आजादी के बाद भारतीय समाज ने कई तरह के पड़ाव और बदलाव देखे- राजनीति
से लेकर समाज तक में । अस्सी के दशक तक राजनेताओं को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा था,
जो लोकप्रियता उनके संघर्षों और विचारों से बनता था । अस्सी के दशक के बाद इसका
क्षरण शुरू हुआ और अब लोकप्रियता बनाने में चुनावी प्रबंधकों की भूमिका प्रबल होने
लगी । देश में इमरजेंसी के बाद साझा सरकारों का दौर शुरू हुआ तो नेताओं की
लोकप्रियता छीजती चली गई । जवाहरलाल नेहरू जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तो वो उस
वक्त राजनीति के पिरामिड में सरदार पटेल, मौलाना आजाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जी
बी पंत, बी जी खेर, विधानचंद राय जैसे नेता शामिल थे । कालांतर में राजनीति का ये
मजबूत पिरामिड कमजोर होता चला गया । क्षेत्रीय क्षत्रपों का उदय होने लगा । जैसे
जैसे संचार माध्यमों का फैलाव शुरू हुआ तो नेताओं की अखिल भारतीय छवि और
लोकप्रियता कमजोर पड़ने लगी । अब तो सोशल मीडिया और बेहतर तकनीक के सहारे एक बार
फिर से नेताओं ने अपनी छवि मजबूत करनी शुरू की है । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव
में नरेन्द्र मोदी ने प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया था । तब प्रशांत
किशोर ने भारतीय चुनाव में कई नए तरह के प्रयोग किए थे । चाय पर चर्चा से लेकर
थ्री डी और होलोग्राम तकनीक से एक ही वक्त कई जगहों पर जनता से रू ब रू होने का
कार्यक्रम काफी सफल हुआ था । इसके अलावा नरेन्द्र मोदी की मजबूत छवि को बेहद सतर्कता
और रणनीति के तहत भारतीय वोटरों के सामने पेश किया गया था । नतीजा सबके सामने था ।
आजादी के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत से केंद्र में कोई गैर कांग्रेसी सरकार बनी । इसके
बाद पिछले साल प्रशांत किशोर ने बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के लिए मोर्चा संभाला । एक फिर नतीजा सबके सामने था । उस
वक्त कहा गया था कि ये प्रशांत किशोर की रणनीति का हिस्सा ही था कि नीतीश कुमार ने
जीती हुई विधानसभा सीट से कम सीटों पर लड़ना तय किया था और लालू यादव से हाथ
मिलाया था । बिहारी बनाम बाहरी जैसा नारा गढ़कर प्रशांत ने बीजेपी को बैकफुट पर ला
दिया था । इस वक्त हालात ये है कि प्रशांत किशोर सबसे बड़ी राजनीतिक कमोडिटी बन
चुके हैं । बाजार का नियम बड़ी कमोडिटी की ओर निवेशकों को खींचता है । हर दल और
उसके नेता प्रशांत किशोर को अपने चुनावी चाणक्य के रूप में देखना चाहता है । देश
में राष्ट्रीयता और अंबेडकर के सिद्धांतों पर जारी विमर्श के कोलाहल के बीच
कांग्रेस पार्टी ने पंजाब में विधानसभा चुनाव में पार्टी की वैतरणी पार करवाने का
जिम्मा प्रशांत किशोर को सौंपा है । प्रशांत ने वहां कॉफी विद कैप्टन और पंजाब का
कैप्टन जैसे कार्यक्रम शुरू कर दिए हैं । जो कांग्रेस पंजाब में आंतरिक कलह से जूझ
रही थी वो प्रशांत किशोर के आने के बाद से सक्रिय नजर आने लगी है । आंतरिक कलह की
खबरें कम हो गई हैं और अभी हाल ही में अकाली दल लोंगोवाल का विलय भी कांग्रेस में
हुआ । विधानसभा चुनाव में कितनी सफलता मिलती है ये तो भविष्य के गर्भ में है और
प्रशांत किशोर के लिए चुनौती भी है । नेताओं को अब जनता की बजाए तकनीक और चुनावी
प्रबंधन के विशेषज्ञ स्थापित करने लगे हैं । चुनावी प्रबंधन के माहिर माने जाने
वाले प्रशांत किशोर पर कांग्रेस ने बड़ी जिम्मेदारी डाली है । पंजाब के अलावा उनपर
यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी है । वहां उन्होंने काम करना भी शूरू
कर दिया है और जिला स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच प्रश्नावली बांट दी गई है। कहा तो
यहां तक जाता है कि प्रशांत किशोर पार्टी की हर अहम बैठक में भीमौजूद रहने लगे हैं
। सवाल वही है कि नरेन्द्र मोदी, नीतीश
कुमार के बाद क्या वो राहुल गांधी को दो हजार उन्नीस में सफलता का स्वाद चखा
पाएंगें ।
सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी ने भी दिल्ली में चुनावी
प्रबंधन से सफलता पाई थी । दिल्ली के हर विधानसभा की प्रोफाइलिंग करके रणनीति बनाई
गई थी । दरअसल प्रोफाइलिंग का एक फायदा उम्मीदवार चुनने से लेकर स्थानीय मुद्दों
को उठाने और नेताओं के भाषण आदि में मदद मिलती है । इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता
है क्षेत्र के डेमोग्राफी के हिसाब से मुद्दे तय किए जाते हैं । झुग्गियों में वहां
के हिसाब से मुद्दे उठाए जाते हैं । दिल्ली विधानसभा चुनाव दो हजार तेरह के वक्त
आम आदमी पार्टी ने ट्विटर और फेसबुक का तो इस्तेमाल किया ही था कई तरह के ऐप का भी
इस्तेमाल किया था । इससे चंदा जुटाने से लेकर लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में मदद
मिली थी । अब पंजाब में भी आम आदमी पार्टी ने अपने टेक्नोक्रैट दुर्गेश पाठक को
लगाया है । दुर्गेश भी आंकड़ों के बाजीगर माने जाते हैं और चुनावी चक्रव्यूह रचने
के उस्ताद हैं । पंजाब चुनाव में आम आदमी पार्टी को सबसे ज्यादा भरोसा व्हाट्सएप
ग्रुपों पर है । वहां दर्जनों ग्रुप चल रहे हैं जिनसे उनके नेता जुड़े हुए हैं । यहां
कई बार नेताओं को कार्यकर्ताओं से संवाद करने में मदद मिलती है । व्हाट्सएप
ग्रुप्स में एक तरह की निजता भी होती है कि जितने लोग हैं वही संदेश प्राप्त कर
सकते हैं या दे सकते हैं । इसी तरह से गोवा में आम आदमी पार्टी फेसबुक के जरिए अपनी
सियासत को लोगों के बीच पहुंचा रही है । हर पार्टी की रणनीति का सोशल मीडिया एक
आवश्यक तत्व है । नेताओं के ट्विटर फेसबुक पर सक्रिय रहने से कार्यकर्ताओं को दिशा
मिल जाती है । सोशल मीडिया और आंकड़ों से खेलनेवाले लोगों का सबसे पहले इस्तेमाल
अमेरिका के राष्ट्रपति बरात ओबामा ने अपने 2008 के चुनाव के वक्त
किया था । 2007 के शुरुआती महीने में बराक ओबामा एक अनाम सीनेटर थे । लेकिन उनकी
टीम ने जिस तरह से डेटाबेस तैयार किया था उससे उनको काफी लाभ मिला । उस वक्त
अमेरिका में ओबामा के चुनाव अभियान को फेसबुक इलेक्शन भी कहा गया था । तब उनका
ट्विटर आउटरीच काफी सफल रहा था । ओबाम की जीत के बाद अमेरिका के अखबारों ने लिखा
था कि ये पहला राष्ट्रपति चुनाव है जो वेबस्पेस पर लड़ा और जीता गया । आंकड़ों और
इलाकों की प्रोफाइलिंग करनेवाली उनकी टीम ने उनको सफलता दिलाई थी । अमेरिका से शुरू
होकर ये भारत पहुंचा और यहां भी अबतक सफल रहा है ।
एक जमाना था जब हमारे देश के नेता जनता के बीच जाकर उनसे सीधा संवाद
करते थे और अपने लिए वोट मांगते थे । अब भी वो जनता से सीधा संवाद ही कर रहे हैं
लेकिन चुनावी प्रबंधकों और रणनीतिकारों ने राजनीति के बेसिक्स की चूलें कस दी हैं
। अब तो आंकड़ों के बाजीगर नेताओं की उम्मीदवारी तय कर रहे हैं, रणनीति बना रहे
हैं, आलाकमान को सलाह दे रहे हैं । नेताओं की लोकप्रियता और जनता से जुड़ाव
आंकड़ों से तय हो रहा है । प्रशांत की सफलता के बाद इस तरह के रणनीतिकारों की मांग
बढ़ गई है । अभी तो हमारे देश में इंटरनेट का फैलाव काफी कम है उस स्थिति की
कल्पना करनी चाहिए जब इंटरनेट घनत्व पचहत्तर फीसदी से ज्यादा होगी । भारतीय राजनीति
में यह पोलस्टर का बढ़ता दबदबा एक अहम बदलाव है जिसको रेखांकित किया जाना जरूरी है
।
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