एक जमाना था जब अंग्रेजी के विद्वान संपादक लगातार साहित्य और
संस्कृति पर लिखा करते थे । हिंदी के संपादक तो लिखते ही थे । हिंदी और अंग्रेजी
के संपादकों की साहित्यक रुचि की वजह से अखबारों में साहित्य को जगह मिला करती थी
। कालांतर में जब अखबारों पर बाजार हावी होने लगा तो साहित्य हाशिए पर जाने लगा । हिंदी
के कई अखबारों में तो अब भी साहित्य और संस्कृति के लिए जगह है लेकिन ज्यादातर
अखबारों में साहित्य के स्थान का अतिक्रमण हुआ और वो जगह छोटी होती चली गई । अंग्रेजी
के अखबारों में तो हिंदी साहित्य और हिंदी के लेखकों के लिए तो बहुत ही कम जगह बची
है । हिंदी बड़े लेखकों के निधन की खबर तो किसी कोने अंतरे में कभी कभार जगह पा भी
जाती है लेकिन हिंदी की बड़ी से बड़ी कृतियों को लेकर अंग्रेजी के अखबारों में कोई
हलचल नहीं होती । एक जमाने में शाम लाल अपने स्तंभ में लगातार हिंदी के लेखकों पर
लिखा करते थे । शाम लाल ने फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल पर पंद्रह जुलाई
उननीस सौ पचपन के टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा था – अ नॉवेल ऑफ रूरल बिहार । मुझे
यह ठीक से मालूम नहीं है कि शाम लाल का ये लेख पहले छपा था या फिर नलिन विलोचन
शर्मा ने लिखा था । शामलाल ने जब ये लेख लिखा था तब मैला आंचल समता प्रकाशन पटना
से छपा था । इस बात की पुष्टि शाम लाल के उक्त लेख से होती है जिसमें प्रकाशक के
तौर पर समता प्रकाशन का नाम छपा था । इसका मतलब ये हुआ कि शाम लाल तब हिंदी में
क्या नया छप रहा है उसपर ना केवल नजर रखते थे बल्कि उसको पाठकों तक पहुंचाने के
अपने दायित्व का निर्वाह भी करते थे । शाम लाल ने विस्तार से प्रेमचंद, निर्मल
वर्मा से लेकर साहित्यक प्रवृतियों और उस दौर के नए कवियों पर भी लिखा था ।
जैसे जैसे वक्त बीतता गया वैसे वैसे अंग्रेजी अखबारों से हिंदी
साहित्य ओझल होने लगा । अब तो एक अखबार को छोड़ शायद ही कोई अंग्रेजी अखबार हिंदी
के लेखकों का नोटिस लेता है । कुलदीप कुमार और सफे किदवई जैसे लेखक यहां हिंदी
लेखन कीनोटिस लेते रहते हैं । लेकिन यह कैसे और क्यों हुआ कि हिंदी का स्थान कम
हुआ । इसकी पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि हमारे स्कूलों में हिंदी को लेकर एक
उदासीनता का वातावरण बनता चला गया । आजादी के कुछ समय बाद तक साहित्य को भाषा की
चौहद्दी से बाहर निकलकर स्कूलों में पढ़ाया जाता था लेकिन जब से हमारे देश में
अंग्रेजी मीडियम स्कूल ने जोर पकड़ा तब से हिंदी साहित्य हाशिए पर चला गया । परिणाम
यह हुआ कि इस तरह से के स्कूलों से पढ़कर निकले छात्र जब अखबारों के कर्ताधर्ता बने
तो उनके लिए हिंदी हेय हो गई । अब तो अखबारों और न्यूज चैनलों में अगर किसी के
बॉयोडाटा में कोई अपनी साहित्यक रुचि का उल्लेख करता है तो वो उसके लिए नकारात्मक
माना जाता है । दूसरी वजह ये रही कि हिंदी और अंग्रेजी के लेखकों के बीच का परस्पर
संवाद कम होता चला गया । संवादहीनता की स्थिति में दोनों भाषा के साहित्य से एक
दूसरे की अनभिज्ञता बढ़ती चली गई । इस अनभिज्ञता ने भी हिंदी का नुकसान पहुंचाया ।
हिंदी के लेखकों को अंग्रेजी और अन्य भाषा के लेखकों के साथ संवाद बढ़ाने की जरूरत
है तभी ये संवादहीनता की दीवार टूटेगी और हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के पाठकों को
भी नए तेवर और कलेवर की रचनाओं से परिचय होगा ।
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