हिंदी साहित्य में कई ऐसी विधाएं हैं जो वक्त के साथ साथ हाशिए पर चली
गई जैसे तकनीक के फैलाव ने पत्र साहित्य का लगभग खात्मा कर दिया है । एक जमाना था
जब साहित्यकारों के पत्रों के संकलन नियमित अंतराल पर छपा करते थे और उन संकलों से
उस दौर का इतिहास बनता था । उदाहरण के तौर पर अगर देखें तो भदन्त आनंद कौसल्यायन
कृत ‘भिक्षु के पत्र’ जो
आजादी पूर्व उन्नीस सौ चालीस में छपा था, काफी अहम है । उसके
बाद तो हिंदी साहित्य में पत्र साहित्य की लंबी परंपरा है । जेल से लिखे जवाहरलाल
नेहरू के इंदिरा गांधी के नाम पत्र तो काफी लोकप्रिय हुए । जानकी वल्लभ शास्त्री
ने निराला के पत्र संपादित किए तो हरिवंश राय बच्चन ने पंत के दो सौ पत्रों को
संकलित किया । नेमिचंद्र जैन ने मुक्तिबोध के पत्रों को पाया पत्र तुम्हारा के नाम
से संकलित किया जो समकालीन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं । हिंदी पत्र साहित्य के
विकास में साहित्यक पत्रिका सरस्वती, माधुरी, ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि
का अहम योगदान है । चांद पत्रिका का पत्रांक तो साहित्य की वैसी धरोहर जिसे हर
साहित्य प्रेमी सहेजना चाहता है ।
इसी तरह से अगर हम देखें तो हिंदी साहित्य में नाटक लिखने का चलन लगभग
खत्म सा हो गया है । साहित्य की हाहाकरी नई पीढ़ी, जो अपने लेखन पर जरा भी विपरीत
टिप्पणी नहीं सुन सकती, का नाटक की ओर झुकाव तो दिखता ही नहीं है । कविता लिखना
बेहद आसान है, उसके मुकाबले कहानी लेखन थोड़ा ज्यादा श्रम की मांग करता है । नाटक
में सबसे ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होती है । इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत में नई
पीढ़ी के लेखकों में उतना धैर्य नहीं है कि वो नाटक जैसी विधा, जो कि वक्त, श्रम
और शोध तीनों की मांग करती है, पर अपना फोकस करें । जितनी देर में एक नाटक लिखा
जाएगा उतनी देर में तो दर्जनों कविताए और चार छह कहानियां लिख कर हिंदी साहित्य को
उपकृत किया जा सकता है । आज के दौर के स्टार युवा लेखकों में नाटक लिखने और उसको
साधने का ना तो धैर्य दिखाई देता है और ना ही हुनर । नाट्य लेखन आज के दौर में
लिखे जा रहे कविता और कहानी की तरह सहज नहीं है । नाटक लेखन करते वक्त लेखकों को
अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है ।
इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की
स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर
दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है । नाटक लेखन का संबंध नाटक
मंडलियों से भी है क्योंकि श्रेष्ठ नाटक मंडली का आभाव नाट्य लेखन को निरुत्साहित
करता है । मंचन में नए नए प्रयोगों के अभाव ने भी नाट्य लेखन को प्रभावित किया है
। मोहन राकेश के नाटकों के बाद संभवत पहली बार ऐसा हुआ कि हिंदी का नाट्य लेखन
पराजय, हताशा और निराशा के दौर से बाहर आकर संघर्ष से परास्त होते आम आदमी को
हिम्मत बंधाने लगा । हिंदी साहित्य में उन्नीस सौ साठ के बाद जिस तरह से मोहभंग का
दौर दिखाई देता है उससे नाट्य लेखन भी अछूता नहीं रहा । इस दौर में लिखे गए नाटक मानवीय
संबंधों की अर्थहीनता को उजागर करते हुए जीवन के पुराने गणितीय फॉर्मूले को धव्स्त
करने लगा । इनमें सुरेन्द्र वर्मा का नाटक द्रौपदी, मुद्रा राक्षस का सन्तोला,
कमलेश्वर की अधूरी आवाज, शंकर शेष का घरौंदा से लेकर मन्नू भंडारी का बिना दीवारों
के घर प्रमुख हैं । इसके अलावा हम भीष्म साहनी के कबिरा खड़ा बाजार में, सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना के नाटक बकरी और रमेश उपाध्याय के नाटक पेपरवेट को नहीं भुला सकते । इसके
बाद एक और प्रवृत्ति देखने को मिली । अच्छे साहित्य को जनता तक पहुंचाने के लिए
मशहूर उपन्यासों और कहानियों का नाट्य रूपांतर होने लगा । मन्नू भंडारी के महाभोज
का नाट्य रूपांतर काफी लोकप्रिय है । बाद में विदेशी नाटकों के अनुवाद भी होने लगे
जिसमें भारतीय परिवेश का छौंक लगाकर स्थनीय दर्शकों को जोड़ने की शुरुआत हुई । इसी
दौर में शेक्सपीयर, ब्रेख्त, कैरल, चैपर आदि के नाटकों का अनुवाद हुआ था । रघुवीर
सहाय ने तो शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ का हिंदी अनुवाद बरनम वन के नाम से किया था ।
अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के हिंदी अनुवाद भी होने लगे । बादल सरकार, गिरीश
कर्नाड, विजय तेंदुलकर आदि के अनुवाद खूब पसंद किए गए । इन सभी देसी विदेशी नाटकों
ने हिंदी नाटक को नई दिशा तो दी है उसको नई दृष्टि से भी संपन्न किया । लेकिन
अनुवादों के इस दौर ने भी हिंदी में नाटक लेखन को हतोत्साहित किया । लंबे वक्त बाद
असगर वजाहत का नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ- छपा तो हिंदीजगत में धूम मच
गई।
अभी हाल ही में लमही पत्रिका में हिंदी की युवा लेखिका इंदिरा दांगी
का नाटक आचार्य छपा है । सबसे पहले तो इस युवा लेखिका की इस बात के लिए दाद देनी
चाहिए उसने इस दौर में कहानी और उपन्यास लेखन के अलावा नाटक लिखा । इंदिरा दांगी
अपने दौर की सर्वाधिक चर्चित लेखिका है और उसको कलमकार कहानी पुरस्कार से लेकर साहित्य
अकादमी का युवा पुरस्कार मिल चुका है । इंदिर दांगी के इस उपन्यास को पढ़ते हुए
पाठकों के सामने हिंदी साहित्य का पूरा परिदृश्य आपकी आंखों के सामने उपस्थित हो
जाता है । यह पूरा नाटक एक साहित्यक पत्रिका के संपादक विदुर दास और युवा लेखिका
रोशनी के इर्द-गिर्द चलती है । इस नाटक का ओपनिंग सीन अंधकार से शुरू होता है जहां
नायिका रोशनी आती है और बहुत ही बेसिक से सवाल उठाती है कि साहित्य क्या होता है ।
जरा संवाद पर नजर डालते हैं – साहित्य क्या होता है ? क्या जिसमें सहित का भाव निहित हो वही साहित्य है
? फिर हंसी । यही तो असली नब्ज है, सरकार सहित ।
प्रशंसा और प्रशंसकों से शुरू ये कोरा सफर विदेश यात्राओं, मोटी स्कॉलरशिप,
हल्के-वजनी अवॉर्डों और हिंदी प्रोफेसर की नौकरी से लेकर अकादमी अध्यक्ष पदों की
नपंसुसक कर देनेवाली कुर्सियों तक पहुंचते-पहुंचते कितना कुछ सहित ‘लादता’ चला जाता है । उन्हें कृपया ना गिनें । लिखनेवाले का ‘लेखिका होना एक दूसरा ही टूल है सफलता का जिसका प्रयोग हर
भाषा, हर काल, हर साहित्य में यकीनन बहुतों ने किया होगा और बहुतों को करना बाकी
है । तौबा । इसके बाद नायिका मुंह पर हाथ रखती है और सयानपन से मुस्कुराते हुए
कहती है स्त्री विरोधी बात ।
अब इस पहले दृश्य को ही लीजिए तो ये नाटक आज के दौर को उघाड़कर रख
देता है । इंदिरा दांगी ने जिस तरह के शब्दों का प्रयोह किया है वो इस दौर पर एक
तल्ख टिप्पणी है । स्त्री विरोधी बात कहकर जिसको उसकी नायिका मुंह पर हथेली रख
लेती है वो एक बड़ी प्रनृत्ति की ओर इशारा करती है । ये प्रवृत्ति कितनीमुखर होती
चली जाती है ये नाटक के दृश्यों के आगे बढ़ते जाने के बाद साफ होती गई है । जब वो
कहती है कि लिखनेवाला का लेखिका होना एक टूल है जिसका इस्तेमाल होता है तो वो
साहित्य के स्याह पक्ष पर चोट करती है । इसी तरह से शोधवृत्ति से लेकर प्रोफेसरी
तक की रेवड़ी बांटे जाने पर पहले ही सीन में करार प्रहार है । अकादमी अध्यक्ष पद
की नपुंसक कर देनेवाली कुर्सी से भी लेखिका ने देशभर की अकादमियों के कामकाज पर
टिप्पणी की है । इस नाटक को पढ़नेवालों को ये लग सकता है कि यहां एक मशहूर पत्रिका
का संपादक मौजूद है, साथ ही मौजूद है उसकी चौकड़ी भी । लेकिन इस नाटक के संपादक को
किसी खास संपादक या इसके पात्रों को किसी लेखक लेखिका से जोड़ कर देखना गलत होगा ।
इस तरह के पात्र हिंदी साहित्य में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं । जरूरत
सिर्फ नजर उठाकर देखने की है । नाट्य लेखन के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है
लेकिनअपने उस सीमित ज्ञान के आधार पर मैं कह सकता हूं इंदिरा दांगी के इस नाटक में
काफी संभावनाएँ हैं और इसके मंचन से इसको और सफलता मिल सकती है । फिलहाल साहित्य
के कर्ताधर्ताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि एक बिल्कुल युवा लेखिका ने एक लगभग
समाप्त होती विधा को जिंदा करने की पहल की है । अगर उसको सफलता मिलती है तो इस
विधा को भी संजीवनीमिल सकती है । कुछ और युवा लेखक इस विधा की ओर आकर्षित हो सकते
हैं । अगर ऐसा हो पाता है तो हम अपनी एक समृद्ध विरासत को संरक्षित करने में
कामयाब हो सकेंगे ।
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