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Sunday, April 10, 2016

साहित्यक बाबाओं के जोर का दौर

सालों पहले यशस्वी कथाकार और साहित्यक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने नहीं लिखने की वजह पर एक सीरीज चलाई थी । इस श्रृंखला में उस वक्त हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने ना लिखने की अपनी अलग अलग वजहें बताईं थी । ज्यादातर ने ईमानदारी से । अब से लगभग एक दशक पूर्व जिस बात को लेकर राजेन्द्र यादव चिंतित रहा करते थे वो संकट अब भी बरकरार है । कुछ वरिष्ठ होते लेखक अपनी ख्याति, जो भी रही. उसको लेकर निश्चिंत दिखाई देते हैं । यह निश्चिंतता लेखक के लिए बहुत घातक होती है । कई अधेड़ होते लेखकों ने लिखना छोड़ दिया है । लेखन ने उनकी ये विमुखता किस वजह है इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि लेखक ही अगर लिखना छोड़ देगा तो फिर क्या होगा । इस अगर इस क्या होगा का उत्तर ढूंढने की कोशिश करते हैं तो हम पाते हैं कि इसके पीछे साहित्य में बाबा संस्कृति का फलना फूलना है ।  बाबा संस्कृति के विकास के साथ साथ साहित्य के नए नए मठ बनने लगते हैं और जो लोग साहित्यक बाबाओं की श्रेणी में चले जाते हैं वो इन मठों के मठाधीश बन जाते हैं । साहित्यक मठों के निर्माण के लिए ये जरूरी नहीं कि साहित्य के ये बाबा बहुत मान्यता वाले हों । छोटे-मोटे लेखक भी बाबा बन जाते हैं । उसके बाद उन साहित्यक मठों में साहित्य स्थापना का कार्य प्रारंभ होता है । खुद लिखना छोड़ चुके साहित्यक बाबा अपने मठों के लिए नवोदित लेखकों का भर्ती अभियान चलाते हैं । किसी नवोदित कवयित्री की कविता छपवा कर उस पर किरपा बरसाते हैं । उसके बाद तो साहित्य के बाबा का मठ चल निकलता है । अपने साहित्यक मठ को और स्थापित करने के लिए साहित्य के ये बाबा कोई छोटा मोटा पुरस्कार भी शुरू कर देते हैं ताकि मठ में भक्तों की आस्था बनी रहे । इसी उपक्रम में कोई मठ बड़ा हो जाता है तो कोई छोटा रह जाता है और प्रतिभाहीन साहित्यक लेखक इन मठों के भरोसे लक्ष्य हासिल करने के लिए हर तरह की आहुति देते रहते हैं । ये मठाधीश अलग अलग शहरों में पीठ का निर्माण भी करते हैं, इन पीठों के पीठाधीश्वर संबंधित मठाधीश के लिए भक्तों का जुगाड़ करते हैं । ताकि बाबा की ख्याति और साहित्यक रसूख कायम रह सके । बदले में इन पीठाधीश्वरों को यात्रा आदि का सुयोग उपलब्ध करवाया जाता है ।

यहां तक तो ठीक था लेकिन साहित्य के बाबानुमा पूर्व लेखक इन दिनों नकारात्मकता के शिकार भी होने लगे हैं । वो खुद तो काफी पहले ही लिखना पढ़ना छोड़ चुके हैं । जो भी उनके साहित्यक लेखन के खाते में पहले से अर्जित है उसको भुनाते रहते हैं । दूसरे लेखकों की सक्रियता से इनके पेट में दर्द शुरू हो जाता है । असुरक्षा बोध से घिरे इन साहित्यक बाबाओं को लगता है कि उनकी दुकान बंद होनेवाली है । कोई क्यों लिख रहा है ये इनकी सबसे बड़ी चिंता होती है । सक्रिय लेखकों के लेखन क्रम को बाधित करने के लिए ये हर तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करते हैं ।  इस आसन्न खतरे को टालने के लिए वो सक्रिय लेखकों के खिलाफ हर तरह की कानाफूसी शुरू कर देते हैं । किसी लेखक का संबंध किसी लेखिका से जोड़कर प्रचारित करना इनके डिजायन का सबसे अहम हिस्सा है । ये काम ये अलग अलग शहरों में फैले अपने पीठाधीश्वरों के जरिए करते हैं । किसी के भी चरित्र हनन में इनको महारथ हासिल है और ये साहित्यक बाबा डंके की चोट पर कहते हैं कि साहित्य के खेल में सब जायज है । इन साहित्यक बाबाओं की पहचान आसानी से की जा सकती है । जरूरत इस बात की है कि साहित्य के इन बाबाओं को उनकी असली जगह दिखाई जाए ताकि साहित्य लेखन समृद्ध होता रहे । 

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