दिल्ली में एक संस्था है रजा फाउंडेशन। यह संस्था विश्व प्रसिद्ध
चित्रकार सैयद हैदर रजा के नाम पर स्थापित है। रजा के मित्र अशोक वाजपेयी इस
संस्था के सर्वेसर्वा हैं। हिंदी जगत में यह माना जाता है कि रजा के नाम पर
स्थापित ये संस्था रजा साहब के अर्जित धन से चलता है। अशोक वाजपेयी अब तमाम आयोजन
इसी संस्था के तहत करते हैं। साहित्य, कला
और संस्कृति को लेकर यह संस्था बहुत सक्रिय है, दिल्ली में
नियमित आयोजन करती है, पुस्तकों का प्रकाशन करती है, फेलोशिप भी देती है. जरूरतमंद साहित्यकारों को आर्थिक मदद भी करती है।
केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद जिस तरह से अशोक वाजपेयी और
वामपंथी लेखकों ने हाथ मिला लिया है उसका प्रकटीकरण बहुधा रजा फाउंडेशन के आयोजनों
में होता रहता है। अशोक वाजपेयी को ये श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने
जनवादी और प्रगतिशील लेखकों को एक साथ कर दिया। दिल से भले ही ना मिले हों पर मंच
पर तो एक साथ कर ही दिया है। जो काम वैचारिकी नहीं कर पाई उस काम को पूंजी ने पूरा
किया। अगर कभी मौजूदा दौर का साहित्यिक इतिहास लिखा गया तो कलावादी-वामपंथी लेखकों
का यह गठजोड़ दिलचस्प शोध की मांग करेगा। निष्कर्ष भी रोचक निकलेगा।
अभी हाल ही में इस संस्था ने दिल्ली में रजा उत्सव का आयोजन किया
था। मुख्यत: कविता पर केंद्रित ये आयोजन
एशियाई कविता पर आयोजित था जिसे रजा बिनाले ऑफ एशियन पोएट्री 2019 का नाम दिया गया
था।। इस आयोजन में भारत के अलावा अन्य एशियाई देशों के कवियों को आमंत्रित किया
गया था। इस आयोजन में भी कई जनवादी और प्रगतिशील लेखक कवि आमंत्रित किए गए थे।
आमंत्रित कवियों में एक जनवादी कवि असद जैदी भी थे। एक सत्र में असद जैदी ने कहा
कि वर्तमान समय को सबसे खराब समय करार दिया क्योंकि ये मोदी का इंडिया है, क्योंकि इस दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सभी जगह पर कब्जा कर रखा
है, फासिस्ट ताकतों ने हर जगह आधिपत्य जमा लिया है। सबसे
खराब दौर में, जब हर ओर फासिस्ट ताकतों का आधिपत्य है,
तब भी असद जैदी ये सारी बातें सार्वजनिक तौर पर कह पा रहे थे। ये
विरोधाभास जैसा लगता है। दरअसल असद जैदी जैसे लोग मौजूदा दौर से इस वजह से परेशान
हैं कि उनका सत्ता सुख कम हो गया है, और उत्तरोत्तर कम ही
होता जा रहा है। वामपंथी लेखक लगातार राग फासीवाद गा कर मौजूदा हुकूमत को बदनाम
करने की मुहिम में 2014 मई के बाद से ही लगे हैं। जब भी जहां भी उनको अवसर मिलता
है वो ये राग फासदीवाद छेड़ने से बाज नहीं आते हैं। तभी तो कविता समारोह में भी
असद जैदी ने फासीवाद, मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को
सवालों के घेरे में लाने का प्रयत्न किया, बेशक लचर दलीलों
के साथ। वामपंथियों के लिए फासीवाद का मतलब है बीजेपी, आरएसएस
और नरेन्द्र मोदी । उनके लिए स्कूलों में योग शिक्षा भी फासीवाद है, उनके लिए स्कूलों में वंदे मातरम का पाठ भी फासीवाद है, उनके लिए सरस्वती वंदना भी फासीवाद है, उनके लिए
अकादमियों या सरकारी पदों से वामपंथी विचारधारा के लोगों को कार्यकाल खत्म होने के
बाद हटाया जाना भी फासीवाद है, उनके लिए इतिहास अनुसंधान
परिषद में बदलाव की कोशिश भी फासीवाद है । दरअसल उनके लिए वामपंथ की चौहद्दी से
बाहर किसी भी तरह का कार्य फासीवाद है । इस तरह का शोरगुल इन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी
सरकार के वक्त भी मचाया था । वामपंथी जमात को यह समझना होगा कि नरेन्द्र मोदी
लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के मुखिया है और जनता ने उनको पांच सालों के
लिए चुना है। अभी दो महीने में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं एक बार फिर से जनता
की राय सबके सामने होगी। अगर देश में हालात इने बुरे हैं तो जनता अपने विवेक से
उसको ठीक कर देगी।
जैदी ने रजा उत्सव के इसी मंच से गुजरात दंगों पर भी अपनी बात रखी।
उन्होंने गुजरात दंगों को नरसंहार करार दिया। उन्होंने गुजरात दंगे के बाद वहां के
साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों की
चुप्पी को रेखांकित किया। वो इस बात को लेकर व्यथित दिखे कि गुजरात दंगों के बाद
वहां के संस्कृतिकर्मियों में एक खास किस्म की खामोशी व्याप्त हो गई थी। उन्होंने
गुजरात नरसंहार के बाद सांस्कृतिक चुप्पी जैसा जुमला भी उछाला। इस जुमले को या
वक्तव्य के पीछे की राजनीति को समझने की जरूरत है। एक तरफ असद जैदी गुजरात दंगों
में गुजराती के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की खामोशी को रेखांकित कर रहे हैं वहीं
अब से चंद दिन पहले प्रकाशित पहल पुस्तिका में अशोक वाजपेयी ने लिखा था- ‘2002 में गुजरात के भीषण नरसंहार के बाद महाश्वेता देवी और अपूर्वानंद के
के साथ बड़ोदरा गया था। हमारी बैठक में एकाध कलाकार को छोड़कर कोई गुजराती लेखक,
विद्वान या कलाकार नहीं आया। माहौल में इस कदर डर व्याप गया था।‘
अब इस पंक्ति और असद जैदी के वक्त्वय को मिलाकर देखें तो एक सोची
समझी रणनीति नजर आती है कि किस तरह से इस बात को आगे बढ़ाया जाए कि गुजरात दंगों
के बाद सिर्फ एक या दो लेखकों ने इसका विरोध करने की हिम्मत दिखाई थी, इसमें भी अशोक वाजपेयी प्रमुख थे। एशियाई कविता के दौरान इस बात को परोक्ष
और कहीं कहीं प्रत्यक्ष रूप से स्थापित करने की ये दयनीय कोशिश दिखती है। दयनीय इस
वजह से भी एक जमाने में क्रांति आदि की बात करनेवाले जनवादी कवि को अशोक वाजपेयी
का भोपाल गैस कांड के बाद दिया गया संवेदनहीन बयान याद नहीं आता है। हजारों
नागरिकों की मौत पर दिया गया वो बयान, मरने वाले के साथ मरा
नहीं जाता, असद जैदी को याद नहीं आता। उनको इमरजेंसी एक
नॉस्टेल्जिया के तौर पर याद आता है, 1984 का सिख विरोधी दंगा
तो याद ही नहीं आता। इमरजेंसी में वामपंथियों का रुख क्या था, इसकी कई बार चर्चा इस स्तंभ में हो चुकी है और उसको दोहराने का कोई अर्थ
नहीं है।
2002 के दंगों पर गुजरात के संस्कृतिकर्मियों की खामोशी पर गुजराती
के वरिष्ठ साहित्यकार शीतांशु यशश्चंद्र की राय अलहदा है। उनका मानना है कि
बहुलतावादी देश में विरोध और समर्थन की पद्धति भी अलग-अलग है। गुजरात का विरोध
करने का तरीका उस तरह का नहीं हो सकता है जिस तरह से बंगाल का है। महाराष्ट्र में
विरोध का तरीका अलग है और बिहार में अलग। तो ये दुराग्रह उचित नहीं है कि सभी के
विरोध का तरीका वही हो जैसा असद जैदी जानते समझते हैं। यहां एक और प्रश्न उठता है
कि आप किसके सामने कौन सी बात कर रहे हैं। असद जैदी जहां ये बातें कह रहे थे वहां
एशिया के कई देशों के कवि आमंत्रित थे। वो भारत की कैसी छवि लेकर अपने देश में
जाएंगे। आप आधारहीन बातें कर रहे हैं, आर
पूरे देश को फासीवाद की जकड़न मे बता रहे हैं आप परोक्ष रूप ये कहना चाहते हैं कि
यहां अपनी बात कहने में डर लगता है। जबकि स्थिति इसके ठीक उलट है। यहां हर कोई
बेखौफ होकर अपनी बात कह रहा है। हर तरह की बात कह रहा है, प्रधानमंत्री
से लेकर तमाम मंत्रियों की आलोचना हो रही है। इसी तरह से जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्ताकलीन अध्यक्ष की गिरफ्तारी के खिलाफ विदेशों से
विद्वानों से एक सामूहिक अपील जारी करवा कर देश के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की
गई थी। नोम चोमस्की, ओरहम पॉमुक समेत दुनिया भर के करीब एक सौ तीस
बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया था । उनके बयान के शब्दों से साफ था कि उन्हें
किस बात से दिक्कत थी । अमेरिका, कनाडा, यू के समेत कई देशों के प्रोफेसरों ने इस बात पर आपत्ति जताई थी कि भारत
की मौजूदा सरकार असहिष्णुता और बहुलतावादी संस्कृति पर हमला कर रही थी । उन्होंने
जेएनयू में कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को शर्मनाक घटना करार दिया था । नोम
चोमस्की की प्रतिबद्धता तो सबको मालूम ही है। उनके बयान में लिखा था कि जेएनयू
परिसर में कुछ लोगों ने, जिनकी पहचान विश्वविद्यालय के छात्र
के तौर पर नहीं हो सकी, कश्मीर में भारतीय सेना की
ज्यादतियों के खिलाफ नारेबाजी की थी । नोम चोमस्की को शायद ये ब्रीफ नहीं दिया गया
कि वहां भारत की बर्बादी के भी नारे लगाए गए थे। इस अपील को अपने कंधे पर लेकर
भारत में शोर मचानेवाले कई चेहरे रजा उत्सव में दिखाई दे रहे थे। स्वार्थ की राजनीति
के चक्कर में देश की छवि और साख से भी खेलने में इनको कोई परहेज नहीं है। जिस तरह
से साहित्य और संस्कृति के कंधे पर चढ़कर राजनीतिक और व्यक्तिगत हित साधे जा रहे
हैं उसकी पहचान आवश्यक है।