बिहार चुनाव के खत्म होते ही देश में बढ़ रहे असहिष्णुता को लेकर हर रोज हो रहा
हंगामा लगभग खत्म सा हो गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार चुनाव में एनडीए और बीजेपी
की हार के बाद देश के असहिष्णु होने को लेकर छाती कूटनेवालों के कलेजे को ठंडक पड़
गई हो । संभव है कि असहिष्णुता का मुद्दा केंद्र की मोदी सरकार को बिहार चुनाव के दौरान
बैकफुट पर लाने के लिए उठाया गया हो । इस बात के पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिल सकते हैं
लेकिन पर्याप्त संकेत अवश्य मौजूद हैं । बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद
लगता है देश का माहौल अपेक्षाकृत सहिष्णु हो गया है और पुरस्कार लौटा रहे साहित्यकारों,
फिल्मकारों आदि की आहत संवेदना पर मरहम लग गया हो । पुरस्कार वापसी की राजनीति पर इस
स्तंभ में कई बार चर्चा हो चुकी है लेकिन इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि अपनी
राजनीति चमकाने के चक्कर में किस तरह से भारत की वैश्विक छवि को दरकाने की कोशिश की
गई । आज जबकि भारत को विकास की पटरी पर तेज रफ्तार से दौड़ने के लिए विदेशी निवेश की
सख्त आवश्यकता है । लंबे समय बाद देश में बहुमत वाली सरकार के आने के बाद विदेशी निवेशकों
में आर्थिक सुधार को लेकर भरोसा बनना शुरू हुआ था लेकिन देश की राजनीति के चक्कर में
विरोध पक्ष इतना आगे बढ़ गया कि उन्होंने हमारे देश को ही असहिष्णु घोषित करने का काम
शुरू कर दिया । स्थितियां इस तरह की बनाई गई कि कानून व्यवस्था के मुद्दे को मानवाधिकार
का मुद्दा बना दिया गया, गैर सरकारी संगठनों के विदेशी चंदों की जांच और कुछ संगठनों
पर पाबंदी को परोक्ष रूप से अभिवयक्ति की आजादी से जोड़ दिया गया । अभिव्यक्ति की आजादी
पर खतरा बताने वाले बहुधा यह भूल जाते हैं कि इतने तीखे विरोध की आजादी उनको है जिसमें
वो पूरे देश की छवि को भी उन्मुक्त होकर दांव पर लगा सकते हैं । भारत के असहिष्णु होने
की बात करनेवालों की अज्ञानता पर क्षोभ होता है । बगैर भारत को, उसकी संस्कृति को,
उसके समाज को जाने-समझे उसके असहिष्णु होने की बात कहना और फिर उसको प्रचारित करने
से पूरे देश की बदनामी होती है जिसके लिए किसी को क्षमा नहीं किया जाना चाहिए । क्या
कोई एक संगठन, एक व्यक्ति पूरे हिंदुत्व का ठेकेदार हो सकता है । कदापि नहीं । किसी
एक संतनुमा नेता या नेत्री के बयान के आधार पर पूरे धर्म को कठघरे में खड़े करने से
आरोप लगाने वाले समुदाय पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं । द हिंदूज एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री
और ऑन हिंदुइज्म जैसी किताब की लेखिका वेंडी डोनिगर ने भी अपनी किताब ऑन हिंदुइज्म
में लिखा है – हिंदू धर्म की विशेषता उसकी विविधता है । हिंदू धर्म
की एक और विशेषता है कि वो गैर हिंदुओं के आइडिया और परंपरा को भी अपने में आत्मसात
कर लेती है । इस वजह से हिंदी धर्म इस्लाम, क्रिश्चैनियटी आदि से बिल्किल अलग दिखता
है । वो यह भी मानती है कि हिंदू धर्म की विविधता ही उसकी ताकत है और वो इस्लाम या
क्रिश्चैनियटी की तरह एक खुदा, गॉड या एक
भगवान के इर्द गिर्द नहीं घूमती है और ना ही किसी एक किताब के आधार पर चलती है । हलांकि
वेंडी डोनिगर इस बात पर चिंता जताती हैं कि हिंदू धर्म में कट्टरता के तत्व दिखाई देने
लगे हैं लेकिन ये तत्व धार्मिक नहीं होकर राजनीतिक हैं । इस बात पर बहस हो सकती है
लेकिन चंद लोगों के विवादित बयानों के आधार पर पूरे धर्म को या फिर पूरे देश को बदनाम
करना बेहद आपत्तिजनक है ।
देश में बढ़ते असहिष्णुता का प्रचार करने में कामयाबी पाने
के बाद वही ताकतें अब विदेश में भी सक्रिय हो गई हैं और भारत की छवि पर बट्टा लगाने
की कोशिश हो रही है । जब देश में पुरस्कार वापसी का आंदोलन चल रहा था तो अमेरिका और
ब्रिटेन के अखबारों ने इस पर लेख लिखे थे । भारत को असहिष्णु बताने वाले इन अखबारों
को अमेरिका में गुजरातियों और ब्रिटेन में सिखों पर नस्लीय हमले नजर नहीं आते हैं ।
दूसरे देश की चिंता करने के पहले इन अखबारों को अपने देश की कट्टरता को बेनकाब करना
चाहिए । जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ब्रिटेन के दौरे पर थे तो उनके वहां
पहुंचने के दिन ही एक अखबार ने अनीश कपूर का एक लेख छापा । इस लेख का शीर्षक था- इंडिया
इज बीइंग रूल्ड बाय अ हिंदू तालिबान । अनीश कपूर के इस लेख में तमाम तरह की आपत्तिजनक
बाते हैं जो ना सिर्फ भारत का अपमान है बल्कि यहां की सवा सौ करोड़ जनता का भी अपमान
है । अनीश कपूर ने उत्साह में ऐसे ऐेसे शब्दों का प्रयोग किया है जिसमें वो लोकतांत्रिक
मर्यादाओं को लांघते और छिन्न भिन्न करते मजर आते हैं । अनीश कपूर ने अपने लेख की शुरुआत
इस बात से की भारत में विविधता की संस्कृति गंभीर खतरे के दौर से गुजर रही है । कपूर
इस बात को लेकर उत्तेजित नजर आते हैं कि मोदी सरकार उन अराजक हिंदुओं को सहन कर रही
है जो बीफ खानेवालों को अनुशासित कर रहे हैं, जो जाति व्यवस्था के खिलाफ और हिंदू राष्ट्र
की अवधारणा के खिलाफ बोलनेवालों को कथित तौर पर सुधारने का काम कर रहे हैं । उत्तेजना
में बहुधा लोग अतार्किक हो जाते हैं । यह अनीश कपूर की भड़ास है जो उनके लेख में उनके
विचार के तौर पर सामने आई है । भड़ास इस वजह से क्योंकि उसमें तर्क का कोई स्थान नहीं
होता है । इस पूरे लेख में सिर्फ फतवेबाजी की गई है कहीं कोई दृष्टांत या तर्क नहीं
है ।
इस लेख का शीर्षक ही अनीश कपूर की भारत के बारे में अज्ञानता
को प्रदर्शित करती है । अनीश को यह मालूम होना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र की जड़े
इतनी गहरी हो गई हैं कि यहां कोई तालिबान शासन नहीं कर सकता है । दरअसल अनीश का यह
लेख पूरे तौर पर भारत को बदनाम करने की मंशा से लिखा गया है । वो अपने लेख में लिखते
हैं कि भारत को ब्रिटेन के लोग कश्मीर में हो रहे अत्याचार और हाल के दिल दहला देनेवाले
रेप केस की वजह से जानते हैं । अनीश को कश्मीर में होनेवाला कथित अत्याचार दिखाई देता
है लेकिन गुलाम कश्मीर में मानवाधिकार के उड़ रहे चीथड़े उनको दिखाई नहीं देते हैं
। जिस ब्रिटेन का वो गुणगान करते नजर आ रहे हैं वहां सिखों पर पिछले दिनों हुए हमले
का जिक्र नहीं करते हैं । कश्मीर के किस अत्याचार की बात कर रहे हैं अनीश । वहां लोकतांत्रिक
ढंग से चुनी हुई सरकार काम कर रही है । पता नहीं अनीश कपूर किस दुनिया में रहते हैं
कि उनको भारत में हिंदू अत्याचार की लहर दिखाई दे रही है । अनीश ने अपने लेख में लिखा
है कि भारत में हिंदू वर्जन ऑफ तालिबान अपना प्रभाव बढ़ा रहा है । अनीश को यह जानना
आवश्यक है कि हिंदू और तालिबान दोनों दो ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिल सकते । भारत की
सवा सौ करोड़ जनता किसी भी प्रकार के तालिबान को पनपने नहीं देगी चाहे उसे राजाश्रय
ही क्यों ना मिला हो । अनीश भारत के लोकतंत्र को बहुत ही हल्के में ले रहे हैं । दरअसल
उनके लेख की मंशा आखिर में आकर स्पष्ट होती है जहां वो ग्रीनपीस पर पाबंदी और तीस्ता
शीतलवाड का मुद्दा उठाते हैं । तीस्ता किसी और वजह से नहीं बल्कि अपने ट्रस्ट के पैसों
में हेराफेरी के आरोप में अदालतों के चक्कर लगा रही है । क्या सिर्फ इस बात को लेकर
कि वो गुजरात दंगों के पीड़ितों की लड़ाई लड़ रही हैं उनको इस बात का हक मिल जाता है
कि वो चंदे में गड़बड़ी के आरोपों से बच निकले ।
दरअसल अगर हम देखें तो यह एक बड़े अंतराष्ट्रीय डिजायन का
हिस्सा नजर आता है । नरेन्द्र मोदी के दौरे के ठीक एक दिन पहले पेन इंटरनेशनल, जो कि
साहित्य और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए काम करनेवाली संगठन हैं, के बैनर तले सलमान
रश्दी जैसे करीब सौ लेखकों ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र भेजा ।इस पत्र
में डेविड कैमरून से मांग की गई है कि वो भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा
के लिए कदम उठाएं । अपने पत्र में उन्होंने भारत में पिछले दो वर्षों में सार्वजनिक
बुद्धिजीवियों पर हुए हमले को मुद्दा बनाया गया है । यह ठीक है कि हर संस्था को अपनी
बात कहने का हक है लेकिन उतना ही हक उसका प्रतिवाद करनेवाले को भी है । पेन इंटरनेशनल
भी तब खामोश रही थी जब दाभोलकर की हत्या की गई थी, या जब कामरेड पानसारे को मार डाला
गया था । विचार और धारा की लड़ाई में देश की छवि को बट्टा लगानेवालों को सोचना होगा
क्योंकि इस लड़ाई से अंतत देश की जनता का नुकसान होगा ।
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