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Saturday, April 12, 2025

साहित्यिक बाजार में नया कारोबार


कुछ दिनों पूर्व मेरे एक मित्र का फोन आया। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला कि यार! मैं कविताएं लिखना चाहता हूं। मुझे लगा ये सनक गया है या मजाक कर रहा है। हमाररी मित्रता लंबे समय से है उसने कभी इस तरह की बातें नहीं की। बात टालने के लिए मैंने कहा कविताएं लिखना तुम्हारे वश में नहीं है। तुम अपने करियर में अच्छा कर रहे हो वहीं ध्यान दो। उसने बहुत प्यार से उत्तर दिया। कहा मैं इस बात से सहमत हूं कि कविता लिखना कठिन है। पर सोचो अगर अनामिका जी जैसी सिद्धहस्त कवयित्री कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगीं तो मेरे जैसा व्यक्ति भी कविता लिख लेगा। अब मैं थोड़ा घबराया कि वो मुझे इस बात के लिए कहेगा कि मैं अनामिका जी से उसको समय दिला दूं। उसको टालने के लिए मैंने कहा कि अनामिका जी बहुत व्यस्त रहती हैं। उनका अपना लेखन है, कालेज की व्यस्तता है और पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हैं, वो समय नहीं दे पाएंगी। उसने तपाक से उत्तर दिया कि मुझे तो अनामिका जी का समय मिल गया है। वो हमें कविता लेखन की बारीकियां सिखाएंगी। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। उसने मेरे मनोभाव को समझकर पूरी बात बताई कि साहित्यिक पत्रिका नईधारा ने कविता लेखन वर्कशाप का आयोजन किया है। इस वर्कशाप का विज्ञापन उसने फेसबुक पर देखा था। विज्ञापन में वकर्शाप में भाग लेने की पूरी प्रक्रिया थी। उसने प्रक्रिया पूरी की और निर्धारित शुल्क जमाकर वो निश्चिंत हो गया था। इस बात से प्रसन्न भी कि अनामिका जी से वो कविता लेखन की बारीकियां सीखने जा रहा है। 

हमारी बातचीत समाप्त हो गई लेकिन बाद में मैं सोचने लगा कि चार घंटे के वर्कशाप में कोई कविता लेखन की बारीकियां कैसे सीख सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अनामिका जी कविता लेखन पर विस्तार से बात कर सकती हैं। कविता का स्ट्रक्चर बता सकती हैं। हिंदी-अंग्रेजी कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा पर बात कर सकती हैं। पर कोई किसी वर्कशाप में बारीकियां सीख कर कवि कैसे बन सकता है। कविता की उन परिभाषाओं का क्या होगा जो विभिन्न भाषाओं में प्रचलित है। हम तो बचपन से सुनते आए हैं कि वियोगी होगा पहला वो कवि आह से उपजा होगा गान। अगर वर्कशाप से कविता लिखना सीख जाएगा तो फिर न तो वियोग की आवश्यकता होगी और न ही आह की। विलियम वर्ड्सवर्थ की उस उक्ति का क्या होगा जिसमें वो कहते हैं, पोएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो आफ पावरफुल फीलिंग्स, इट टेक्स इट्स आरिजन फ्राम इमोशंस रिकलेक्टेड इन ट्रैंक्विलिटि। वर्ड्सवर्थ भी पावरफुल फीलिंग्स की बात कर रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक लंबा लेख है कविता क्या है? उसमें एक जगह शुक्ल कहते हैं, जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। विचार करने की बात है कि कुछ घंटों में ह्रदय की मुक्ति साधना के लिए शब्द विधान सीखा जा सकता है। इन प्रश्नों के बारे में विचार किया जाना चाहिए। वरिष्ठ कवियों की नियमित संगति कविता से, उसकी लेखन पद्धति से हमें परिचित करवा सकती है पर लिखना तो अलग ही बात है। इन दिनों कविता छंद आदि से भी दूर हो गई है तो कह सकते हैं कि बारीकियां तो बची नहीं। छंद, मीटर आदि की आवश्यकता रही नहीं। 

इन दिनों होता ये है कि जैसे ही आप फेसबुक पर कोई एक विषय सर्च करते हैं तो उसी से संबंधित पोस्ट आपकी टाइमलाइन पर आने लग जाती है। चूंकि मैंने नईधारा का विज्ञापन उनकी पोस्ट पर जाकर देखा था। विज्ञापन के नीचे लिखे विवरण को पढ़ा भी था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी टाइमलाइन पर विभिन्न प्रकार के साहित्य लेखन सिखानेवाले पोस्ट आने लग गए। उनमें से तो कई लेखक ऐसे हैं जो उपन्यास और गद्य लिखना सिखा रहे हैं। उनकी अच्छी खासी फीस है। सिखानेवाले भी इस तरह के लेखक हैं जिनको अभी लेखक के तौर पर स्वयं को स्थापित करना है। स्वयं शुद्ध हिंदी लिखना सीखना है। वाक्य विन्यास ठीक हो इसपर मेहनत करने की आवश्यकता है। इन सबको देखकर मैं इस सोच में पड़ गया कि हिंदी साहित्य कितना विविधरंगी हो गया है। जो हिंदी साहित्य कभी बाजार के विरुद्ध चीखता नहीं थकता था आज उसी हिंदी साहित्य में लिखना सिखाना कारोबार हो गया है। साहित्य का बाजार सज चुका है। आकांक्षी लेखकों के लिए तरह-तरह की दुकानें हैं जिनपर विभिन्न विधाओं के बोर्ड लगे हुए हैं। उन बोर्ड को देखिए और अपनी पसंद की विधा का चयन कीजिए। भुगतान करिए और लेखक बनने की राह पर आगे बढ़ जाइए। कविता लिखना सीखिए, उपन्यास लेखन करिए, कहानियां लिखना सीखिए जो चाहें वो सीख सकते हैं। और अब तो आनलाइन के इस युग में सीखना भी आसान हो गया है। आप गाड़ी चलाते हुए सीख सकते हैं, जिम करते हुए सीख सकते हैं। 

प्रश्न ये है कि लेखन सिखाने की ये दुकानें क्यों खुल रही हैं और उनको पैसे देकर सीखने वाले मिल कहां से रहे हैं। ये जानने के लिए मैंने अपने मित्र को ही फोन मिलाया। मैंने उससे वर्कशाप के बारे में तो नहीं पूछा लेकिन कहा कि आप कवि बनकर क्या हासिल करना चाहते हैं। उन्होंने चहकते हुए कहा कि दोस्त तुम पता नहीं क्यों, समझना नहीं चाहते हो? अगर कविताएं लिखने लग गया तो रोज लिखूंगा। फेसबुक पर डालता रहूंगा। लाइक्स आदि तो मिल ही जाएंगे। सौ दिन में सौ कविताएं लिख दूंगा। आजकल दर्जनों ऐसे प्रकाशक हैं जो पैसे लेकर पुस्तकें छाप दे रहे हैं। उनसे अपनी कविताओं का संकलन छपवा लूंगा। सौ दो सौ प्रतियां बांट दूंगा। हो गया कवि। लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाया जाने लगूंगा। कविता पाठ करने लग जाऊंगा। समाज में एक प्रतिष्ठा बन जाएगी। 

इसके बाद मैंने एक दूसरे आकांक्षी लेखक को फोन किया। उसने पिछले साल उपन्यास लेखन की वर्कशाप की थी। उसने बताया कि कहानी लिखना तो बहुत ही आसान है। आप किसी घटना को जैसे देखते हैं लिख दीजिए। अधिक से अधिक 1000 शब्द में। दस-बीस कहानी हो गई तो संग्रह प्रकाशित करवा लीजिए। एक प्रकाशक के पास पैकेज है, सिल्वर, गोल्ड और डायमंड। अगर आप डायमंड पैकेज लेते हैं तो वो आपकी पुस्तक और आपको प्रमोट करेगा, लिट फेस्ट में भी भेजने की व्यवस्था करेगा। ऐसे कई कथित उपन्यासकार या कहानीकार समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया में विचरण कर रहे हैं। और तो और ऐसे ही एक उपन्यासकार कहानी लिखना सिखाने की कार्यशाला का आयोजन भी करने जा रहे हैं। दरअसल साहित्य की दुनिया पिछले दिनों इतनी ग्लैमरस हो गई है कि हर कोई उस दुनिया में जाना चाहता है। वहां मंच है, सेल्फी है, सेल्फ प्रमोशन है, नेटवर्किंग का अवसर है, गासिप है। कहना ना होगा कि वहां हर चीज है जो ग्लैमरस दुनिया में होनी चाहिए। पर सबको ये समझना होगा कि साहित्य रचना एक लंबी तपस्या है जिसके बाद ही कोई विधा सधती है। ये कोई इंस्टैंट नुडल नहीं है कि झट डाला पट तैयार। 


इतिहास लेखन की विसंगतियों पर प्रहार


पहले महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र को लेकर बवाल मचा। इस विवाद को लेकर नागपुर में हिंसा और आगजनी भी हुई। उसके बाद संसद में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा पर बाबर को लेकर अपमानजनक टिप्पणी कर दी। उसके बाद इतिहास लेखन को लेकर एक बार फिर से विमर्श आरंभ हो गया। हमारे देश में स्वाधीनता के बाद से ही इतिहास लेखन में एक वैकल्पिक धारा भी रही है। इतिहास लेखन की उस वैकल्पिक धारा को बल प्रदान करते हैं युवा इतिहासकार विक्रम संपत। यूके के रायल हिस्टारिकल सोसाइटी के फेलो रहे विक्रम संपत ने 10 बेस्टसेलर पुस्तकों का लेखन किया है। वीर सावरकर पर दो खंडो में लिखी विक्रम की पुस्तक इतिहास के बहुत सारे जाले को साफ करती है। हाल ही में टीपू सुल्तान पर उनकी एक वृहदाकार पुस्तक आई है जिसमें उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर विक्रम ने टीपू की क्रूरता को सामने लाया है। उनको युवा सहित्य अकादेमी सम्मान भी मिल चुका है। औरंगजेब और बाबर को लेकर मचे बवाल के बीच एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने इतिहासकार विक्रम संपत से बात की।  

प्रश्न- सबसे पहले तो ये बतिए कि हमारे देश में औरंगजेब जैसे आक्रांता को लेकर कुछ लोगों का प्रेम क्यों उमड़ता है। 

देखिए जब हमारे देश का धर्म के आधार पर, नहीं-नहीं धर्म बोलना उचित नहीं होगा, बल्कि इस्लाम के आधार पर देश का बंटवारा हुआ। उसके तुरंत बाद ये कहा जाने लगा कि अगर हम ऐतिहासिक घावों को कुरेदेंगे तो तनाव फैल सकता है। स्वाधीनता के शुरुआती दौर में ऐसा मानना फिर भी थोड़ा जायज हो सकता था। ये भी गलत है लेकिन इसी के बाद ऐसी धारणा बन गई कि सारे आंक्राताओं, मोहम्मद गजनी, मोहम्मद गौरी, औरंगजेब, तैमूर, टीपू सुल्तान आदि ने जिस तरह के बर्बरतापूर्ण कृत्य किए, अगर उसका सत्य चित्रण प्रस्तुत किया जाए तो एक समुदाय आहत हो जाएगा। मेरे हिसाब से ये बिडंबना है। उस समुदाय के लोग इन आंक्रातांओं की क्रूरताओं के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। उसके लिए हम किसी को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते हैं। पर इसका उल्टा भी सही है कि आज उस समुदाय के लोग इन सारे आक्रांताओं और आक्रमणकारियों को अपना आदर्श या हीरो क्यों समझें। 

प्रश्न- एक इतिहासकार के तौर अतीत की बातें उठाकर समाज में कटुता फैलाने को कितना उचित मानते है। 

सबसे पहले तो ये सोचना चाहिए कि अगर किसी मुसलमान को भारत में सुरक्षित महसूस करना है तो उसके लिए किसी एक मुसलमान को ही आदर्श मानने की आवश्यकता नहीं है, कोई एक हिंदू भी उसका आदर्श हो सकता है। दूसरा अतीत पर लीपापोती करके या आक्रांताओं के अपराध को मिटाकर कुछ हासिल नहीं होगा। लीपापोती करके जो इतिहास लिखा गया ये उसी का परिणाम है। आज का दौर सूचना का दौर है, आज हर हाथ में मोबाइल में है और इंटरनेट सबकी पहुंच में है। आज के युग में सभी सत्य जानना चाहते हैं। ऐसे में कुछ विशेष लोग जो जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बैठकर कहते हैं कि देश का इतिहास ऐसा होना चाहिए या इसी को आपको मानना चाहिए। जनता उनको मानने को तैयार नहीं। अब लोग सत्य की खोज खुद कर रहे हैं। ऐसे में समाज में तनाव और बढ़ रहा है, पर यह जो सिलसिला आज का नहीं है। 

प्रश्न- हमारे देश में स्वाधीनता के बाद जो इतिहास लिखा गया और जो स्कूलों में पढ़ाया गया उसपर आपकी क्या राय है। 

प्रसिद्ध इतिहासकार अरुण शौरी ने एक बात का जिक्र किया था। संभवत: ये बात 1989 की है, तब बंगाल में ज्योति बसु की सरकार थी। इस दौरान एक सर्कुलर निकाला गया था कि राज्य में इतिहास की किताबों में जो दो कालम हैं- शुद्धो और एक अशुद्धो। अशुद्धो में इन सारी बातों का जिक्र किया गया था कि किस तरह मोहम्मद गजनी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था और किस तरह से औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ का मंदिर तोड़ा था आदि। शुद्धो में इस बात का जिक्र किया गया था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था, इन सब बातों के बारे में बात नहीं करना है और इन सबको हटा दो। मैं जिस राज्य कर्नाटक से आता हूं  वहां के डा. भैरप्पा जब एनसीईआरटी की कमेटी में थे और एक नेशनल सिलेबस बनना था। तब इसी तरह की बातों को लेकर कमेटी के तत्कालीन चेयरपर्सन पार्थसारथी से उनकी बहस हो गई थी। चेयरमैन कह रहे थे कि ऐसा बोलने से सामाजिक समरसता खत्म हो जाएगी और राष्ट्रीय एकीकरण खतरे में आ जाएगा। 

प्रश्न- अंग्रेजों ने जो अत्याचार किए, उनके बारे में खुल्लम-खुल्ला बोलते हैं तब तो कोई नहीं सोचता कि ईसाइयों को बुरा लगेगा। 

यही तो दिलचस्प है कि चर्चिल को डिक्टेटर, जनरल डायर को हत्यारा कहने पर किसी को आपत्ति नहीं होती। इन सबके बारे में खुलकर बोलने के दौरान हमें ये नहीं लगता है कि देश के जो ईसाई हैं उन्हें बुरा लगेगा। फिर औरंगजेब, टीपू और गजनी के बारे में बात करने पर हमें ये क्यों लगता है कि इससे देश के जो मुसलमान हैं वे नाराज हो जाएंगे। ऐसा करते-करते हम खुद ही ये हाइफनेट कर रहे हैं कि ये लोग आपके रोल माडल हैं और इनको आपका रोल माडल बनाए रखने के लिए इनके द्वारा किए गए सारे कृत्यों को हम पूरी तरह साफ कर देंगे। 

प्रश्न- हम टीपू पर आपसे बात करेंगे, आपने उसपर एक बड़ी किताब लिखी है। अभी हम औरंगजेब और अन्य आक्रांताओं पर ही रहते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता है या इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है कि आक्रांता ही हमारे आदर्श हैं। 

अथर अली नामक एक शोधकर्ता ने मुगलकाल के दौरान भारत के मुस्लिमों की स्थिति के बारे में लिखा है कि मुगल बादशाह बाहर से आए विभिन्न देशों के लोगों को अपने दरबार में प्रमुख जिम्मेदारी देते थे। इनमें पर्शियन, ईरानी, तूरानी आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जबकि देश के मुस्लिमों की दरबार में भागीदारी मुश्किल से सात-आठ प्रतिशत ही होती थी। फिर भी आज के मुस्लिमों को यही लगता है कि जिसने काफिरों के धर्म का हनन किया वे ही हमारे आदर्श हैं। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह को अगर देखें तो एक हद तक वो थोड़ा सा आदर्श हो सकता है, लेकिन हम उसको आदर्श नहीं मानते हैं। दरअसल उसने गंगा-जमुनी तहजीब शब्द का प्रयोग किया था, लेकिन उसके भाई औरंगजेब ने ही उसका सिर कलम किया और गंगा-जमुनी तहजीब का भी। फिर भी हम गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते हैं। गंगा भी हमारी है और जमुना भी हमारी है, जमुना को हम किसी को देने के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता अपने भाषणों में कहते हैं कि हमने यहां आठ सौ साल राज किया है। यह पाकिस्तान वाला सोच है और इसी सोच का परिणाम है कि पाकिस्तान बना। मैंने अपनी वीर सावरकर वाली किताब लिखने के क्रम में मुस्लिम लीग के काफी नेताओं के 900 से अधिक भाषणों का अध्ययन किया था। इससे यह बात निकलकर आई कि मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों का सोच था कि हमने यहां शासन किया था और जब अंग्रेज चले जाएंगे तो जिनपर हमने शासन किया था हम उनसे शासित हो जाएंगे। कारण, प्रजातंत्र का मूलमंत्र यही है कि बहुसंख्यक ही शासन करता है। इसलिए हमारा एक अलग देश बनना चाहिए और इसी से अलगाववाद शुरू हुआ और यह श्रंखला अभी तक चली आ रही है। यह बहुत दुख की बात है कि जिस नेहरूवाद ने यह सोचा कि इतिहास में फेरबदल करके लोगों को आपस में जोड़ा जा सकता है इससे प्रेम और सद्भाव तो नहीं बढ़ा, बल्कि अलगाववाद ही फैला। 

प्रश्न- कुछ इतिहासकार कहते हैं कि मुगल आक्रांता के तौर पर आए लेकिन यहां बस गए और भारतीय हो गए। 

देखिए जब यहां राज करेंगे तो बस ही जाएंगे। उनकी कब्र भी यहीं होगी। पर अपने दौ सौ-ढाई सौ साल के शासनकाल में उन्होंने कितनी यूनिवर्सिटी बनाईं और लोगों के उद्धार के लिए क्या काम किए, इसपर विचार करना होगा। जब ताजमहल बन रहा था तब पूरे दक्षिण भारत में कर वसूली के लिए वहां कितने लोग मारे गए, इसको देखना होगा। ताजमहल बन रहा था तब दक्षिण में हुई बगावत में करीब 60 से 70 लाख प्रभावित हुए थे। अगर हम चर्चिल को बंगाल में 40 लाख लोगों को मारने के लिए एक नरहंतक बोलते हैं तो ये लोग कोई कम नहीं थे। उससे भी कई गुना ज्यादा थे। लोग कहते हैं कि उस समय जीडीपी बढ़ रही थी। वास्तविकता ये है कि वैश्विक स्तर पर भारत की जीडीपी जो पहले थोड़ा बेहतर थी वो मुगलकाल में गिरकर काफी नीचे आ गई थी। उन्होंने मुगल प्रशासन में भारतीयों को वो दर्जा नहीं दिया जो पर्शियन, ईरानी और तूरानियों को दिया। इतिहासकार अथर अली लिखते हैं कि औरंगजेब का शासनकाल जब अपने चरम पर था तब उसके शासन में भारतीयों की भागीदारी बमुश्किल सात-आठ प्रतिशत थी। 

प्रश्न- हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि अकबर महान थे। मध्यकाल का इतिहास लिखनेवाले कुछ इतिहासकार कहते हैं कि अकबर ने समाज में ऊंच-नीच को खत्म किया था। 

हम भी तो अब तक यही जानते हैं कि अकबर महान थे। मेरे खयाल से अब तक तीन ही महान हुए हैं अकबर महान, अशोक महान और सिकंदर महान। अशोक के बारे में बोला जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद वे इतने आहत हुए कि जो पहले चंड अशोक थे, उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। जबकि तथ्य यै है कि कलिंग युद्ध के दो साल पहले ही वह बौद्ध धर्म को स्वीकार कर चुके थे। ये जो महान वाली उपाधि दी गई है ये फर्जी ही है और ये सब एक प्रकार से गढ़ी हुई कहानी है। अकबर का शासन उत्तरार्द्ध में ही थोड़ा बेहतर था, पूर्वार्द्ध में चित्तौड़गढ़ में उन्होंने जो किया और उनके दरबार के इतिहासकार बंदायूनी ने जब कहा कि मैं अपनी दाढ़ी को काफिरों के खून से रंगना चाहता हूं तो वह उससे इतने खुश हुए कि उनको सोने की अशरफियां दीं। राजस्थान और चित्तौड़ में जो उन्होंने किया, वो तो इतिहास की बात है, लेकिन उनका जो सेकंड हाफ है उसमें उन्होंने दीन ए इलाही आदि की स्थापना की। इसीलिए आज भी अगर देखें तो पाकिस्तान में अकबर की उतनी वाहवाही नहीं होती। 

प्रश्न- कैसे 

पाकिस्तान के जो पांच नेवी के जहाज हैं, वो सभी आक्रांताओं के नाम पर हैं। जहाजों के नाम बाबर, शाहजहां, जहांगीर, आलमगीर और टीपू सुल्तान के नाम पर रखे हैं, लेकिन अकबर के नाम का प्रयोग नहीं किया। वर्ष 1965 में जब भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ तो भारत पर आक्रमण करने के लिए उसने आपरेशन का नाम सोमनाथ चुना था जो बीते दिनों और गजनी की याद दिलाता था। उत्तरार्द्ध के शासन की कुछ खूबियों के कारण पाकिस्तान में अकबर वहां के स्टाक वैल्यू में निचले पायदान पर हैं। अकबर के उत्तरार्द्ध के शासन के बारे में इटैलियन ट्रैवेलर मनूची और निकोल आंखों देखा हाल लिखते हैं। अकबर के शासनकाल में आगरा में रोज हजारों हिंदुओं के सिर कलम किए जाते थे कि वे गलियों में पड़े रहते थे और गलियां दुर्गंध से भरी रहती थीं। उनसे इतनी बदबू आती थी कि लोगों को वहां पर नाक और मुंह ढककर चलना पड़ता था। यह तब की बात है जब अकबर ने दीन ए इलाही की स्थापना कर दी थी और उन्हें अकबर महान कहा जाने लगा था। 

प्रश्न- अब टीपू सुल्तान के बारे में जरा बताइए। आमधारणा है कि टीपू सुल्तान भारत की रक्षा के लिए लड़े, अंग्रेजों को रोका। 

टीपू को लेकर मेरी राय उलटी नहीं है, बल्कि सच्ची राय है। यह तथ्यों पर आधारित है। देश की स्वाधीनता के बाद टीपू का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चित्रण किया गया। ये बोलने वाले वही मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, जो बोलते रहते हैं कि भारत नाम का कोई राष्ट्र था ही नहीं और ब्रिटिशर के आने के बाद ही हम एक राष्ट्र बने। अगर एक ही राष्ट्र नहीं था तो फिर वो किस राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानी बने। एक तरफ कहा जाता है कि वे भारत के लिए लड़ रहे दूसरी तरफ कहते हैं कि भारत 1947 में बना। चित्त भी मेरी और पट भी मेरी। टीपू ने ब्रिटिशर के साथ लड़ाई के लिए फ्रेंच की सहायता ली थी। फ्रेंच कोई कम कोलोनियल और इंपीरियलिस्ट नहीं थे। दक्षिण में जो कर्नाटक युद्ध हुआ उसमें देखा गया था कि हैदर और टीपू दोनों ने फ्रेंच की सहायता ली। यही नहीं वो जमनशाह जो अफगान के दुराणी शासक हैं उनको चिट्ठी लिखकर बुला रहे हैं कि आप भारत पर आक्रमण करो। हम दो साल का एक कार्यक्रम बनाएंगे साथ में। पहले साल में पूरे उत्तर भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे और दूसरे साल में दक्षिण भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे। 

प्रश्न- पत्र में लिखा है कि काफिरों से मुक्त करेंगे? 

जी, हर पत्र में काफिर शब्द है और लिखा है कि जो सच्चा दीन है उसको स्थापित करने के लिए हम ये लड़ाई लड़ रहे हैं। काफिर शब्द भी बार-बार उसका इस्तेमाल हो ही रहा है। दो साल के बाद हम ये पूरे सबकांटिनेंट को आपस में इस्लामिक कैलिफेट की तरह विभाजन कर लेंगे। ये कैसे स्वतंत्रता सेनानी हुए जो इस तरह के पत्र लिख रहे थे। ये उनके खुद के पत्र हैं। टीपू सुल्तान की जो तथाकथित तलवार है उस पर भी लिखा है कि इस तलवार का मकसद है कि काफिरों के खून से इसको रंगा जाए। उसका जो मैनिफेस्टो था जो मैसूर का इस्लामीकरण करके सल्तनते खुदादाद बनाया जाए और काफिरों का पूर्ण निर्मूलन होना चाहिए। काफिर मतलब गैर मुस्लिम्स, क्योंकि उनके आतंकी हमले ईसाइयों ने भी सहे हैं कर्नाटक में। 

प्रश्न- आप तो जिस राज्य से आते हैं, वहां तो लंबे समय तक टीपू जयंती मनाई जाती रही। 

देखिए अगर कांग्रेस कुछ करेगी तो भाजपा उसका विरोध करेगी और अगर भाजपा कुछ करेगी तो कांग्रेस उसका विरोध करेगी। उसमें हमें पड़ना ही नहीं है। हम तो पूरी तरह एकेडमिक बात कर रहे हैं। जब ये जयंती मनाई गई तो उसमें कई समुदाय, उसमें मैंगलोर के ईसाई भी शामिल थे वो भी सड़क पर उतरे थे। उनका कहना था जिसने हमारे पूर्वजों के साथ इतने अत्याचार किए, जो लिखित रूप में मौजूद हैं, सब जानते हुए भी आप इसका महिमामंडन कैसे कर सकते हैं? वहां आयंगार जो ब्राह्मण समुदाय है वो तो 250 वर्ष के बाद भी आज दीपावली नहीं मनाते, क्योंकि उसी दिन करीब सात सौ लोगों को उसने बर्बरता से मार डाला था, जिसमें महिलाएं, बच्चे और पुरुष शामिल थे। 

प्रश्न- इस घटना को थोड़ा विस्तार से बताएंगे कि दीवाली पर क्या हुआ था?

दीवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी होती है। उस दिन टीपू सुलतान ने श्रीरंगापट्टन के श्रीलक्ष्मीनरसिम्हा मंदिर में एक सामूहिक भोज के बहाने सात सौ लोगों को बुलाया था। इस मंदिर के प्रांगण में दो दरवाजे थे। जब लोग खाना  खा रहे थे तो दोनों तरह के दरवाजे बंद कर दिए गए। इसके बाद एक दरवाजे को खोला गया और इसके जरिए जो उत्पाती हाथी थे उनको अंदर भेज दिया गया। इसमें बहुत सारे लोग कुचलकर मर गए। जो बचकर भागना चाहते थे उनका कत्ल कर दिया गया। 

प्रश्न- ये हिंदू जनता थी? 

हां, सारे ब्राम्हण थे। इसीलिए आज भी 250 साल बाद ये लोग दीवाली की रात को कालरात्रि के रूप में मानते हैं। जब पूरा देश दीवाली मना रहा होता है तो भी वे अंधेरे में होते हैं। तो ये भी एक घाव है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से औऱ लोक कथाओं के रूप में हमारे समाज जीवन में है। 

प्रश्न- इतिहास को लेकर जो भ्रम है उसको कैसे दूर किया जा सकता है।

एक इतिहासकार होने के नाते मैं बोल रहा हूं कि हमें आगे बढ़ना चाहिए। पूर्व की बातों को लेकर बैठना नहीं चाहिए।लेकिन जब हम पूर्व की बातों पर लीपापोती करने लगते हैं तब हम देश को पीछे ढकेल रहे होते हैं। क्योंकि लोग तो और नई चीजें खोजने लगते हैं तो इससे कलह और बढ़ती है। 

प्रश्न- कहा जाता है कि जो आल्टरनेट व्यू वाले हिस्टोरियन मोदी के सत्ता में आने के बाद सक्रिय हुए। 

ये तो मीडिया की बदौलत है। आप लोग हमें ज्यादा फोकस देते हैं नहीं तो मैं 17 साल से लिख रहा हूं। तब मोदी जी शायद गुज़रात में मुख्यमंत्री थे। इसका सत्ता परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। हां, ये मानता हूं कि आज देश का माहौल बदला है। 2014 के बाद लोगों में सत्य जानने का वातावरण बना है। इतिहास एक ऐसा विषय है जहां अलग-अलग राय को पनपने के लिए जगह देनी चाहिए। ये विडंबना है कि जब हम परतंत्र थे तब इतिहास लेखन के लिए राष्ट्रवादी स्कूल अलाउड था। जब जेम्स मिल ने पहली बार ब्रिटिश इंडिया का इतिहास लिखा तो उसका खंडन करने के लिए महराष्ट्र से बहुत सारे लोगों ने गुमनाम पत्र लिखे। एक राष्ट्रवादी विचार धारा का इतिहास लेखन शुरू हुआ जिसमें सर जदुनाथ सरकार, आर सी मजूमदार, वी के रजवाडे, भंडारकर ये सारे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान थे। उनको पनपने के लिए आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद जो राष्ट्रवादी स्कूल हैं उसको हाशिए पर डाल दिया गया। मार्क्सवादी इतिहासकारों का दबदबा बना।


Saturday, April 5, 2025

अज्ञान से उपजता अहंकार


इस वर्ष कई साहित्य उत्सवों में जाने का अवसर मिला। विभिन्न विषयों पर विभिन्न श्रोताओं को सुना भी। बहुत कुछ सीखने को मिला। एक साहित्य उत्सव में अजीब घटना घटी। एक सत्र में हिंदी उपन्यास पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उपन्यास की कथावस्तु पर बात होते-होते उसके आकार-प्रकार पर चली गई। इस चर्चा में तीन अलग अलग पीढ़ियों के उपन्यासकार थे। इनमें से एक कथित नई वाली हिंदी के युवा उपन्यासकार थे। एक वरिष्ठ पीढ़ी के उपन्यासकार ने समकालीन युवा लेखकों के उपन्यासों पर कहा कि आज तो सौ डेढ सौ पेज के उपन्यास लिखे जा रहे हैं। हलांकि उन्होंने इसके बाद आज के पाठकों की रुचि पर भी विस्तार से बोला लेकिन नई वाली हिंदी के उपन्यासकार का मन सौ डेढ़ सौ पेज पर ही अटक गया। उन्होंने जिस प्रकार की टिप्पणी की उससे लगा कि वो सौ डेढ सौ पेज वाली टिप्पणी से आहत हो गए हैं। यह बात सही है कि आजकल मोटे उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। चंद्रकिशोर जायसवाल का चिरंजीव या दीर्घ नारायण का रामघाट में कोरोना आठ सौ से अधिक पृष्ठों का उपन्यास है। पर इस शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अमरकांत का इन्हीं हथियारों से, भगवानदास मोरवाल का बाबल तेरे देस में, असगर वजाहत का कैसी आग लगाई जैसे चार पांच सौ पन्नों के उपन्यास प्रकाशित होते थे। अब ज्यादातर उपन्यास सौ से सवा सौ पेज का होता है। उस समय भी पतले उपन्यास प्रकाशित होते थे लेकिन इतने पतले नहीं होते थे कि मंचों पर उनकी चर्चा हो। 

सत्र में बैठे नई वाली हिंदी के उपन्यासकार इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि पुराने उपन्यासों को पढ़ने से क्या होता है, ना तो उनमें भारतीय समाज होता है और ना ही शहरी जीवन दिखता है। गांव और कस्बों की कहानियों में उलझा रहा हिंदी उपन्यास। इस क्रम में उन्होंने प्रेमचंद से लेकर रेणु और मोरवाल तक के नाम गिना दिए। वो इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के उपन्यासों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उनकी कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। उत्तेजना में तो वो यहां तक कह गए कि परंपरा आदि बेकार की बातें हैं और ये सब कोर्स के लिए ठीक हो सकती हैं, साहित्य के लिए नहीं। मामला उलझता इसके पहले ही संवादकर्ता ने बहुत चतुराई से विषय बदल दिया। लेकिन मेरे दिमाग में उनकी बात अटकी रह गई।

कुछ दिनों बाद एक अन्य साहित्य उत्सव में कविता पर हो रही एक चर्चा सत्र में बैठा कवियों को सुन रहा था। वहां भी इस बात की चर्चा होने लगी कि आज के कवियों को हिंदी कविता की परंपरा का ज्ञान है या नहीं। छह प्रतिभागी थे जिनमें से अधिकतर की ये राय थी कि परंपरा हमको रचना सिखाती है। यहां भी एक युवा कवि एकदम से ये मानने को तैयार नहीं थे कि परंपरा से साहित्य सृजन का कोई लेना देना है। वो यहीं पर नहीं रुके बल्कि आत्मप्रशंसा में जुट गए कि वो कितने महान हैं। उनकी कविताएं इंटरनेट ममीडिया पर कितनी लोकप्रिय होती हैं। उनको हजारों लाइक्स मिलते हैं आदि आदि। इस पैनल में ही एक और युवा कवि था। वो बार बार कहने का प्रयास कर रहा था कि परंपरा हमें बहुत सिखाती है। हम परंपरा को अगर जान पाएं तो हमें कविताएं लिखने में, शब्दों के चयन में, कविताओं में भावों को अभिव्यक्ति करने में मदद मिलती है। इससे रचने में बड़ा लाभ होता है। पर दूसरा युवा कवि सुनने को तैयार नहीं था। वो तो बस परंपरा को ही नकार रहा था। जोश में तो यहां तक कह गया कि हमें निराला और पंत से सीखने की क्या जरूरत है। अगर हम उनकी कविताएं अधिक पढ़ेंगे तो उनके जैसे ही लिखने लग जाएंगे, आदि आदि। इस सत्र की बातें सुनकर उपन्यास वाले सत्र का स्मरण हो उठा। सत्र के बाद ये सोचने लगा कि आज के कुछ युवा लेखक स्वयं को इतना महान क्यों समझते हैं। महान समझने को लेकर मैंने स्वयं को समझा लिया कि आत्मप्रशंसा हर अवस्था के लेखकों में पाई जाती है। यह विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन परंपरा का नकार क्यों। अपने पूर्वज लेखकों की कृतियों को लेकर उपेक्षा भाव क्यों। इस बात का उत्तर नहीं मिल पा रहा था। 

इसी साहित्य उत्सव में अपने एक मित्र से दोनों घटनाओं की चर्चा की और बुझे मन से पूछा कि साहित्य की युवा पीढ़ी के कुछ लेखक क्यों सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यवहार करते हैं। मित्र ने फटाक से कहा कि तुम नाहक इस बात को लेकर परेशान हो। जो लोग अपनी परंपरा को या पूर्वज लेखकों को नकारते हैं उन्हें न तो अपनी परंपरा का ज्ञान होता है और ना ही उन्होंने पूर्वज लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा है। आप इसको इस तरह से समझिए कि ज्ञान तो सीमित होता है जबकि अज्ञान असीमित होता है। जो चीज असीमित होती है उसके बारे में सोचकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। परंपरा को समझने और उसको अपनी रचनाओँ में बरतने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है। परंपरा से जुड़े लेखन का संपूर्ण अध्ययन आवश्यक ना भी हो लेकिन उससे परिचय तो होना ही चाहिए। उन्होंने एक वाकया बताया। कुछ दिनों पहले महिला दिवस पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसका विषय था – रामचरितमानस और स्त्रियां। एक से एक धुरंधर वक्ता उसमें उपस्थित थीं। उनमें से एक ने बहुत जोशीला भाषण दिया। इसी क्रम में श्रीराम को सीता को त्यागने को लेकर कठघरे में खड़ा करने लगीं। एक श्रोता अचानक खड़े हो गए, कहा कि आपने ये कहां पढ़ लिया कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया था। उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब विषय ही रामचरितमानस है तो और कहां पढेंगी, वहीं पढ़ी है पूरी कहानी। इसपर श्रोता ने उनको आड़े हाथों लेते हुए खूब खरी खोटी सुना दी। कहा कि रामचरितमानस तो प्रभु श्रीराम  के राज्याभिषेक के साथ समाप्त हो जाता है। उसके बाद कागभुसुंडि और गरुड़ जी का संवाद है जिसको विद्वान मानस वेदांत कहते हैं। पर वो महिला नहीं मानीं। 

इन प्रसंगों को सुनने के बाद ये लगा कि हमारे समाज में भांति भांति के लोग हैं। भांति-भांति की भ्रांतियां हैं। इतिहास से लेकर साहित्य तक में भ्रम की स्थिति बनाई गई। इन्हीं भ्रम और भ्रांतियों का जब अज्ञान से मिलन होता है तो उससे अहंकार का जन्म होता है। यही अहंकार परंपरा को नकारता है। रचनात्मकता को कुंद करता है। हर दौर में इस प्रकार की घटनाएं होती होंगी परंतु इंटरनेट मीडिया के इस दौर में इस तरह की घटनाएं अधिक होने लगी हैं। युवा रचनाकार अपनी थोड़ी सी प्रशंसा पर स्वयं को निर्मल और अज्ञेय मानने लगते हैं। आज स्वयं को दिनकर और निराला से श्रेष्ठ मानने वाले कई कवि आपको फेसबुक पर नजर आएंगे। उनकी श्रेष्ठता बोध का आधार फेसबुक के लाइक्स हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी परंपरा को पहचानें, अध्ययन करें और स्वयं को उस परंपरा में रखकर देखें कि हम कहां हैं, अन्यथा इतिहास के बियावान में खोते समय नहीं लगता। 


Sunday, March 30, 2025

रजतपट की पहली रानी


कौन जानता था कि 1933 के उत्तरार्ध में लंदन से भारत आनेवाले दो युवा भारतीय हिंदी फिल्मों की दिशा बदलनेवाले साबित होंगे। ये दोनों थे हिमांशु राय और देविका रानी। हिमांशु राय और देविका रानी ने ना केवल भारत में फिल्म स्टूडियो की नींव रखी बल्कि उनको व्यावसायिक तरीके से चलाया भी। बांबे टाकीज ने हिंदी फिल्मों को कई चमकदार सितारे दिए। एक तरफ जहां हिमांशु राय ने अशोक कुमार के अंदर फिल्म अभिनेता बनने की संभावनाएं देखीं। उनको अपनी फिल्म में काम देकर सफलतम अभिनेताओं में एक बनने का अवसर प्रदान किया। वो अशोक कुमार जिनकी मां ने उनको लड़कियों से दूर रहने की हिदायत दी थी, वो अशोक कुमार जो अपनी पहली फिल्म में अपनी अभिनेत्री के गले में हार नहीं पहना पा रहे थे क्योंकि वो इस बात पर नर्वस थे कि हीरोइन उनको छू न दे। इसी तरह से देविका रानी ने हिंदी फिल्म को दिलीप कुमार जैसा अभिनेता दिया। अपने पति हिमांशु राय के निधन के बाद देविका रानी बांबे टॉकीज चला रही थीं। फिल्म ‘किस्मत’ को लेकर अशोक कुमार और अमिय चक्रवर्ती में विवाद हुआ और अशोक ने बांबे टॉकीज छोड़ दिया। ये बांबे टॉकीज के लिए बड़ा झटका था। जब अशोक कुमार बांबे टॉकीज छोड़ गए तो देविका रानी किसी नए हीरो की खोज में जपुट गईं। कई जगह इस बात की चर्चा मिलती है कि देविका रानी ने दिलीप कुमार को नैनीताल के फल मार्केट में देखा। वहीं उनको मुंबई में मिलने को कहा। परंतु दिलीप कुमार अपनी आत्मकथा, ‘द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में अलग ही कहानी बताते हैं। एक दिन बांबे (अब मुंबई) के चर्चगेट पर उनकी भेंट मनोविज्ञानी डा मसानी से होती है। बातों बातों में डा मसानी ने बताया कि वो बांबे टॉकीज की मालकिन से मिलने जा रहे हैं। दिलीप कुमार जो तब युसूफ खान थे, मसानी के साथ हो लिए। मसानी ने युसूफ खान का परिचय देविका रानी से  करवाया और साथ लाने का उद्देश्य बताया। देविका रानी ने युसूफ से पूछा क्या आप उर्दू जानते हैं। फिर पूछा कि क्या आप सिगरेट पीते हैं और अगला प्रश्न था कि क्या कभी अभिनय किया है।  सभी उत्तर सुनने के बाद देविका रानी ने पूछा कि क्या आप अभिनय करना चाहते हैं। जवाब आया हां। देविका रानी ने युसूफ खान के सामने 1250 प्रतिमाह के वेतन का प्रस्ताव दे दिया। उनको इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि 1250 प्रतिमाह वेतन मिलेगा। ये वो समय था जब हीरो मासिक वेतन पर काम किया करते थे। अगले दिन जब वो काम पर पहुंचे तो देविका रानी ने युसूफ खान का नाम बदलने का प्रस्ताव किया। उन्होंने युसूफ खान के सामने तीन नाम रखे- जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार। देविका रानी को दिलीप कुमार नाम पसंद था क्योंकि ये अशोक कुमार से मिलता जुलता था। जाहिर सी बात है कि दिलीप कुमार के नाम पर ही सहमति बनी। 

लंदन से भारत लौटने के तीन साल बाद देविका रानी ने अशोक कुमार के साथ अछूत कन्या फिल्म की। स्वाधीनता संग्राम के इस दौर में अस्पृश्ता पर गांधी निरंतर प्रहार कर रहे थे। ऐसे समय में अछूत कन्या फिल्म ने इस विमर्श को बल दिया। माना जाता है कि देविका रानी के अभिनय के कारण ये फिल्म बेहद सफल रही थी। आज भी इसको क्लासिक फिल्म माना जाता है। कुछ फिल्म समीक्षकों ने तो देविका रानी के इस रोल की तुलना ग्रेटा गार्बो के अभिनय से की थी। ये अकारण नहीं है कि देविका रानी को हिंदी फिल्मों में वही रुतबा हासिल है जो हालीवुड में ग्रेटा गार्बो को है। इस फिल्म की एक और विशेषता रही है। इसमें देविका रानी और अशोक कुमार ने गाना भी गाया है। इन्होंने अलग अलग भी अपने गाने गाए और देविका रानी और अशोक कुमार का एक युगल गीत भी है, मैं बन की चिड़ियां...। इस गाने की रिकार्डिंग के समय काफी दिक्कत हुई थी। अशोक कुमार और देविका रानी को जिस तरह से म्यूजिक डायरेक्टर सरस्वती देवी गवाना चाहती थीं वो हो नहीं पा रहा था। इसके अलावा 1937 में देविका रानी ने एक और फिल्म में अभिनय किया था जिसका नाम है सावित्री। इस फिल्म में भी देविका रानी का अभिनय उत्कृष्ट रहा। सावित्री और सत्यवान की कहानी हमारे देश के लोक में व्याप्त है। उस रोल को पर्दे पर सफलतापूर्वक निभाना बड़ी चुनौती थी। देविका ने वो चुनौती स्वीकार की। 1933 में पहली फिल्म कर्मा से आरंभ करें तो देविका रानी के खाते में 15 फिल्में हैं लेकिन बांबे टाकीज में हिमांशु राय के साथ उनका काम बहुत महत्वपूर्ण है। देविका रानी ने स्वभाव से बेहद बिंदास और खुले विचारों की थीं। हिमांशु राय से प्रेम विवाह किया। बांबे टाकीज के दौरान एक साथी कलाकार के साथ उनका नाम जुड़ा। हिमांशु के निधन के बाद फिर उन्होंने विवाह किया और कुछ समय तक बांबे टाकीज को चलाया। उसके बाद कुछ दिनों तक मनाली में रहीं और फिर बेंगलुरू के पास अपने फार्म हाउस में अपना जीवन बिताया। जब दादा साहेब फाल्के पुर्साकर की स्थापना हुई तो पहले पुरस्कार के लिए देविका रानी का चयन हुआ। भारत सरकार ने उनको पद्मश्री से भी अलंकृत किया। 


Saturday, March 29, 2025

इतिहास में दौड़ते कल्पना के घोड़े


समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य रामजीलाल सुमन के राणा सांगा और बाबर पर संसद में दिए बयान पर बवाल मचा हुआ है। सुमन ने कहा था कि राणा सांगा ने बाबर को भारत पर हमले के लिए आमंत्रित किया। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि राणा सांगा को लेकर एक अभद्र टिप्पणी भी कर दी। इस बयान के बाद समाजवादी पार्टी और उसके सहयोगी दलों से समानुभूति रखने वाले बौद्धिकों ने इसको उचित ठहराना आरंभ कर दिया। चैटजीपीटी और एआई के सहारे ये साबित करने की कोशिश की जाने लगी कि इस प्रसंग का उल्लेख बाबर ने अपने संस्मरणों की किताब बाबरनामा में किया है। अनुदित बाबरनामा की प्रामाणिकता को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। आगे बढ़ने से पहले बाबरनामा के बारे में थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। बाबरनामा तुर्की भाषा में लिखा गया था। 1590 में अकबर के शासनकाल के दौरान अब्दुरर्हीम खानखाना ने इसका फारसी में अनुवाद किया। 1826 में इसका अंगेजी में अनुवाद हुआ जिसको लायडन और इर्सिकन ने किया। इसके बाद फ्रांसीसी भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ। ये सभी अनुवाद मूल से नहीं होकर फारसी से हो रहे थे। इसके बाद ए एस बेवरेज ने मूल तुर्की से अंग्रेजी में अनुवाद किया जो अपेक्षाकृत प्रामाणिक माना गया। मजे की बात ये है कि बाबरनामा में राणा सांगा का उल्लेख उस समय नहीं होता है जब बाबर भारत पर बार-बार आक्रमण कर रहा था। बाबरनामा में 1519 से लेकर 1525 तक की एंट्री नहीं है या वो उपलब्ध नहीं है। कुछ भाषा के अनुवाद में राणा सांगा का प्रसंग नहीं है लेकिन जिसमें है वो पुस्तक में बहुत बाद में आता है। जहां लिखा गया कि राणा सांगा ने बाबर के पास एक दूत भेजा था और कहा था कि आप उत्तर से आक्रमण करो हम पश्चिम से करेंगे। लेकिन इस दूत वाली कहानी की प्रामाणिकता पर कई इतिहासकार संदेह जता चुके हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रकाशित पुस्तक मध्यकालीन भारत, जिसकी भूमिका सैयद नुरुल हसन ने लिखी है, में इस बात का उल्लेख है कि- ‘तारीख के बारे में निश्चयपूर्वक भले ही न कहा जा सके पर यही वो समय था जब बाबर को राणा सांगा का आमंत्रण मिला था। इस आमंत्रण का उल्लेख केवल बाबर ने ही किया है और अन्य किसी साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती।‘ (पृ. 283) यही बात अन्य इतिहासकार भी करते रहे हैं। इतिहासकार जी एन शर्मा ने भी राणा के दूत वाली कहानी पर संदेह व्यक्त करते हुए अपनी पुस्तक मेवाड़ और मुगल सम्राट में लिखा है कि बाबर ने राणा सांगा को शक्तिशाली समझते हुए उनकी मित्रता और सहायता प्रात करने के लिए अपना दूत चित्तौड़ भेजा था। इनके अपने तर्क हैं। किस तरह से इतिहास को विकृत किया गया और भ्रामक अनुवाद के आधार पर तरह तरह की भ्रांतियां फैलाई गईं उसका उदाहरण भी इतिहास की पुस्तकों में उपस्थित है। इतिहासकार रोमिला थापर की एक पुस्तक है भारत का इतिहास। इसमें थापर लिखती हैं, केवल अफगानों ने ही बाबर को सहयाता नहीं दी, एक राजपूत राजा भी दिल्ली से राज्य करने का स्वप्न देख रहा था और उसने बाबर से संधि कर ली। चार पृष्ठ के बाद फिर से राणा सांगा और बाबर का उल्लेख रोमिला थापर करती हैं, ‘1509 में राणा सांगा मेवाड़ का राजा बना और दिल्ली की सत्ता का विरोध करने लगा...सांगा ने दिल्ली पर आक्रमण का विचार किया। सांगा ने इब्राहिम लोदी के विरुद्ध बाबर से मैत्री कर ली और इस बात पर सहमत हो गया कि जब बाबर दिल्ली पर उत्तर से आक्रमण करेगा तो वह दक्षिण और पश्चिम से कर देगा।‘ अब देखिए कैसे इतिहास को बदलने का खेल खेला जाता है। अगर बाबरनामा के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हम ये मान भी लें कि राणा सांगा ने बाबर के पास दूत भेजा था तो उससे ये कहां से सिद्ध होता है कि दोनों के बीच संधि और मैत्री हो गई जिसका दावा थापर कर रही हैं। संधि और मैत्री का अर्थ तो थापर को ज्ञात ही होगा। 

इस प्रसंग पर एक और इतिहासकार सतीश चंद्रा की राय देख लेते हैं। सतीश चंद्रा की लिखी ये पुस्तक लंबे समय तक ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ाई जाती रही है। वो लिखते हैं कि इसी समय बाबर को दौलत खां के पुत्र दिलावर खां ने भारत आने का निमंत्रण दिया और आग्रह किया कि वो इब्राहिम लोदी को सत्ता से हटाने में मदद करें क्योंकि वो तानाशाह है। अब इसकी जो अगली पंक्ति है वो बहुत महत्वपूर्ण है। सतीश चंद्रा लिखते हैं, ये संभव है कि इसी समय राणा सांगा का भी एक दूत बाबर के पास पहुंचा और उनको भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। अब इस पूरे वाक्य से एक इतिहासकार का छल सामने आ जाता है। सतीश चंद्रा के पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि राणा सांगा का दूत बाबर के पास पहुंचा था। संभव लगाकर उन्होंने पाठ्य पुस्तक में ये बात लिख दी। इस संभावित मुलाकात, जिसका कोई प्रमाण नहीं है, को वर्षों से ग्यारहवीं के विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा है। उनके मानस पर तथ्यहीन बात अंकित की जा रही है। इतिहास संभावनाओं के आधार पर नहीं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने तो इतिहास लेखन में भी साक्ष्य की अनदेखी करके एजेंडा को प्राथमिकता दी। इसी पुस्तक में सतीश चंद्रा जब खानवा युद्ध के बारे में लिखते हैं तो बताते हैं कि राणा सांगा की वीरता की कहानियां सुनकर बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरा हुआ था। सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए बाबर ने राणा सांगा के खिलाफ युद्ध को जेहाद घोषित किया। उसने युद्ध आरंभ करने के पहले शराब की सभी बरतनों को तोड़ डाला ताकि वो अपने सैनिकों को भरोसा दिला सके कि वो कट्टर मुस्लिम है और जेहाद के पहले शराब छोड़ रहा है। जिससे युद्ध के लिए बाबर को धर्म का सहारा लेना पड़ा हो उससे मैत्री और संधि कैसे हो सकती थी। वो भी चंद महीने पहले। कुछ मार्क्सवादी इतिहासकार ये तर्क देते हैं कि बाबर ने जब लोदी को पराजित कर दिया तो उसने भारत में रहने का निर्णय लिया। इससे राणा सांगा नाराज हो गए। क्या तथाकथित संधि में इस बात का उल्लेख था कि बाबर इब्राहिम लोदी को हराकर लौट जाएगा। रोमिला थापर जैसी इतिहासकार को ये भी बताना चाहिए था। 

हमारे देश के इतिहास के साथ स्वाधीनता के बाद के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतने तथ्यों को छिपाया और इतने तथ्यों को गढ़ा जिसने भारतीय इतिहास की सूरत और सीरत दोनों बिगाड़ दी है। आज हमारे देश के नायक पर संसद में अशोभनीय टिप्पणी की जा रही है तो उसके लिए ये इतिहासकार ही जिम्मेदार हैं। आज अगर भारत के मध्यकालीन इतिहास को लेकर भ्रम का वातावरण बना है तो उसके लिए भी अर्धसत्य लिखनेवाले ये इतिहासकार ही जिम्मेदार हैं। अगर आप 1946 में प्रकाशित नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया पढ़ लेंगे तो अनुमान हो जाएगा कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने मुगल आक्रांताओं को नायक बनाने का प्रयास क्यों किया। आज आवश्यकता है कि इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाए संभावनाओं के आधार पर नहीं। 


Sunday, March 23, 2025

तमिल को हिंदी नहीं अंग्रेजी से खतरा- शास्त्री


राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन निरंतर गैर हिंदी भाषी प्रदेशों पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रहे हैं। संसद में भी इस आरोप पर हंगामा हुआ और गृहमंत्री अमित शाह ने पलटवार करते हुए स्टालिन की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पर भाषा के नाम पर समाज में जहर घोलने का आरोप लगाया। शिक्षा मंत्रालय में एक भारतीय भाषा समिति कार्य करती है जो सभी भारतीय भाषाओं के प्रोन्नयन के लिए मंत्रालय को सुझाव देती है। हिंदी को लेकर उठ रहे विवादों के बीच शिक्षा मंत्रालय में भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष प्रो चमू कृष्ण शास्त्री से राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओं की स्थिति, हिंदी थोपने के आरोप और त्रिभाषा फार्मूले के क्रियान्वयन पर एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने उनसे बातचीत की।  

प्रश्न- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फर्मूला क्या है जिसको लेकर इतना विवाद हो रहा है? 

त्रिभाषा सूत्र सबसे पहले 1968 में आया था। उसको ही वर्ष 1986 की शिक्षा नीति में दोहराया गया जो कि वर्ष 2019 तक चला। त्रिभाषा सूत्र में फर्स्ट लैंग्वेज यानी पहली भाषा मातृभाषा, दूसरी भाषा अंग्रेजी, तीसरी भाषा हिंदी राज्यों में अन्य किसी राज्य की भाषा और अन्य अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा होती थी। त्रिभाषा का सारांश यह था। वर्ष 2020 में पहली बार त्रिभाषा सूत्र के बारे में यह कहा गया कि यह आगे भी प्रचलित रहेगा। हालांकि उसमें राज्यों व छात्रों की आकांक्षाएं, प्रादेशिक आवश्यकताएं और संविधानसम्मत प्रविधान को ध्यान में रखते हुए सभी राज्य अपना त्रिभाषा सूत्र का क्रियान्वयन करेंगे। एक तरह से इसे इतना लचीला बनाया गया, जिसमें कोई प्रिस्क्रिप्शन नहीं है। यानी किसी भी भाषा विशेष के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया। शिक्षा की दृष्टि से देखें तो स्वाधीन भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। 

प्रश्न- आपकी बातों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिभाषा फार्मूले में हिंदी की अनिवार्यता नहीं है? 

बिल्कुल नहीं। हिंदी की अनिवार्यता नहीं है परंतु साथ ही अंग्रेजी की अनिवार्यता भी नहीं है। यदि आप देखेंगे तो पाएंगें कि पूरे देश में हिंदी से ज्यादा यदि कोई एक भाषा पढ़ी जाती है तो वह अंग्रेजी है। दूसरी भाषा के रूप में पूरे देश में अंग्रेजी ही पढ़ाई जाती है। एक दृष्टि से अंग्रेजी की अनिवार्यता को भी खत्म किया गया। यह पहली बार हुआ। बेशक, त्रिभाषा फार्मूला नीति है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के लिए तीन साल तक नेशनल या स्टेट एजुकेशन बोर्ड और अन्य भागीदारों की मदद से कैरिकुलम फ्रेम वर्क (पाठ्यक्रम) बनाया गया। इसे स्कीम आफ स्टडीज कहते हैं। इस पर फिर तीन साल काम किया गया। वर्ष 2023 में नेशनल कैरिकुलम फ्रेमर्वक बना। इस स्कीम आफ स्टडीज में किसी भाषा विशेष का उल्लेख न करते हुए उसे समभाव तरीके से परिभाषित किया गया। एक नए सोच को सामने रखते हुए पहली, दूसरी और तीसरी भाषा की जगह आर-1, आर-2 और आर-3 शब्द  का प्रयोग किया गया। साक्षरता की शुरूआत रीडिंग से होती है...यानी पढ़ने से।  आर-1 में मातृभाषा या राज्य की भाषा को स्थान दिया गया। इसमें मातृभाषा और राज्य दोनों को रखा गया क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मातृभाषा और राज्य भाषा एक हो। दोनों अलग-अलग हो सकते हैं। आर-2 में आर-1 के अलावा कोई भी भाषा, आर-3 में आर-1 और आर-2 के अलावा कोई भारतीय भाषा। दरअसल, होता क्या था कि वर्ष 2020 से पहले बच्चे थर्ड लैंग्वेज के रूप में फ्रेंच, जर्मन या अंग्रेजी पढ़कर आगे निकल जाते थे। राज्यों में तो ऐसा नहीं हो पाता था, लेकिन  सीबीएएसई में इस तरह से किया जाता था। अब नई शिक्षा नीति के तहत ऐसा नहीं हो पाएगा। सबसे अहम यह है कि अब हर विद्यार्थी को दो भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से सीखनी होगी। अब बताइए, कि इसमें हिंदी कहां थोपी गई है ? वर्तमान सरकार ने सर्वसमावेशक, सार्वभौमिक व सार्वदेशिक भाषा नीति अपनाई है।

प्रश्न- आर-1, आर-2,आर-3 उत्तर प्रदेश और बिहार में कैसे लागू होगा? कौन कौन सी भाषाएं छात्र चुन सकते हैं। 

सिर्फ उप्र ही नहीं बल्कि हिंदी भाषी 10 राज्यो में यह चुनौती है। बिहार- उत्तर प्रदेश में मगधी, अवधी, भोजपुरी जैसी भाषा है। दरअसल, नई शिक्षा नीति के तरह बहुभाषिता को बढ़ावा देना ही प्राथमिकता है। अन्य प्रदेश की एक भाषा सीखना है। अब सवाल यह है कि यह कैसे सीखेंगे? आनलाइन सीख सकते हैं। समर वेकेशन में अन्य राज्य में जाकर भाषा सीख सकते हैं। स्कूलों द्वारा 15 दिनों का क्रैश कोर्स शुरू किया जा सकता है। एक राज्य के स्कूल दूसरे राज्यों के स्कूलों से पेयरिंग कर सकते हैं। क्लस्टर बना सकते हैं। इसी तरह अंतरराज्यीय यानी कुछ दिनों के लिए वहां जाकर रहकर भी बच्चे एक भारतीय भाषा सीख सकते हैं। इससे आत्मीयता बढ़ेगी या एकता बढ़ेगी। 

प्रश्न- क्या यह व्यवहारिक है? संसाधन कहां से लाएंगे? उप्र, बिहार जैसे राज्यों में जहां शिक्षकों की भारी कमी है, वहां नई भाषा सीखाने के लिए शिक्षक कैसे मिलेंगे? 

ये सब हो जाएगा अगर इससे राजनीति निकल जाएगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर जितनी भ्रांतियां हैं उसको पहले दूर करना होगा। इस शिक्षा नीति में सबकुछ सुझाव मात्र है, सजेस्टिव है, निर्णय तो राज्य सरकारों को ही करना है, क्रियान्वयन भी।

प्रश्न- फिर इतना विरोध क्यों हो रहा है? हिंदी थोपने की बात कहां से आई?राष्ट्रीय  शिक्षा नीति में तो कहीं भी हिंदी शब्द तक का उपयोग नहीं किया गया? वह भी चार साल बाद इसके विरोध का क्या औचित्य? 

देखिए, राजनीति मेरा विषय नहीं है। मैं भाषाविद् हूं। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषा नीति को लेकर जो सोच है और इसको उन्होंने प्रकट भी किया है कि सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम के जरिये तमिल भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर लेकर आए। अब तक अलगाववादी ताकतों व विभाजनकारी सोच रखने वाले तत्वों द्वारा भाषा का उपयोग समाज और देश को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है। प्रधानमंत्री ने इसी भाषा को समाज व देश को आपस में जोड़ने का साधन बनाया। भाषाओं के बीच में जो आत्मीयता है, उसका उपयोग किया। उनका कहना है भारत में अलग-अलग भाषा बोलने वालों के बीच जो आत्मीयता है, यह आत्मीयता ही एकता का निर्माण करती है। विविधता सौंदर्य है, एकता शक्ति है। विविधता का सौंदर्य एकता की शक्ति के आधार पर ही सुदीर्ष काल जीवंत और विकसित रह सकता है। एकता की शक्ति के बिना यह विविधता टिक नहीं सकती है। आत्मीयता, विविधता और एकता...यही भारतीयता है। इससे ही लाखों सालों से भारत एक राष्ट्र के नाते अडिग रहा। भारत राष्ट्र के नाते सब प्रकार के विदेशी आक्रमणों को झेलते हुए भी एक रहा। सभ्यता पर आक्रमण के साथ-साथ वैचारिक आक्रमण भी हुआ। अब जब प्रधानमंत्री की भाषा नीति से एकता का सूत्र और सुदृढ़ हो रहा है, तो कुछ अलगाववादी तत्व भाषा को साधन बना रहे हैं। आने वाले समय में चुनाव भी होने वाले वाले हैं। हो सकता है विरोध का यही कारण हो। 

प्रश्न- आपने अभी तमिल संगमम का नाम लिया...कहा जाता है कि ये कार्यक्रम आपका ब्रेन चाइल्ड है? 

(हंसते हुए) नहीं...नहीं। ऐसा नहीं है। 

प्रश्न-आपने प्रधानमंत्री का नाम जरूर लिया, लेकिन कहा जाता है कि प्रस्ताव आपका था। सच्चाई क्या है? 

सच्चाई यही है कि विचार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इसे दिशा दिया और भारतीय भाषा समिति ने संयोजक के रूप में मैंने इसे क्रियान्वित किया। 

प्रश्न- क्या तमिल संगमम जैसे आयोजन से कोई फायदा हुआ? 

निश्चित रूप से लाभ हुआ। की के अलावा गुजरात के सौराष्ट्र में भी तमिल संगमम का आयोजन किया गया। दरअसल, लगभग 500 साल पहले गुजरात के जो लोग तमिलनाडु के जाकर बसे, वे सौराष्ट्री कहलाते हैं। उनके लिए आयोजन किया गया। 

प्रश्न- क्या श्रीनगर में भी भारतीय भाषाओं को लेकर आप लोगों ने कुछ किया था? 

जम्मू-कश्मीर सहित सभी राज्यों में भारतीय भाषा संगम कार्यक्रम किया था। इस आयोजन में उस राज्य में अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग एक दिन एक मंच पर एकत्रित होते हैं और अपनी-अपनी बात रखते हैं। इसके अलावा मोदी सरकार ने भारतीय भाषा उत्सव शुरू किया। महाकवि सुब्रह्रमणयम भारती के जन्मदिवस (11 दिसंबर) पर भारतीय भाषा उत्सव के रूप में मनाना शुरू किया। काशी विश्वविद्यालय में कवि सुब्रह्रमणय भारती के नाम से एक चेयर की स्थापना भी की गई। 

प्रश्न- तमिलनाडु सरकार को फिर क्या परेशानी है, सभी जगह अगर ऐसा होगा तो वहां भी होगा। 

देखिए, तमिलनाडु में वर्ष 1965-1968 से कभी न कभी हिंदी विरोध की आवाज उठती रहती है। सही मायने में मैं इसे हिंदी विरोधी नहीं बल्कि यह हिंदू समाज विरोधी आंदोलन कहना चाहूंगा। वह द्रविड़ राज्य बनाने का आंदोलन था। द्रविड़ अलग है...आर्य अलग है। इसको बढ़ावा देने के लिए वहां टू लैंग्वेज यानी द्विभाषा फर्मूला रखा गया। इसके तहत वे तमिल और अंग्रेजी ही पढ़ाते हैं। तमिलनाडु में 12 प्रतिशत लोग गैर तमिलभाषी है। यह 14 अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं। इससे समस्या यह होती है कि तमिलनाडु के 12 प्रतिशत विद्यार्थी अपनी मातृभाषा नहीं सीख पाते हैं। यह  बड़ा अन्याय है। दूसरी, बड़ी परेशानी यह है कि एक और भारतीय भाषा नहीं जानने के कारण यहां के युवा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगी परीक्षा और दूसरे राज्यों में नौकरी के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं से वंचित रह जाते हैं। तीसरी परेशानी, तमिलनाडु से अलग-बगल के राज्यों में काम करनेवाले मजदूरों को भाषा की परेशानी होती है। वहीं, दूसरे राज्यों से यहां आने वाले कर्मचारियों व मजदूरों के बच्चे भी अपनी भाषा नहीं सीख पाते हैं। दरअसल, यह तमिलनाडु को देश के अन्य राज्यों से काटने का एक प्रयास है। भाषा के नाम पर अकारण विवाद खड़ा करके तमिनलाडु को एक अलग द्वीप बना रहे हैं। चेन्नई के 44 प्रतिशत गैर तमिलाभाषी हैं। उनके साथ अन्याय हो रहा है। केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र से सटे राज्यों की  सीमाओं पर सदियों से बसे गैर तमिलभाषी भी अपनी मातृभाषा पढ़ नहीं पा रहे हैं, सीख नहीं पा रहे हैं। 

प्रश्न - तो असली चुनौती क्या है? भारतीय भाषा समिति इसे कैसे देखती है?

देश में द्वि या त्रिभाषा फार्मूला से कहीं ज्यादा बड़ा व अहम मुद्दा है शिक्षा की 'माध्यम भाषा'। असली लड़ाई तो मातृभाषा माध्यम या भारतीय भाषा माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के बीच है। वर्ष 2011 में तमिलनाडु में बारहवीं में 65 प्रतिशत विद्यार्थी तमिल माध्यम में पढते थे। वर्ष 2021 तक यह आंकड़ा 54 प्रतिशत तक आ गया। अब यह घटकर 47 प्रतिशत हो गया। तमिल का नुकसान हिंदी की वजह से नहीं बल्कि अंग्रेजी माध्यम की वजह से हो रहा है। यही हाल पूरे देश का है। देशभर के प्राइवेट स्कूलों में 65 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। सरकारी, अनुदान प्राप्त और निजी स्कूलों को मिला लें तो आंकड़ा निकाले तो 35 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। हर साल डेढ़ से दो करोड़ विद्यार्थी मातृभाषा या राज्यभाषा से आंग्रेजी माध्यम में 'माइग्रेट' हो रहे हैं। मैं अपने परिवार का उदाहरण देता हूं। मेरे परिवार में हम लोग नौ भाई-बहन हैं। दो को छोड़कर शेष सात भाई-बहन के परिवारों में उनके बच्चे मातृभाषा में पढ़-लिख नहीं सकते हैं क्योंकि वह अंग्रेजी भाषा में पढ़े हैं। उनका सोचना, लिखना-पढ़ना सबकुछ अंग्रेजी भाषा में हो रहा है। वह अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा का एक प्रवाह है। हायर एजुकेशन और आइआइएम, आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान अंग्रेजी माध्यम से है। यह क्यों है ? इसलिए, क्योंकि इकोसिस्टम अंग्रेजी माध्यम में है। कोर्ट, प्रशासन, व्यापार, उद्योग, साइंस-टेक्नोलाजी सब जगह अंग्रेजी माध्यम में ही काम हो रहा है। एक गांव का बच्चा यदि चिप्स का एक पैकेट भी खरीदता है तो उसके सामने पैकेट पर अंग्रेजी में लिखा शब्द आता है। पूरा इको सिस्टम ही अंग्रेजी माध्यम के नीचे दबता जा रहा है। स्थिति भयावह है। 

प्रश्न- तो आगे रास्ता क्या है, कैसे और क्या करना होगा? 

अंग्रेजी के इकोसिस्टम को बदलकर भारतीय भाषाओं का इकोसिस्टम बनाना होगा।  

 प्रश्न- राष्ट्रीय शिक्षा नीति कब तक इम्प्लीमेंट हो सकेगा? पांच साल तो निकल गया है? 

कूरिकुलम फ्रेमवर्क बन रहा है। दो-तीन साल में क्रियान्वयन हो जाना चाहिए।   

 प्रश्न- क्या आपको नहीं लगता कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन धीमी गति से चल रहा है। 

देर इसलिए हो रही है क्योंकि सभी को लेकर काम करना है। कांग्रेस की सरकार के दौरान सबको लेकर चलना जरूरी नहीं होता था,लेकिन वर्तमान सरकार में सभी को साथ मिलाना जरूरी है। सिर्फ पाठ्यक्रम बदलना ही काम नहीं है बल्कि मानसिकता बदलना भी जरूरी है। इसमें भारतीय दृष्टिकोण और उस विषय में भारतीय इतिहास को जोड़ना है। इस पाठ्यक्रम के आधार पर जो पढ़कर आगे बढ़ेंगे, वह भारत की जड़ों से जुड़ेंगे। इसलिए समय लग रहा है। अभी तक समझाया गया कि भाषा और संस्कृति अलग-अलग है, लेकिन ऐसा नहीं है। भाषा और संस्कृति एक ही है। उनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। मूल तत्व एक है। यह भी पढ़ाना है। अब तक जो-जो गलत सिखाया गया, उसे भी सुधारना है। 

प्रश्न-यानी भाषा के साथ-साथ संस्कृति से जोड़ना ही उद्देश्य है?   

बिलकुल। कर्नाटक के गांव में आज भी एक व्यवस्था है। वहां खाने से पहले व्यक्ति घर के सामने खड़े होकर कहते हैं कि गांव में कोई भूखा है तो वह हमारे घर पर आकर खाना खाएं। यह पंरपरा आज भी कुछ जगहों पर हैं। यह जीवन व्यवस्था में लाना है।   

प्रश्न- भाषा के विकास के लिए क्या करना चाहिए? 

इसके लिए सात चीजें जरूरी है। उस भाषा में बोलने वाले लोग हों, माध्यम भाषा के रूप में प्रयोग हो,.समकालीन शब्द निर्माण, एडाप्टेशन आफ टेक्नोलाजी, टीचींग-लर्निंग, सर्टिफिकेशन और पैट्रनेज (स्टेट या कार्पोरेट)। एडाप्टेशन आफ टेक्नोलाजी की जरूरत को इस तरह से समझा जा सकता है कि दुनिया में 6000 भाषाएं थीं, लेकिन जिनका उपयोग प्रिटिंग में नहीं हुआ, वह खत्म हो गए। सर्टिफिकेशन से आशय यह है कि अंग्रेजी की प्रोफेशिएंसी (योग्यता) परीक्षण के लिए टोफेल की परीक्षा होती है, लेकिन भारतीय भाषाओं के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है। इन सात आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हर राज्य में बहुभाषिता को बढ़ना देना चाहिए।  हिंदी राष्ट्रभाषा है ऐसा मानकर लड़ रहे हैं। जबकि प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषा हैं। दरअसल, भाषाओं को अलग-अलग वर्गों में बांटकर बहुत नुकसान पहुंचाया गया।