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Saturday, May 4, 2024

अमेठी से जीत का नहीं था भरोसा


लोकसभा चुनाव के दौरान अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी की घोषणा को लेकर अनिश्चितता नामांकन के अंतिम दिन दूर हुई। कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी रायबरेली से कांग्रेस के उम्मीदवार बने। प्रियंका गांधी वाड्रा के चुनाव लड़ने पर भी कयास लगाए जा रहे थे लेकिन चुनावी रण से दूर रहेंगी। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने राहुल गांधी पर अमेठी का रण छोड़ने का आरोप लगाया। प्रियंका गांधी वाड्रा के बारे में ये कहा गया कि वो कांग्रेस की स्टार प्रचारक हैं, पूरे देश में पार्टी का प्रचार करना है, इस कारण वो चुनाव नहीं लड़ रही हैं। इस पूरे प्रकरण के दौरान कई ऐसी बातें आईं जिनके बारे में विचार करना आवश्यक है। तथ्यों को देखना भी। निरंतर ये कहा जाता रहा है कि रायबरेली और अमेठी गांधी परिवार का गढ़ है। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि रायबरेली कांग्रेस पार्टी का गढ़ तो हो सकता है लेकिन गांधी परिवार का नहीं। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हारी थीं। उसके बाद के चुनाव में उन्होंने दक्षिण भारत की मेडक और रायबरेली सीट से चुनाव लड़कर जीत हासिल की। फइर रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया। अब फिर से प्रश्न उठ रहा है कि अगर राहुल गांधी भी रायबरेली और वायनाड, दोनों क्षेत्र से चुनाव जीत जाते हैं, तो वायनाड को प्राथमिकता देंगे या रायबरेली को। केरल में दो वर्ष बाद विधानसभा का चुनाव होना है और अगर राहुल गांधी केरल के वायनाड की सीट से जीतने के बाद इस्तीफा दे देते हैं तो उसका असर उस चुनाव पर पड़ सकता है। कांग्रेस को लगातार दो बार केरल के विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा है। आगामी चुनाव को लेकर कांग्रेस को बड़ी उम्मीदें हैं। अगर वो वायनाड को प्राथमिकता देते हैं तो उसका असर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के भविष्य पर पड़ेगा। राहुल गांधी के सामने ये संकट है। देश का राजनीतिक इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के लिए उत्तर प्रदेश में बेहतरीन प्रदर्शन करना आवश्यक होता है। इसका कांग्रेस क्या उत्तर ढूंढती है ये देखना दिलचस्प होगा। 

अब बात अमेठी की। अमेठी से राहुल गांधी तीन बार सांसद निर्वाचित हुए। 2019 में स्मृति इरानी से पराजित हो गए। कई राजनीतिक पंडितों और कांग्रेस समर्थक विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी ने अमेठी को छोड़कर स्मृति इरानी की महत्ता को कम कर दिया। अब यहीं से निष्कर्ष दोषपूर्ण हो जाता है। स्मृति इरानी दो दशक से अधिक समय से राजनीति में सक्रिय हैं। पिछले दस वर्षों से वो कैबिनेट मंत्री हैं। उसके पहले भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रह चुकी हैं। दो बार पार्टी की राष्ट्रीय सचिव रही हैं। उनका एक सफल करियर रहा है। राहुल गांधी को एक बार पराजित कर इतिहास बना चुकी हैं। 2019 में जब राहुल गांधी पराजित हुए थे तब वो कांग्रेस पार्टी के अखिल भारतीय अध्यक्ष थे। स्मृति इरानी को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को हराने का गौरव भी हासिल है। राहुल गांधी के अमेठी से चुनाव नहीं लड़ने से उनकी अबतक बनी महत्ता कम नहीं होने वाली है। दोषपूर्ण निष्कर्षों से आगे जाकर हमें तथ्यों और आंकड़ों पर बात करनी चाहिए कि राहुल गांधी ने अमेठी का रण क्यों छोड़ा। राहुल गांधी पहली बार अमेठी से 2004 में सांसद बने। इस चुनाव में उनको दो लाख 90 हजार से अधिक वोटों से जीत मिली। 2009 में जीत का अंतर तीन लाख सत्तर हजार वोटों तक पहुंच गया। पर 2014 में जब स्मृति इरानी पहली बार अमेठी पहुंचीं तो उनके जीत का अंतर घटकर एक लाख सात हजार रह गया। जबकि स्मृति को करीब तीन सप्ताह का समय मिला था। 2019 में राहुल 55 हजार वोटों से हार गए। पिछले दो चुनावों में उनको मिलनेवाले मतों की संख्या कम हुई। इतना ही नहीं 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अमेठी संसदीय क्षेत्र के पांच विधानसभा क्षेत्रों में से कांग्रेस एक पर भी जीत हासिल नहीं कर पाई। चार सीटें भारतीय जनता पार्टी को और एक समाजवादी पार्टी को मिली। 2022 के विधानसभा चुनाव में अमेठी लोकसभा के पांच विधानसभा क्षेत्रों में तीन पर भारतीय जनता पार्टी और दो पर समाजवादी पार्टी को जीत मिली। समाजवादी पार्टी के एक विधायक अब भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। इस विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में कांग्रेस को मिले वोटों का प्रतिशत बहुत ही कम रहा, जबकि प्रियंका गांधी की देखरेख में वहां चुनाव हुए थे। 

एक और तथ्य की बात करना आवश्यक है जिसने अमेठी से राहुल की उम्मीदवारी टाली गई। जब 2019 के संसदीय चुनाव में राहुल गांधी अमेठी से पराजित हुए तो उसके बाद वो इस क्षेत्र के दौरे पर बहुत ही कम गए। चुनाव के समय वहां उनकी उपस्थिति पर मतदाताओँ के मन में स्वाभाविक तौर पर ये प्रश्न उठता कि इतने दिनों तक कहां थे। जबकि 2014 में पराजित होने के बाद स्मृति इरानी निरंतर अमेठी आती जाती रहीं। चुनाव हारने के 15 दिन के अंदर ही स्मृति इरानी अमेठी पहुंच गई थीं। राहुल गांधी अपने मतदाताओं के आसन्न प्रश्नों का उत्तर नहीं खोज पाने के कारण भी रायबरेली चले गए प्रतीत होता है। राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी कहना है कि कांग्रेस पार्टी ने जो आंतरिक सर्वे करवाया उसमें अमेठी से बहुत सकारात्मक रुझान कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में नहीं मिले। जबकि रायबरेली के मतदाता राहुल को लेकर उत्साहित होने का संकेत दे रहे थे। चर्चा तो ये भी रही थी कि प्रियंका गांधी वाड्रा को अमेठी से और राहुल को रायबरेली से प्रत्याशी बना दिया जाए। विश्लेषकों का आकलन है कि सोनिया गांधी की सीट से जो भी प्रत्याशी होता उसको सोनिया की राजनीति का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता। अगर रायबरेली से प्रियंका गांधी चुनाव लड़तीं तो संभव है कि ये संदेश जाता। सोनिया जी निरंतर राहुल गांधी के पक्ष में दिखती रही हैं। वो उनको ही आगे लाना चाहती हैं। अगर प्रियंका चुनावी राजनीति में आतीं तो पार्टी में एक और पावर सेंटर उभरने का खतरा था। दूसरे भारतीय जनता पार्टी का परिवारवाद का आरोप और गाढ़ा होता। रायबरेली से प्रियंका और वायनाड से राहुल गांधी जीत जाते तो परिवार के तीन लोग संसद के सदस्य होते। इन आरोपों से बचने के लिए भी प्रियंका को चुनाव नहीं लड़वाया गया। कुल मिलाकार अगर देखें तो राहुल के अमेठी से नहीं लड़ने के बहुत सारे कोण हैं। एक कोण जो बेहद महत्वपूर्ण है वो ये है कि स्मृति इरानी ने क्षेत्र में अपनी उपस्थिति से और वहां के मतदाताओं के साथ संवाद कायम करके अमेठी की जनता को गांधी परिवार के मोह से लगभग मुक्त कर दिया। अमेठी में ऐसे लोग अब कम ही हैं जो गांधी परिवार के साथ अपने रिश्तों को याद करते हुए आंख मूंदकर परिवार को वोट देते रहे हैं। राजीव गांधी के सांसद रहते तक तो क्षेत्र के लोगों से उनका मिलना जुलना था। राहुल गांधी के वहां आने के बाद से राजनीति को एक अलग ही तरह से चलाने का प्रयास हुआ। राजनीतिक संबंध रागात्मक न होकर प्रोफेशनल जैसे होने लगे। राजनीति कार्यकर्ताओं का स्थान प्रोफेशनल्स ने ले लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि संजय गांधी ने 1976 में जिस राजनीतिक संबंध की नींव अमेठी में रखी थी उसका अंत हो गया। किशोरी लाल शर्मा को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाने से स्मृति इरानी की राह आसान हो गई है। कांग्रेस के प्रत्याशी की छवि नेता की नहीं रही है। वो गांधी परिवार के सहयोगी के तौर पर जाने जाते हैं। व्यवस्थापक और राजनेता का अंतर तो मतदाता समझता ही है। 


Friday, May 3, 2024

फिल्म फेस्टिवल की रोचक कथा


कोरोना महामारी के दौरान फिल्मों के भविष्य को लेकर खूब चर्चा हुई। फिल्म के कई विशेषज्ञों ने सिनेमा हाल में फिल्मों के प्रदर्शन के अंत की आशंका भी जताई थी। इस तरह की तमाम आशंकाएं गलत साबित हुईं और भारतीय फिल्में न केवल पहले की तरह लोकप्रिय हुईं बल्कि पूरे देश में फिल्म संस्कृति और गाढ़ी हुई। फिल्मों की संस्कृति को मजबूत करने में फिल्म फेस्टिवल्स का बड़ा योगदान रहा है। दिल्ली में कई फिल्म फेस्टिवल्स होते रहे हैं। विश्व का सबसे बड़ा घुमंतू फिल्म फेस्टिवल का आयोजन पिछले ग्यारह वर्षों से दैनिक जागरण करता रहा है। जागरण फिल्म फेस्टिवल का आरंभ दिल्ली से होता है और देश के 18 शहरों में आयोजित होता है। दिल्ली में ओशियान फिल्म फेस्टिवल भी होता था। बीते कल (शुक्रवार) से दिल्ली में हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल का आरंभ हुआ है। गोवा में आयोजित होनेवाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (इफी) की शुरुआत मुंबई में हुई थी लेकिन उसी वर्ष दिल्ली में भी इसका आयोजन किया गया था। तब इस फेस्टिवल का आयोजन भारत सरकार के फिल्म प्रभाग ने किया था। दिल्ली में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल शुरु होने की भी एक दिलचस्प कहानी है। जब देश स्वाधीन हुआ तो उसके करीब एक वर्ष बाद 1948 में भारत सरकार ने फिल्म प्रभाग की स्थापना की थी। तब इसका काम भारत सरकार से जुड़े कार्यों के बारे में जनता को बताना था। महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचार चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘ 

फिल्म प्रभाग के चीफ प्रोड्यूसर थे मोहन भवनानी। वो दिल्ली में ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय के कार्यालय में बैठते थे। मोहन भवनानी जून 1951 में फिल्म विशेषज्ञों के एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पेरिस गए थे। ये कार्यक्रम यूनेस्को ने आयोजित किया था। उस कार्यक्रम में फिल्म फेस्टिवल के आयोजनों और उसके प्रभाव पर जमकर चर्चा हुई थी। वहां से लौटकर मोहन भवनानी ने भारत सरकार को फिल्म फेस्टिवल के आयोजन संबंधी एक प्रस्ताव दिया। उनके इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया। उस समय तय ये किया गया था कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के चार शहरों- बांबे (अब मुंबई), दिल्ली, कलकत्ता (अब कोलकाता) और मद्रास (अब चेन्नई) में करवाने का निर्णय हुआ। तय ये किया गया कि इनमें देशी विदेशी दोनों फिल्में दिखाई जाएंगी। दिल्ली में इस आयोजन को लेकर काफी तैयारियां की गई थीं। फिल्मी सितारों ने नईदिल्ली इलाके में रोडशो किया था। सितारों को देखने के लिए दिल्ली की सड़कों पर भारी भीड़ उमड़ी थी। कहीं-कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजकपूर और नरगिस के अलावा भी कुछ कलाकारों ने दिल्ली में आयोजित प्रथम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लिया था। दिल्ली में उस समय सिनेमाघरों की संख्या कम थी इस कारण कई जगहों पर अस्थायी टेंट लगाकर सिनेमाघर बनाए गए थे और प्रोजोक्टर पर फिल्में दिखाई गई थीं। दिल्ली में चार हजार दर्शकों के लिए अस्थायी सिनेमाघर तैयार किए गए थे। 21 फरवरी 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल का शुभारंभ किया था। इस समारोह में भाग लेनेवाले कलाकारों के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में विशेष भोज का आयोजन किया था और बताया जाता है कि राजेन्द्र बाबू पूरे समय उपस्थित रहे थे। उन्होंने दुनियाभऱ में फिल्मों के ट्रेंड के बारे में कलाकारों से बातचीत की थी। इस रात्रिभोज में उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री आर आर दिवाकर भी उपस्थित थे।

दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में अमेरिका, इटली, फ्रांस और रूस समेत 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था। अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मशहूर निर्देशक फ्रैंक कैपरा ने किया था। इसमें 40 फीचर फिल्में और करीब 100 गैर फीचर फिल्में प्रदर्शित की गई थीं। दिल्ली के दर्शकों ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स, मिरेकल इन मिलान और ओपन सिटी को खूब पसंद किया था। इस फिल्म फेस्टिवल में ही जापान के प्रख्यात फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा की फिल्म राशोमन भी दिखाई गई थी। कहा जाता है कि पहले फिल्म फेस्टिवल में ही बिमल राय ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स देखने के बाद ही उनके मन में दो बीघा जमीन बनाने का आयडिया आया। कहा तो ये भी जाता है कि इस फिल्म ने ही भारतीय फिल्मकारों को यथार्थवादी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। 

1952 में आयोजित फिल्म फेस्टिवल के बाद अपने देश में विदेशी फिल्मों को लेकर रुचि जाग्रत हुई। कई अन्य देशों के फिल्मों से परिचय होना आरंभ हुआ। अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की उस समय काफी चर्चा हुई थी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी दिल्ली के आयोजन में उपस्थित थे। बावजूद इसके दूसरे आयोजन में नौ वर्ष लगे और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण 1961 में आयोजित हो सका। फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण नईदिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित किया था। चार वर्षों के बाद फिर फेस्टिवल का आयोजन हुआ। फिर चार वर्षों के अंतराल पर दिल्ली के अशोक होटल में इसका आयोजन हुआ। इसके बाद फिल्म फेस्टिवल का आयोजन तीन चार वर्षों के अंतराल पर होता रहा। 1983 में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन दिल्ली के सीरीफोर्ट आडिटोरियम में हुआ था।  फिल्म फेस्टिवल देश के अलग अलग शहरों में हो रहा था। लंबे अंतराल के बाद दिल्ली में होता था तो दर्शकों के बीच काफी उत्सुकता रहती थी। दिल्ली में भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 34वां संस्करण अक्तूबर 2003 में आयोजित किया गया था। इसके बाद से केंद्र सरकार ने निर्णय लिया और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को प्रतिवर्ष गोवा में आयोजित किया जाएगा। तब से गोवा में आयोजित हो रहा है। दिल्ली में जागरण फिल्म फेस्टिवल, हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल और आईआईसी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होता है जिसमें दर्शकों को क्षेत्रीय और विदेशी फिल्में देखना का अवसर मिल जाता है।   

Saturday, April 27, 2024

पार्टी भक्ति से संदिग्ध साहित्यधर्मिता


इस वक्त देश में आम-चुनाव चल रहे हैं। दो चरणों के लिए मतदान संपन्न हो चुके हैं। चुनाव के बीच इंटरनेट मीडिया पर साहित्यकारों का एक खेमा जमकर राजनीति की बात करता है। खुद को कथित रूप से प्रगतिशील कहने और देश में धर्मनिरपेक्षता की वकालत करनेवाले लेखक दिन-रात राजनीति पर लिखते रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते रहते हैं। कुछ लेखक तो राजनीतिक दलों के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर खुद को प्रस्तुत करते हैं। उनके लेखन में वामपंथ का एजेंडा साफ दिखता है। यह अलग बात है जबसे जनता ने वाम दलों को नकार दिया है तब से तमाम वामपंथी लेखकों को कांग्रेस में भविष्य नजर आने लगा है। ऐसे लेखक भी कांग्रेस की जयकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना में जुटे रहते हैं। स्वयं को प्रगतिशील साबित करने की होड़ में बहुधा आलोचना की मर्यादा तोड़ते नजर आते हैं। फेसबुक, एक्स (पहले ट्विटर) और इंस्टा चूंकि स्वच्छंद इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स हैं, इसलिए वहां मर्यादाविहीन टिप्पणियां देखने को मिलती हैं। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा की जा चुकी है कि लेखक संगठनों, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, से जुड़े लेखक अपनी लेखन के लिए अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह जोहते रहते हैं। कहना न होगा कि इन संघों से जुड़े लेखक अपनी रचना में भी जबरन पार्टी के सिद्धांतों को ठूंसने का प्रयत्न करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि हिंदी का पाठक साहित्य से दूर होता जा रहा है। इन वामपंथी लेखक संघों से जुड़े लेखक जिन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक आदि हैं वो पत्रिकाएं भी संबंधित कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र नजर आता है। उसी तरह की कृतियों का चयन किया जाता है और उसपर एक खास वैचारिक दृष्टि से विचार करके उनको चर्चित करने का प्रयास किया जाता है। उन्हीं विषयों पर चर्चा की जाती है जिनमें भारतीय जनता पार्टी की आलोचना की संभावना हो। 

इंटरनेट मीडिया पर इन वामपंथी और कथित प्रगतिशील लेखकों की टिप्पणियों को देखते हुए 1974 में नामवर सिंह के लिखे एक लेख, प्रगतिशील साहित्य धारा में अंध लोकवादी रुझान, की पंक्तियों की याद आती है।  नामवर सिंह ने आज से पांच दशक पहले ये माना था कि वामपंथ से जुड़े लेखक पार्टी लाइन पर लेखन करते हैं। पचास वर्षों बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। नामवर सिंह ने तब लिखा था, भारत में इस समय तीन या चार कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और इनके अलावा भी अपने आपको मार्क्सवादी कहनेवाले कुछ समुदाय तथा व्यक्ति हैं, जिनमें से हर एक के पास कुछ न कुछ लेखक या तो संबद्ध हैं या सहानुभूति रखते हैं। इसलिए अपनी अपनी पार्टियों या समुदायों की राजनीतिक ‘लाइन’ के अनुसार लेखकों की राजनीतिक दृष्टि में भिन्नता स्वाभाविक है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि इन लेखकों से दलगत निष्ठा, प्रतिबद्धता या राजनीति से ऊपर उठने की बात कहना ज्यादती है। ऐसा कहने के पीछे नामवर सिंह का उद्देश्य चाहे जो रहा हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि वो ये स्वीकार कर रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों या मार्क्सवादी समुदायों से जुड़े लेखक राजनीतिक ‘लाइन’ पर लेखन कर रहे थे। नामवर सिंह ने अपने इस लेख में मार्क्सवाद को वैश्विक दृष्टि जरूर करार दिया लेकिन ऐसी कई बातें कह गए जो वामपंथी लेखकों की पोल खोल कर रख देते हैं। वो आगे कहते हैं कि एक निष्ठावान लेखक से उसकी राजनीति की साहित्यिक अंतर्वस्तु की मांग तो की ही जा सकती है क्योंकि एक लेखक के नाते उसका अपना कर्मक्षेत्र तो साहित्य ही है। विचित्र विडंबना है कि अधिकांश लेखक अपनी रराजनीति के अभीष्ट साहित्यिक रूपांतर में या तो असमर्थ हैं या फिर अनजान हैं। दरअसल इस समस्या के समाधान की उम्मीद अनेक निष्ठावान लेखकों को अपनी पार्टी के राजनीतिक नेताओं से है।...किसी समानधर्मा राजनीतिकर्मी तथा बुद्धिजीवी के अनुभव-ज्ञान का लाभ उठाना एक बात है, किंतु साहित्य के जिस क्षेत्र से उनका परिचय नही हैं उसके बारे में उससे समाधान की उम्मीद करना उसके साथ सरासर ज्यादती है। 

पता नहीं क्यों नामवर सिंह अपने वामपंथी कामरेडों पर इतने कुपित थे। उन्होंने यहां तक कह दिया कि राजनितिज्ञों से समाधान की उम्मीद करने से किसी लेखक की पार्टी-भक्ति भले ही प्रमाणित हो,उसकी अपनी सृजनशीलता और साहित्यधर्मिता संदिग्ध हो जाती है। राजनीति के पराश्रयी और राजनीतिक नेताओँ के पिछलग्गू लेखक ही इस दिशा में प्रवृत्त होते हैं। कोई स्वाभिमानी और सुबुद्ध साहित्यकार इस पराश्रयी वृत्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है। नामवर की इन टिप्पणियों से स्पष्ट हो रहा है कि वामपंथी लेखक पार्टी-भक्ति करते रहे हैं, राजनीतिक नेताओं के पिछलग्गू रहे हैं और उनकी साहित्यधर्मिता संदिग्ध है। पार्टी भक्ति करनेवाले वामपंथी लेखकों पर नामवर सिंह ने 1974 जो बातें कही थीं उसका कोई असर नहीं दिखता है। अब भी जो पुराने, नववामपंथी या वामपंथ में इंटर्नशिप कर रहे लेखक सभी इसी लीक पर चल रहे हैं। वामपंथ कमजोर हुआ। वामपंथ कांग्रेस का पिछलग्गू बना। तो इस श्रेणी के लेखक भी कांग्रेस के पिछलग्गू बनकर इंटरनेट मीडिया पर क्रांति (?) करने में जुट गए। इस तरह के लेखक देशी विदेशी लेखकों का नाम लेकर अपनी विद्ता से जनता को प्रभावित करना चाहते हैं लेकिन जिस तरह से हर जगह ये सेलेक्टिव होकर बात करते हैं, वैसे ही विदेशी लेखकों को उद्धृत करने में भी इसी सलेक्टिव प्रविधि का उपयोग करते हैं। ग्राम्शी के लिखे को उद्धृत करते हैं। ये कभी नहीं बताते कि उन्होंने कहा था कि ‘राजनीतिज्ञ साहित्य-कला की दुनिया में अपने समय की एक निश्चित सांस्कृतिक दुनिया के निर्माण के लिए दबाव डालते हैं।‘ स्वाधीनता के बाद से ही कम्युनिस्ट नेता हमारे देश में भी साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने तरह की सांस्कृतिक दुनिया बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें पहले सोवियत रूस से और बाद में चीन से दिशा निर्देश मिलते थे। उन दिशा निर्देशों के अनुसार उन्होंने कला जगत को अपने कब्जे में लिया। 

वामपंथी लेखकों के साथ दिक्कत ये रही है कि वो बहुधा अपनी रचनाओं में राजनीतिक परिवर्तन का नारा लगाते रहे हैं। उनके लिए विरोधी विचारधारा की सरकार और सत्ता हमेशा से दमन का माध्यम है। वो वैचारिक रूप से विरोधी सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाते रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता से लेकर संविधान के खतरे में होने तक का। राजनीतिक आरोपों में वो ऐसे फंसते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के पक्ष में बातें नहीं कर पाते हैं। कम्युनिस्टों ने हमारे देश के लेखकों को प्रगतिशील संज्ञा दी। साथ ही प्रगतिशीलता और क्रांति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि अधिकतर लेखक राजनीतिक बदलाव के पक्ष में रचनाएं लिखने लगे। होना यह चाहिए था कि वो समाज और संस्कृति को प्रभावित करनेवाली रचनाएं लिखते। ऐसी रचनाएं पाठकों के समक्ष रखते जिनसे पाठकों में भारत की संस्कृति के प्रति एक समझ बनती। भारत की सांस्कृतिक पहचान को गाढ़ा करनेवाली कहानियां, उपन्यास, कविताएं लिखी जाती। लेकिन हुआ इसके उलट। वामपंथी प्रगतिशील लेखकों ने खुद तो इस तरह की रचनाएं लिखी नहीं, जो लेखक इस तरह की रचनाएं लिख रहे थे उनको भी षडयंत्रपूर्वक हाशिए पर डाल दिया गया। कई बार अपमानित किया गया। योग्य लेखकों को सम्मान पुरस्कार से दूर रखा। लेखक संघों ने लेखकों के हितों में कोई कार्य किया हो ये ज्ञात नहीं है। वैचारिक संघर्ष की आड़ में ये दूसरे संघों से जुड़े लेखकों को नुकसान पहुंचाने में जुटे रहे। बेहतर होता कि ये लेखकों के हितों की रक्षा के लिए एकजुट होते। लेखकों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाते। पर ऐसा हो न सका। परिणाम लेखक संगठन भी अप्रसांगिक हो गए।  


Saturday, April 20, 2024

फिल्मों से निकलते साहित्यिक संदेश


फिल्मों में रुचि के कारण मित्रों से नई और पुरानी फिल्मों पर चर्चा होती रहती है। आपस में बातचीत करते रहते हैं कि कौन सी फिल्म या वेबसीरीज आई है, किसका ट्रीटमेंट कैसा है, संवाद कैसा है, कौन सी देखी जा सकती है। इसी क्रम में साइलेंस टू का नाम आया। बताया गया कि वो अमुक प्लेटफार्म पर उपलब्ध है। मैंने सोचा, मनोज वाजपेयी की फिल्म है, देख ली जाए। प्रशंसा भी हो रही थी कि अच्छी मर्डर मिस्ट्री है। इस फिल्म को देखने की इच्छा के साथ टीवी आन किया। अलेक्सा का बटन दबाकर कहा, साइलेंस टू। अलेक्सा सर्च करने लगा। चंद पलों में उसने साइलेंस टू को स्क्रीन पर उपस्थित कर दिया। फिल्म का पोस्टर लगा था और नीचे उसकी अवधि भी एक घंटे पचास मिनट उल्लिखित थी। मैंने उसको सेलेक्ट करके चालू कर दिया। फिल्म आरंभ हो गई। मनोज वाजेयी इस फिल्म में थे। कहानी अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की थी। मेंने देखना आरंभ कर दिया। कुछ अंतराल के बाद मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। मैंने उसको बंद किया और फिर अलेक्सा को बोला कि साइलेंट टू दिखाओ। वो फिर वहीं लेकर गया । मैं उसी फिल्म को देखने लगा। करीब पौने घंटे के बाद फिर मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। अपने मित्र को फोन करके कहा कि आपने नाम गलत बता दिया । थोड़ी नाराजगी भी दिखाई। उन्होंने फिर से कहा कि साइलेंस टू सर्च करिए और देखिए। अच्छी फिल्म है। मैंने फिर से देखा तो फिल्म के ऊपर छोटे अक्षरों में लिखा आ रहा था साइलेंस टू, मनोज वाजपेयी, प्राची देसाई। मैं फिर निश्चिंत हो गया और आगे देखने लगा। थोड़ी देर बाद ये समझ आ गया कि मैं साइलेंस टू नहीं बल्कि मनोज वाजपेयी की ही एक और फिल्म अलीगढ़ देख रहा था। तबतक एक घंटा देख चुका था। खैर...फिल्म पूरी देख गया। इस फिल्म ने दो सूत्र दे दिए जिसकी चर्चा यहां करना चाहता हूं। पहला तो ये कि अलेक्सा को भी धोखा दिया जा सकता है। किसी ने अलीगढ़ फिल्म के ऊपर साइलेंस टू का थंबनेल लगा दिया था। तकनीकी तौर फिल्म अलीगढ़ को यूट्यूब पर इस तरह से लगाया था कि साइलेंस टू सर्च करने पर वही फिल्म आए। स्तंभ लिखने के पहले एक बार फिर चेक किया। अब भी यही हो रहा था। दरअसल मुझसे गलती ये हो गई थी कि मुझे जी 5 प्लेटफार्म पर जाकर इस फिल्म को सर्च करना चाहिए था। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात साहित्य से जुड़ी है। अलीगढ़ फिल्म में प्रोफेसर सिरस (मनोज वाजपेयी) और युवा पत्रकार दीपू (राजकुमार राव) के बीच एक संवाद है। बुजुर्ग प्रोफेसर सिरस युवा पत्रकार दीपू से पूछते हैं कि अच्छा बताओ तुमने किन किन पोएट को पढ़ा है। उत्तर मिलता पोएट, अय्यो! ज्यादा कुछ तो नहीं पढ़ा है...शब्दों का जो खेल है वो सब ऊपर से चला जाता है। प्रोफेसर सिरस कहते हैं कि पोएट्री शब्दों में कहां होती है बाबा। कविता तो शब्दों के अंतराल में मिलती है, साइलेंसेज और पाजेज में होती है। लोग अपने हिसाब से उसका अर्थ निकालते रहते हैं। उम्र और मैच्युरिटी के हिसाब से। समझे। दीपू कहता है, समझा। इसके बाद दीपू उनकी कविता पुस्तक के बारे में पूछता है। प्रोफेसर सिरस बेहद गंभीर भाव भंगिमा में बोलते हैं, नैचुरली आजकल कविता खरीदता कौन है?  और तुम्हारे जेनरेशन के लोगों को तो पोएट्री की समझ ही नहीं है। वो तो हर चीज को किसी न किसी लेबल से चिपकाना चाहते हैं- फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। फिर दोनों की बात केस को लेकर आगे चलती रहती है। संवाद की उपरोक्त पंक्तियों को अगर समकालीन साहित्य के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करें तो काफी हद तक ये सही प्रतीत होती है। अगर प्रकाशकों की मानें तो कविता संग्रहों के खरीदार पहले की अपेक्षा में कम हुए हैं। कवियों को अपने संग्रह को प्रकाशित करवाने में संघर्ष करना होता है। समकालीन कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर से स्वयं मुझसे कहा कि उन्होंने एक कविता संग्रह तैयार किया था। उसको प्रकाशित करवाना चाहते थे लेकिन प्रकाशक तैयार नहीं हो रहे थे। उनके मुताबिक प्रकाशकों के तर्क थे कि कविता आजकल खरीदता कौन है। कविता के पाठक घट गए हैं। कई बार फिल्मों के संवाद में साहित्यिक यथार्थ उद्घाटित हो जाते हैं। 

कविता के अलावा प्रोफेसर सिरस ने जो एक और बात कही वो भी महत्वपूर्ण है। युवा पत्रकार को जब वो कहते हैं कि तुम्हारी पीढ़ी हर चीज को किसी न लेबल से चिपकाना चाहती है, फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। ऐसा लेबलीकरण इंटरनेट मीडिया पर साफ तौर देखा जा सकता है। अगर किसी ने फेसबुक पर कोई कविता पोस्ट की तो कमोबेश इसी तरह की प्रतिक्रिया अधिक मिलती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि कविता बिना पढ़े पोस्ट पर अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रशंसात्मक लेबलनुमा टिप्पणी कर देते हैं। यह तो हुई वो बात जो सतह पर दिखती है। प्रो सिरस के लेबल लगानेवाली बात के गंभीर निहितार्थ भी हैं। इस तरह की टिप्पणियों (लेबलीकरण) से खराब कविता लिखनेवालों को बढ़ावा मिलता है। उनको लगता है कि वो पंत और निराला के स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। तुकबंदी मिलाने और भावोच्छ्वास को कविता की तरह परोसनेवाले लेखकों का उत्साहवर्धन इतना हो जाता है कि इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर इस तरह की कविताएं बहुतायत में उपलब्ध होने लगती है। प्रशंसात्मक टिप्पणियों से उनको लगता है कि वो महान कवि हो गए हैं। अब उनकी कविताओं का संग्रह आना ही चाहिए। वो भावोच्छ्वास और तुकबंदी लेकर प्रकाशकों के यहां पहुंचने लगते हैं। कुछ प्रकाशक, दबाव या अन्य कारणों से संग्रह प्रकाशित भी कर देते हैं। इस तरह के संग्रह कविता के गंभीर पाठकों को भाते नहीं। परिणाम ये होता है कि वो बिक नहीं पाते और कविता को लेकर एक खराब धारणा बनने लगती है। 

इन प्रशंसात्मक लेबलों का एक और गंभीर नुकसान होता है। खराब कविता लिखकर भी प्रशंसा पाने वाले कवियों को ये लगता है कि आलोचकों की कोई भूमिका ही नहीं है। वो खुलेआम ये घोषणा करते नजर आते हैं कि पाठक उनकी कविताओं को पसंद कर रहे हैं तो आलोचकों की आवश्यकता क्या है। कवि और पाठक के बीच तीसरा क्यों ? आलोचकों के इस नकार का परिणाम आज युवा कवि ही सबसे अधिक झेल रहे हैं। संजय कुंदन, प्रेमरंजन अनिमेष, हेमंत कुकरेती की पीढ़ी की कविताओं पर तो कुछ आलोचकों ने विचार किया भी। उनकी कविताओं को रेखांकित किया। उनको साहित्य जगत में कवि रूप में स्थापित किया। इसके बाद की पीढ़ी के कवियों का क्या हुआ ?  इनके बाद की पीढ़ी का आलोचक नहीं होने के कारण अच्छे कवि भी रेखांकित नही हो पा रहे हैं। उनकी पहचान नहीं बन पा रही है। प्रोफेसर सिरस कह रहे हैं कि कविता शब्दों के अंतराल में उसके साइलेंस में होती है। इसी अंतराल और साइलेंस की कविता को उद्घाटित करने का कार्य आलोचक करते हैं। सामान्य लेबलीकरण से न तो अंतराल और न ही साइलेंस के अर्थ पाठकों के सम्मुख आ सकते हैं। आंत में प्रोफेसर सिरस अनुवाद की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहते हैं अनुवाद भी स्तरीय न होने के कारण कविता का रूप बिगड़ जाता है। यह स्थिति सिर्फ कविता की नहीं है। अधिकतर गद्य के अनुवाद भी स्तरहीन हो रहे हैं। सिनेमा को जो लोग सिर्फ मनोरंजन का माध्यम मानते हैं उनको सिनेमा के दृश्यों और संवादों से निकलते संदेशों को पकड़ना चाहिए। कई बार फिल्मों और उसके संवादों से जो संदेश निकलते हैं वो समकालीन रचनात्मकता या सामाजिक संदर्भों पर टिप्पणी होती है।  


Sunday, April 14, 2024

जा पर कृपा राम की होई


चुनाव प्रचार के दौरान मेरठ से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी अरुण गोविल की एक तस्वीर आई थी जिसमें वो श्रीराम की तस्वीर हाथ में लिए नजर आ रहे थे। कुछ लोगों ने उनकी इस तस्वीर पर आपत्ति जताई और उसको चुनाव प्रचार में धर्म का उपयोग बताना आरंभ किया था। ऐसा करनेवाले ये भूल गए कि उत्तर प्रदेश के एक उपचुनाव में अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को कांग्रेस ने राम और सीता की वेशभूषा में चुनाव प्रचार में उतारा था। कुछ ही दिनों पहले रामानंद सागर निर्मित सीरियल रामायण में इन दोनों ने राम और सीता की भूमिका निभाई थी। दरअसल राम और सीता या रामायण के पात्र धर्म नहीं हैं वो आस्था है। 1943 में भी जब विजय भट्ट निर्देशित फिल्म रामराज्य फिल्म आई थी तो लोगों ने उसमें राम और सीता की भूमिका निभानेवाले प्रेम अदीब और शोभना समर्थ को भी बहुत मान दिया था। वो जिधर निकल जाते थे उधर उनको देखने के लिए और उनको सम्मान देने के लिए आस्थावान भारतीयों की भीड़ उमड़ती थी। यह प्रभु श्रीराम और रामकथा में भारतीयों की आस्था ही है जिसने इस कथा के पात्रों को चुनाव में विजयश्री का हार पहनाकर भारतीय संसद में भेजा।

रामानंद सागर के सीरियल रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका चिखलिया जब 1987-88 में सड़कों पर आती थीं लोग उनको सीता मानकर उनके प्रति सम्मान प्रकट करते थे। आस्थावान भारतीयों की भीड़ उनको घेर लेती थी। रामानंद सागर के रामयण में सीता की भूमिका में उनका जो गेटअप था, या उनका जो अभिनय था या उनकी जो संवाद अदायगी थी या जिन प्रसंगों में वो वो टीवी स्क्रीन पर आती थी वो सभी दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ती थीं। वो रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था ही थी कि जब 1991 में दीपिका चिखलिया बडोदरा से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार बनीं तो जनता ने उनके सर पर जीत का सेहरा बांधकर लोकसभा भेजा। उस समय बडोदरा कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करता था। दीपिका ने बडोदरा राजघराने के रंजीत सिंह प्रताप सिंह गायकवाड़ को लोकसभा के चुनाव में पराजित किया था। यह रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था की जीत थी। राजनीति में आई दीपिका ने दिग्गज कांग्रेसी उम्मीदवार को न केवल परास्त किया बल्कि करीब 50 प्रतिशत वोट भी हासिल किया। 

आस्था से जीत का दूसरा उदाहरण रामायण सीरियल में रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी है जिनको जनता ने पसंद किया था। 1991 के चुनाव में ही अरविंद त्रिवेदी ने गुजरात के साबरकांठा से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर तुनाव लड़ा था। तब उनके खिलाफ महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी जनता दल के उम्मीदवार थे और जनता दल से टूटकर अलग हुए जनता दल(गुजरात) के उम्मीदवार मगनभाई पटेल थे। तीन वर्ष पहले ही रामायण सीरियल ने लोकप्रियता का नया कीर्तिमान स्थापित किया था। उस समय रामजन्मभूमि आंदोलन भी चल रहा था। लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी चुनावी मंच से गरजते थे कि राम की अवहेलना करने का परिणाम क्या होता है ये मुझसे बेहतर कौन जानता है तो जनता पर उसका प्रभाव पड़ता था। ये चुनाव परिणाम में दिखा और लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी ने जनता दल के प्रत्याशी राजमोहन गांधी को पराजित कर दिया। राजमोहन गांधी तीसरे नंबर पर रहे थे। रामायण में हनुमान का किरदार निभानेवाले दारा सिंह ने हलांकि कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन पहले कांग्रेस का समर्थन किया और जब अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष बने तो अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्मा के चलते उनका झुकाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ हुआ। सीमा सोनिक ने लिखा है कि अटल जी के कहने पर ही दारा सिंह ने 1998 के लोकसभा चुनाव में अभिनेता विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के लिए जमकर चुनाव प्रचार किया था। इन रैलियों में दारा सिंह रामायण सीरीयल में बोले गए हनुमान के संवाद दोहराते थे, उनके जैसी भाव भंगिमाएं बनाते थे। रैलियों में भारी भीड़ होती थी। बाद में भारतीय जनता पार्टी ने उनको राज्यसभा में भेजा था और वो 2003-09 तक सांसद रहे। 

लोक आस्था का ये रूप सिर्फ रामकथा को लेकर ही नहीं दिखता है। महाभारत सीरियल में श्रीकृष्ण की भूमिका निभानेवाले नीतीश भारद्वाज को भी जनता ने सम्मान दिया। यह श्रीकृष्ण में आस्था का ही परिणाम था कि जब नीतीश भारद्वाज ने 1996 में लोकसभा का चुनाव जीता था। नीतीश भारद्वाज ने झारखंड के जमशेदपुर से जनता दल के दिग्गज इंदर सिंह नामधारी को परास्त कर दिया था। श्रीरामकथा और श्रीकृष्णकथा में भारतीयों की प्रगाढ़ आस्था है। इसका प्रगटीकरण रील और रीयल दोनों में होता रहा है।