जब से पहलाज निहलानी
को केंदीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया है तब से सेंसर बोर्ड को
लेकर, उसके नियमों को लेकर, सेंसर बोर्ड के अधिकारों को लेकर कई बार बहस हुई है । पहलाज
निहलानी ने सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनते ही ऐसे काम शुरू कर दिए किए कि सोशल
मीडिया पर सेंसर बोर्ड को संस्कारी बोर्ड कहा जाने लगा । सेंसर बोर्ड ने जब जेम्स
बांड की फिल्म में कांट-छांट की थी तो संस्कारी बोर्ड हैश टैग के साथ कई दिनों तक
ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा था । फिल्म में चुंबन के दृश्य पर सेंसर बोर्ड की कैंची
चली थी । तब पहलाज निहलानी ने तर्क दिया था कि भारतीय समाज के लिए लंबे किसिंग सीन
उचित नहीं हैं और उन्होंने आधे से ज्यादा इस तरह के सीन को हटवा दिया था । बांड की
फिल्म में कट लगाने के बाद पूरी दुनिया में सेंसर बोर्ड और उसके अध्यक्ष की फजीहत
हुई थी । देश में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर बहस हुई थी । सेंसर बोर्ड
के सदस्य अशोक पंडित ने भी इसका विरोध किया था लेकिन पहलाज निहलानी ने किसी की
नहीं सुनी थी और फिल्मों को नैतिकता की कसौटी पर कसकर खुद को फिल्मों में नैकिकता
के नए झंडाबरदार के तौर पर पेश कर दिया । उन्होंने नैतिकता की अपनी परिभाषा गढ़ी ।
दरअसल पहलाज निहलानी को ताकत मिली थी सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) से
जहां शब्दों को अपने तरीके से व्याख्यायित करने की छूट है । इसपर गौर करते हैं- किसी
फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की सुरक्षा,
संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए । मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक
टिप्पणी ना हो । इसके अलावा तीन और शब्द हैं – पब्लिक ऑर्डर, शालीनता और नैतिकता
का पालन होना चाहिए । अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है
लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है । संभव भी
है ।
चंद सालों पहले तक
बॉलीवुड की फिल्मों में चुंबन दृश्यों को दिखाने पर रोक थी उसको दिखाने के लिए
फिल्म निर्देशक दो फूलों को हिलते और फिर मिलते हुए दिखा देते थे लेकिन कालांतर
में वक्त बदलने के साथ साथ आधुनिकता के नाम पर चुंबन दृष्यों को मंजूरी मिलनी शुरू
हो गई । कम कपड़ों में या फिर पारदर्शी कपड़ों में नायिकाओं के चित्रण को कहानी की
मांग बताकर निर्देशक सेंसर बोर्ड से छूट लेने लगे थे । राजकपूर ने अपनी फिल्म
सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली में बड़े गले के या फिर पारदर्शी कपड़ों
में नायिकाओं को दिखाने की छूट सेंसर बोर्ड से हासिल कर ली थी । उस वक्त भी इस तरह
के दृश्यों को लेकर खासी बहस हुई थी । तब एक पक्ष का तर्क था कि निर्देशकों ने इस
तरह के दृश्य को दिखाकर दर्शकों में उद्दीपन पैदा करने की कोशिश की है ।
इसके पहले उन्नीस सौ
तेहत्तर में बी के आदर्श ने गुप्त ज्ञान नाम की फिल्म बनाई थी तो सेंसर बोर्ड के
सामने सिनेमेटोग्राफी एक्ट की उपरोक्त धारा के आधार पर फैसला लेना का संकट पैदा हो
गया था । उस फिल्म में कई दृश्य ऐसे थे जिनको लेकर निर्माताओॆ की दलील थी कि वो
यौनिकता को लेकर जनता को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से फिल्म में डाली गई हैं । उस
वक्त के बोर्ड के कई सदस्यों को लग रहा था कि ये जनता की यौन भावनाओं को भड़का कर
पैसा कमाने की एक चाल है । लंबी बहस के बाद गुप्त ज्ञान को बगैर किसी काट छांट के
प्रदर्शन की इजाजत तो दी गई थी लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के बाद उसमें फिल्माए अंतरंग
दृष्यों को लेकर इतनी आलोचना हुई कि चंद महीने में ही उसको सिनेमाघरों से वापस
लेना पड़ा था । एक बार फिर से सेंसर बोर्ड के सदस्यों ने इसको देखा और जमकर कैंची
चलाई । इस पूरी प्रक्रिया में ढाई साल लग गए थे ।
उन्नीस सौ चौरानवे
में फूलन देवी की जिंदगी पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन में भी स्त्री देह की नग्नता
को लॉंग शॉट में ही दिखाने की इजाजत दी गई थी । फिल्म फायर से लेकर डर्टी पिक्चर
तक पर अच्छा खासा विवाद हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया था
। फिल्म 12 इयर्स अ स्लेव में गुलामों के अत्याचार के नाम पर नग्नतापूर्ण दृश्यों
की इजाजत देना हैरान करनेवाला था । जब दो हजार में सेंसर बोर्ड के सीईओ पर सत्तर
हजार की घूसखोरी का आरोप लगा था और सीबीआई ने उनको गिरफ्तार भी किया था तब हैरानी
दूर हो गई थी और अलग अलग फिल्मों के लिए अलग मानदंड की बात समझ में आने लगी थी । सीईओ
साहब की गिरफ्तारी के बाद कई सुपरस्टार्स और निर्देशकों ने इस बात के पर्याप्त
संकेत दिए थे कि उनको अपनी फिल्मों में गानों को पास करवाने के लिए घूस देना पड़ा
था ।
सेंसर बोर्ड में जिस
तरह से एडल्ट और यू ए फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद
भ्रम है । यही हर तरह की गड़बड़ियों की जमीन तैयार करता है । फिल्मों को
सर्टिफिकेट देने की गड़बड़ी शुरू होती है क्षेत्रीय स्तर की कमेटियों से जहां वैसे
लोगों का चयन होता है जिनको सिनेमा की गहरी समझ नहीं होती है और वो अपनी राजनीतिक
प्रतिबद्धता के आधार पर या फिर अपनी विचारधारा के आधार पर कमेटी में जगह पाते हैं
और उसी आधार पर फिल्मों को देखते और
टिप्पणी करते हैं । इसके बाद फिल्म प्रमाणन बोर्ड में भी कई स्तर होते हैं और एक्ट
के शब्दों को अपनी तरह से व्याख्यित कर अध्यक्ष अपनी मनमानी चलाते हैं । एक सेंसर
बोर्ड सैफ अली की फिल्म ओमकारा में गालियों के प्रयोग की इजाजत देता है तो दूसरा
सेंसर बोर्ड प्रकाश झा की फिल्म में साला शब्द पर आपत्ति जताता है और उसको फिल्म
से निकालने को कहता है ।
इन सारे गड़बड़झालों
की पृष्ठभूमि में सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने मशहूर फिल्मकार श्याम
बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी जिसने पिछले दिनों सीबीएफसी में सुधारों
को लेकर अपनी रिपोर्ट सौंप दी है । इस कमेटी ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सेंसर
बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया में
बदलाव की सिफारिश की है । बेनेगल कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक अब इस संस्था को
सिर्फ फिल्मों के वर्गीकरण का अधिकार रहना चाहिए । वो फिल्म को देखे और उसको किस
तरह के यू , ए या फिर यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए, इसका फैसला करे । इस
सिफारिश को अगर मान लिया जाता है तो फिल्म सेंसर के इतिहास में एक क्रांतिकारी
बदलाव की शुरुआत हो सकेगी। लेकिन इसमें भी एक पेंच दिखाई दे रहा है । अबतक इस
समिति की जो सिफारिशें सार्वजनिक की गई हैं उसमें कहा गया है कि प्रमाणन के दौरान
कमेटी सिनेमेटोग्राफिक एक्ट की धारा 5 बी(1) का ख्याल रखेगी और ये ध्यान देगी कि
उसका उल्लंघन तो नहीं हो रहा है । सारी समस्या की जड़ में तो यही धारा है ।
नैतिकता और मर्यादा दो ऐसे आधार हैं जिनकी सुविधानुसार व्याख्या की जा सकती है । बेनेगल
कमेटी ने इन दो शब्दों की व्याख्या से निबटने की क्या सिफारिश की है ये जानना
दिलचस्प होगा ।
अन्य सिफारिशों के
मुताबिक फिल्मकारों के लिए ये बताना जरूरी होगा कि वो किस श्रेणी की फिल्म बनाकर
लाए हैं और उन्हें किस श्रेणी में सर्टिफिकेट चाहिए । उसके बाद सीबीएफसी के सदस्य
फिल्म को देखकर तय करेंगे कि फिल्मकार का आवेदन सही है या उनके वर्गीकरण में बदलाव
की गुंजाइश है । उसके आधार पर ही फिल्म को सर्टिफिकेट मिलेगा । बेनेगल कमेटी ने अपनी
सिफारिशों में फिल्मों के वर्गीकरण का दायरा और बढा दिया गया है । यू के अलावा यूए
श्रेणी को दो हिस्सों में बांटने की सलाह दी गई है । पहली यूए + 12 और यूए +15 । इसी तरह से ए
कैटेगरी को भी दो हिस्सों में बांटा गया है । ए और ए सी । ए सी यानि कि एडल्ट विद
कॉशन । इसके अलावा कमेटी ने बोर्ड के कामकाज में सुधार के लिए भी सिफारिश की है ।
उन्होंने सुझाया है कि बोर्ड के चेयरमैन समेत सभी सदस्य फिल्म प्रमाणन के दैनिक
कामकाज से खुद को अलग रखेंगे और इस काम की रहनुमाई करेंगे । सभी क्षेत्रों से
बोर्ड में एक सदस्य रखने की सिफारिश भी की गई है । तो इस तरह से बोर्ड में चेयरमैन
के अलावा नौ सदस्यों की सिफारिश की गई है । इसके अलावा भी कमेटी ने कई छोटी मोटी
सिफारिशें की है । फिल्मों में पशुओं पर अत्याचार और स्मोकिंग दृश्यों पर अपनी
सिफारिश कमेटी जून तक प्रस्तुत कर देगी । तो यह माना जाना चाहिए कि जून के बाद
सूचना और प्रसारण मंत्रालय इसपर कोई ठोस फैसला लेगी ताकि फिल्म प्रमाणन बोर्ड को
फिल्मों पर कम से कम कैंची चलाने का हक मिल सके ।