देशभर में इस वक्त अवॉर्ड वापसी पर घमासान चल रहा है । पक्ष और विपक्ष में मार्च
निकाले जा रहे हैं । सोशल मीडिया से लेकर अखबारों तक में इस पर काफी चर्चा हो रही है
। करीब पचहत्तर लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों, चित्रकारों ने अपने-अपने पुरस्कार लौटा
कर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश भी की है । उधर पुरस्कार वापसी के विरोध में भी सेमिनार
से लेकर किताब वापसी तक का अभियान शुरू हो चुका है । केंद्र सरकार के मंत्री भी इस
विवाद में कूद पड़े हैं और अरुण जेटली लगातार पेसबुक पर अपनी राय रख रहे हैं । युद्ध
की तरह दोनों खेमों से हर तरह के दांव पेंच का इस्तेमाल हो रहा है । पुरस्कार वापसी
के अभियान से जुड़े लेखकों ने असहिष्णुता का सवाल उठाया है लेकिन क्या इनमें से किसी
ने भी साहित्य खासकर हिंदी साहित्य में पुरस्कार की गड़बडियों की ओर कभी ध्यान दिया।
क्या इनमें से किसी ने भी कभी साहित्य अकादमी पुरस्कार की बंदरबांट को लेकर कोई विरोध
प्रदर्शन किया । साहित्य अकादमी में भाषा के संयोजकों की अयोग्यता पर कभी कोई सवाल
उठा । कम से कम साहित्य जगत को यह ज्ञात नहीं है । हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति
कितनी दयनीय है, किस तरह से खेमेबाजी होती है या फिर किस तरह से पुरस्कार बांटे जाते
हैं यह सबको ज्ञात है । ज्ञात तो यह भी है कि इस साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार किसको
दिया जाना है । उसके हिसाब से ही आधार सूची बनानेवालों से लेकर जूरी के सदस्य तय किए
जा चुके हैं । क्या इसके खिलाफ कभी किसी कोने से आवाज आई । साहित्य अकादमी के अलावा
सरकारी थोक पुरस्कारों में जिस तरह की गड़बड़ियों होती हैं उसपर भी ज्यातार लोग खामोश
ही रहे । जिस उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगा होता है या फिर जिस उत्तर प्रदेश में
गोमांस की अफवाह के बाद अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है उसी उत्तर प्रदेश सरकार
के मुखिया से चंद दिनों पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले से लेकर छोटे-बड़े-मंझोले
सभी प्रकार के साहित्यकारों ने सिर झुकाकर पुरस्कार ग्रहण किया। अखिलेश यादव सरकार
से तिकड़म भिड़ाकर पुरस्कार हासिल करनेवाले लेखक कभी रायपुर साहित्य महोत्सव तो कभी
असहिष्णुता को मुद्दा बनाते हैं । लेकिन यूपी सरकार पर लिखते वक्त उनकी कलम नपुंसक
हो जाती है ।
हिंदी में कई व्यक्तिगत पुरस्कार दिए जाते हैं जिसमें धन लगानेवाले अपनी मर्जी,
सुविधा और साहित्य की मौजूदा राजनीति को ध्यान में रखते हुए लेखकों का चुनाव करते हैं
। अब तो पुरस्कार की विधा भी बदल दी जा रही है । इस तरह के व्यक्तिगत पुरस्कारों में
होनेवाली गड़बड़ियों पर कभी नहीं बोला गया । यह तर्क दिया गया कि ये पुरस्कार प्राइवेट
लिमिटेड कंपनियों की तरह काम करते हैं लिहाजा उनको इस बात की छूट होनी चाहिए । लेकिन
ये प्राइवेट लिमिटेड पुरस्कार जब लोकतांत्रिक और पारदर्शी होने का दावा करते हैं तब
भी हिंदी जगत खामोश रहता है । कई पुरस्कारों
के आयोजक तो लेखकों से निविदा आमंत्रित करते हैं और पुस्तकों की प्रति के साथ साथ कुछ
धनराशि भी सेक्युरिटी राशि के तौर पर मंगवाई जाती है । हिंदी के अति महात्वाकांक्षी
लेखक इस जाल में फंसते हैं और पैसे रुपए देकर पुरस्कृत होते हैं । उसके बाद की कहानी
सबको मालूम है कि पुरस्कृत होने की तस्वीर किस तरह से फेसबुक आदि पर अपलोड कर यश लूटा
जाता है । इसपर हिंदी साहित्य के कर्ताधर्ता क्यों खामोश रहते हैं । यह सही है कि विरोध
करने का अधिकार उसके करनेवाले के पास सुरक्षित है लेकिन जब उस अधिकार के पीछे की मंशा
एक्सपोज होती है तो साहित्यकारों की साख के साथ साथ साहित्य की साख पर भी बट्टा लगता
है ।
2 comments:
पुरस्कार वापसी का कदम एक प्रतीकात्मक प्रतिरोध था. यह सवाल इस सन्दर्भ में नितांत बेमानी है कि प्रतिरोध करने वालों ने यह क्यों किया और वह क्यों नहीं किया! बल्कि यह सवाल खुद सवाल करने वालों की मंशा पर सन्देह जगाता है! जीवन में ऐसा क्या है जिस पर आप सवाल न उठा सकें! थाली में रोटियां और एक दाल एक सब्ज़ी परोसी जाए, और मैं अपना पहला निवाला दाल में डुबो कर खा लूं और आप पूछें कि दाल में क्यों डुबोया, सब्ज़ी में क्यों नहीं - तह कुछ वैसी ही बात है. दुर्भाग्य की बात यह है कि शितियां लगातार लेखकों के इस प्रतिरोध को उचित ठहरा रही हैं. ताज़ा उदाहरण है कर्नाटक में गिरीश करनाड को मिली धमकियां! अब बताइये, अगर इस तरह के माहौल में भी लेखक प्रतिरोध न करें तो क्या करें?
आप की बात एकदम सही है। आधार सूची की क्या जरूरत रहती है जब उस के बाहर की पुस्तक और लेखक को जूरी से सदस्य पुरस्कार दिलवाते हैं । और फिर वही सदस्य अपने पिट्ठू लेखकों से पुरस्कार वापस कराते हैं ं।
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