लेकर उस वक्त की हिंसा में कई लोगों की जान गई थी । तमिलनाडू भी बाद में हिंदी विरोध की आग में झुलसा था तब उस वक्त केंद्र सरकार में मंत्री इंदिरा गांधी की सूझबूझ और पहल की वजह से उस आंदोलन के दौरान होनेवाली हिंसा-आगजनी खत्म हुई थी । उसी इंदिरा गांधी की पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने चुनावी जीत हासिल करने के लिए एक बार फिर से भाषा के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण का खतरनाक खेल शुरू किया है । असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा है कि भारतीय जनता पार्टी हिंदी बोलनेवाले नेताओं की पार्टी है जो असम पर आक्रमण करना चाहती है । तरुण गगोई ने आरोप लगाया है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता हिंदी के उच्चारणों को असमिया पर थोपना चाहते हैं । उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के असम के प्रभारी महेन्द्र सिंह को निशाने पर लेते हुए कहा कि महान वैष्णव संत श्रीमंत शंकरदेवा को उन्होंने बाबा शंकरदेव कहा । इस तरह के कई नामों का गिनाते हुए असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा कि हिंदी बोलनेवाले असम पर धावा बोलने और असमिया भाषा को भ्रष्ट करने की जुगत में हैं । गोगोई साहब इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने साफ तौर पर कहा कि हिंदी वालों का असम और असमिया पर आक्रमण करने की कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा । एक राज्य का मुख्मंत्री, जिसने संविधान के नाम की शपथ ली हो, उसके मुंह से इस तरह की बातें घोर आपत्तिजनक है । असम में करीब अट्ठावन फीसदी लोग असमिया बोलते हैं वहीं करीब पांच फीसदी लोग हिंदी भाषी हैं । असम में हिंदी और हिंदीवालों के विरोध का लंबा इतिहास रहा है । पिछले कई सालों में हिंदी बोलनेवालों की वहां हत्याएं भी की जाती रही हैं । ये हत्याएं तरुण गोगोई के कार्यकाल में नियमित अंतराल पर हुई । इस साल ही असम के तिनसुकिया जिले में एक अठारह साल की लड़की समेत दो हिंदी बोलनेवालों को बेवजह मौत के घाट उतार दिया गया । उनके घर में घुसकर गोलीमारी गई । उसके पहले एक साथ तेरह हिंदीवालों के कत्ल के सनसनीखेज वारदात को अंजाम दिया गया । हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ जिस मुख्यमंत्री के दिल में इतनी नफरत हो उससे हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई की उम्मीद बेमानी है । आप हिंदी विरोधी रहें लेकिन जब आपने संविधान की शपथ ली है कि धर्म, लिंग, जाति भाषा आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होने देंगे तो ऐसे में खुद ही आप भाषिक आधार पर नफरत की राजनीति को हवा देने लगें तो संविधान की मर्यादा तो तार-तार होती ही है, सामाजिक ताना-बाना भी छिन्न भिन्न हो जाता है । असम के मुख्यमंत्री के इस बयान का मामला संसद में संविधान पर होनेवाली बहस में संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने उठाया था । उनके इस बयान पर मुख्यमंत्री के सांसद पुत्र ने असम के राज्यपाल के बयान का मुद्दा उठा दिया । दरअसल अब हमारे देश की राजनीति में यह आमचलन हो गया है कि पूर्ववर्ती पार्टियों ने ये किया इस वजह से हमारा कदम गलत नहीं है । इस सोच को निगेट करने की आवश्कता है । क्या पूर्ववर्ती सरकारों ने जो गलतियां की उसके आधार पर मौजूदा सरकार को गलतियां करने का हक मिल जाता है । अंग्रेजी में एक कहावत है कि टू ब्लैक डज नॉट मेक अ व्हाइट । दो काले चाहे जितना भी मिल जाएं एक सफेद नहीं बना सकते हैं । मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का भाषा के आधार पर राजनीति करना भारत को नफरत की सियासत के दलदल में धकेलने जैसा कदम है और पूरे देश में इस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है भाषा का प्रश्न केवल सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है । अवस्था विशेष में यह राजनीति से भी जुड़ जाता है, इसका असर देश की स्वाधीनता पर भी पड़ता है । मुख्यत: भाषाओं के कारण ही भारत-राष्ट्र के राजनीतिक तंत्र को संघ का रूप लेना पड़ा है । सौभाग्य से भारत में केंद्र की शक्ति काफी बड़ी है और सभी प्रांत उसकी अधीनता स्वीकार करते हैं । लेकिन इससे इस बात पर पर्दा नहीं पड़ता कि प्रांतों की संख्या इस देश में जितनी ही बढ़ेगी, केंद्र की शक्ति पर दुर्दिन में आनेवाले खतरे उतने ही ज्यादा होते जाएंगे । अतएव हमारे उपभाषा प्रेम को उस गलत दिशा की ओर नहीं जाना चाहिए, जहां वह अपनी अभिव्यक्ति नए प्रांतों की मांग के रूप में करता है ।दिनकर ने ये बातें तब कही थी जब भारत में भाषा और बोलियों के आधार पर प्रांतों के गठन को लेकर आंदोलन चल रहे थे । भाषा के आधार पर राजनीति की जा रही थी । भाषा के आधार पर की जानेवाली राजनीति के केंद्र में उस वक्त हिंदी विरोध की अंतर्रेखा भी चल रही थी । हिंदी और हिंदी भाषियों के खिलाफ नफरत के बीज बोकर सिसायत की लहलहाती फसल काटने के नापाक सपने देखे जा रहे थे । पूरे देश ने उस वक्त की भाषाई नफरत के नतीजों को देखा था । लेकिन कालंतर में भाषा के आधार पर नफरत की राजनीति दब सी गई थी लेकिन बाद में शिवसेना के बाल ठाकरे ने एक बार फिर से भाषा को आधार बनाकर अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता की थी । गैर मराठी और हिंदी भाषी लोगों के साथ मारपीट और हिंसा के सहारे बाल ठाकरे ने राजनीति की । दो तीन दशकों तक भाषाई नफरत के आधार पर यह राजनीति चलती रही लेकिन बाद में महाराष्ट्र की जनता ने ही उस राजनीति को नकारना शुरू कर दिया । भाषा के आधार पर राजनीति के सपने संजोनेवाले राज ठाकरे को पिछले लोकसभा चुनाव में मराठी जनता ने ही हाशिए पर डाल दिया । अब भी राज ठाकरे की पार्टी मराठी और धरती पुत्र के नाम पर राजनीति करने की कोशिश में कभी हिंदी भाषी महिला रेल अफसर से बदसलूकी करते हैं तो कभी ठेले खोमचेवालों से मारपीट करते हैं । हिंसा और नफरत की राजनीति अब जनता को रास नहीं आती है । तरुण गोगोई के बयान में अवस्था विशेष सूबे में होनेवाला विधानसभा का चुनाव है जिसके लिए वो असमिया वोटरों का ध्रुवीकरण चाहते हैं । लेकिन वो भूल गए हैं कि उनेक इस बयान से देश कमजोर हो सकता है ।
ऐसा लगता है कि लंबे समय से असम के मुख्यमंत्री पद संभाल रहे तरुण गोगोई को अब अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती नजर आ रही है, लिहाजा वो हिंदी और हिंदी भाषी जनता के खिलाफ नफरत कर असमिया जनता का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं । इस ध्रुवीकरण में वो असमिया के पुरोधाओं का नाम भी इस्तेमाल करते हैं जहां वो कहते हैं कि हिंदी भाषी लोग गलत उच्चारण कर असमिया को भ्रष्ट करना चाहते हैं । असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को शायद यह मालूम नहीं है कि आजादी के पहले उनके पड़ोसी राज्य मणिपुर के राजकाज में हिंदी का प्रयोग किया जाता रहा है । कई किताबों में इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि मणिपुर के सिक्कों पर नाम नागरी लिपि में ढाले जाते थे । उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि 1890 में मणिपुर के सेनापति जनरल टेकेन्द्रजीत सिंह पर अंग्रेजों ने जब केस किया था तब उन्होंने अपना बयान हिंदी में दिया था और उस केस में बयान पर दस्तखत भी जनरल ने हिंदी में किए थे । पूर्वोत्तर से हिंदी और नागरी का सदियों पुराना रिश्ता रहा है । आजादी के बाद जब देश में हिंदी के खिलाफ ध्रुवीकरण की सियासत शुरु हुई तो इन बातों को साजिशन दबा दिया गया क्योंकि इन बातों के प्रचलन में आने से हिंदी विरोधियों को ताकत नहीं मिलती है ।

असम के राज्यपाल के हिंदू राष्ट्र के भाषण पर बवंडर खड़ा कर देनेवाले बुद्धिजीवियों की नजर संभवत: तरुण गोगोई के भाषण पर नहीं पड़ी । राज्यपाल पर निशाना साधनेवालों को गोगई का भाषण या बयान नहीं दिखा । हर बात पर फेसबुक पर संघ को गाली देने के लिए तत्पर रहनेवाले प्रगतिशील लेखकों की जमात ने भी तरुण गोगोई के इस खतरनाक बयान पर कोई विरोध नहीं जताया । नफरत और असहिषणुता को लेकर चिंतित नजर आनेवाले साहित्यकारों से लेकर वाम विचारकों के पेशानी पर गोगोई के इस बयान के बाद कोई बल नहीं पड़ा । सामाजिक और राजनीति रूप से सजग इन विचारकों के इस बयान पर नजर ना पड़ने की संभावना कम है बल्कि इस बात की संभावना ज्यादा है कि वो लोग जानबूझकर इसको इग्नोर कर रहे हैं । लेकिन तरुण के बयान को इग्नोर करना भारतीय लोकतंत्र के साथ छल है और उसको कमजोर करनेवालों का परोक्ष रूप से समर्थन भी । आखिर क्यों । 

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