पिछले दिनों दिल्ली के इंदिरा गांधी
राष्ट्रीय कला केंद्र में एक पुस्तक चर्चा के दौरान बेहद दिलचस्प बातें हुई। पुस्तक
थी लेखक इकबाल रिजवी की गांधी और सिने संसार। इस पुस्तक में लेखक ने मोहनदास
करमचंद गांधी और फिल्मों के रिश्तों पर रोचक तरीके से लिखा है। इस पुस्तक का
प्रकाशन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने किया है। पुस्तक विमोचन के बाद उसपर
एक चर्चा का आयोजन भी किया गया था जिसमें नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित लेखक शरद दत्त,
भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक लीलाधर मंडलोई समेत कई अन्य लोग शामिल हुए थे।
पुस्तक पर चर्चा के दौरान एक बात बार-बार आ रही थी कि गांधी पर किसी भारतीय
निर्माता ने सम्रगता में फिल्म क्यों नहीं बनाई? एक वक्ता ने इसको गांधी के विराट व्यक्तित्व
से जोड़ा और कहा कि बापू का जीवन इतना विराट था कि उसको तीन घंटे में समेटना बहुत
ही मुश्किल काम है। एक अन्य वक्ता ने कहा कि टुकड़ों-टुकड़ों में गांधी को लेकर कई
फिल्में बनीं और उन्होंने इसको कलात्मक स्वतंत्रता से जोड़ा और तर्क दिया कि
फिल्मकार अपनी सोच के हिसाब से फिल्में बनाता है किसी शख्सियत को ध्यान में रखकर
नहीं। काफी देर तक इस बात पर मंथन होता रहा कि किसी भारतीय निर्माता-निर्देशक ने
गांधी पर मुकम्मल फिल्म क्यों नहीं बनाई। नेहरू जी का संसद में दिया गया वो बयान
भी सामने आया जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय निर्माताओं में गांधी पर फिल्म
बनाने की क्षमता नहीं है।
सवाल अनुत्तरित रहा कि गांधी पर भारतीय
फिल्म निर्माताओं ने फिल्म क्यों नहीं बनाई।घंटे भर की चर्चा में यह संभव भी नहीं
था कि इस गंभीर और गूढ़ विषय पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। अब जरा अगर हम
ऐतिहासिक तथ्यों पर गौर करें और वहां से मिल रहे संकेतों को जोड़ें तो शायद
निषकर्ष तक पहुंचने का रास्ता मिल सके। जब गांधी जी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन
की शुरुआत की थी तो कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध किया था। इसके विरोध की वजह
स्थानीय राजनीति या गांधी से मतभेद नहीं था, इसकी वजह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी को
मॉस्को ये इस आंदोलन का विरोध करने का निर्देश प्राप्त हुआ था। जनवरी 1941 में रूस
और जर्मनी के बीच व्यापक व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखकर समझौता हुआ था। उसके
पहले भी नाजी जर्मनी और सोवियत रूस ने युद्ध सामग्री का जमकर आदान-प्रदान किया था।
लेकिन जब जून 1941 में हिटर ने अपने पूर्व सहयोगी सोवियत रूस पर हमला कर दिया तो
रातों रात नाजियों के खिलाफ संघर्ष को सोवियत रूस ने दूसरा रंग देते हुए उसको जन युद्ध
बना दिया। इस रणनीति के तहत सोवियत रूस ने अपने एक विशेष दूत लार्किन को संदेश
लेकर भारत भेजा जिसने कम्युनिस्ट पार्टियों को भारत छोड़े आंदोलन का विरोध करने का
संदेश दिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘पितृभूमि’ से आए संदेश को ग्रहण करते हुए जोरदार
तरीके से भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध शुरू कर दिया।
भारत उस वक्त गुलामी के खिलाफ अपनी लड़ाई
के अंतिम दौर में प्रवेश कर चुका था और कम्युनिस्ट पार्टी भारत छोड़ो आंदोलन के
खिलाफ जुलूस आदि निकालने लगी थी। देश की जनता को कम्युनिस्टों का ये रुख पसंद नहीं
आ रहा था। जब कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध तेज किया तो जनता के
सब्र का बांध टूट गया। हालात इतने बदतर हो गए थे और लोगों को गुस्सा इतना बढ़ गया
था कि कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ जुलूस निकालते
थे तो लोग छतों से उनपर खौलता हुआ पानी फेंक देते थे। भारत छोड़ो आंदोलन के समय ही
कम्युनिस्ट और गांधी आमने सामने थे।
भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने की वजह
से 1942-43 में कम्युनिस्ट पार्टी की साख बुरी तरह से छीज गई थी। अपनी उसी छीज गई
साख को नई पहचान और स्वीकृति देने के लिए कम्युनिस्टों ने भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा)
की स्थापना की। देश आजाद हुआ और कम्युनिस्टों ने देश की आजादी को झूठी आजादी करार
दिया। तेलांगना में सशस्त्र क्रांति के मंसूबों के साथ खून बहाया। प्रतिबंधित हुए।
इन सबके बीच भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़े
लोग हिंदी फिल्म जगत में स्थापित हो चुके थे या माहौल कुछ ऐसा बनाया गया कि हिंदी
और अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों से जुड़े लोग इप्टा से जुड़ते चले गए। फिल्म जगत
में कम्युनिस्टों का दबदबा बढने लगा था लेकिन कोई गांधी पर समग्रता में फिल्म
बनाने की नहीं सोच रहा था। कोशिश भी नहीं हो रही थीं। क्या इससे कोई संकेत निकलता
है। क्या कम्युनिस्टों और उनसे संबद्ध संगठनों के कलाकारों ने गांधी की उपेक्षा उस
वजह से की।
हिंदी फिल्मों में कम्युनिस्टों के प्रभाव
को एक ही उदाहरण से समझा जा सकता है। 1945 में महबूब खान ने एक फिल्म बनाई थी नाम
था हुमायूं। इस फिल्म में अशोक कुमार, नर्गिस, वीणा ने अभिनय किया था और इसकी
कहानी लिखी थी वाकिफ मुरादाबदी ने। इस फिल्म के शुरुआती फ्रेम को ध्यान से देखने
और उसपर विचार करने की आवश्यकता है। सेंसर सर्टिफिकेट और फिल्म में योगदान स्मरण
के बाद तीसरे फ्रेम में महबूब प्रोडक्शंस और उसका लोगो है। इस फिल्म कंपनी के लोगो
को ध्यान से देखा जाना चाहिए। इसमें हंसिया और हथौड़ा है और उसके बीच में अंग्रेजी
का एम लिखा है। एम से दो चीजें हो सकती हैं या तो महबूब या मार्क्स । एम से
मार्क्स का अंदाज इस वजह से लगाया जा सकता है कि कम्युनिज्म का अंतराष्ट्रीय निशान
हंसिया और हथौड़ा है। जो शख्स कम्युनिस्ट पार्टी से इतना गहरे तक जुड़ा हो उससे
क्या ये उम्मीद की जा सकती है कि वो पार्टी के विरोधी के खिलाफ फिल्म बनाए। ये तो
गांधी और उनके विचारों की ताकत थी जो महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में उभर कर
सामने आती है। मदर इंडिया में महबूब खान गांधी से बचते हैं लेकिन फिल्म को गांधी
के प्रभाव से नहीं बचा पाते। इस फिल्म की कहानी नायिका का यौन शोषण और हिंसा के
खिलाफ अहिंसक तरीके से प्रतिकार का है। हिंदी फिल्मों में इप्टा के प्रभाव वाले निर्माताओं,
निर्देशकों और लेखकों ने भी गांधी का दरकिनार किया और गांधीवाद को अपनाया चाहे वो
फिल्म श्री 420 हो, फिल्म नया दौर हो या फिर 1952 में बनी फिल्म आंधियां हो। इन
फिल्मों में समाजवाद और मार्क्सवाद को परोक्ष रूप से लाया गया लेकिन यहां भी
मार्क्सवाद को गांधी के कंध की जरूरत पड़ी। फिल्म आंधियां में जब गांववाले सूदखोर
के खिलाफ विरोध करते हैं तो सिद्धांत तो समाजवादी होता है लेकिन विरोध का औजार
गांधीवादी। गांववाले सूदखोरों के खिलाफ सत्याग्रह करते हैं। ऐसे दर्जनों उदाहरण
हैं जहां इप्टा से जुड़े फिल्मकारों ने गांधी का उपयोग किया लेकिन गांधी पर फिल्म
नहीं बनाई।
नेहरू ने भी किसी पर भरोसा नहीं किया कि
वो गांधी पर फिल्म बना सकें बल्कि उन्होंने तो संसद में कहा कि भारत में किसी में
क्षमता नहीं है कि वो गांधी पर फिल्म बना सकें। रिचर्ड अटनबरो जब नेहरू से मिले थे
तब गांधी पर फिल्म बनाने की बात बहुत गंभीरता से आगे बढ़ी थी। तब भी नेहरू ने
अटनबरो से ये कहा था कि ‘गांधी जी एक महान व्यक्ति थे लेकिन उनके व्यक्तित्व में भी
कमजोरियां थीं, उनकी विफलताएं भी थीं। हम हिंदुओं में एक प्रवृत्ति है कि जब हम
किसी को महान समझते हैं तो उसको भगवान भी समझने लगते हैं। गांधी जी भी मनुष्य थे.
एक जटिल मनुष्य और उनको उसी तरह से देखा जाना चाहिए।‘1958 के बाद नेहरू और अटनबरो की कई बैठकों
में से एक बैठक में नेहरू ने उनसे ये भी कहा था कि गांधी पर बनने वाली फिल्म में
उनको भगवान या संत नहीं बनाना चाहिए। फिर गांधी के जीवन पर बनने वाली फिल्म में
आनेवाले खर्चे को लेकर भी लंबे समय तक भारत सरकार फैसला नहीं ले सकी। अटनबरो चाहते
थे कि भारत सरकार गांधी पर फिल्म बनाने के उनके प्रोजेक्ट को धन दे। आखिरकार
इंदिरा गांधी ने दस लाख डॉलर का अनुदान दिया और अटनबरो ने फिल्म बनाई। यह आज तक
रहस्य बना हुआ है कि किसी भी भारतीय फिल्म निर्माता ने गांधी पर समग्रता में फिल्म
क्यों नहीं बनाई। आज जब बॉयोपिक का दौर चल रहा है और मैरी कॉम से लेकर सचिन
तेंदुलकर तक पर बयोपिक बन रहे हैं लेकिन अब भी गांधी पर फिल्म बनाने को लेकर किसी
तरह की कोई पहल दिखाई नहीं देती। इस बात पर संवाद होना चाहिए, चर्चा होनी चाहिए कि
आजादी के बाद के दशकों में किसी भारतीय फिल्म निर्माता ने फिल्म क्यों नहीं बनाई?
इस लेख में जिन बिंदुओं की ओर इशारा किया
गया है उसपर व्यापक बहस से किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।