Translate

Saturday, April 30, 2016

सेंसर बोर्ड में सुधार की बयार ·

जब से पहलाज निहलानी को केंदीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया है तब से सेंसर बोर्ड को लेकर, उसके नियमों को लेकर, सेंसर बोर्ड के अधिकारों को लेकर कई बार बहस हुई है । पहलाज निहलानी ने सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनते ही ऐसे काम शुरू कर दिए किए कि सोशल मीडिया पर सेंसर बोर्ड को संस्कारी बोर्ड कहा जाने लगा । सेंसर बोर्ड ने जब जेम्स बांड की फिल्म में कांट-छांट की थी तो संस्कारी बोर्ड हैश टैग के साथ कई दिनों तक ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा था । फिल्म में चुंबन के दृश्य पर सेंसर बोर्ड की कैंची चली थी । तब पहलाज निहलानी ने तर्क दिया था कि भारतीय समाज के लिए लंबे किसिंग सीन उचित नहीं हैं और उन्होंने आधे से ज्यादा इस तरह के सीन को हटवा दिया था । बांड की फिल्म में कट लगाने के बाद पूरी दुनिया में सेंसर बोर्ड और उसके अध्यक्ष की फजीहत हुई थी । देश में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर बहस हुई थी । सेंसर बोर्ड के सदस्य अशोक पंडित ने भी इसका विरोध किया था लेकिन पहलाज निहलानी ने किसी की नहीं सुनी थी और फिल्मों को नैतिकता की कसौटी पर कसकर खुद को फिल्मों में नैकिकता के नए झंडाबरदार के तौर पर पेश कर दिया । उन्होंने नैतिकता की अपनी परिभाषा गढ़ी । दरअसल पहलाज निहलानी को ताकत मिली थी सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) से जहां शब्दों को अपने तरीके से व्याख्यायित करने की छूट है । इसपर गौर करते हैं- किसी फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए । मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो । इसके अलावा तीन और शब्द हैं – पब्लिक ऑर्डर, शालीनता और नैतिकता का पालन होना चाहिए । अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है । संभव भी है ।
चंद सालों पहले तक बॉलीवुड की फिल्मों में चुंबन दृश्यों को दिखाने पर रोक थी उसको दिखाने के लिए फिल्म निर्देशक दो फूलों को हिलते और फिर मिलते हुए दिखा देते थे लेकिन कालांतर में वक्त बदलने के साथ साथ आधुनिकता के नाम पर चुंबन दृष्यों को मंजूरी मिलनी शुरू हो गई । कम कपड़ों में या फिर पारदर्शी कपड़ों में नायिकाओं के चित्रण को कहानी की मांग बताकर निर्देशक सेंसर बोर्ड से छूट लेने लगे थे । राजकपूर ने अपनी फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली में बड़े गले के या फिर पारदर्शी कपड़ों में नायिकाओं को दिखाने की छूट सेंसर बोर्ड से हासिल कर ली थी । उस वक्त भी इस तरह के दृश्यों को लेकर खासी बहस हुई थी । तब एक पक्ष का तर्क था कि निर्देशकों ने इस तरह के दृश्य को दिखाकर दर्शकों में उद्दीपन पैदा करने की कोशिश की है ।
इसके पहले उन्नीस सौ तेहत्तर में बी के आदर्श ने गुप्त ज्ञान नाम की फिल्म बनाई थी तो सेंसर बोर्ड के सामने सिनेमेटोग्राफी एक्ट की उपरोक्त धारा के आधार पर फैसला लेना का संकट पैदा हो गया था । उस फिल्म में कई दृश्य ऐसे थे जिनको लेकर निर्माताओॆ की दलील थी कि वो यौनिकता को लेकर जनता को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से फिल्म में डाली गई हैं । उस वक्त के बोर्ड के कई सदस्यों को लग रहा था कि ये जनता की यौन भावनाओं को भड़का कर पैसा कमाने की एक चाल है । लंबी बहस के बाद गुप्त ज्ञान को बगैर किसी काट छांट के प्रदर्शन की इजाजत तो दी गई थी लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के बाद उसमें फिल्माए अंतरंग दृष्यों को लेकर इतनी आलोचना हुई कि चंद महीने में ही उसको सिनेमाघरों से वापस लेना पड़ा था । एक बार फिर से सेंसर बोर्ड के सदस्यों ने इसको देखा और जमकर कैंची चलाई । इस पूरी प्रक्रिया में ढाई साल लग गए थे ।  
उन्नीस सौ चौरानवे में फूलन देवी की जिंदगी पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन में भी स्त्री देह की नग्नता को लॉंग शॉट में ही दिखाने की इजाजत दी गई थी । फिल्म फायर से लेकर डर्टी पिक्चर तक पर अच्छा खासा विवाद हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया था । फिल्म 12 इयर्स अ स्लेव में गुलामों के अत्याचार के नाम पर नग्नतापूर्ण दृश्यों की इजाजत देना हैरान करनेवाला था । जब दो हजार में सेंसर बोर्ड के सीईओ पर सत्तर हजार की घूसखोरी का आरोप लगा था और सीबीआई ने उनको गिरफ्तार भी किया था तब हैरानी दूर हो गई थी और अलग अलग फिल्मों के लिए अलग मानदंड की बात समझ में आने लगी थी । सीईओ साहब की गिरफ्तारी के बाद कई सुपरस्टार्स और निर्देशकों ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिए थे कि उनको अपनी फिल्मों में गानों को पास करवाने के लिए घूस देना पड़ा था ।
सेंसर बोर्ड में जिस तरह से एडल्ट और यू ए फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद भ्रम है । यही हर तरह की गड़बड़ियों की जमीन तैयार करता है । फिल्मों को सर्टिफिकेट देने की गड़बड़ी शुरू होती है क्षेत्रीय स्तर की कमेटियों से जहां वैसे लोगों का चयन होता है जिनको सिनेमा की गहरी समझ नहीं होती है और वो अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर या फिर अपनी विचारधारा के आधार पर कमेटी में जगह पाते हैं और उसी आधार पर  फिल्मों को देखते और टिप्पणी करते हैं । इसके बाद फिल्म प्रमाणन बोर्ड में भी कई स्तर होते हैं और एक्ट के शब्दों को अपनी तरह से व्याख्यित कर अध्यक्ष अपनी मनमानी चलाते हैं । एक सेंसर बोर्ड सैफ अली की फिल्म ओमकारा में गालियों के प्रयोग की इजाजत देता है तो दूसरा सेंसर बोर्ड प्रकाश झा की फिल्म में साला शब्द पर आपत्ति जताता है और उसको फिल्म से निकालने को कहता है ।
इन सारे गड़बड़झालों की पृष्ठभूमि में सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी जिसने पिछले दिनों सीबीएफसी में सुधारों को लेकर अपनी रिपोर्ट सौंप दी है । इस कमेटी ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सेंसर बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश की है । बेनेगल कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक अब इस संस्था को सिर्फ फिल्मों के वर्गीकरण का अधिकार रहना चाहिए । वो फिल्म को देखे और उसको किस तरह के यू , ए या फिर यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए, इसका फैसला करे । इस सिफारिश को अगर मान लिया जाता है तो फिल्म सेंसर के इतिहास में एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत हो सकेगी। लेकिन इसमें भी एक पेंच दिखाई दे रहा है । अबतक इस समिति की जो सिफारिशें सार्वजनिक की गई हैं उसमें कहा गया है कि प्रमाणन के दौरान कमेटी सिनेमेटोग्राफिक एक्ट की धारा 5 बी(1) का ख्याल रखेगी और ये ध्यान देगी कि उसका उल्लंघन तो नहीं हो रहा है । सारी समस्या की जड़ में तो यही धारा है । नैतिकता और मर्यादा दो ऐसे आधार हैं जिनकी सुविधानुसार व्याख्या की जा सकती है । बेनेगल कमेटी ने इन दो शब्दों की व्याख्या से निबटने की क्या सिफारिश की है ये जानना दिलचस्प होगा ।
अन्य सिफारिशों के मुताबिक फिल्मकारों के लिए ये बताना जरूरी होगा कि वो किस श्रेणी की फिल्म बनाकर लाए हैं और उन्हें किस श्रेणी में सर्टिफिकेट चाहिए । उसके बाद सीबीएफसी के सदस्य फिल्म को देखकर तय करेंगे कि फिल्मकार का आवेदन सही है या उनके वर्गीकरण में बदलाव की गुंजाइश है । उसके आधार पर ही फिल्म को सर्टिफिकेट मिलेगा । बेनेगल कमेटी ने अपनी सिफारिशों में फिल्मों के वर्गीकरण का दायरा और बढा दिया गया है । यू के अलावा यूए श्रेणी को दो हिस्सों में बांटने की सलाह दी गई है । पहली यूए + 12 और यूए +15 । इसी तरह से ए कैटेगरी को भी दो हिस्सों में बांटा गया है । ए और ए सी । ए सी यानि कि एडल्ट विद कॉशन । इसके अलावा कमेटी ने बोर्ड के कामकाज में सुधार के लिए भी सिफारिश की है । उन्होंने सुझाया है कि बोर्ड के चेयरमैन समेत सभी सदस्य फिल्म प्रमाणन के दैनिक कामकाज से खुद को अलग रखेंगे और इस काम की रहनुमाई करेंगे । सभी क्षेत्रों से बोर्ड में एक सदस्य रखने की सिफारिश भी की गई है । तो इस तरह से बोर्ड में चेयरमैन के अलावा नौ सदस्यों की सिफारिश की गई है । इसके अलावा भी कमेटी ने कई छोटी मोटी सिफारिशें की है । फिल्मों में पशुओं पर अत्याचार और स्मोकिंग दृश्यों पर अपनी सिफारिश कमेटी जून तक प्रस्तुत कर देगी । तो यह माना जाना चाहिए कि जून के बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय इसपर कोई ठोस फैसला लेगी ताकि फिल्म प्रमाणन बोर्ड को फिल्मों पर कम से कम कैंची चलाने का हक मिल सके ।


बहुत याद आएंगें जोगेन्द्र पॉल

अभी हाल ही में उर्दू के सबसे बड़े कहानीकारों में एक जोगेन्द्र पॉल का निधन हुआ तो अचानक सेउनके पहले कहानी संग्रह धरती का काल में प्रकाशित कृष्ण चन्दर की टिप्पणी स्मृति में कौंध गई । कृष्ण चन्दर ने लिखा था – पहली बार जब मैं जोगेन्द्र पॉल से मिला तो वो मुझे अपनी शक्लो-सूरत, चाल-ढाल और किरदार के एतबार से एक मालदार जौहरी नजर आया । बाद में मुझे मालूम हुआ कि मेरा अंदाजा ज्यादा गलत भी ना था । वह जौहरी तो जरूर है पर हीरे-जवाहरात का नहीं, कहानियों का –और मालदार है लेकिन अपने फन का । जोगेन्द्र पॉल ने उर्दू अफसाने की दुनिया में एक नये माहौल का इजाफा किया है । उसने दास्तान का लुत्फ बरकरार रखा है क्योंकि वो मगरबी फन का कायल बड़ा कायल है  । सस्पेंस में उसे बड़ा मजा आता है और सस्पेंस के बाद उसे झटका देना भी खूब आता है ।जोगेन्द्र पॉल पर कृष्ण चन्दर की यह टिप्पणी उनके लेखन को समझने के लिए काफी है । जोगेन्द्र पॉल उर्दू के बहुत बड़े लेखक थे और उस पूरे उपमहाद्वीप में उर्दू पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता काफी थी । जोगेन्द्र पॉल की मातृभाषा पंजाबी थी लेकिन उन्होंने उर्दू में रचमात्मक लेखन कर उस भाषा और साहित्य को समृद्ध किया । जोगेन्द्र पॉल का मानना था कि उर्दू भाषा नहीं बल्कि तहजीब है वो अपना रचनात्मक लेखन एक तहजीब में करते हैं । जोगेन्द्र पॉल का जन्म 1925 में अविभाजित भारत के सियालकोट में हुआ था और विभाजन के बाद वो हरियाणा के अंबाला में आकर रहने लगे । इस बीच उनकी पहली कहानी उर्दू की मशहूर पत्रिका साकी में प्रकाशित होकर पाठकों और आलोचकों का द्यान अपनी ओर खींच चुकी थी । अंबाला पहुंचने पर उनका विवाह हुआ और पत्नी के साथ उनको केन्या जाना पड़ा । उनकी रचनाओं में विभाजन और विस्थापन का दर्द कई बार झलकता है । केन्या में वो अंग्रेजी पढ़ाते थे और एक लंबे अंतराल के बाद वो भारत लौटे और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एक कॉलेज में चौदह साल तक प्रिंसिपल रहे और उसके बाद उन्होंने नौकरी नहीं की और पूर्णकालिक लेखक बनकर दिल्ली में रहने के लिए चले आए । जोगेन्द्र पॉल का पहला संग्रह उन्नीस सौ इसठ में छपा –धरती का काल । इस संग्रह में नैरोबी के इनके प्रवास के दौरान वहां के जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियां हैं । इस संग्रह से साहित्य की दुनिया में प्रवेश करनेवाले जोगेन्द्र पॉल ने उस वक्त की अफ्रीका की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक गतिविधियों से उर्दू साहित्य का परिचय करवाया गया है । उर्दू के मशहूर आलोचक गोपी चन्द नारंग का कहना है कि- जोगेन्द्र पॉल इशारों और अलामतों में पनाह नहीं लेते, वह हकीकत का तजजिया करके उसे मजरूह भी नहीं करते , बल्कि उसकी सालिमियत को नुकसान पहुंचाए बगैर बड़ी सादगी से उसे हू ब हू पेश कर देते हैं । किसी भी तख्लीक के फन का कमाल यह है कि उसपर फनकारी का गुमान न हो । जोगेन्द्र पॉल की कहानियां इस लिहाज से मुमताज हैं ।जोगेन्द्र पॉल ने विपुल लेखन किया है और उनके तेरह से अधिक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें खुला, खोदू बाबा का मकबरा और बस्तिआन शामिल हैं । कहानियों के अलावा पॉल ने कई उपन्यास भी लिखे जिनमें से एक बूंद लहू की खासी चर्चित रही है । जोगेन्द्र पॉल के तीन लघुकथा संगह भी प्रकाशित हुए हैं । अच्छी बात यह है कि पॉल की ज्यादातर किताबें हिंदी में भी अनूदित हैं । उनकी कुछ किताबों को अंग्रेजी के प्रकाशकों ने भी प्रकाशित किया है । जोगेन्द्र पॉल को ढेर सारे सम्मानों से भी सम्मानित किया जा चुका है उनको सार्क लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड, बहादुरशाह जफर पुरस्कार, गालिब पुरस्कार मिल चुका है । उर्दू साहित्य में उनके योगदान को लेकर कतर में अंतराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था । जोग्नद्र पॉल का निधन से उर्दू के अलावा हिंदी के लिए भी बड़ी क्षति है ।    

कैप्टन और पीके की जोड़ी

देश के सबसे अमीर कृ्षि प्रधान राज्य पंजाब में हालांकि विधिवत रूप से चुनावी बिगुल नहीं बजा है, पर राजनीतिक दलों की सक्रियता से सियासी पारा चढ़ने लगा है. बिहार के वीनिंग स्ट्रेट्जिस्ट प्रशांत किशोर को हॉयर कर कैप्टन अमरिंदर सिंह की टीम ने शुरुआती बढ़त बना ली है. हालांकि राज्य में कांग्रेस और अकाली दल के अलावा और भी नए खिलाड़ी आ गए हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की नजर काफी पहले से ही पंजाब पर थी, जबकि हरियाणा में अपने दम पर सरकार बनाने के बाद भारतीय जनता पार्टी भी पंजाब में अकेले दम पर अपना स्कोप देख रही है.    यह बात कोई दबी छुपी नहीं है कि 'आप' नेता अरविन्द केजरीवाल की जो महत्त्वाकांक्षा राष्ट्रीय राजनीति को लेकर रही है, वह दिल्ली जैसे किसी केंद्र शासित प्रदेश पर शासन करने से तो पूरी होगी नहीं. इसके लिए, उन्हें यहाँ से बाहर कदम बढ़ाने ही थे और इसकी शुरुआत पंजाब से होने जा रही है. पंजाब में उनका पाला अब उस कांग्रेस से होने जा रहा है, जिसके रणनीतिकार प्रशांत किशोर हैं, लिहाजा उन्होंने भी दुर्गेश पाठक को मोर्चे पर तैनात कर दिया है ।  पंजाब में अकाली नेताओं के परिवारवाद, बढ़ते भ्रष्टाचार से बादल परिवार और अकालियों की लोकप्रियता अपने सबसे खराब दौर में है ।

पंजाब वह राज्य है, जहां बीजेपी हमेशा अकालियों की 'बी' टीम के रूप में रही है. राज्य में अमूमन बारी-बारी से अकाली और कांग्रेस सत्ता में आते- जाते रहे हैं. लोकसभा में 44 पर सिमटी कांग्रेस के लिए यहां करो-मरो की स्थिति है. लोकसभा चुनाव के बाद, कांग्रेस के लिए पहली बार यहां काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है. वजह साफ है, महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्यों में जब चुनाव हुए थे, तब कांग्रेस को भी अपनी हार के बारे में पता था, क्योंकि लोकसभा चुनाव नतीजों का प्रभाव तब तक विद्यमान था. कांग्रेस ने तब अपना कैंपेन बजट तक घटा दिया था, यहां तक कि उम्मीदवारों को चुनावी मदद भी पूरी तरह से नहीं पहुंचाई गई थी. इसी तरह बिहार विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी जदयू नेता नीतिश कुमार ने रणनीतिकार प्रशांत किशोर को सौंप दी थी और वह अपनी जीत के लिए आश्वस्त थे. कांग्रेस को अपनी जमीनी हालत का भान था और वह लालू-नीतीश के पीछे थी.  यही वजह है कि कांग्रेस ने अपना सभी दांव पंजाब में लगा दिया है. 'पीके' के आने से कर्यकर्ताओं में उत्साह है. विशेषकर युवा वर्ग उनकी बिहार की सफलता से उत्साहित है और यह जानता है कि अपनी रणनीति से वह किसी भी सियासी गणित को बदल सकते हैं. कुछ जानकारों का दावा है कि मीडिया में आम आदमी पार्टी को मजबूत बताने का मकसद सिर्फ यह दिखाना है कि आप पंजाब में सशक्त राजनीतिक दल के तौर पर दिखाई दे, अकालई उससे उलझें और कांग्रेस बीच में बाजी मार ले जाए. कांग्रेस की मजबूती मनप्रीत बादल के जुड़ने से भी बढ़ी है.  मनप्रीत बादल की पीपल्स पार्टी ऑफ़ पंजाब ने 2012 के चुनाव के दौरान पांच फ़ीसदी वोट हासिल किए थे.

अब 'पीके' के असर में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर लिया, जो कांग्रेस के लिए राहत और उसके विरोधियों के लिए खलबली की बात है. सभी जानते हैं कि मनप्रीत बादल ने अपनी पार्टी का गठन, अकाली दल का विरोध करते हुए किया था. ऐसी अटकलें भी हैं कि पार्टी राज्य में बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस से हाथ मिलाने को बेताब है. बीएसपी को पंजाब पि्छले दोनों विधानसभा चुनावों में चार से छह प्रतिशत वोट मिले थे. पीके की रणनीति के तहत दलितों को टिकट देकर कांग्रेस राज्य में दलितों की मौजूदगी को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है. पंजाब की क़रीब एक तिहाई आबादी दलित है, जो देश के किसी भी राज्य में दलितों के अनुपात के हिसाब से सबसे ज़्यादा है. कांग्रेस की तरफ हवा का रुख देखकर दूसरी पार्टियां अभी से कांग्रेस में मिलने लगी हैं. पूर्व सीएम सुरजीत सिंह बरनाला की पार्टी शिरोमणि अकाली दल (लोंगोवाल) के कांग्रेस में विलय की घोषणा के भी दूरगामी परिणाम हैं.  महासचिव बलदेव मान, गगनजीत बरनाला और सिमरजीत बरनाला के साथ कांग्रेस के पंजाब प्रभारी शकील अहमद, प्रदेश प्रधान कैप्टन अमरिंदर सिंह और कैंपेन कमेटी की चेयरपर्सन अंबिका सोनी की मौजूदगी में शिअद-लोंगोवाल की प्रधान सुरजीत कौर बरनाला ने कहा कि कैप्टन अमरिंदर नेतृत्व में कांग्रेस ही पंजाब में उम्मीद की किरण है. अमरिंदर ने पहले भी बढ़िया प्रशासन देकर अपनी काबिलियत को साबित किया है. पीके की योजना है कि 2017 तक अकाली दल को इसी तरह चोट पहुंचाई जाए. शिअद में अंदरखाते काफी नाराजगी चल रही है, चुनाव से पहले इसमें बड़ा विस्फोट तय है. कैप्टन का दावा है कि अकाली दल के कई सीनियर नेता कांग्रेस ज्वाइन करने के लिए चुनाव आचार संहिता लगने का इंतजार कर रहे हैं. वह पूरी तरह कांग्रेस के संपर्क में हैं. अभी अकाली नेता डरे हुए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि सुखबीर सिंह बादल उन्हें झूठे केसों में फंसा देंगे. चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद सरकार का प्रशासन पर कंट्रोल खत्म हो जाएगा. पंजाब में हाल ही में सामने आए बारह हजार करोड़ के अनाज घोटाले के बाद कैश क्रेडिट लिमिट मंजूर होना संभव नहीं है. इसका असर किसानों पर पड़ना स्वाभाविक है, उनको अदायगी नहीं होगी.कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी विधानसभा चुनाव के कई महीने पहले ही जमीनी स्तर पर काम शुरू कर दिया है. अभी जीरकपुर के एक रिसॉर्ट में 'पंजाब दी गल्ल' कार्यक्रम में राज्य के विभिन्न हिस्सों से आए करीब ढाई हजार नेताओं-वर्करों के से फीडबैक लेने के बाद उन्होंने घोषणा कर दी कि कांग्रेस इस बार जल्दी टिकट घोषित करेगी  राहुल गांधी और उनकी टीम ने यह साफ कर दिया है कि कैंडिडेट तय करने के सिर्फ दो पैमाने होंगे. जमीनी स्तर पर काम करने वाले नेताओं को टिकट दिए जाएंगे. महिलाओं, युवाओं और हर वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाएगा. राहुल ने कहा कि वर्कर पार्टी की रीढ़ हैं, वर्कर साथ होगा तो आसानी से जीत सकते हैं. ग्रास रूट लेवल से लेकर हेडक्वार्टर तक कांग्रेस एक ही है. गुटबाजी न तो है और न ही होनी चाहिए. हम एक पार्टी बन कर चुनाव लड़ें तो जरूर जीतेंगे, चाहे किसी के वॉलंटियर कितने भी मजबूत क्यों न हों. 
पंजाब के वर्करों ने भी पीके के आने के बाद पंजाब में मिली बढ़त को माना है. पीपीसीसी प्रधान कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पिछले दिनों सभी जिलों में जाकर वर्करों की बात सुनने की कवायद शुरू की है. 'कॉफी विद कैप्टन' प्रोग्राम को सफलता मिल रही है. पंजाब के अकाली अपनी हार लगभग मान चुके हैं और वे भाजपा की तरफ भरोसा कर रहे हैं, ताकि हार का ठीकरा  'एंटी-इन्कम्बेंसी' और मोदी सरकार की नीतियों पर ठोंका जाए. कैप्टन भी इस चाल को समझ रहे हैं, इसीलिए घूम-घूम कर कह रहे हैं कि अगर 2017 में पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनी, तो ऐसा नोटिफिकेशन जारी करेंगे, जिससे कोई भी एजेंसी किसानों की जमीन बेच नहीं सकेगी. कैप्टन सत्ता में आने के चार हफ्तों के अंदर पंजाब को नशामुक्त करने का अपना वादा भी दोहरा रहे हैं. आलम यह है कि पीके की सलाह पर अब कैप्टन और कांग्रेस उपाध्यक्ष न केवल पंजाब पर ध्यान दे रहे हैं बल्कि सभी की बात भी सुन रहे हैं. यह अच्छी पहल है, इसे जारी रखना चाहिए. ताकि अभी से शुरू हुआ टेंपो 2017 तक न केवल बना रहे बल्कि नतीजा भी लेकर आए.



Sunday, April 24, 2016

खुद से ज्यादा प्रबंधकों पर भरोसा

आजादी के बाद भारतीय समाज ने कई तरह के पड़ाव और बदलाव देखे- राजनीति से लेकर समाज तक में । अस्सी के दशक तक राजनेताओं को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा था, जो लोकप्रियता उनके संघर्षों और विचारों से बनता था । अस्सी के दशक के बाद इसका क्षरण शुरू हुआ और अब लोकप्रियता बनाने में चुनावी प्रबंधकों की भूमिका प्रबल होने लगी । देश में इमरजेंसी के बाद साझा सरकारों का दौर शुरू हुआ तो नेताओं की लोकप्रियता छीजती चली गई । जवाहरलाल नेहरू जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तो वो उस वक्त राजनीति के पिरामिड में सरदार पटेल, मौलाना आजाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जी बी पंत, बी जी खेर, विधानचंद राय जैसे नेता शामिल थे । कालांतर में राजनीति का ये मजबूत पिरामिड कमजोर होता चला गया । क्षेत्रीय क्षत्रपों का उदय होने लगा । जैसे जैसे संचार माध्यमों का फैलाव शुरू हुआ तो नेताओं की अखिल भारतीय छवि और लोकप्रियता कमजोर पड़ने लगी । अब तो सोशल मीडिया और बेहतर तकनीक के सहारे एक बार फिर से नेताओं ने अपनी छवि मजबूत करनी शुरू की है । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया था । तब प्रशांत किशोर ने भारतीय चुनाव में कई नए तरह के प्रयोग किए थे । चाय पर चर्चा से लेकर थ्री डी और होलोग्राम तकनीक से एक ही वक्त कई जगहों पर जनता से रू ब रू होने का कार्यक्रम काफी सफल हुआ था । इसके अलावा नरेन्द्र मोदी की मजबूत छवि को बेहद सतर्कता और रणनीति के तहत भारतीय वोटरों के सामने पेश किया गया था । नतीजा सबके सामने था । आजादी के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत से केंद्र में कोई गैर कांग्रेसी सरकार बनी । इसके बाद पिछले साल प्रशांत किशोर ने बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के लिए  मोर्चा संभाला । एक फिर नतीजा सबके सामने था । उस वक्त कहा गया था कि ये प्रशांत किशोर की रणनीति का हिस्सा ही था कि नीतीश कुमार ने जीती हुई विधानसभा सीट से कम सीटों पर लड़ना तय किया था और लालू यादव से हाथ मिलाया था । बिहारी बनाम बाहरी जैसा नारा गढ़कर प्रशांत ने बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया था । इस वक्त हालात ये है कि प्रशांत किशोर सबसे बड़ी राजनीतिक कमोडिटी बन चुके हैं । बाजार का नियम बड़ी कमोडिटी की ओर निवेशकों को खींचता है । हर दल और उसके नेता प्रशांत किशोर को अपने चुनावी चाणक्य के रूप में देखना चाहता है । देश में राष्ट्रीयता और अंबेडकर के सिद्धांतों पर जारी विमर्श के कोलाहल के बीच कांग्रेस पार्टी ने पंजाब में विधानसभा चुनाव में पार्टी की वैतरणी पार करवाने का जिम्मा प्रशांत किशोर को सौंपा है । प्रशांत ने वहां कॉफी विद कैप्टन और पंजाब का कैप्टन जैसे कार्यक्रम शुरू कर दिए हैं । जो कांग्रेस पंजाब में आंतरिक कलह से जूझ रही थी वो प्रशांत किशोर के आने के बाद से सक्रिय नजर आने लगी है । आंतरिक कलह की खबरें कम हो गई हैं और अभी हाल ही में अकाली दल लोंगोवाल का विलय भी कांग्रेस में हुआ । विधानसभा चुनाव में कितनी सफलता मिलती है ये तो भविष्य के गर्भ में है और प्रशांत किशोर के लिए चुनौती भी है । नेताओं को अब जनता की बजाए तकनीक और चुनावी प्रबंधन के विशेषज्ञ स्थापित करने लगे हैं । चुनावी प्रबंधन के माहिर माने जाने वाले प्रशांत किशोर पर कांग्रेस ने बड़ी जिम्मेदारी डाली है । पंजाब के अलावा उनपर यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी है । वहां उन्होंने काम करना भी शूरू कर दिया है और जिला स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच प्रश्नावली बांट दी गई है। कहा तो यहां तक जाता है कि प्रशांत किशोर पार्टी की हर अहम बैठक में भीमौजूद रहने लगे हैं ।  सवाल वही है कि नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार के बाद क्या वो राहुल गांधी को दो हजार उन्नीस में सफलता का स्वाद चखा पाएंगें । 
सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी ने भी दिल्ली में चुनावी प्रबंधन से सफलता पाई थी । दिल्ली के हर विधानसभा की प्रोफाइलिंग करके रणनीति बनाई गई थी । दरअसल प्रोफाइलिंग का एक फायदा उम्मीदवार चुनने से लेकर स्थानीय मुद्दों को उठाने और नेताओं के भाषण आदि में मदद मिलती है । इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है क्षेत्र के डेमोग्राफी के हिसाब से मुद्दे तय किए जाते हैं । झुग्गियों में वहां के हिसाब से मुद्दे उठाए जाते हैं । दिल्ली विधानसभा चुनाव दो हजार तेरह के वक्त आम आदमी पार्टी ने ट्विटर और फेसबुक का तो इस्तेमाल किया ही था कई तरह के ऐप का भी इस्तेमाल किया था । इससे चंदा जुटाने से लेकर लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में मदद मिली थी । अब पंजाब में भी आम आदमी पार्टी ने अपने टेक्नोक्रैट दुर्गेश पाठक को लगाया है । दुर्गेश भी आंकड़ों के बाजीगर माने जाते हैं और चुनावी चक्रव्यूह रचने के उस्ताद हैं । पंजाब चुनाव में आम आदमी पार्टी को सबसे ज्यादा भरोसा व्हाट्सएप ग्रुपों पर है । वहां दर्जनों ग्रुप चल रहे हैं जिनसे उनके नेता जुड़े हुए हैं । यहां कई बार नेताओं को कार्यकर्ताओं से संवाद करने में मदद मिलती है । व्हाट्सएप ग्रुप्स में एक तरह की निजता भी होती है कि जितने लोग हैं वही संदेश प्राप्त कर सकते हैं या दे सकते हैं । इसी तरह से गोवा में आम आदमी पार्टी फेसबुक के जरिए अपनी सियासत को लोगों के बीच पहुंचा रही है । हर पार्टी की रणनीति का सोशल मीडिया एक आवश्यक तत्व है । नेताओं के ट्विटर फेसबुक पर सक्रिय रहने से कार्यकर्ताओं को दिशा मिल जाती है । सोशल मीडिया और आंकड़ों से खेलनेवाले लोगों का सबसे पहले इस्तेमाल अमेरिका के राष्ट्रपति बरात ओबामा ने अपने 2008 के चुनाव के वक्त किया था । 2007 के शुरुआती महीने में बराक ओबामा एक अनाम सीनेटर थे । लेकिन उनकी टीम ने जिस तरह से डेटाबेस तैयार किया था उससे उनको काफी लाभ मिला । उस वक्त अमेरिका में ओबामा के चुनाव अभियान को फेसबुक इलेक्शन भी कहा गया था । तब उनका ट्विटर आउटरीच काफी सफल रहा था । ओबाम की जीत के बाद अमेरिका के अखबारों ने लिखा था कि ये पहला राष्ट्रपति चुनाव है जो वेबस्पेस पर लड़ा और जीता गया । आंकड़ों और इलाकों की प्रोफाइलिंग करनेवाली उनकी टीम ने उनको सफलता दिलाई थी । अमेरिका से शुरू होकर ये भारत पहुंचा और यहां भी अबतक सफल रहा है ।
एक जमाना था जब हमारे देश के नेता जनता के बीच जाकर उनसे सीधा संवाद करते थे और अपने लिए वोट मांगते थे । अब भी वो जनता से सीधा संवाद ही कर रहे हैं लेकिन चुनावी प्रबंधकों और रणनीतिकारों ने राजनीति के बेसिक्स की चूलें कस दी हैं । अब तो आंकड़ों के बाजीगर नेताओं की उम्मीदवारी तय कर रहे हैं, रणनीति बना रहे हैं, आलाकमान को सलाह दे रहे हैं । नेताओं की लोकप्रियता और जनता से जुड़ाव आंकड़ों से तय हो रहा है । प्रशांत की सफलता के बाद इस तरह के रणनीतिकारों की मांग बढ़ गई है । अभी तो हमारे देश में इंटरनेट का फैलाव काफी कम है उस स्थिति की कल्पना करनी चाहिए जब इंटरनेट घनत्व पचहत्तर फीसदी से ज्यादा होगी । भारतीय राजनीति में यह पोलस्टर का बढ़ता दबदबा एक अहम बदलाव है जिसको रेखांकित किया जाना जरूरी है ।






Saturday, April 23, 2016

प्रेम रहेगा तो प्रेम-पत्र भी रहेंगे

बद्री नारायण की एक कविता है – प्रेम पत्र । इस कविता में बद्री प्रेत, गिद्ध, बारिश, चोर, आग, सांप, झींगुर, कीड़े आदि का नाम लेकर कहते हैं कि इन सबके निशाने पर प्रेम पत्र होगा । आगे वो कहते हैं- प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु / सब वेद बचाएंगें/ कोई नहीं बचाएगा प्रेमपत्र/ कोई रोम बचायेगा कोई मदीना/ कोई चांदी बचाएगा कोई सोना/ मैं निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र । इस कविता में कवि प्रेम पत्र को बचाने की चिंता करता है । चिंता वाजिब भी है तकनीक के दौर में पत्रों का चलन तो कम हो गया लेकिन प्रेमपत्र ना तो खत्म हुए हैं और ना ही खत्म होंगे । मुझे तो लगता है कि जबतक बचा रहेगा प्रेम, तबतक रहेंगे प्रेमपत्र । अभी हाल ही में फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौट और कथित रूप से ऋतिक रोशन के बीच के ईमेल सार्वजनिक हुए हैं । कथित तौर पर ऋतिक रोशन इस वजह से कि ये मामला अभी कोर्ट में है और ऋतिक के वकीलों का दावा है कि ऋतिक के नाम से किसी ने फर्जी ईमेल आईडी बनाई थी।अब अमेरिकी कंपनी से अनुरोध किया जा रहा है कि वो ऋतिक रोशन के कथित ईमेल अकाउंट की जानकारी मुहैया करवाएं । खैर हम तो बस प्रेम पत्रों तक अपनी बात को सीमित रखेंगे ।
एक सौ चालीस करेन्क्टर के ट्विटर के दौर में भी प्रेम पत्र का बचा होना प्रेम के बचे होने की आश्वस्ति देता है । आज अपने रिश्तों को, अपने संबंधों को, अपनी विरासत को, अपने अतीत को, अपने पूर्वजों को, अपने शिक्षकों को, अपने साथियों को, अपने दोस्तों, अपनी प्रेमिकाओं को, अपने प्रेमियों को भूलने का दौर है । इस अकल्पनीय युग में अगर हम प्रेम पत्र को नहीं भूल पा रहे हैं तो ये प्रेम की ही ताकत है । प्रेम में वो ताकत है जिसके सैकड़ों परमाणु बम मिलकर भी खत्म नहीं कर सकते हैं । सृष्टि बची रहेगी तो प्रेम भी बचा रहेगा । प्रेम बचेगा तो प्रेम पत्र भी बचे रहेंगे । संभव है कि प्रेम पत्रों का रंग रूप, मन-मिजाज, आकार प्रकार आदि बदल जाएं पर प्रेम की अभिव्यक्ति का ये माध्यम कायम रहेगा । ऐसा शायद ही कोई शख्स होगा जिसने अपनी जिंदगी में प्रेम पत्र ना लिखा हो । कई वीर पुरुष अपने प्रेम पत्रों को गंतव्य तक पहुंचा देते हैं तो कई डरपोक किस्म के आशिक प्रेम पत्रों को तह लगाकर तकिए के नीचे रखकर जिंदगी गुजार देते हैं । स्कूली दिनों से कॉलेज के दिनों तक प्रेम पत्र लिखने के कई तरह के किस्से आम हैं । प्रेमिका तक उसके छोटे भाई और उसकी बहन के मार्फत प्रेम-पत्र पहुंचाने की परंपरा रही है । प्रेमिका के छोटे भाई या बहन के मार्फत भेजे जानेवाले प्रेम पत्र बहुधा पकड़ भी लिए जाते थे और फिर मोहब्बत का फसाना आम हो जाता था । कभी प्रेमी की पिटाई तो कभी प्रेमिका पर बंदिश लगाकर मोहब्बत पर ब्रेक लगाने की कोशिश की जाती रही है लेकिन प्रेम पत्रों को रोकना नामुमकिन होता है । तमाम बाधाओं के बाद भी प्रेम पत्र अपने गंतव्य तक पहुंचते रहे हैं । बदलते जमाने के साथ तो प्रेम पत्रों को फॉर्मेट भी बदल गया है । पहले याहू चैट, फिर जीमेल चैट, फिर एसएसएस संदेश के मार्फत इजहार ए मोहब्बत और अब तो सबसे ज्यादा लोकप्रिय है व्हाट्सएप चैट । तकनीक के उन्नत होने के दौर ने लंबे लबे प्रेम पत्रों की परंपरा अवश्य खत्म की लेकिन व्हाट्सएप जैसे एप के मार्फत होनेवाले लंबे चैट ने उसकी जगह ले ली । अब तो प्रेमी प्रेमिकाओं के पास अपने संवेदनाओं को प्रेषित करने के साथ साथ अपनी तस्वीरें भेजने का विकल्प भी है ।

प्राय: यह माना जाता है कि साहित्य की दुनिया में प्रवेश करनेवाले ज्यादातर लेखक प्रेम पत्रों के जबरदस्त लेखक होते हैं । एक जमाना था जब साहित्य में भी प्रेम पत्रों की खासी अहमियत होती थी । सारिका जैसी साहित्यक पत्रिका ने, मेरे जानते, दो अंक सिर्फ प्रेम पत्रों पर केंद्रित किए थे । अभी हाल ही में प्रतिलिपि डॉट कॉम और हिंदी अकादमी की पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती ने प्रेम पत्रों को तवज्जो देने का ऐलान किया है । प्रतिलिपि डॉट कॉम ने तो प्रेम पत्रों को पुरस्कृत करने का एलान किया है वहीं हिंदी अकादमी की उपाध्यक्षा मैत्रेयी पुष्पा ने अपने संस्थान से निकलनेवाली पत्रिका के लिए प्रेम पत्र लेखकों को आमंत्रित किया है । इन्हें हम प्रेम पत्र की वापसी का दौर तो नहीं मान सकते हैं क्योंकि वापसी तो उसकी होती है जो खत्म हो चुका होता है, हां इतना अवश्य कह सकते हैं कि साहित्य के लोगों ने एक बार फिर से प्रेम पत्रों की ओर ध्यान दिया है । अभी पिछले दिनों ज्ञानपीठ ने पुष्पा भारती के धर्मवीर भारती को लिखे प्रेम पत्रों का संकलन छापा था । यह एक बेहद दिलचस्प किताब बनी है । कहानियों और उपन्यासों में तो प्रेम पत्रों के महत्व पर कई लेखकों ने प्रकाश डाला है । लेकिन यथार्थ की खुरदरी जमीन पर प्रेम सूखने लगा था और कहानियों, उपन्यासों आदि से प्रेम गायब होने लगे थे । विचारधारा के कोलाहल के बीच, नारेबाजी के बोलबाले के दौर में लिखे जानेवाले साहित्य ने कविता से लेकर कहानी और उपन्यास हर जगह प्रेम को नेपथ्य में भेज दिया । यह अकारण नहीं है कि धर्मवीर भारती के गुनाहों के देवता और मनोहर श्याम जोशी के कसप के बाद कोई दूसरा प्रेम उपन्यास पाठकों के बीच उतना लोकप्रिय नहीं हो सका । आज भी पुस्तक मेलाओं में गुनाहों का देवता और कसप के पीछे पाठक पागल रहते हैं । कविता की दुनिया से भी प्रेम लगभग ओझस नजर आता है । एक बड़ी लाइन और फिर छोटी लाइन वाली कविता से प्रेम गायब है । कुछ कवि अवश्य प्रेम कविताएं लिख रहे हैं लेकिन उन कविताओं में प्रेम को लेकर एक हिचक है, हिचक विचारधारा से खौफ का है । कहा गया है कि आधे मन से किया गया गया कोई कभी वो प्रभाव नहीं छोड़ता जो पूरे नम से किया गया काम छोड़ता है । इधर कुछ नए लेखकों के उपन्यासों में प्रेम बगैर सेंसर किए रूप में प्रकट होने लगा है । उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी का कोई लेखक तकनीक के इस उन्नत दौर में प्रेम-पत्रों के लिए कुछ करेगा अन्यथा बद्री नारायण जैसे कवि को एक बार फिर से प्रेम पत्रों को लेकर चिंता प्रकट करनी पड़ सकती है । 

साहित्य में ग्लैमर का तड़का ·

सनी लियोनी और साहित्य । सुनकर कुछ अजीब लगता है क्योंकि एक एडल्ट फिल्मों की नायिका जो इन दिनों बॉलीवुड फिल्मों में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रही है, जो लगातार चाल साल तक गूगल में सबसे ज्यादा सर्च की जानेवाली शख्सियत रही हों, उनका साहित्य से क्या लेना देना । परंतु सनी लियोनी अब कहानीकार के तौर पर सामने आई हैं । दो दिनों पहले भारतीय प्रकाशन जगत में एक नए डिजीटल पब्लिशिंग हाउस ने दस्तक दी है, नाम है जगरनॉट । इसने शुक्रवार को इसकी शुरुआत सनी लियोनी की कहानियों से की है । जगरनॉट के मोबाइल ऐप पर अगले दस दिनों तक हर रोज रात दस बजे सनी लियोनी की एक नई कहानी अपलोड की जाएगी । सनी लियोनी के कहानी संग्रह का नाम स्वीट ड्रीम्स है और इसको उनकी छवि के हिसाब से ही प्रकाशक ने प्रचारित भी किया है । दरअसल खबरों के मुताबिक प्रकाशन संस्थान ने सनी लियोनी को अपने लांच के लिए साइन किया था और उसकी तारीख को ध्यान में रखकर कहानी संग्रह तैयार करवाया गया था । सनी लियोनी की कहानियों में प्यार होगा, रोमांस होगा और डिजायर भी होगा । इसके अलावा जगरनॉट के लेखकों में विलियम डेलरिंपल, श्वेतलाना एलेक्सविच, अरुंधति राय, पोलस्टर प्रशांत किशोर और हुसैन हक्कानी जैसे बड़े नाम शामिल किए गए हैं । अभी इस डिजीटल प्रकाशन गृह की शुरुआत करीब सौ टाइटल के साथ की गई है और इसकी भविष्य की योजना में और भी किताबें हैं । सौ में से करीब पचास किताबें इन्होंने खुद तैयार की हैं और बाकी पटास अन्य प्रकाशकों के साथ साझा समझौते के तहत जारी की गई हैं ।  जगरनॉट की योजना के मुताबिक वो पहले ई फॉर्मेट में किताबें प्रकाशित करेंगे और फिर पाठकोंके रेस्पांस के हिसाब से उसको किताब के रूप में प्रकाशित करेंगे । भारतीय प्रकाशन जगत के लिए ये ठीक उल्टी प्रक्रिया है । यहां तो पहले कोई भी कृति किताब के रूप में प्रकाशित होती है फिर बाद में उसका डिजीटल संस्करण जारी किया जाता है या ज्यादा से ज्यादा दोनों एक साथ ही जारी किए जाते हैं ।  
जगरनॉट का दावा है कि वो भारत की पहली एप आधारित डिजीटल प्रकाशन गृह है जो पाठकों को इतनी कम कीमत पर किताबें उपलब्ध करवा रही है । इस महात्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत पाठकों के लिए पंद्रह रुपए रोज या फिर दो सौ निन्यानबे रुपए महीने की सदस्यता पर किताबें उपलब्ध की जाएंगी । अगर पाठक सदस्यता नहीं लेना चाहे तो निन्यानवे रुपए में किताबें उपलब्ध हैं जिसे डाउनलोड किया जा सकता है । दरअसल ये कहा जा सकता है कि प्रकाशन की दुनिया का ये स्टार्ट अप है जिसने मोबाइल यूजर के लिए उसकी सहूलियत को ध्यानमें रखते हुए उस फॉर्मेट में किताबों को पेश करने की योजना बनाई है । इस प्रकाशन गृह के पीछे पेंग्विन प्रकाशन की पूर्व एडिटर इन चीफ चिक्की सरकार और उनकी सहयोगी दुर्गा रघुनाथ हैं । अबतक इस स्टार्टअप में करीब पंद्रह करोड़ का निवेश हो चुका है । निवेशकों में नंदन नीलेकणी, फैब इंडिया के विलियम बिसिल और बोस्टन कंस्ल्टिंग ग्रुप के भारत प्रमुख नीरज अग्रवाल प्रमुख हैं । जगरनॉट का मानना है कि मोबाइल ऐप का जो इकोसिस्टम है वो पारंपरिक प्रकाशन से कम खर्चे पर चलता है । कम खर्चे की बात इस वजह से होती है कि ईबुक्स को एक बार तैयार करवाने में खर्च होता है बाकी तो उसके बाद जितने भी डाउनलोड होते हैं वो मुनाफा ही होता है ।  किताबों की तरह यहां नहीं है कि जितनी भी प्रति बिकेगी सबकी कुछ ना कुछ लागत होगी । संभव है तिक्की सरकार का अलग गणित हो लेकिन मोबाइल ऐप आधारित सभी कारोबार का इकोसिस्टम बेहद खर्चीला माना जाता है । स्टार्टअप बिजनेस के लिए किसी भी तरह का मोबाइव एप बनवाना बहुत आसान और सस्ता है लेकिन उस मोबाइल एप को डाउनलोड करवाना और फिर उसको रिटेन करवाना बहुत ही मुश्किल है । गूगल और फेसबुक भी छह सौ रुपए में एक ग्राहक बेचते हैं लेकिन उसको रिटेन करवाने का कोई फॉर्मूला उनके पास भी नहीं है ।  इंडस्ट्री के जानकारों का मानना है कि एक मोबाइल एप को डाउनलोड करवाने का खर्च लगभग पांच सौ रुपए आता है और उसको ग्राहक अपने मोबाइल में कब तक रखेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है । भारत में मोबाइल के ग्राहकों की विशाल संख्या को देखते हुए वेंचर कैपिटलिस्टों को और स्टार्टअप को यहां एक बड़ा बाजार नजर आता है । वो भूल जाते हैं कि ज्यादातर स्मार्टफोन में मेमोरी बहुत कम होती है और ग्राहक अपने मोबाइल में खरीदारी के एप को ज्यादा से ज्यादा दो की संख्या में रखते हैं, नए डाउनलोड करते हैं तो पुराने हटा देते हैं ।  ये पूरा बिजनेस ट्रांसेक्शन की संख्या पर भी निर्भर करता है । जगरनॉट ने तो मोबाइल वैलेट कंपनी पेटीएम के साथ भी करार किया है । इस करार के मुताबिक कोई भी ग्राहक जिसके पास पेटीएम का ऐप है वो उसके जरिए भी जगरनॉट के ऐप तक पहुंच सकता है । जगपनॉट को पेटीएम के मोबाइल ग्राहकों की संख्या पर भी भरोसा है कि उनके जरिए किताबों की बिक्री हो सकेगी । ये तो आनेवाला वक्त ही तय करेगा कि मोबाइल वैलेट के लोग कितना पैसा किताबों के लिए निकालते हैं ।  दरअसल हमारे देश में हाल के दिनों में ग्रॉसरी से लेकर सब्जी तक के स्टार्टअप खुलते जा रहे हैं और उसी रफ्तार से बंद भी हो रहे हैं । मोबाइल एप पर आधारित इस तरह की ज्यादातर कंपनियां घाटे में चल रही हैं । घाटे में चल रही इन कंपनियों के लिए वेंचर कैपटलिस्ट की पूंजी प्राणवायु का काम तो करती है लेकिन ये दीर्घकालीन हल नहीं देते हैं क्योंकि वेंचर कैपटलिस्ट पहली बात तो इक्विटी से अपना घाटा पूरा करते हैं और फिर कंपनी की वैल्यूएशन के आधार पर उसको मौका मिलते ही बेच देते हैं । किसी भी कारोबार को शुरू करने और उसकी सफलता के लिए माना जाता है कि आपको अपने प्रोडक्ट के बारे में औरों से बेहतर जानकारी हो, आपको अपने ग्राहकों के स्वभाव और उनकी खरीदारी के पैटर्न का बेहतर अंदाजा हो और कारोबार को सफल करने का ख्वाब हो । लेकिन स्टार्टअप में एक और चीज जोड़ी जानी चाहिए कि कारोबारी को इस बात का भी इल्म हो कि उसके ट्रांजेक्शन कैसे बढ़ाए जा सकते हैं । चिक्की सरकार को अपने प्रोडक्ट के बारे में बेहतर ज्ञान है और पेटीएम के विजय शेखर शर्मा खरीदारी के पैटर्न का अंदाज है । विजय शर्मा भी जगरनॉट के सलाहकार हैं तो ये उम्मीद की जानी चाहिए कि ये स्टार्टअप सफल होगा । साहित्य जगत के लिए भी इसका सफल होना बेहतर होगा ।

दिसंबर दो हजार पंद्रह तक भारत में मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करनेवाले तीस करोड़ छह लाख ग्राहक थे और इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक ये इक्कीस फीसदी की दर से बढ़कर जून दो हजार सोलह तक सैंतीस करोड़ की संख्या को पार कर जाएगा । मोबाइल पर इंटरनेट के इस्तेमाल के विस्तार को देखते हुए जगरनॉट का बिजनेस मॉडल बेहतर कर सकता है बशर्ते कि इसका खूब प्रचार प्रसार हो । जगरनॉट का मानना हो सकता है कि जिस तरह से मोबाइल का विस्तार हो रहा है उससे ये संख्या और भी बढ़ सकती है । जगरनॉट जून में हिंदी की किताबें भी ईफॉर्मेट में पेश कर रही है । हिंदी के प्रकाशक वाणी प्रकाशन की कॉपीराइट की निदेशक अदिति माहेश्वरी जगरनॉट का स्वागत करती हैं और कहती हैं कि ये भारतीय भाषाओं के लिए अच्छी बात है नए नए फॉर्मेट में किताबें आ रही हैं और साथ ही पूंजी निवेश भी हो रहा है । पर मुझे लगता है कि पाठकों को मोबाइल के एप तक पढ़ने के लिए लाना बहुत मुश्किल काम है । इस तरह का काम काफी सालों से डेलीहंट नाम की कंपनी करती है जो बेहद कम मूल्य पर भारतीय भाषाओं की पुस्तकें बेच रही हैं । उनके बिजनेस मॉडल का पता नहीं है कि वो मुनाफे में है या नहीं । प्रकाशन कारोबार से जुड़े लोगों का कहना है कि भारत में किताबों को लेकर जो प्यार और अपनापन पाठकों के दिलो दिमाग तक छाया हुआ है वो अहसास उनको वर्चुअल बुक्स से नहीं मिलता है यही वजह है कि भारत में अबतक ईबुक्स का बहुत बड़ा बाजार नहीं बन पाया है । इस साल जनवरी में दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले में पाठकों की उमड़ती भीड़ ने भी इस बात तो साबित किया है कि पुस्तकों के प्रति पाठकों का प्यार कम नहीं हुआ है । तो पुस्तक प्रेमियों के इस समाज में सनी लियोनी जैसी सेलिब्रिटी ईफॉर्मेट तक ले जाएंगी, देखना दिलचस्प होगा । 

Monday, April 18, 2016

संघमुक्त भारत का जादुई स्वप्न !

बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव के साथ गठजोड़ करके सत्ता तक पहुंचे नीतीश कुमार अब राष्ट्रीय राजनीति में अपनी संभावनाएं तलाशने में जुटे हुए हैं । नीतीश अब इस जुगत मे लगे हैं कि जेडीयू को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिले । इसके लिए वो अजीत सिंह समेत कई छोटे दलों से बातचीत करके उनका विलय जेडीयू में करवाने में लगे हैं । हाल की में नीतीश कुमार शरद यादव की जगह अपनी पार्टी जेडीयू के अध्यक्ष बने हैं । अब नीतीश कुमार अपनी पार्टी को नेशनल पार्टी का दर्जा दिलवाकर अपना कद बढ़ाने में लगे हैं । दरअसल बिहार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद नीतीश कुमार अब बीजेपी विरोध की धुरी बनना चाहते हैं । नीतीश कुमार एक मंजे हुए नेता हैं और उनको लगता है कि बीजेपी और मोदी के विरोध की उनकी मुहिम तले तमाम दल उनके साथ आएंगें । पुरानी कहावत है कि राजनीति में कोई किसी का स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है । इमरजेंसी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण आंदोलन की उपज नीतीश कुमार इन दिनों कांग्रेस के साथ साझा सरकार चला रहे हैं । बीजेपी के साथ लंबे अरसे तक सरकार चलानेवाले नीतीश कुमार इन दिनों बीजेपी के विरोध में तनकर खड़े हैं । कहा जाता है कि जब नीतीश कुमार पहली बार एनडीए में शामिल होना चाहते थे तो उन्होंने उस वक्त के संघ प्रमुख रज्जू भैया की मदद ली थी। नीतीश कुमार वक्त और माहौल देखकर अपनी राणतीति तो तय करते ही हैं, अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए साथी चुनते और छोड़ते हैं । एक जमाने में वो लालू यादव के साथ थे फिर लालू से अलग होकर सरकार चलाई और जब जरूरत महसूस हुई तो एक बार फिर से लालू यादव का दामन थाम लिया । अलग अलग वक्त पर अलग अलग साथी चुनने को नीतीश कुमार कभी बिहार हित तो कभी देशहित में बताते हुए जस्टिफाई करते रहे हैं । इस वक्त बीजेपी के विरोध में उनको संभावना नजर आ रही है लिहाजा उन्होंने संघ पर हमला बोला है ।  अपनी इस छवि को पुख्ता करने के लिए नीतीश ने अब एक नया दांव चला है । नीतीश कुमार ने संघ मुक्त भारत की बात करते हुए लोकतंत्र की रक्षा की खातिर सभी गैर बीजेपी दलों से एकजुट होने की अपील की है । नीतीश बाबू का कहना है कि बीजेपी और उसकी बांटनेवाली विचारधारा के खिलाफ एकजुट होना ही, लोकतंत्र को बचाने का एकमात्र रास्ता है । नीतीश ने साफ तौर पर एलान किया कि उनका किसी व्यक्ति विशेष से विरोध नहीं है लेकिन वो देश को बांटनेवाली विचारधारा के खिलाफ हैं । वो बीजेपी के विचारधारा को आरएसएस की विचारधारा मानते हुए उसकी खिलाफत की हुंकार भरते हैं । उनका कहना है कि भारत को संघमुक्त करना आवश्यक है ष एक तरफ तो वो कहते हैं कि वो किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं हैं लेकिन अगली ही पंक्ति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमलावर नजर आते हैं । नीतीश के मुताबिक बीजेपी की बागडोर अब एक ऐसे नेता के हाथ में है जिसका धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द में कोई यकीन है और उसने पार्टी के कद्दावर नेताओं को हाशिए पर डाल दिया है ।
एक और पुरानी कहावत है कि अगर आप किसी का लगातार विरोध करते हैं तो कई बार आप उसकी ही तरह हो जाते हैं । बीजेपी का विरोध करते करते नीतीश कुमार भी बीजेपी के नारों के अनुयायी बनते नजर आ रहे हैं जब वो बीजेपी के नारे कांग्रेस मुक्त भारत की तर्ज पर संघ मुक्त भारत का नारा बुलंद करते हैं । दरअसल नीतीश कुमार यह बात बखूबी जानते हैं कि बीजेपी को असली ताकत संघ से ही मिलती है । संघ से बीजेपी को ना केवल वैचारिक शक्ति बल्कि कार्यकर्ताओं की ताकत भी हासिल होती है जो चुनाव दर चुनाव पार्टी को मजबूत करती नजर आती है । संघ भले ही प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में ना हो लेकिन बीजेपी के गठन के बाद से वहां एक सहसरकार्यवाह होते हैं जो पार्टी और संघ के बीच तालमेल का काम देखते हैं । इन दिनों ये काम कृष्ण गोपाल देख रहे हैं । सबसे पहले 1949 में के आर मलकानी ने संघ के सक्रिय राजनीति में आने की वकालत की थी । तब मलकानी ने लिखा था – संघ को सक्रिय रूप से राजनीति में शामिल होना चाहिए ताकि राजनीति की षडयंत्रों को नकारा जा सके । इसके अलावा सरकार की भारत विरोधी नीतियों का विरोध किया जा सके । बावजूद इसके संघ सक्रिय राजनीति में तो नहीं उतरा बल्कि परोक्ष रूप से राजनीति से गहरे जुड़ता चला गया ।  नीतीश कुमार के बयान को संघ के इस अप्रत्यक्ष ताकत को काउंटर करने के आलोक में देखा जाना चाहिए ।

नीतीश कुमार को ये भी लगता है कि बिखरी हुई कांग्रेस और राहुल गांधी के नाम पर सभी दल बीजेपी के खिलाफ एकजुट नहीं हो सकते हैं और उनकी केंद्रीय राजनीति के सपने को पूरा करने के लिए ये सबसे मुफीद वक्त है । संघ पर हमला बोलकर नीतीश कुमार अपनी सेक्युलर छवि भी पेश करना चाहते हैं । पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री और फिर करीब दस साल तक बीजेपी के साथ बिहार में सरकार चलानेवाले नीतीश कुमार संघ पर हमला कर अपनी इसी सेक्युलर छवि को और गाढा करना चाहते हैं । लेकिन नीतीश कुमार ये भूल गए हैं कि उन्नीस पच्चीस में बना संगठन भारत में अपनी जड़े बहुत गहरे जमा चुका है । नीतीश कुमार के लिए यह जानना बेहद आवश्यक है कि आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है । यह भी तथ्य है कि संघ की कोई औपचारिक सदस्यता नहीं होती लेकिन शाखाओं में उसके स्वयंसेवक आते हैं । दो हजार दस से लेकर दो हजार पंद्रह के बीच संघ की दैनिक शाखा की संख्या में 29 फीसदी की, 61 फीसदी बढ़ोतरी साप्ताहिक शाखाओं की और 40 फीसदी बढ़ोतरी मासिक शाखाओं की दर्ज की गई है । पिछले पांच साल में संघ ने युवाओं के बीच अपनी गहरी पैठ बनाई है । उसका ही नतीजा है कि हाल में गणवेश में बदलाव को हरी झंडी गई । तो नीतीश कुमार जब संघमुक्त भारत की कल्पना करते हैं तो उनको देश के सामने इस योजना का ब्लूप्रिंचट भी पेश करना चाहिए था अन्यथा ये फकत नारेबाजी या जुमलेबाजी ही मानी जाएगी । वैसी जुमलेबाजी जिसके लिए वो नरेन्द्र मोदी को आड़े हाथों लेते रहे हैं ।  

Sunday, April 17, 2016

हिंदू राष्ट्र के खतरे का खटराग

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी में बदलाव को सीपीएम के महासचिव बिल्कुल अलग तरीके से देखते हैं । येचुरी के मुताबिक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में बदलाव असहिष्णुता का उदाहरण है । येचुरी इतने पर ही नहीं रुकते हैं वो कहते हैं कि ये हिंदू राष्ट्र की तरफ बढ़ा एक कदम है । उन्होंने अपने बयान को और आगे बढ़ाते हुए कहा कि इस तरह की संस्थाओं के मैनेजमेंट के पुनर्गठन करके केंद्र सरकार देश की धर्मनिरपेक्षता को कोमजोर कर रही है । येचुरी के मुताबिक मोदी सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करके हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है । दरअसल हाल ही में केंद्र सरकार ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के चेयरमैन चिन्मय गरेखान समेत तमाम सदस्यों को हटाकर उनकी जगह पर नई नियुक्तियां की हैं । वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय को इसका नया चेयरमैन नियुक्त किया गया है । अब सीताराम येचुरी को लग रह है कि राम बहादुर राय को चेयरमैन बनाकर केंद्र सरकार देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है । यह ठीक है कि राम बहादुर राय वामपंथी नहीं हैं और विचारों से वो दक्षिणपंथी हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वो देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कोमजोर करने के लिए नियुक्त किए गए हैं । हर सरकार अपने हिसाब से संस्थाओं में नियुक्तियां करती हैं । इसमें येचुरी साहब को असहिष्णुता नजर आती है तो आश्चर्य की बात है । येचुरी साहब के इस बयान से उनका नहीं बल्कि पूरे वामपंथ की हताशा नजर आती है । जब से केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में सरकार बनी है उस वक्त से ही वामपंथियों ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि अब संस्थाओं को खत्म किया जा रहा है । येचुरी साहब को जिसमें असहिष्णुता नजर आती है वो दरअसल संस्थाओं के सम्मान की परंपरा है । केंद्र सरकार अगर चाहती तो दो साल पहले भी इसके बोर्ड को भंग करके मन-मुताबिक नियुक्तियां कर सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में सरकार बदलने के बाद क्या क्या और किस तरह से किया गया है वो ज्ञात है और उसको दोहराने की जरूरत नहीं है ।
दरअसल सीताराम येचुरी जब इस तरह के बयान देते हैं तो उसके पीछे हताशा के अलावा संस्थाओं से बाहर होने का दर्द भी छलकता है । इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी ने कला और संस्कृति के साथ-साथ साहित्यक संस्थाएं भी उनके हवाले कर दी थी । करीब चार दशक से इन संस्थाओं पर कुंडली मारकर बैठे वामपंथियों को जब हटाया जाने लगा तो उनको असहिष्णुता और हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ा कदम नजर आने लगा । सीताराम येचुरी बेहद पढे लिखे महासचिव हैं लेकिन जब वो इस तरह की बातें करते हैं तो भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की ताकत को कम करके आंकते हैं । हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र इतना मजबूत है और उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि किसी दो चार या दर्जन भर संस्थाओं में किसी को भी पदासीन कर उसको कमजोर नहीं किया जा सकता है । येचुरी को लगत है कि सिर्फ उनकी ही विचारधारा यानि मार्क्सवाद धर्मनिरपेक्षता की ध्वजवाहक है । येचुरी को ये भी लगता है कि उनकी ही विचारधारा लोकतंत्र को मजबूत कर सकती है । लेकिन देश-दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं जहां मार्क्सवादियों का शासन रहा वहां उन्होंने तानाशाही को अपनाया और लोकतंत्र को कमजोर किया । चाहे चीन हो, रूस यो फिर क्यूबा हो । पश्चिम बंगाल में दशकों तक वामपंथी शासनकाल के दौरान क्या हुआ उसका मूल्यांकन होना शेष है । इसलिए जब येचुरी जैसे लोग हिंदू राष्ट्र के खतरे का राग अलापते हैं तो उसका ज्यादा असर होता नहीं है । साख के लिए जरूरी है मजबूत बुनियाद, जो अब वामपंथियों के पास रही नहीं ।  


सितारों के बायोपिक का दौर

जब फिल्म पान सिंह तोमर आई तो उसकी सफलता ने लोगों को चौंकाया था । कम लागत में बनी इस फिल्म को तारीफ तो मिली ही थी इसने जमकर मुनाफा भी कमाया था । पान सिंह तोमर भारतीय फौज में थे और उन्होंने उन्नीस सौ अट्ठावन के तोक्यो एशियन गेम्स में भारत का प्रतिनिधित्व किया था । इस बायोपिक को लोगों ने पसंद किया था क्योंकि इसमें एक फौजी के बागी बनने की कहानी थी । चंबल के रहनेवाले पान सिंह ने किस तरह से बंदूक उठाई उसको फिल्मकार ने दर्शकों के सामने परोसा था । इसके बाद तो हिंदी फिल्मों में बॉयोपिक का दौर चल पड़ा । दो हजार तेरह में ओलंपियन मिल्खा सिंह पर बनी फिल्म भाग मिल्खा भाग ने तो सफलता के तमाम रेकॉर्ड धवस्त करते हुए एक सौ नौ करोड़ का बिजनेस कर डाला । मिल्खा सिंह की जिंदगी भी पान सिंह तोमर की तरह ही नाटकीय है । उसमें सफल बॉलीवुड फिल्म के सारे तत्व मौजूद हैं । भारत विभाजन के बाद हुए दंगों में मिल्खा सिंह के माता-पिता की जान चली गई थी । उसके बाद वो दिल्ली आते हैं फिर सेना में शामिल होकर ओलंपिक गेम्स तक पहुंचते हैं । आज भी लोग मिल्खा सिंह को उड़न सिख कहते हैं तो उनके जेहन में उन्नीस सौ साठ का ओलंपिक आता है जब पलभर से मिल्खा सिंह पदक से चूक गए थे । चार सौ मीटर की उस रेस में मिल्खा सिंह आधी दूर तक सबसे आगे थे लेकिन उसके बाद वो पिछड़ गए थे । करीब पौने छियालीस सेकेंड का उनका रिकॉर्ड भारत में चार दशकों तक कायम रहा था और कोई भी धावक उसको पार नहीं कर पाया था । एक तो भारत विभाजन का वक्त, दूसरे एक परिवार के तहस नहस होने के बाद उसके सदस्य का उठ खड़ा होना लोगों को भा गया ।  इसी तरह से पिछले दिनों बॉक्सर मैरी कॉम पर प्रियंका चोपड़ा अभिनीत बॉयोपिक मैरी कॉम आई थी । प्रियंका चोपड़ा के शानदार अभिनय और उत्तर पूर्व के राज्य मणिपुर के एक छोटे से कस्बे से निकलकर मैरी कॉम पांच बार एमैच्योर बॉक्सिंग की विश्व चैंपियन रहीं । मैरी कॉम ने ना केवल इचियोन एशिएयन गेम्स में स्वर्ण पदक जीता था बल्कि ओलंपिक में भी अपने मुक्के का कमाल दिखाया था । उस वक्त मैरी कॉम पूरे देश में नायिका की तरह उभरी थीं । मैरी कॉम पर बनी फिल्म भी हिट रही थी और इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक उसने बासठ करोड़ का बिजनेस किया था । दरअसल होता यह है कि स्पोर्ट्स के सितारों के जीवन पर फिल्म बनाने के लिए  बॉलीवुड के फिल्मकार और निर्देशक ज्यादा उत्साहित रहते हैं । उस उत्साह की कई वजहें हैं लेकिन सबसे बड़ी वजह है तैयार बाजार मिलता है । इस तैयार बाजार का फायदा यह होता है कि यहां मुनाफे की गुंजाइश ज्यादा रहती है । तैयार बाजार को भुनाने के लिए फिल्मकार उन खिलाड़ियों की जिंदगी की ओर आकर्षित होते हैं जिनके साथ किंवदंतियां, किस्से कहानियां जुड़े हों और लोग उसके बारे में जानने के लिए उत्सुक हों । इसके अलावा भारतीय दर्शक कुछ अलग देखने की चाहत भी रखते हैं । अपने नायक को रूपहले पर्दे पर देखने की उनकी ख्वाहिश भी उनको सिनेमा हॉल तक खींच सलाती हैं । इसके अलावा अपने नायक के जीत को वभारत का दर्शक बार-बार देखना चाहता है । अगर फिलमकार दर्शकों के इस मनोविज्ञान को पकड़कर ठीक से उसको फिल्मा देता है तो फिल्म के सफलता की गारंटी रहती है । इसके अलावा एक और वजह होती है खिलाड़ियों की लोकप्रियता को भुनाने की, लेकिन यहां एक पेंच भी होता है । वो पेंच है लोकप्रियता के साथ या तो संघर्ष हो या फिर कोई लंबे समय तक चला विवाद । इसका फायदा यह होता है कि फिल्मकारों को और निर्देशकों को अपनी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता को दिखाने के लिए खुले आकाश जैसा विस्तार  मिलता है जहां वो खुल कर खेल सकते हैं ।
अब अगर देखें तो इस वक्त तीन क्रिकटरों के अलावा एक गणितज्ञ और एक पहलवान पर बायोपिक आने वाली है । पहली फिल्म आ रही है टीम इंडिया के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन पर । फिल्म का नाम है अजहर । इस फिल्म में अजहरुद्दीन की भूमिका निभा रहे हैं इमरान हाशमी और ये तेरह मई को रिलीज होगी । अब अगर हम अजहरुद्दीन की जिंदगी पर नजर डालते हैं तो ये एक फिल्म की परफेक्ट स्क्रिप्ट की तरह नजर आती है । अजहर की जिंदगी जहां एक सितारे की बनने की दास्तां है, उसके बाद उसके बॉलीवुड की एक नायिका के साथ प्रेम है, विवाह है और फिर है अलगाव । कहानी इतने पर ही नहीं रुकती है । भारतीय क्रिकेट का ये सितारा मैच फिक्सिंग के जाल में भी फंसता है । मैच फिक्सिंग की फांस में घिरे इस क्रिकेट कप्तान पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाता है फिर लंबी कानूनी लड़ाई के बाद उसको हाईकोर्ट से मामूली राहत मिलती है । इस बीच वो शख्स राजनीति में आता है और सांसद बन जाता है । पारिवारिक जिंदगी में भी दर्द का सामना करना पड़ता है । इस बीच एक अन्य बैडमिंटन खिलाड़ी से उसके रोमांस की खबरें आम होती है हलांकि वो प्यार परवान नहीं चढ़ सकता है । तो जहां जिंदगी में इतना मसाला हो वहां बॉलीवुड की नजर ना जाए, संभव ही नहीं है । अजहर के बाद दूसरी फिल्म आ रही है टीम इंडिया के कैप्टन कूल महेन्द्र सिंह धौनी पर । इस फिल्म का नाम है – एम एस धोनी, द अनटोल्ड स्टोरी और ये सितंबर के पहले सप्ताह में रिलीज होने को तैयार है । इस फिल्म में धोनी के किरदार को निभाया है अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने । अब धौनी की जिंदगी में सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद के साथ साथ उनकी कहानी लगातार किंवदंती बनती जा रही है । कई बार ये किस्सा सामने आया है कि किस तरह से धौनी अपना एक क्रिकेट मैच खेलने के लिए रांची से पूर्वोत्तर के किसी राज्य में पहुंचे थे । इसके अलावा रेलवे के टिकट चैकर की नौकरी से अरबपति होने की दास्तां अपने आप में दिलचस्प है । इसी तरह से आमिर खान की फिल्म दंगल भी हरियाणा के मशहूर पहलवान महावीर सिंह फोगट की जिंदगी पर आधारिक हैं । यहां भी इस चरित्र के साथ किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं ।

बॉलीवुड की नजर अजहर और धोनी पर तो जाती है लेकिन उनकी नजर सचिन तेंदुलकर या फिर सुनील गावस्कर पर नहीं जाती है । ये दोनों क्रिकेटर महानतम खिलाड़ियों में से एक हैं लेकिन इनके संघर्ष में मसाला नहीं लिहाजा इनपर बॉलीवुड की नजर नहीं गई । सचिन तेंदुलकर पर फिल्म आ रही है जो बना रहे हैं हॉलीवुड के जेम्स इर्सकिन सचिन पर फिल्म बना रहे है जिसका नाम है सचिन-अ बिलियन ड्रीम्स । इस फिल्म का एक पोस्टर भी हाल ही में रिलीज किया गया है । फिल्म के पोस्टर के रिलीज के मौके पर सचिन तेंदुलकर ने कहा कि कैमरे को फेस करना किसी भी फास्ट बॉलर को फास्ट पिच पर खेलने के कठिन है । खैर ये अवांतर प्रसंग है । हम बात कर रहे हैं बॉलीवुड की बायोपिक फिल्मों की । दरअसल यही बुनियादी फर्क है बॉलीवुड या हॉलीवुड में । बॉलीवुड में नजर होती है मसाला और मुनाफा पर जबकि हॉलीवुड कला पर भी अपना ध्यान केंद्रित करता है । हमारे देश के फिल्मकार बाबा साहब भीमराव अंबेडकर या फिर सरदार पटेल पर फिल्म बनाने के लिए सरकार का मुंह जोहते हैं और सरकारी मदद के बाद हीइन शख्सियतों पर फिल्में बनाते हैं । यह विंडबना ही कही जाएगी कि गांधी पर अबतक की सबसे बेहतरीन फिल्म भारत से बाहर बनी है । रिचर्ड अटनबरो को ही गांधी में संभावना नजर आई और उन्होंने विश्व प्रसिद्ध फिल्म का निर्माण किया । गांधी पर बनी ये फिल्म उन्नीस सौ बयासी में रिलीज हुई थी । बेन किंग्सले अभिनीत इस फिल्म की याद करीब तीन दशक से ज्यादा बीच जाने के बाद भी भारतीय मानस में ताजा है । इसी तरह से हॉलीवुड से महान गणितज्ञ रामानुजन पर बनी फिल्म 29 अप्रैल को रिलीज हो रही है । द मैन हू न्यू इनफिनिटी के बनने की बेहद दिलचस्प दास्तां हैं । रॉबर्ट केनिगेल की किताब- द मैन हू न्यू इनफिनिटी, ए लाइफ ऑफ द जीनियस रामानुजन को अमेपिकर स्क्रिप्ट राइटर मट ब्राउन ने ढूंढ निकाला और उसपर फिल्म बनी । पिछले साल इसका प्रीमियर टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में हो चुका है । पिछले साल गोवा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को दिखाया गया था । अब ये फर्क साफ तौर पर देखा जा सकता है । दरअसल बॉलीवुड में फिल्म मेकिंग शुद्ध कारोबार है और फिल्म या कहानी का चयन मुनाफे को ध्यान में रखकर किया जाता है । बॉयोपिक अगर ज्यादा बन रहे हैं तो इसके पीछे भी भाग मिल्खा भाग और मैरी कॉम की सफलता है । इस बात को फिल्म से जुड़े लोग स्वीकार भी करते हैं । इंतजार तो इस बात का है कि कब हमारे यहां भी असल मायने में बायोपिक बनाने वाले फिल्मकार सामने आएं ।  

Sunday, April 10, 2016

साहित्यक बाबाओं के जोर का दौर

सालों पहले यशस्वी कथाकार और साहित्यक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने नहीं लिखने की वजह पर एक सीरीज चलाई थी । इस श्रृंखला में उस वक्त हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने ना लिखने की अपनी अलग अलग वजहें बताईं थी । ज्यादातर ने ईमानदारी से । अब से लगभग एक दशक पूर्व जिस बात को लेकर राजेन्द्र यादव चिंतित रहा करते थे वो संकट अब भी बरकरार है । कुछ वरिष्ठ होते लेखक अपनी ख्याति, जो भी रही. उसको लेकर निश्चिंत दिखाई देते हैं । यह निश्चिंतता लेखक के लिए बहुत घातक होती है । कई अधेड़ होते लेखकों ने लिखना छोड़ दिया है । लेखन ने उनकी ये विमुखता किस वजह है इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि लेखक ही अगर लिखना छोड़ देगा तो फिर क्या होगा । इस अगर इस क्या होगा का उत्तर ढूंढने की कोशिश करते हैं तो हम पाते हैं कि इसके पीछे साहित्य में बाबा संस्कृति का फलना फूलना है ।  बाबा संस्कृति के विकास के साथ साथ साहित्य के नए नए मठ बनने लगते हैं और जो लोग साहित्यक बाबाओं की श्रेणी में चले जाते हैं वो इन मठों के मठाधीश बन जाते हैं । साहित्यक मठों के निर्माण के लिए ये जरूरी नहीं कि साहित्य के ये बाबा बहुत मान्यता वाले हों । छोटे-मोटे लेखक भी बाबा बन जाते हैं । उसके बाद उन साहित्यक मठों में साहित्य स्थापना का कार्य प्रारंभ होता है । खुद लिखना छोड़ चुके साहित्यक बाबा अपने मठों के लिए नवोदित लेखकों का भर्ती अभियान चलाते हैं । किसी नवोदित कवयित्री की कविता छपवा कर उस पर किरपा बरसाते हैं । उसके बाद तो साहित्य के बाबा का मठ चल निकलता है । अपने साहित्यक मठ को और स्थापित करने के लिए साहित्य के ये बाबा कोई छोटा मोटा पुरस्कार भी शुरू कर देते हैं ताकि मठ में भक्तों की आस्था बनी रहे । इसी उपक्रम में कोई मठ बड़ा हो जाता है तो कोई छोटा रह जाता है और प्रतिभाहीन साहित्यक लेखक इन मठों के भरोसे लक्ष्य हासिल करने के लिए हर तरह की आहुति देते रहते हैं । ये मठाधीश अलग अलग शहरों में पीठ का निर्माण भी करते हैं, इन पीठों के पीठाधीश्वर संबंधित मठाधीश के लिए भक्तों का जुगाड़ करते हैं । ताकि बाबा की ख्याति और साहित्यक रसूख कायम रह सके । बदले में इन पीठाधीश्वरों को यात्रा आदि का सुयोग उपलब्ध करवाया जाता है ।

यहां तक तो ठीक था लेकिन साहित्य के बाबानुमा पूर्व लेखक इन दिनों नकारात्मकता के शिकार भी होने लगे हैं । वो खुद तो काफी पहले ही लिखना पढ़ना छोड़ चुके हैं । जो भी उनके साहित्यक लेखन के खाते में पहले से अर्जित है उसको भुनाते रहते हैं । दूसरे लेखकों की सक्रियता से इनके पेट में दर्द शुरू हो जाता है । असुरक्षा बोध से घिरे इन साहित्यक बाबाओं को लगता है कि उनकी दुकान बंद होनेवाली है । कोई क्यों लिख रहा है ये इनकी सबसे बड़ी चिंता होती है । सक्रिय लेखकों के लेखन क्रम को बाधित करने के लिए ये हर तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं ।  इस आसन्न खतरे को टालने के लिए वो सक्रिय लेखकों के खिलाफ हर तरह की कानाफूसी शुरू कर देते हैं । किसी लेखक का संबंध किसी लेखिका से जोड़कर प्रचारित करना इनके डिजायन का सबसे अहम हिस्सा है । ये काम ये अलग अलग शहरों में फैले अपने पीठाधीश्वरों के जरिए करते हैं । किसी के भी चरित्र हनन में इनको महारथ हासिल है और ये साहित्यक बाबा डंके की चोट पर कहते हैं कि साहित्य के खेल में सब जायज है । इन साहित्यक बाबाओं की पहचान आसानी से की जा सकती है । जरूरत इस बात की है कि साहित्य के इन बाबाओं को उनकी असली जगह दिखाई जाए ताकि साहित्य लेखन समृद्ध होता रहे । 

विलाप से नहीं होगा भला !

अभी पिछले दिनों दिल्ली में भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते प्रयोग की चिंता को लेकर एक बैठक की । इस बैठक में विश्वविद्यालय के कुलपति और शिक्षकों के साथ संपादकों और संवाददाताओं की उपस्थिति रही । अहम बात ये रही कि बैठक में पूरे वक्त विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मौजूद रहीं । उन्होंने संपादकों समेत वहां मौजूद कई लोगों की बातें पूरे मनोयोग से सुनीं और अपना पक्ष रखा । दरअसल ये बैठक पत्रकारिता विश्वविद्यालय के एक सर्वे के आधार पर की गई थी । पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने सात हिंदी अखबारों का कई दिनों तक अध्ययन किया और फिर उसके आधार पर पंद्रह हजार सात सौ सैंतीस अंग्रेजी के शब्दों को चिन्हित किया जो अखबारों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं । अंग्रेजी के इन शब्दों का पांच श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया है और एक श्रेणी अंग्रेजी के वैसे शब्दों की है जिसका उपयोग बाजिब माना गया । इस सर्वेक्षण की सबसे बड़ी खामी ये रही कि इसने एक वैसे अखबार को शामिल नहीं किया जो सबसे ज्यादा अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करता है ।  हिंदी को लेकर ये विचार विनिमय जरूरी है और केंद्र सरकार का एक बड़ा मंत्री अगर पूरे वक्त मौजूद रहे तो इससे उसकी गंभीरता और बढ़ जाती है । विचार विनिमय का हमेशा स्वागत होता है लेकिन जब इस विनिमय ये निकले निचोड़ को हकीकत में बदला जाता है तब भाषा को मजबूती मिलती है । गोष्ठियों और सेमिनारों में हिंदी को लेकर विलाप करनेवाले यह भूल जाते हैं कि हिंदी का भला छाती कूटने और अंग्रेजी को कोसने से नहीं होगा । हम हिंदी वालों को ये आत्म मंथन करना होगा कि हमने हिंदी के लिए क्या किया । क्या हमने हिंदी को नए शब्द देने का उपक्रम किया । क्या हमने हिंदी को नए सिरे से नई पीढ़ी के सामने पेश करने का कोई उद्यम किया । आज हालात यह है कि हिंदी में अरविंद कुमार के समांतर कोश के बाद किसी भी कोश पर गंभीरता से काम नहीं हुआ । जिस किसी को कोश का काम सौंपा गया उसने बेहद चलताऊ तरीके से ये काम किया । प्रोज्क्ट पूरा हुआ, पैसे मिले और राम राम । अब भी हरदेव बाहरी और फादर कामिल बुल्के का हिंदी शब्दकोश ही प्रामाणिक तौर पर हमारे सामने है । हिंदी से कोशकार शब्द ही मानो गायब हो गया । बदलते वक्त और परिवेश के मुताबिक हिंदी में नए शब्द नहीं गढ़े जा रहे हैं । अंग्रेजी का एक शब्द है स्मॉग । अब इसके लिए हिंदी में कोई शब्द सूझता नहीं है । इसके लिए कुछ उत्साही युवा मित्रों ने धुंधूषण शब्द गढ़ा लेकिन ये परवान नहीं चढ़ सका । क्रोनी कैपिटलिज्म के लिए कुछ लोगों ने चंपू पूंजीवाद शब्द चलाने की कोशिश की लेकिन वो भी नहीं चला । कोश और नए शब्दों की कमी हिंदी को अंग्रेजी की ओर ले जाती है । अंग्रेजी के कोश हर साल कुछ नए शब्दों को लेकर आते हैं लेकिन वैसी व्यवस्था हिंदी में बन नहीं पा रही है । इसके अलावा हिंदी की शुद्धता और दूसरी भाषाओं पर इसकी श्रेष्ठता के पैरोकार भी इसका नुकसान कर रहे हैं । हिंदी के ज्यादा उपयोग को लेकर जोरदार तरीके से अपनी बात कहनेवाले भूल जाते हैं कि इससे अन्य भारतीय भाषाओं में एक भय व्याप्त हो जाता है और वो हिंदी को अपना दुश्मन समझने लगती है । इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है कि साहित्य अकादमी स्थापना के पांच दशक से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी मौजूदा अध्यक्ष पहली बार हिंदी से आए हैं । जब भी हिंदी का कोई शख्स चुनाव में खड़ा होता है तो तमाम भारतीय भाषा के प्रतिनिधि उसके खिलाफ एकजुट हो जाते हैं । इन सब बातों का भी ध्यान रखना होगा ताकि हिंदी भारतीय भाषाओं की सहोदर भाषा के रूप में अपना विकास कर सके ।   
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि सरकार का धर्म है कि वह काल की गति को पहचाने और युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे । दिनकर ने यह बात साठ के दशक में संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी । अपने उसी भाषण में दिनकर ने एक और अहम बात कही थी जो आज के संदर्भ में भी एकदम सटीक है । दिनकर ने कहा था कि हिंदी को देश में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह से अहिन्दी भाषी भारत के लोग उसको लाना चाहें । यही एक वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार है भी और भविष्य में भी होना चाहिए । साठ के दशक में जब दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए थे तब भी और उसके पहले भी सबों की राय यही बनी थी कि हिंदी का विकास और प्रसार अन्य भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने से ही होगा, थोपने से नहीं । महात्मा गांधी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और वो इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना भी चाहते थे लेकिन गांधी जी ने भी कहा भी था कि हिंदी का उद्देश्य यह नहीं है कि वो प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले । वह अतिरिक्त भाषा होगी और अंतरप्रांतीय संपर्क के काम आएगी ।
हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है । विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां एक भाषा का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता है । इतना अवश्य है कि राजकाज की एक भाषा होनी चाहिए । आजादी के पहले और उसके बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश हुई लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के विरोध के चलते वह संभव नहीं हो पाया । हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा । जनता की भाषा और शासन की भाषा अलग रही । ना तो हिंदी को उसका हक मिला और ना ही अन्य भारतीय भाषाओं को समुचित प्रतिनिधित्व । हिंदी के खिलाफ भारतीय भाषाओं को खड़ा करने में अंग्रेजी प्रेमियों ने नेपथ्य से बड़ी भूमिका अदा की थी । यह अकारण नहीं था कि बांग्ला भाषा के तमाम लोगों ने आजादी पूर्व हिंदी भाषा का समर्थन किया था । चाहे वो केशवचंद्र सेन की स्वामी दयानंद को सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखने की सलाह हो या बिहार में भूदेव मुखर्जी की अगुवाई में कोर्ट की भाषा हिंदी करने का आंदोलन हो । जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हुई तो बंगला के लोग अपनी साहित्यक विरासत की तुलना हिंदी से करते हुए उसे हेय समझने लगे थे । जहां के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी के विकास के लिए अनथक प्रयास किया वहीं के तमिल भाषी अपने महाकाव्यों की दुहाई देकर हिंदी को नीचा दिखाने लगे । अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बनाया कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के लोग दुश्मन की तरह से समझने और उसी मुताबिक बर्ताव करने लगे । आज अंग्रेजी उन्हीं अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में सबसे बड़ी बाधा है । इस बात को समझने की जरूरत है।

आज हिंदी बगैर किसी सरकारी बैसाखी के खुद लंबा सफर तय कर चुकी है और विंध्य को लांघते हुए भारत के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुंच चुकी है और पूर्वोत्तर में भी यह धीरे धीरे लोकप्रिय हो रही है । सरकार अगर सचमुच हिंदी के विकास को लेकर संजीदा है तो उसको सभी भारतीय भाषाओं के बीच के संवाद को तेज करना होगा । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच के अनुवाद को बढ़ाना होगा । माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय नेएक पहल की है उसको आधार बनाकर आगे बढ़ना होगा  सरकार को साहित्य अकादमी की चूलें कसने के तरीके ढूंढने होंगे । साहित्य अकादमी के गठन के वक्त उद्देश्य था कि वो भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय का काम करेगी । लेकिन कालांतर में साहित्य अकादमी ने साहित्य में अपना रास्ता तलाश लिया और भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी अकादमी कितनी गंभीरता से करती है इसपर बात होनी चाहिए । अकादमी बनने से भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय को भी कसौटी पर कसा जाना चाहिए । साहित्य अकादमी के राजनीति का अखाड़ा बनने और वामपंथियों के दबदबे की वजह से नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषाओं की हिंदी को लेकर शंकाए दूर नहीं हो पाईं । अगर हम हिंदी के लोग और सरकार सचमुच इसके विकास को लेकर गंभीर हैं तो हमें गंभीरता से भारतीय भाषाओं को स्पेस देना होगा । हिंदी के विकास में बोलियों की भी अहम भूमिका है । हिंदी के शुद्धतावादी जब बोलियों से हिंदी को अलग कर देखने की कोशिश करते हैं तो हिंदी की ताकत को कम करते हैं । क्या भोजपुरी, अवधी या अन्य बोलियों से हिंदी को अलग किया जा सकता है । अन्य भारतीय भाषाओं के साथ बोलियों के सहयोग से हिंदी मजबूत होगी । अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को हिंदी में शामिल किए जाने से परहेज नहीं किया जाना चाहिए । अंग्रेजी की ही तरह हर साल शब्दकोश के नए संस्करण आएं जिनमें नए नए शब्द हों तभी हिंदी का भला होगा अन्यथा तो इस तरह के शोध और सेमिनार आदि तो सालों से हो ही रहे हैं । 

Monday, April 4, 2016

हिंदी-अंग्रेजी बनें सहोदर

एक जमाना था जब अंग्रेजी के विद्वान संपादक लगातार साहित्य और संस्कृति पर लिखा करते थे । हिंदी के संपादक तो लिखते ही थे । हिंदी और अंग्रेजी के संपादकों की साहित्यक रुचि की वजह से अखबारों में साहित्य को जगह मिला करती थी । कालांतर में जब अखबारों पर बाजार हावी होने लगा तो साहित्य हाशिए पर जाने लगा । हिंदी के कई अखबारों में तो अब भी साहित्य और संस्कृति के लिए जगह है लेकिन ज्यादातर अखबारों में साहित्य के स्थान का अतिक्रमण हुआ और वो जगह छोटी होती चली गई । अंग्रेजी के अखबारों में तो हिंदी साहित्य और हिंदी के लेखकों के लिए तो बहुत ही कम जगह बची है । हिंदी बड़े लेखकों के निधन की खबर तो किसी कोने अंतरे में कभी कभार जगह पा भी जाती है लेकिन हिंदी की बड़ी से बड़ी कृतियों को लेकर अंग्रेजी के अखबारों में कोई हलचल नहीं होती । एक जमाने में शाम लाल अपने स्तंभ में लगातार हिंदी के लेखकों पर लिखा करते थे । शाम लाल ने फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल पर पंद्रह जुलाई उननीस सौ पचपन के टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा था – अ नॉवेल ऑफ रूरल बिहार । मुझे यह ठीक से मालूम नहीं है कि शाम लाल का ये लेख पहले छपा था या फिर नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा था । शामलाल ने जब ये लेख लिखा था तब मैला आंचल समता प्रकाशन पटना से छपा था । इस बात की पुष्टि शाम लाल के उक्त लेख से होती है जिसमें प्रकाशक के तौर पर समता प्रकाशन का नाम छपा था । इसका मतलब ये हुआ कि शाम लाल तब हिंदी में क्या नया छप रहा है उसपर ना केवल नजर रखते थे बल्कि उसको पाठकों तक पहुंचाने के अपने दायित्व का निर्वाह भी करते थे । शाम लाल ने विस्तार से प्रेमचंद, निर्मल वर्मा से लेकर साहित्यक प्रवृतियों और उस दौर के नए कवियों पर भी लिखा था ।
जैसे जैसे वक्त बीतता गया वैसे वैसे अंग्रेजी अखबारों से हिंदी साहित्य ओझल होने लगा । अब तो एक अखबार को छोड़ शायद ही कोई अंग्रेजी अखबार हिंदी के लेखकों का नोटिस लेता है । कुलदीप कुमार और सफे किदवई जैसे लेखक यहां हिंदी लेखन कीनोटिस लेते रहते हैं । लेकिन यह कैसे और क्यों हुआ कि हिंदी का स्थान कम हुआ । इसकी पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि हमारे स्कूलों में हिंदी को लेकर एक उदासीनता का वातावरण बनता चला गया । आजादी के कुछ समय बाद तक साहित्य को भाषा की चौहद्दी से बाहर निकलकर स्कूलों में पढ़ाया जाता था लेकिन जब से हमारे देश में अंग्रेजी मीडियम स्कूल ने जोर पकड़ा तब से हिंदी साहित्य हाशिए पर चला गया । परिणाम यह हुआ कि इस तरह से के स्कूलों से पढ़कर निकले छात्र जब अखबारों के कर्ताधर्ता बने तो उनके लिए हिंदी हेय हो गई । अब तो अखबारों और न्यूज चैनलों में अगर किसी के बॉयोडाटा में कोई अपनी साहित्यक रुचि का उल्लेख करता है तो वो उसके लिए नकारात्मक माना जाता है । दूसरी वजह ये रही कि हिंदी और अंग्रेजी के लेखकों के बीच का परस्पर संवाद कम होता चला गया । संवादहीनता की स्थिति में दोनों भाषा के साहित्य से एक दूसरे की अनभिज्ञता बढ़ती चली गई । इस अनभिज्ञता ने भी हिंदी का नुकसान पहुंचाया । हिंदी के लेखकों को अंग्रेजी और अन्य भाषा के लेखकों के साथ संवाद बढ़ाने की जरूरत है तभी ये संवादहीनता की दीवार टूटेगी और हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के पाठकों को भी नए तेवर और कलेवर की रचनाओं से परिचय होगा ।   


Sunday, April 3, 2016

खत्म होती विधा को संजीवनी !

हिंदी साहित्य में कई ऐसी विधाएं हैं जो वक्त के साथ साथ हाशिए पर चली गई जैसे तकनीक के फैलाव ने पत्र साहित्य का लगभग खात्मा कर दिया है । एक जमाना था जब साहित्यकारों के पत्रों के संकलन नियमित अंतराल पर छपा करते थे और उन संकलों से उस दौर का इतिहास बनता था । उदाहरण के तौर पर अगर देखें तो भदन्त आनंद कौसल्यायन कृत भिक्षु के पत्र जो आजादी पूर्व उन्नीस सौ चालीस में छपा था, काफी अहम है । उसके बाद तो हिंदी साहित्य में पत्र साहित्य की लंबी परंपरा है । जेल से लिखे जवाहरलाल नेहरू के इंदिरा गांधी के नाम पत्र तो काफी लोकप्रिय हुए । जानकी वल्लभ शास्त्री ने निराला के पत्र संपादित किए तो हरिवंश राय बच्चन ने पंत के दो सौ पत्रों को संकलित किया । नेमिचंद्र जैन ने मुक्तिबोध के पत्रों को पाया पत्र तुम्हारा के नाम से संकलित किया जो समकालीन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं । हिंदी पत्र साहित्य के विकास में साहित्यक पत्रिका सरस्वती, माधुरी, ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि का अहम योगदान है । चांद पत्रिका का पत्रांक तो साहित्य की वैसी धरोहर जिसे हर साहित्य प्रेमी सहेजना चाहता है ।
इसी तरह से अगर हम देखें तो हिंदी साहित्य में नाटक लिखने का चलन लगभग खत्म सा हो गया है । साहित्य की हाहाकरी नई पीढ़ी, जो अपने लेखन पर जरा भी विपरीत टिप्पणी नहीं सुन सकती, का नाटक की ओर झुकाव तो दिखता ही नहीं है । कविता लिखना बेहद आसान है, उसके मुकाबले कहानी लेखन थोड़ा ज्यादा श्रम की मांग करता है । नाटक में सबसे ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होती है । इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत में नई पीढ़ी के लेखकों में उतना धैर्य नहीं है कि वो नाटक जैसी विधा, जो कि वक्त, श्रम और शोध तीनों की मांग करती है, पर अपना फोकस करें । जितनी देर में एक नाटक लिखा जाएगा उतनी देर में तो दर्जनों कविताए और चार छह कहानियां लिख कर हिंदी साहित्य को उपकृत किया जा सकता है । आज के दौर के स्टार युवा लेखकों में नाटक लिखने और उसको साधने का ना तो धैर्य दिखाई देता है और ना ही हुनर । नाट्य लेखन आज के दौर में लिखे जा रहे कविता और कहानी की तरह सहज नहीं है । नाटक लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है । नाटक लेखन का संबंध नाटक मंडलियों से भी है क्योंकि श्रेष्ठ नाटक मंडली का आभाव नाट्य लेखन को निरुत्साहित करता है । मंचन में नए नए प्रयोगों के अभाव ने भी नाट्य लेखन को प्रभावित किया है । मोहन राकेश के नाटकों के बाद संभवत पहली बार ऐसा हुआ कि हिंदी का नाट्य लेखन पराजय, हताशा और निराशा के दौर से बाहर आकर संघर्ष से परास्त होते आम आदमी को हिम्मत बंधाने लगा । हिंदी साहित्य में उन्नीस सौ साठ के बाद जिस तरह से मोहभंग का दौर दिखाई देता है उससे नाट्य लेखन भी अछूता नहीं रहा । इस दौर में लिखे गए नाटक मानवीय संबंधों की अर्थहीनता को उजागर करते हुए जीवन के पुराने गणितीय फॉर्मूले को धव्स्त करने लगा । इनमें सुरेन्द्र वर्मा का नाटक द्रौपदी, मुद्रा राक्षस का सन्तोला, कमलेश्वर की अधूरी आवाज, शंकर शेष का घरौंदा से लेकर मन्नू भंडारी का बिना दीवारों के घर प्रमुख हैं । इसके अलावा हम भीष्म साहनी के कबिरा खड़ा बाजार में, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटक बकरी और रमेश उपाध्याय के नाटक पेपरवेट को नहीं भुला सकते । इसके बाद एक और प्रवृत्ति देखने को मिली । अच्छे साहित्य को जनता तक पहुंचाने के लिए मशहूर उपन्यासों और कहानियों का नाट्य रूपांतर होने लगा । मन्नू भंडारी के महाभोज का नाट्य रूपांतर काफी लोकप्रिय है । बाद में विदेशी नाटकों के अनुवाद भी होने लगे जिसमें भारतीय परिवेश का छौंक लगाकर स्थनीय दर्शकों को जोड़ने की शुरुआत हुई । इसी दौर में शेक्सपीयर, ब्रेख्त, कैरल, चैपर आदि के नाटकों का अनुवाद हुआ था । रघुवीर सहाय ने तो शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ का हिंदी अनुवाद बरनम वन के नाम से किया था । अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के हिंदी अनुवाद भी होने लगे । बादल सरकार, गिरीश कर्नाड, विजय तेंदुलकर आदि के अनुवाद खूब पसंद किए गए । इन सभी देसी विदेशी नाटकों ने हिंदी नाटक को नई दिशा तो दी है उसको नई दृष्टि से भी संपन्न किया । लेकिन अनुवादों के इस दौर ने भी हिंदी में नाटक लेखन को हतोत्साहित किया । लंबे वक्त बाद असगर वजाहत का नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ- छपा तो हिंदीजगत में धूम मच गई।
अभी हाल ही में लमही पत्रिका में हिंदी की युवा लेखिका इंदिरा दांगी का नाटक आचार्य छपा है । सबसे पहले तो इस युवा लेखिका की इस बात के लिए दाद देनी चाहिए उसने इस दौर में कहानी और उपन्यास लेखन के अलावा नाटक लिखा । इंदिरा दांगी अपने दौर की सर्वाधिक चर्चित लेखिका है और उसको कलमकार कहानी पुरस्कार से लेकर साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार मिल चुका है । इंदिर दांगी के इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठकों के सामने हिंदी साहित्य का पूरा परिदृश्य आपकी आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है । यह पूरा नाटक एक साहित्यक पत्रिका के संपादक विदुर दास और युवा लेखिका रोशनी के इर्द-गिर्द चलती है । इस नाटक का ओपनिंग सीन अंधकार से शुरू होता है जहां नायिका रोशनी आती है और बहुत ही बेसिक से सवाल उठाती है कि साहित्य क्या होता है । जरा संवाद पर नजर डालते हैं – साहित्य क्या होता है ? क्या जिसमें सहित का भाव निहित हो वही साहित्य है ? फिर हंसी । यही तो असली नब्ज है, सरकार सहित । प्रशंसा और प्रशंसकों से शुरू ये कोरा सफर विदेश यात्राओं, मोटी स्कॉलरशिप, हल्के-वजनी अवॉर्डों और हिंदी प्रोफेसर की नौकरी से लेकर अकादमी अध्यक्ष पदों की नपंसुसक कर देनेवाली कुर्सियों तक पहुंचते-पहुंचते कितना कुछ सहित लादता चला जाता है । उन्हें कृपया ना गिनें । लिखनेवाले का लेखिका होना एक दूसरा ही टूल है सफलता का जिसका प्रयोग हर भाषा, हर काल, हर साहित्य में यकीनन बहुतों ने किया होगा और बहुतों को करना बाकी है । तौबा । इसके बाद नायिका मुंह पर हाथ रखती है और सयानपन से मुस्कुराते हुए कहती है स्त्री विरोधी बात ।

अब इस पहले दृश्य को ही लीजिए तो ये नाटक आज के दौर को उघाड़कर रख देता है । इंदिरा दांगी ने जिस तरह के शब्दों का प्रयोह किया है वो इस दौर पर एक तल्ख टिप्पणी है । स्त्री विरोधी बात कहकर जिसको उसकी नायिका मुंह पर हथेली रख लेती है वो एक बड़ी प्रनृत्ति की ओर इशारा करती है । ये प्रवृत्ति कितनीमुखर होती चली जाती है ये नाटक के दृश्यों के आगे बढ़ते जाने के बाद साफ होती गई है । जब वो कहती है कि लिखनेवाला का लेखिका होना एक टूल है जिसका इस्तेमाल होता है तो वो साहित्य के स्याह पक्ष पर चोट करती है । इसी तरह से शोधवृत्ति से लेकर प्रोफेसरी तक की रेवड़ी बांटे जाने पर पहले ही सीन में करार प्रहार है । अकादमी अध्यक्ष पद की नपुंसक कर देनेवाली कुर्सी से भी लेखिका ने देशभर की अकादमियों के कामकाज पर टिप्पणी की है । इस नाटक को पढ़नेवालों को ये लग सकता है कि यहां एक मशहूर पत्रिका का संपादक मौजूद है, साथ ही मौजूद है उसकी चौकड़ी भी । लेकिन इस नाटक के संपादक को किसी खास संपादक या इसके पात्रों को किसी लेखक लेखिका से जोड़ कर देखना गलत होगा । इस तरह के पात्र हिंदी साहित्य में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं । जरूरत सिर्फ नजर उठाकर देखने की है । नाट्य लेखन के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है लेकिनअपने उस सीमित ज्ञान के आधार पर मैं कह सकता हूं इंदिरा दांगी के इस नाटक में काफी संभावनाएँ हैं और इसके मंचन से इसको और सफलता मिल सकती है । फिलहाल साहित्य के कर्ताधर्ताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि एक बिल्कुल युवा लेखिका ने एक लगभग समाप्त होती विधा को जिंदा करने की पहल की है । अगर उसको सफलता मिलती है तो इस विधा को भी संजीवनीमिल सकती है । कुछ और युवा लेखक इस विधा की ओर आकर्षित हो सकते हैं । अगर ऐसा हो पाता है तो हम अपनी एक समृद्ध विरासत को संरक्षित करने में कामयाब हो सकेंगे ।