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Sunday, April 13, 2025

भारतीयता से संपृक्त रचनाकार


पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से धर्मवीर भारती की पुस्तक गुनाहों का देवता का जन्मशती संस्करण आया। इस पुस्तक को पलटने के बाद स्मरण हुआ कि यह वर्ष प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती का जन्म शताब्दी वर्ष है। धर्मवीर भारती ऐसे संपादक के तौर पर याद किए जाते हैं जिन्होंने अपने संपादन में निकलनेवाली पत्रिका को लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था। इसके अलावा उनकी कई रचनाएं कालजयी कृतियों की श्रेणी में हैं। गुनाहों के देवता को ही लीजिए। इसके पेपरबैक और हार्ड बाउंड मिलाकर 160 से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अब भी पुस्तक मेलों में इस उपन्यास की काफी मांग रहती है। सुधा और चंदर की प्रेम कहानी में किशोर पाठकों को अपना प्रेम नजर आता है। धर्मवीर भारती ने एक काव्य नाटक लिखा, अंधा युग। आज से करीब सात दशक पहले लिखा गया ये काव्य नाटक आज भी भारतीय रंगमंच निर्देशकों की पसंद बना हुआ है। महाभारत पर आधारित इस काव्य नाटक में भारत है, भारत की पौराणिकता है, इसके रीति रिवाज हैं। इस काव्य नाटक का कालखंड महाभारत के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक का है। इसका आरंभ मंगलाचरण से होता है। पर्दा उठने से पहले जो गीत लिखा गया है वो रंगमंच निर्देशकों के लिए चुनौती भी है और उनका हर्ष भी। अश्वत्थामा का अर्धसत्य और गांधारी का शाप ये दो अंक ऐसे हैं जिसको देखते-सुनते हुए श्रोता इसी काल में चले जाते हैं। इस काव्य नाटक का निर्देशन अब्राहम अल्काजी से लेकर मोहन महर्षि तक ने किया है। 

अंधा युग के बारे में धर्मवीर भारती ने लिखा है कि अंधा युग कदापि न लिखा जाता यदि उसका लिखना न लिखना मेरे बस की बात रह गई होती। इस पूरी कृति का जटिल वितान जब मेरे अंतर में उतरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रखा कि फिर बचकर नहीं लौटूंगा। पर एक नशा होता है अंधकार से गरजते महासागर की चुनौती स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोरकर, बचाकर धरातल तक ले आने का- इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला मिला रहता है कि उसके आस्वादान के लिए मन बेबस हो उठता है। उसके लिए ही ये कृति लिखी है। अंधा युग के अंकों से गुजरते हुए धर्मवीर भारतीय की रचनात्मकता और उसके पीछे के दर्शन को सोच कर लगता है कि नाटककार के पास ज्ञान का समृद्ध भंडार रहा होगा। अंधा युग में स्वतंत्रता के बाद के दशकों में भारतीय राजनीति और समाज में जिस प्रकार की मूल्यहीनता सामने आई उसका चित्रण किया गया है। 

धर्मवीर भारती की ही एक और कृति है कनुप्रिया। कनुप्रिया एक काव्य रचना है जिसकी भी रचना भूमि महाभारत ही है। महाभारत और कृष्ण, धर्मवीर भारती को इतने प्रिय थे कि उनकी रचनाओं में ये बारबार लौट कर आते थे। धर्मवीर भारती के निधन के बाद उनकी पत्नी पुष्पा भारती ने लिखा है कि- जीवनभर प्रकृति के अटूट प्रेम के बाद अगर भारती जी ने किसी से अलौकिक प्रेम किया वो है श्रीमदभागवत्। सामने रखी गेरुए रंग के कपड़े में लिपटी भागवत मुझे बता रही है कि उनके प्राण वहीं उसके पृष्ठों में बसते थे। वहां से सूत्र पकड़कर कितना तो विचार मंथन किया था उन्होंने। जीवन की हर उलझन के सुलझाव का रास्ता इसी के पृष्ठों में खोज लेते थे। किशोर उम्र से ही कृष्ण काव्य के ऐसे रसिया बन गए थे कि हिंदी में लिखा सारा का सारा कृष्ण साहित्य मथ डाला था। यहीं से तो उपजे होंगे अंधा युग और कनुप्रिया- कृष्ण, कृष्ण और कृष्ण। इसी संस्मरण में पुष्पा जी एक किस्सा भी सुनाती हैं कि किस तरह से एक रात भारती जी और पंडित जसराज के बीच भागवत पर चर्चा हो रही थी। अचानक पंडित जी ने हारमोनियम की मांग की। घर में हारमोनियम नहीं था तो पंडित जी ने कहा कि एक परात ले आइए। उसके बाद पंडित जी परात को बजाते हुए कनुप्रिया की पंक्तियों गाने लगे। ऐसा ही एक वाकया हुआ बंबई विश्वविद्यालय में। भारती जी बंबई विश्वविद्यालय के क्नवोकेशन हाल में कनुप्रिया का पाठ कर रहे थे। अचानक सामने बैठी प्रतिमा बेदी मंच के सामने नृत्य करने लगीं। यह देखकर भारती जी का गला रुंध गया लेकिन काव्य पाठ जारी रखा। कनुप्रिया एक ऐसी रचना है जो पाठकों को अपने साथ बांध लेती है। धर्मवीर भारती की एक ऐसी ही कालजयी कृति है सूरज का सातवां घोड़ा। स्वाधीनता के कुछ ही वर्षों बाद लिखी गई ये कृति अपने आकार में तो छोटी है लेकिन इसका जो कलेवर है वो आज भी मानक बना हुआ है। इसकी कथा कहन शैली अनुपम है। 

धर्मवीर भारती को पेड़ पौधों से बहुत लगाव था। जब वो प्रयागराज (तब इलाहाबाद) से मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे तो उनके टैरेस गार्डेन की काफी चर्चा होती थी। बाद में महाराष्ट्र सरकार ने लेखकों साहित्यकारों के लिए बांद्रा में एक हाउसिंग सोसाइटी साहित्य सहवास बनाई तो भारती ने इस आवासीय सोसाइटी में कई पेड़ लगाए। परिसर में कदंब का पेड़ लगाने के बाद भारती जी को छितवन वृक्ष की याद आई। छितवन वही वृक्ष है जिसके नीचे शरद पूर्णिमा की रात कन्हैया माहारास रचाते थे। भारती जी ने छितवन की खोज आरंभ की। काफी दिनों बाद पता चला कि वो दिल्ली की एक नर्सरी में है। दिल्ली से मंगवाकर भारती जी ने उसको अपनी स्डटी के पास लगा दिया। कंदब और छितवन के अतिरिक्त धर्मवीर भारती ने कृष्ण कथा से जुड़े फरद का पेड़ भी अपनी सोसाइटी में लगाया था। धर्मवीर भारती के जन्म शताब्दी वर्ष में उनको एक ऐसे रचनाकार के रूप में याद करना चाहिए जिनकी जड़ें भारत और भारतीयता से गहरी जुड़ी थीं। वो भारतीय पौराणिक कथाओं को नए संदर्भों और नई शैली के साथ प्रस्तुत कर नया आयाम प्रदान करने की क्षमता रखते थे। ऐसे महान रचनाकार और प्रकृति प्रेमी का पुण्य स्मरण। 


Saturday, April 12, 2025

साहित्यिक बाजार में नया कारोबार


कुछ दिनों पूर्व मेरे एक मित्र का फोन आया। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला कि यार! मैं कविताएं लिखना चाहता हूं। मुझे लगा ये सनक गया है या मजाक कर रहा है। हमाररी मित्रता लंबे समय से है उसने कभी इस तरह की बातें नहीं की। बात टालने के लिए मैंने कहा कविताएं लिखना तुम्हारे वश में नहीं है। तुम अपने करियर में अच्छा कर रहे हो वहीं ध्यान दो। उसने बहुत प्यार से उत्तर दिया। कहा मैं इस बात से सहमत हूं कि कविता लिखना कठिन है। पर सोचो अगर अनामिका जी जैसी सिद्धहस्त कवयित्री कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगीं तो मेरे जैसा व्यक्ति भी कविता लिख लेगा। अब मैं थोड़ा घबराया कि वो मुझे इस बात के लिए कहेगा कि मैं अनामिका जी से उसको समय दिला दूं। उसको टालने के लिए मैंने कहा कि अनामिका जी बहुत व्यस्त रहती हैं। उनका अपना लेखन है, कालेज की व्यस्तता है और पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हैं, वो समय नहीं दे पाएंगी। उसने तपाक से उत्तर दिया कि मुझे तो अनामिका जी का समय मिल गया है। वो हमें कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगी। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। उसने मेरे मनोभाव को समझकर पूरी बात बताई कि साहित्यिक पत्रिका नईधारा ने कविता लेखन वर्कशाप का आयोजन किया है। इस वर्कशाप का विज्ञापन उसने फेसबुक पर देखा था। विज्ञापन में वकर्शाप में भाग लेने की पूरी प्रक्रिया थी। उसने प्रक्रिया पूरी की और निर्धारित शुल्क जमाकर वो निश्चिंत हो गया था। इस बात से प्रसन्न भी कि अनामिका जी से वो कविता लेखन की बारीकियां सीखने जा रहा है। 

हमारी बातचीत समाप्त हो गई लेकिन बाद में मैं सोचने लगा कि चार घंटे के वर्कशाप में कोई कविता लेखन की बारीकियां कैसे सीख सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अनामिका जी कविता लेखन पर विस्तार से बात कर सकती हैं। कविता का स्ट्रक्चर बता सकती हैं। हिंदी-अंग्रेजी कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा पर बात कर सकती हैं। पर कोई किसी वर्कशाप में बारीकियां सीख कर कवि कैसे बन सकता है। कविता की उन परिभाषाओं का क्या होगा जो विभिन्न भाषाओं में प्रचलित है। हम तो बचपन से सुनते आए हैं कि वियोगी होगा पहला वो कवि आह से उपजा होगा गान। अगर वर्कशाप से कविता लिखना सीख जाएगा तो फिर न तो वियोग की आवश्यकता होगी और न ही आह की। विलियम वर्ड्सवर्थ की उस उक्ति का क्या होगा जिसमें वो कहते हैं, पोएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो आफ पावरफुल फीलिंग्स, इट टेक्स इट्स आरिजन फ्राम इमोशंस रिकलेक्टेड इन ट्रैंक्विलिटि। वर्ड्सवर्थ भी पावरफुल फीलिंग्स की बात कर रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक लंबा लेख है कविता क्या है? उसमें एक जगह शुक्ल कहते हैं, जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। विचार करने की बात है कि कुछ घंटों में ह्रदय की मुक्ति साधना के लिए शब्द विधान सीखा जा सकता है। इन प्रश्नों के बारे में विचार किया जाना चाहिए। वरिष्ठ कवियों की नियमित संगति कविता से, उसकी लेखन पद्धति से हमें परिचित करवा सकती है पर लिखना तो अलग ही बात है। इन दिनों कविता छंद आदि से भी दूर हो गई है तो कह सकते हैं कि बारीकियां तो बची नहीं। छंद, मीटर आदि की आवश्यकता रही नहीं। 

इन दिनों होता ये है कि जैसे ही आप फेसबुक पर कोई एक विषय सर्च करते हैं तो उसी से संबंधित पोस्ट आपकी टाइमलाइन पर आने लग जाती है। चूंकि मैंने नईधारा का विज्ञापन उनकी पोस्ट पर जाकर देखा था। विज्ञापन के नीचे लिखे विवरण को पढ़ा भी था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी टाइमलाइन पर विभिन्न प्रकार के साहित्य लेखन सिखानेवाले पोस्ट आने लग गए। उनमें से तो कई लेखक ऐसे हैं जो उपन्यास और गद्य लिखना सिखा रहे हैं। उनकी अच्छी खासी फीस है। सिखानेवाले भी इस तरह के लेखक हैं जिनको अभी लेखक के तौर पर स्वयं को स्थापित करना है। स्वयं शुद्ध हिंदी लिखना सीखना है। वाक्य विन्यास ठीक हो इसपर मेहनत करने की आवश्यकता है। इन सबको देखकर मैं इस सोच में पड़ गया कि हिंदी साहित्य कितना विविधरंगी हो गया है। जो हिंदी साहित्य कभी बाजार के विरुद्ध चीखता नहीं थकता था आज उसी हिंदी साहित्य में लिखना सिखाना कारोबार हो गया है। साहित्य का बाजार सज चुका है। आकांक्षी लेखकों के लिए तरह-तरह की दुकानें हैं जिनपर विभिन्न विधाओं के बोर्ड लगे हुए हैं। उन बोर्ड को देखिए और अपनी पसंद की विधा का चयन कीजिए। भुगतान करिए और लेखक बनने की राह पर आगे बढ़ जाइए। कविता लिखना सीखिए, उपन्यास लेखन करिए, कहानियां लिखना सीखिए जो चाहें वो सीख सकते हैं। और अब तो आनलाइन के इस युग में सीखना भी आसान हो गया है। आप गाड़ी चलाते हुए सीख सकते हैं, जिम करते हुए सीख सकते हैं। 

प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं और उनको पैसे देकर सीखने वाले मिल कहां से रहे हैं। ये जानने के लिए मैंने अपने मित्र को ही फोन मिलाया। मैंने उससे वर्कशाप के बारे में तो नहीं पूछा लेकिन कहा कि आप कवि बनकर क्या हासिल करना चाहते हैं। उन्होंने चहकते हुए कहा कि दोस्त तुम पता नहीं क्यों, समझना नहीं चाहते हो? अगर कविताएं लिखने लग गया तो रोज लिखूंगा। फेसबुक पर डालता रहूंगा। लाइक्स आदि तो मिल ही जाएंगे। सौ दिन में सौ कविताएं लिख दूंगा। आजकल दर्जनों ऐसे प्रकाशक हैं जो पैसे लेकर पुस्तकें छाप दे रहे हैं। उनसे अपनी कविताओं का संकलन छपवा लूंगा। सौ दो सौ प्रतियां बांट दूंगा। हो गया कवि। लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाया जाने लगूंगा। कविता पाठ करने लग जाऊंगा। समाज में एक प्रतिष्ठा बन जाएगी। 

इसके बाद मैंने एक दूसरे आकांक्षी लेखक को फोन किया। उसने पिछले साल उपन्यास लेखन की वर्कशाप की थी। उसने बताया कि कहानी लिखना तो बहुत ही आसान है। आप किसी घटना को जैसे देखते हैं लिख दीजिए। अधिक से अधिक 1000 शब्द में। दस-बीस कहानी हो गई तो संग्रह प्रकाशित करवा लीजिए। एक प्रकाशक के पास पैकेज है, सिल्वर, गोल्ड और डायमंड। अगर आप डायमंड पैकेज लेते हैं तो वो आपकी पुस्तक और आपको प्रमोट करेगा, लिट फेस्ट में भी भेजने की व्यवस्था करेगा। ऐसे कई कथित उपन्यासकार या कहानीकार समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया में विचरण कर रहे हैं। और तो और ऐसे ही एक उपन्यासकार कहानी लिखना सिखाने की कार्यशाला का आयोजन भी करने जा रहे हैं। दरअसल साहित्य की दुनिया पिछले दिनों इतनी ग्लैमरस हो गई है कि हर कोई उस दुनिया में जाना चाहता है। वहां मंच है, सेल्फी है, सेल्फ प्रमोशन है, नेटवर्किंग का अवसर है, गासिप है। कहना ना होगा कि वहां हर चीज है जो ग्लैमरस दुनिया में होनी चाहिए। पर सबको ये समझना होगा कि साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार। 


इतिहास लेखन की विसंगतियों पर प्रहार


पहले महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र को लेकर बवाल मचा। इस विवाद को लेकर नागपुर में हिंसा और आगजनी भी हुई। उसके बाद संसद में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा पर बाबर को लेकर अपमानजनक टिप्पणी कर दी। उसके बाद इतिहास लेखन को लेकर एक बार फिर से विमर्श आरंभ हो गया। हमारे देश में स्वाधीनता के बाद से ही इतिहास लेखन में एक वैकल्पिक धारा भी रही है। इतिहास लेखन की उस वैकल्पिक धारा को बल प्रदान करते हैं युवा इतिहासकार विक्रम संपत। यूके के रायल हिस्टारिकल सोसाइटी के फेलो रहे विक्रम संपत ने 10 बेस्टसेलर पुस्तकों का लेखन किया है। वीर सावरकर पर दो खंडो में लिखी विक्रम की पुस्तक इतिहास के बहुत सारे जाले को साफ करती है। हाल ही में टीपू सुल्तान पर उनकी एक वृहदाकार पुस्तक आई है जिसमें उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर विक्रम ने टीपू की क्रूरता को सामने लाया है। उनको युवा सहित्य अकादेमी सम्मान भी मिल चुका है। औरंगजेब और बाबर को लेकर मचे बवाल के बीच एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने इतिहासकार विक्रम संपत से बात की।  

प्रश्न- सबसे पहले तो ये बतिए कि हमारे देश में औरंगजेब जैसे आक्रांता को लेकर कुछ लोगों का प्रेम क्यों उमड़ता है। 

देखिए जब हमारे देश का धर्म के आधार पर, नहीं-नहीं धर्म बोलना उचित नहीं होगा, बल्कि इस्लाम के आधार पर देश का बंटवारा हुआ। उसके तुरंत बाद ये कहा जाने लगा कि अगर हम ऐतिहासिक घावों को कुरेदेंगे तो तनाव फैल सकता है। स्वाधीनता के शुरुआती दौर में ऐसा मानना फिर भी थोड़ा जायज हो सकता था। ये भी गलत है लेकिन इसी के बाद ऐसी धारणा बन गई कि सारे आंक्राताओं, मोहम्मद गजनी, मोहम्मद गौरी, औरंगजेब, तैमूर, टीपू सुल्तान आदि ने जिस तरह के बर्बरतापूर्ण कृत्य किए, अगर उसका सत्य चित्रण प्रस्तुत किया जाए तो एक समुदाय आहत हो जाएगा। मेरे हिसाब से ये बिडंबना है। उस समुदाय के लोग इन आंक्रातांओं की क्रूरताओं के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। उसके लिए हम किसी को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते हैं। पर इसका उल्टा भी सही है कि आज उस समुदाय के लोग इन सारे आक्रांताओं और आक्रमणकारियों को अपना आदर्श या हीरो क्यों समझें। 

प्रश्न- एक इतिहासकार के तौर अतीत की बातें उठाकर समाज में कटुता फैलाने को कितना उचित मानते है। 

सबसे पहले तो ये सोचना चाहिए कि अगर किसी मुसलमान को भारत में सुरक्षित महसूस करना है तो उसके लिए किसी एक मुसलमान को ही आदर्श मानने की आवश्यकता नहीं है, कोई एक हिंदू भी उसका आदर्श हो सकता है। दूसरा अतीत पर लीपापोती करके या आक्रांताओं के अपराध को मिटाकर कुछ हासिल नहीं होगा। लीपापोती करके जो इतिहास लिखा गया ये उसी का परिणाम है। आज का दौर सूचना का दौर है, आज हर हाथ में मोबाइल में है और इंटरनेट सबकी पहुंच में है। आज के युग में सभी सत्य जानना चाहते हैं। ऐसे में कुछ विशेष लोग जो जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बैठकर कहते हैं कि देश का इतिहास ऐसा होना चाहिए या इसी को आपको मानना चाहिए। जनता उनको मानने को तैयार नहीं। अब लोग सत्य की खोज खुद कर रहे हैं। ऐसे में समाज में तनाव और बढ़ रहा है, पर यह जो सिलसिला आज का नहीं है। 

प्रश्न- हमारे देश में स्वाधीनता के बाद जो इतिहास लिखा गया और जो स्कूलों में पढ़ाया गया उसपर आपकी क्या राय है। 

प्रसिद्ध इतिहासकार अरुण शौरी ने एक बात का जिक्र किया था। संभवत: ये बात 1989 की है, तब बंगाल में ज्योति बसु की सरकार थी। इस दौरान एक सर्कुलर निकाला गया था कि राज्य में इतिहास की किताबों में जो दो कालम हैं- शुद्धो और एक अशुद्धो। अशुद्धो में इन सारी बातों का जिक्र किया गया था कि किस तरह मोहम्मद गजनी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था और किस तरह से औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ का मंदिर तोड़ा था आदि। शुद्धो में इस बात का जिक्र किया गया था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था, इन सब बातों के बारे में बात नहीं करना है और इन सबको हटा दो। मैं जिस राज्य कर्नाटक से आता हूं  वहां के डा. भैरप्पा जब एनसीईआरटी की कमेटी में थे और एक नेशनल सिलेबस बनना था। तब इसी तरह की बातों को लेकर कमेटी के तत्कालीन चेयरपर्सन पार्थसारथी से उनकी बहस हो गई थी। चेयरमैन कह रहे थे कि ऐसा बोलने से सामाजिक समरसता खत्म हो जाएगी और राष्ट्रीय एकीकरण खतरे में आ जाएगा। 

प्रश्न- अंग्रेजों ने जो अत्याचार किए, उनके बारे में खुल्लम-खुल्ला बोलते हैं तब तो कोई नहीं सोचता कि ईसाइयों को बुरा लगेगा। 

यही तो दिलचस्प है कि चर्चिल को डिक्टेटर, जनरल डायर को हत्यारा कहने पर किसी को आपत्ति नहीं होती। इन सबके बारे में खुलकर बोलने के दौरान हमें ये नहीं लगता है कि देश के जो ईसाई हैं उन्हें बुरा लगेगा। फिर औरंगजेब, टीपू और गजनी के बारे में बात करने पर हमें ये क्यों लगता है कि इससे देश के जो मुसलमान हैं वे नाराज हो जाएंगे। ऐसा करते-करते हम खुद ही ये हाइफनेट कर रहे हैं कि ये लोग आपके रोल माडल हैं और इनको आपका रोल माडल बनाए रखने के लिए इनके द्वारा किए गए सारे कृत्यों को हम पूरी तरह साफ कर देंगे। 

प्रश्न- हम टीपू पर आपसे बात करेंगे, आपने उसपर एक बड़ी किताब लिखी है। अभी हम औरंगजेब और अन्य आक्रांताओं पर ही रहते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता है या इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है कि आक्रांता ही हमारे आदर्श हैं। 

अथर अली नामक एक शोधकर्ता ने मुगलकाल के दौरान भारत के मुस्लिमों की स्थिति के बारे में लिखा है कि मुगल बादशाह बाहर से आए विभिन्न देशों के लोगों को अपने दरबार में प्रमुख जिम्मेदारी देते थे। इनमें पर्शियन, ईरानी, तूरानी आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जबकि देश के मुस्लिमों की दरबार में भागीदारी मुश्किल से सात-आठ प्रतिशत ही होती थी। फिर भी आज के मुस्लिमों को यही लगता है कि जिसने काफिरों के धर्म का हनन किया वे ही हमारे आदर्श हैं। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह को अगर देखें तो एक हद तक वो थोड़ा सा आदर्श हो सकता है, लेकिन हम उसको आदर्श नहीं मानते हैं। दरअसल उसने गंगा-जमुनी तहजीब शब्द का प्रयोग किया था, लेकिन उसके भाई औरंगजेब ने ही उसका सिर कलम किया और गंगा-जमुनी तहजीब का भी। फिर भी हम गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते हैं। गंगा भी हमारी है और जमुना भी हमारी है, जमुना को हम किसी को देने के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता अपने भाषणों में कहते हैं कि हमने यहां आठ सौ साल राज किया है। यह पाकिस्तान वाला सोच है और इसी सोच का परिणाम है कि पाकिस्तान बना। मैंने अपनी वीर सावरकर वाली किताब लिखने के क्रम में मुस्लिम लीग के काफी नेताओं के 900 से अधिक भाषणों का अध्ययन किया था। इससे यह बात निकलकर आई कि मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों का सोच था कि हमने यहां शासन किया था और जब अंग्रेज चले जाएंगे तो जिनपर हमने शासन किया था हम उनसे शासित हो जाएंगे। कारण, प्रजातंत्र का मूलमंत्र यही है कि बहुसंख्यक ही शासन करता है। इसलिए हमारा एक अलग देश बनना चाहिए और इसी से अलगाववाद शुरू हुआ और यह श्रंखला अभी तक चली आ रही है। यह बहुत दुख की बात है कि जिस नेहरूवाद ने यह सोचा कि इतिहास में फेरबदल करके लोगों को आपस में जोड़ा जा सकता है इससे प्रेम और सद्भाव तो नहीं बढ़ा, बल्कि अलगाववाद ही फैला। 

प्रश्न- कुछ इतिहासकार कहते हैं कि मुगल आक्रांता के तौर पर आए लेकिन यहां बस गए और भारतीय हो गए। 

देखिए जब यहां राज करेंगे तो बस ही जाएंगे। उनकी कब्र भी यहीं होगी। पर अपने दौ सौ-ढाई सौ साल के शासनकाल में उन्होंने कितनी यूनिवर्सिटी बनाईं और लोगों के उद्धार के लिए क्या काम किए, इसपर विचार करना होगा। जब ताजमहल बन रहा था तब पूरे दक्षिण भारत में कर वसूली के लिए वहां कितने लोग मारे गए, इसको देखना होगा। ताजमहल बन रहा था तब दक्षिण में हुई बगावत में करीब 60 से 70 लाख प्रभावित हुए थे। अगर हम चर्चिल को बंगाल में 40 लाख लोगों को मारने के लिए एक नरहंतक बोलते हैं तो ये लोग कोई कम नहीं थे। उससे भी कई गुना ज्यादा थे। लोग कहते हैं कि उस समय जीडीपी बढ़ रही थी। वास्तविकता ये है कि वैश्विक स्तर पर भारत की जीडीपी जो पहले थोड़ा बेहतर थी वो मुगलकाल में गिरकर काफी नीचे आ गई थी। उन्होंने मुगल प्रशासन में भारतीयों को वो दर्जा नहीं दिया जो पर्शियन, ईरानी और तूरानियों को दिया। इतिहासकार अथर अली लिखते हैं कि औरंगजेब का शासनकाल जब अपने चरम पर था तब उसके शासन में भारतीयों की भागीदारी बमुश्किल सात-आठ प्रतिशत थी। 

प्रश्न- हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि अकबर महान थे। मध्यकाल का इतिहास लिखनेवाले कुछ इतिहासकार कहते हैं कि अकबर ने समाज में ऊंच-नीच को खत्म किया था। 

हम भी तो अब तक यही जानते हैं कि अकबर महान थे। मेरे खयाल से अब तक तीन ही महान हुए हैं अकबर महान, अशोक महान और सिकंदर महान। अशोक के बारे में बोला जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद वे इतने आहत हुए कि जो पहले चंड अशोक थे, उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। जबकि तथ्य यै है कि कलिंग युद्ध के दो साल पहले ही वह बौद्ध धर्म को स्वीकार कर चुके थे। ये जो महान वाली उपाधि दी गई है ये फर्जी ही है और ये सब एक प्रकार से गढ़ी हुई कहानी है। अकबर का शासन उत्तरार्द्ध में ही थोड़ा बेहतर था, पूर्वार्द्ध में चित्तौड़गढ़ में उन्होंने जो किया और उनके दरबार के इतिहासकार बंदायूनी ने जब कहा कि मैं अपनी दाढ़ी को काफिरों के खून से रंगना चाहता हूं तो वह उससे इतने खुश हुए कि उनको सोने की अशरफियां दीं। राजस्थान और चित्तौड़ में जो उन्होंने किया, वो तो इतिहास की बात है, लेकिन उनका जो सेकंड हाफ है उसमें उन्होंने दीन ए इलाही आदि की स्थापना की। इसीलिए आज भी अगर देखें तो पाकिस्तान में अकबर की उतनी वाहवाही नहीं होती। 

प्रश्न- कैसे 

पाकिस्तान के जो पांच नेवी के जहाज हैं, वो सभी आक्रांताओं के नाम पर हैं। जहाजों के नाम बाबर, शाहजहां, जहांगीर, आलमगीर और टीपू सुल्तान के नाम पर रखे हैं, लेकिन अकबर के नाम का प्रयोग नहीं किया। वर्ष 1965 में जब भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ तो भारत पर आक्रमण करने के लिए उसने आपरेशन का नाम सोमनाथ चुना था जो बीते दिनों और गजनी की याद दिलाता था। उत्तरार्द्ध के शासन की कुछ खूबियों के कारण पाकिस्तान में अकबर वहां के स्टाक वैल्यू में निचले पायदान पर हैं। अकबर के उत्तरार्द्ध के शासन के बारे में इटैलियन ट्रैवेलर मनूची और निकोल आंखों देखा हाल लिखते हैं। अकबर के शासनकाल में आगरा में रोज हजारों हिंदुओं के सिर कलम किए जाते थे कि वे गलियों में पड़े रहते थे और गलियां दुर्गंध से भरी रहती थीं। उनसे इतनी बदबू आती थी कि लोगों को वहां पर नाक और मुंह ढककर चलना पड़ता था। यह तब की बात है जब अकबर ने दीन ए इलाही की स्थापना कर दी थी और उन्हें अकबर महान कहा जाने लगा था। 

प्रश्न- अब टीपू सुल्तान के बारे में जरा बताइए। आमधारणा है कि टीपू सुल्तान भारत की रक्षा के लिए लड़े, अंग्रेजों को रोका। 

टीपू को लेकर मेरी राय उलटी नहीं है, बल्कि सच्ची राय है। यह तथ्यों पर आधारित है। देश की स्वाधीनता के बाद टीपू का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चित्रण किया गया। ये बोलने वाले वही मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, जो बोलते रहते हैं कि भारत नाम का कोई राष्ट्र था ही नहीं और ब्रिटिशर के आने के बाद ही हम एक राष्ट्र बने। अगर एक ही राष्ट्र नहीं था तो फिर वो किस राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानी बने। एक तरफ कहा जाता है कि वे भारत के लिए लड़ रहे दूसरी तरफ कहते हैं कि भारत 1947 में बना। चित्त भी मेरी और पट भी मेरी। टीपू ने ब्रिटिशर के साथ लड़ाई के लिए फ्रेंच की सहायता ली थी। फ्रेंच कोई कम कोलोनियल और इंपीरियलिस्ट नहीं थे। दक्षिण में जो कर्नाटक युद्ध हुआ उसमें देखा गया था कि हैदर और टीपू दोनों ने फ्रेंच की सहायता ली। यही नहीं वो जमनशाह जो अफगान के दुराणी शासक हैं उनको चिट्ठी लिखकर बुला रहे हैं कि आप भारत पर आक्रमण करो। हम दो साल का एक कार्यक्रम बनाएंगे साथ में। पहले साल में पूरे उत्तर भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे और दूसरे साल में दक्षिण भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे। 

प्रश्न- पत्र में लिखा है कि काफिरों से मुक्त करेंगे? 

जी, हर पत्र में काफिर शब्द है और लिखा है कि जो सच्चा दीन है उसको स्थापित करने के लिए हम ये लड़ाई लड़ रहे हैं। काफिर शब्द भी बार-बार उसका इस्तेमाल हो ही रहा है। दो साल के बाद हम ये पूरे सबकांटिनेंट को आपस में इस्लामिक कैलिफेट की तरह विभाजन कर लेंगे। ये कैसे स्वतंत्रता सेनानी हुए जो इस तरह के पत्र लिख रहे थे। ये उनके खुद के पत्र हैं। टीपू सुल्तान की जो तथाकथित तलवार है उस पर भी लिखा है कि इस तलवार का मकसद है कि काफिरों के खून से इसको रंगा जाए। उसका जो मैनिफेस्टो था जो मैसूर का इस्लामीकरण करके सल्तनते खुदादाद बनाया जाए और काफिरों का पूर्ण निर्मूलन होना चाहिए। काफिर मतलब गैर मुस्लिम्स, क्योंकि उनके आतंकी हमले ईसाइयों ने भी सहे हैं कर्नाटक में। 

प्रश्न- आप तो जिस राज्य से आते हैं, वहां तो लंबे समय तक टीपू जयंती मनाई जाती रही। 

देखिए अगर कांग्रेस कुछ करेगी तो भाजपा उसका विरोध करेगी और अगर भाजपा कुछ करेगी तो कांग्रेस उसका विरोध करेगी। उसमें हमें पड़ना ही नहीं है। हम तो पूरी तरह एकेडमिक बात कर रहे हैं। जब ये जयंती मनाई गई तो उसमें कई समुदाय, उसमें मैंगलोर के ईसाई भी शामिल थे वो भी सड़क पर उतरे थे। उनका कहना था जिसने हमारे पूर्वजों के साथ इतने अत्याचार किए, जो लिखित रूप में मौजूद हैं, सब जानते हुए भी आप इसका महिमामंडन कैसे कर सकते हैं? वहां आयंगार जो ब्राह्मण समुदाय है वो तो 250 वर्ष के बाद भी आज दीपावली नहीं मनाते, क्योंकि उसी दिन करीब सात सौ लोगों को उसने बर्बरता से मार डाला था, जिसमें महिलाएं, बच्चे और पुरुष शामिल थे। 

प्रश्न- इस घटना को थोड़ा विस्तार से बताएंगे कि दीवाली पर क्या हुआ था?

दीवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी होती है। उस दिन टीपू सुलतान ने श्रीरंगापट्टन के श्रीलक्ष्मीनरसिम्हा मंदिर में एक सामूहिक भोज के बहाने सात सौ लोगों को बुलाया था। इस मंदिर के प्रांगण में दो दरवाजे थे। जब लोग खाना  खा रहे थे तो दोनों तरह के दरवाजे बंद कर दिए गए। इसके बाद एक दरवाजे को खोला गया और इसके जरिए जो उत्पाती हाथी थे उनको अंदर भेज दिया गया। इसमें बहुत सारे लोग कुचलकर मर गए। जो बचकर भागना चाहते थे उनका कत्ल कर दिया गया। 

प्रश्न- ये हिंदू जनता थी? 

हां, सारे ब्राम्हण थे। इसीलिए आज भी 250 साल बाद ये लोग दीवाली की रात को कालरात्रि के रूप में मानते हैं। जब पूरा देश दीवाली मना रहा होता है तो भी वे अंधेरे में होते हैं। तो ये भी एक घाव है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से औऱ लोक कथाओं के रूप में हमारे समाज जीवन में है। 

प्रश्न- इतिहास को लेकर जो भ्रम है उसको कैसे दूर किया जा सकता है।

एक इतिहासकार होने के नाते मैं बोल रहा हूं कि हमें आगे बढ़ना चाहिए। पूर्व की बातों को लेकर बैठना नहीं चाहिए।लेकिन जब हम पूर्व की बातों पर लीपापोती करने लगते हैं तब हम देश को पीछे ढकेल रहे होते हैं। क्योंकि लोग तो और नई चीजें खोजने लगते हैं तो इससे कलह और बढ़ती है। 

प्रश्न- कहा जाता है कि जो आल्टरनेट व्यू वाले हिस्टोरियन मोदी के सत्ता में आने के बाद सक्रिय हुए। 

ये तो मीडिया की बदौलत है। आप लोग हमें ज्यादा फोकस देते हैं नहीं तो मैं 17 साल से लिख रहा हूं। तब मोदी जी शायद गुज़रात में मुख्यमंत्री थे। इसका सत्ता परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। हां, ये मानता हूं कि आज देश का माहौल बदला है। 2014 के बाद लोगों में सत्य जानने का वातावरण बना है। इतिहास एक ऐसा विषय है जहां अलग-अलग राय को पनपने के लिए जगह देनी चाहिए। ये विडंबना है कि जब हम परतंत्र थे तब इतिहास लेखन के लिए राष्ट्रवादी स्कूल अलाउड था। जब जेम्स मिल ने पहली बार ब्रिटिश इंडिया का इतिहास लिखा तो उसका खंडन करने के लिए महराष्ट्र से बहुत सारे लोगों ने गुमनाम पत्र लिखे। एक राष्ट्रवादी विचार धारा का इतिहास लेखन शुरू हुआ जिसमें सर जदुनाथ सरकार, आर सी मजूमदार, वी के रजवाडे, भंडारकर ये सारे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान थे। उनको पनपने के लिए आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद जो राष्ट्रवादी स्कूल हैं उसको हाशिए पर डाल दिया गया। मार्क्सवादी इतिहासकारों का दबदबा बना।


Saturday, April 5, 2025

अज्ञान से उपजता अहंकार


इस वर्ष कई साहित्य उत्सवों में जाने का अवसर मिला। विभिन्न विषयों पर विभिन्न श्रोताओं को सुना भी। बहुत कुछ सीखने को मिला। एक साहित्य उत्सव में अजीब घटना घटी। एक सत्र में हिंदी उपन्यास पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उपन्यास की कथावस्तु पर बात होते-होते उसके आकार-प्रकार पर चली गई। इस चर्चा में तीन अलग अलग पीढ़ियों के उपन्यासकार थे। इनमें से एक कथित नई वाली हिंदी के युवा उपन्यासकार थे। एक वरिष्ठ पीढ़ी के उपन्यासकार ने समकालीन युवा लेखकों के उपन्यासों पर कहा कि आज तो सौ डेढ सौ पेज के उपन्यास लिखे जा रहे हैं। हलांकि उन्होंने इसके बाद आज के पाठकों की रुचि पर भी विस्तार से बोला लेकिन नई वाली हिंदी के उपन्यासकार का मन सौ डेढ़ सौ पेज पर ही अटक गया। उन्होंने जिस प्रकार की टिप्पणी की उससे लगा कि वो सौ डेढ सौ पेज वाली टिप्पणी से आहत हो गए हैं। यह बात सही है कि आजकल मोटे उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। चंद्रकिशोर जायसवाल का चिरंजीव या दीर्घ नारायण का रामघाट में कोरोना आठ सौ से अधिक पृष्ठों का उपन्यास है। पर इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अमरकांत का इन्हीं हथियारों से, भगवानदास मोरवाल का बाबल तेरे देस में, असगर वजाहत का कैसी आग लगाई जैसे चार पांच सौ पन्नों के उपन्यास प्रकाशित होते थे। अब ज्यादातर उपन्यास सौ से सवा सौ पेज का होता है। उस समय भी पतले उपन्यास प्रकाशित होते थे लेकिन इतने पतले नहीं होते थे कि मंचों पर उनकी चर्चा हो। 

सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है। गांव और कस्बों की कहानियों में उलझा रहा हिंदी उपन्यास। इस क्रम में उन्होंने प्रेमचंद से लेकर रेणु और मोरवाल तक के नाम गिना दिए। वो इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उनकी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। उत्तेजना में तो वो यहां तक कह गए कि परंपरा आदि बेकार की बातें हैं और ये सब कोर्स के लिए ठीक हो सकती हैं, साहित्य के लिए नहीं। मामला उलझता इसके पहले ही संवादकर्ता ने बहुत चतुराई से विषय बदल दिया। लेकिन मेरे दिमाग में उनकी बात अटकी रह गई।

कुछ दिनों बाद एक अन्य साहित्य उत्सव में कविता पर हो रही एक चर्चा सत्र में बैठा कवियों को सुन रहा था। वहां भी इस बात की चर्चा होने लगी कि आज के कवियों को हिंदी कविता की परंपरा का ज्ञान है या नहीं। छह प्रतिभागी थे जिनमें से अधिकतर की ये राय थी कि परंपरा हमको रचना सिखाती है। यहां भी एक युवा कवि एकदम से ये मानने को तैयार नहीं थे कि परंपरा से साहित्य सृजन का कोई लेना देना है। वो यहीं पर नहीं रुके बल्कि आत्मप्रशंसा में जुट गए कि वो कितने महान हैं। उनकी कविताएं इंटरनेट ममीडिया पर कितनी लोकप्रिय होती हैं। उनको हजारों लाइक्स मिलते हैं आदि आदि। इस पैनल में ही एक और युवा कवि था। वो बार बार कहने का प्रयास कर रहा था कि परंपरा हमें बहुत सिखाती है। हम परंपरा को अगर जान पाएं तो हमें कविताएं लिखने में, शब्दों के चयन में, कविताओं में भावों को अभिव्यक्ति करने में मदद मिलती है। इससे रचने में बड़ा लाभ होता है। पर दूसरा युवा कवि सुनने को तैयार नहीं था। वो तो बस परंपरा को ही नकार रहा था। जोश में तो यहां तक कह गया कि हमें निराला और पंत से सीखने की क्या जरूरत है। अगर हम उनकी कविताएं अधिक पढ़ेंगे तो उनके जैसे ही लिखने लग जाएंगे, आदि आदि। इस सत्र की बातें सुनकर उपन्यास वाले सत्र का स्मरण हो उठा। सत्र के बाद ये सोचने लगा कि आज के कुछ युवा लेखक स्वयं को इतना महान क्यों समझते हैं। महान समझने को लेकर मैंने स्वयं को समझा लिया कि आत्मप्रशंसा हर अवस्था के लेखकों में पाई जाती है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन परंपरा का नकार क्यों। अपने पूर्वज लेखकों की कृतियों को लेकर उपेक्षा भाव क्यों। इस बात का उत्तर नहीं मिल पा रहा था। 

इसी साहित्य उत्सव में अपने एक मित्र से दोनों घटनाओं की चर्चा की और बुझे मन से पूछा कि साहित्य की युवा पीढ़ी के कुछ लेखक क्यों सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करते हैं। मित्र ने फटाक से कहा कि तुम नाहक इस बात को लेकर परेशान हो। जो लोग अपनी परंपरा को या पूर्वज लेखकों को नकारते हैं उन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान होता है और ना ही उन्होंने पूर्वज लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा है। आप इसको इस तरह से समझिए कि ज्ञान तो सीमित होता है जबकि अज्ञान असीमित होता है। जो चीज असीमित होती है उसके बारे में सोचकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। परंपरा को समझने और उसको अपनी रचनाओँ में बरतने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। परंपरा से जुड़े लेखन का संपूर्ण अध्ययन आवश्यक ना भी हो लेकिन उससे परिचय तो होना ही चाहिए। उन्होंने एक वाकया बताया। कुछ दिनों पहले महिला दिवस पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसका विषय था – रामचरितमानस और स्त्रियां। एक से एक धुरंधर वक्ता उसमें उपस्थित थीं। उनमें से एक ने बहुत जोशीला भाषण दिया। इसी क्रम में श्रीराम को सीता को त्यागने को लेकर कठघरे में खड़ा करने लगीं। एक श्रोता अचानक खड़े हो गए, कहा कि आपने ये कहां पढ़ लिया कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया था। उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब विषय ही रामचरितमानस है तो और कहां पढेंगी, वहीं पढ़ी है पूरी कहानी। इसपर श्रोता ने उनको आड़े हाथों लेते हुए खूब खरी खोटी सुना दी। कहा कि रामचरितमानस तो प्रभु श्रीराम  के राज्याभिषेक के साथ समाप्त हो जाता है। उसके बाद कागभुसुंडि और गरुड़ जी का संवाद है जिसको विद्वान मानस वेदांत कहते हैं। पर वो महिला नहीं मानीं। 

इन प्रसंगों को सुनने के बाद ये लगा कि हमारे समाज में भांति भांति के लोग हैं। भांति-भांति की भ्रांतियां हैं। इतिहास से लेकर साहित्य तक में भ्रम की स्थिति बनाई गई। इन्हीं भ्रम और भ्रांतियों का जब अज्ञान से मिलन होता है तो उससे अहंकार का जन्म होता है। यही अहंकार परंपरा को नकारता है। रचनात्मकता को कुंद करता है। हर दौर में इस प्रकार की घटनाएं होती होंगी परंतु इंटरनेट मीडिया के इस दौर में इस तरह की घटनाएं अधिक होने लगी हैं। युवा रचनाकार अपनी थोड़ी सी प्रशंसा पर स्वयं को निर्मल और अज्ञेय मानने लगते हैं। आज स्वयं को दिनकर और निराला से श्रेष्ठ मानने वाले कई कवि आपको फेसबुक पर नजर आएंगे। उनकी श्रेष्ठता बोध का आधार फेसबुक के लाइक्स हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा को पहचानें, अध्ययन करें और स्वयं को उस परंपरा में रखकर देखें कि हम कहां हैं, अन्यथा इतिहास के बियावान में खोते समय नहीं लगता।