Translate

Saturday, November 1, 2025

धर्मांतरण की जुगत में उपराष्ट्रपति


भारत में आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर चर्चा होती है। कभी टैरिफ पर उनके बयान तो कभी आपरेशन सिंदूर रुकवाने के उनके दावे तो कभी प्रधानमंत्री मोदी को मित्र बताने पर तरह तरह की चर्चा होती है। पिछले दिनों अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस ने मिसीसिपी विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में अपनी पत्नी ऊषा वेंस के धर्म पर बयान दिया जिस पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई। एक प्रश्न के उत्तर में उपराष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी। जे डी वेंस की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हिंदू हैं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वेंस जब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भारत आए थे तो पति-पत्नी अक्षरधाम मंदिर गए थे। अमेरिका में भी वेंस और ऊषा के हिंदू रीति-रिवाजों को निभाते फोटो दिखते रहते हैं। विश्वविद्यालय में वेंस के इस बयान के बाद उनके कंजरवेटिव समर्थकों ने जमकर तालियां बजाईं। बाद में इंटरनेट मीडिया पर वेंस के इस बयान की आलोचना आरंभ हो गई। एक व्यक्ति ने तो उनको एक्स पर टैग करते हुए लिखा कि ये अफसोस की बात है कि आप अपनी पत्नी के धर्म को सार्वजनिक रूप से बस के नीचे फेंक कर कुचलना चाहते हैं। जब आलोचना बढ़ी तो उपराष्ट्रपति को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि फिलहाल ऊषा के धर्म परिवर्तन की कोई योजना नहीं है। साथ ही उम्मीद भी जता दी कि जिस तरह से वो चर्च की ओर प्रेरित हुए उसी तरह से एक दिन उनकी पत्नी भी चर्च की ओर जाने की राह पर बढ़ेंगी। आपको बताते चलें विवाह के पूर्व वेंस नास्तिक थे। दरअसल अमेरिका में अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर हमेशा से बहस चलती रही है। जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया है, तब से ये बहस और तेज है। वर्तमान सरकार के कई सदस्य प्रवासियों से ये अपेक्षा करते हैं कि वो अमेरिका और ईसाई धर्म से प्यार करें। 

अमेरिका कई बार भारत को धर्म और कथित धार्मिक कट्टरता को लेकर नसीहत देता रहता है। धार्मिक कट्टरता पर तो कई रिपोर्ट प्रकाशित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जारी भी करता रहा है। ट्रंप तो राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही ईसाई धर्म और बाइबिल को लेकर लगातार श्रद्धापूर्वक अपनी रैली में बोलते रहे हैं। यहां ये भी याद दिलाता चलूं कि जब अमरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार हो रहा था तो ट्रंप की रैलियों और सभाओं में लार्ड जीजस और जीजस इज किंग के नारे गूंजते थे। ट्रंप, एलन मस्क और जे डी वेंस ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के समय परिवार, शादी, बच्चे और ईसाई धर्म को आगे रखा था। उनके इस प्रचार ने अमेरिकी वोटरों को अपनी ओर खींचा था और कमला हैरिस परास्त हो गई थीं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इसको और बल मिला। चर्च और ईसाई धर्म से जुड़े लोग महत्व पाने लगे। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को उन्होंने प्राथमिकता देनी शुरु की। चार्ली किर्क ट्रंप के पारंपरिक वोटरों से संवाद करनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ईसाई धर्म और अमेरिकी माटी को लेकर आक्रामक तरीके से भाषण देते थे और लोगों को एकजुट करते थे। पिछले दिनों चार्ली किर्क की हत्या हो गई। चार्ली  हत्या के बाद ट्रंप के इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने वाला कोई बचा नहीं। कुछ दिनों पूर्व चार्ली किर्क की विधवा का बयान आया था। वो कह रही थीं कि चार्ली को रिप्लेस करनेवाला उनको कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चार्ली और जे डी वेंस में कई समानताएं हैं। बहुत संभव है कि चार्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने वेंस को चुना हो। अगले राष्ट्रपति चुनाव में जे डी वेंस स्वाभाविक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे में उनकी ईसाई धर्म समर्थक की छवि बनाने से लाभ होगा। उस समय उनके सामने उनकी पत्नी के धर्म को लेकर प्रश्न ना खड़े हों इस कारण से वेंस अभी से एक माहौल बनाना चाहते हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम से ये बात साबित भी हो गई कि अमेरिकी राजनीति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। 

इस पूरे प्रकरण से एक और बात सामने आती है वो ये कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं। अब अगर हम भारत की बात कर लें तो स्थिति बिल्कुल भिन्न नजर आती है।  भारत में तो कभी भी ना तो किसी राजनेता की पत्नी के धर्म के बारे में चर्चा होती है, ना ही जिज्ञासा और ना ही वोटरों को फर्क पड़ता है। राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से शादी की कभी किसी ने कोई आपत्ति उठाई हो या कभी राजीव गांधी ने उनपर हिंदू धर्म स्वीकार करने का दबाव बनाया हो, ऐसा सार्वजनिक तो नहीं हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी का विदेशी मूल भले ही मुद्दा बना लेकिन तब भी किसी ने ये नहीं पूछा कि वो हिंदू हैं या अब भी ईसाई ही हैं। जिस तरह से वेंस ने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्मी के धर्म परिवर्तन की बात कही वैसा तो भारत में सुना नहीं गया। विदेश मंत्री जयशंकर की पत्नी विदेशी मूल की हैं लेकिन उनके धर्म के बारे में ना तो किसी को कोई रुचि है और ना ही कोई जानना चाहता है। भारत के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन की पत्नी भी विदेशी रहीं, उन्होंने अपना नाम अवश्य बदला लेकिन उनके धर्म को लेकर भारत की जनता को कभी कोई आपत्ति हुई हो ऐसा ज्ञात नहीं है। अमेरिका खुद को बहुत आधुनिक और खुले विचारों वाला देश कहता है लेकिन धर्म को लेकर वहां के नेताओं के विचार बेहद संकुचित हैं। चुनाव में भी जिस तरह से धर्म का खुलेआम उपयोग वहां होता है वो भी देखनेवाली बात है। लेकिन जब दूसरे देशों को नसीहत देने की बात होती है तो सभी एकजुट हो जाते हैं।  

हम अमेरिकी समाज को देखें तो वहां आधुनिकता के नाम पर इस तरह की वितृतियां घर कर गई हैं कि वहां के मूल निवासी अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप ने शादी और बच्चों का मसला उठाया और उसको लोगों ने पसंद किया। ट्रंप और उनकी टीम लगातार परिवार व्यवस्था की बात करते रहते हैं और अमेरिकी उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं। अमेरिका में नास्तिकता की बातें बहुत पुरानी है और इसकी जड़े उन्नीसवीं शताब्दी में जाती हैं। जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों की विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी तब अमेरिका में भी चार्ल्स ली स्मिथ जैसे लोगों ने खुले विचारों के नाम पर नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य आरंभ किया। वहां की युवा पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित भी हुई। इक्कसीवीं शताब्दी तक आते आते फिर से धर्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। अब भी अमेरिका में नास्तिकता को बढ़ावा देनेवाले संगठन हैं लेकिन कमजोर हैं। हिंदू धर्म और उनके अनुयायियों जैसा सहिष्णु कहीं और नहीं है ये अमेरिकियों को समझना होगा। 

Saturday, October 25, 2025

बौद्धिकता की आड़ में राजनीति का खेल


हिंदी के कथाकार हैं शिवमूर्ति। कई अच्छी कहानियां लिखी हैं। कुछ दिनों पहले उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, सुबह देखा, रात 12 बजे फ्रांसेस्का जी का व्हाट्सएप-शिवमूर्ति जी, देखिए क्या गजब हो गया। दुम दबाकर लंदन जा रही हूं। पता नहीं अब कब आना हो पाएगा। फ्रांसेस्का की इस टिप्पणी के बाद शिवमूर्ति ने लिखा क्या कहूं? न कुछ कर सकता हूं न कुछ कह सकता हूं सिवा इसके कि बहुत शर्म आ रही है। शिवमूर्ति को जिसपर शर्म आ रही थी उसके कारणों की पड़ताल तो करनी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते ये अपेक्षा तो की जानी चाहिए कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उसकी वजह तो जान लेते, शायद शर्म ना आती। या शर्म बाद में शर्मिंदगी का सबब नहीं बनती। फ्रांसेस्का जो हिंदी विद्वान बताई जा रही हैं उन्होंने दुम दबाकर लंदन जाने की बात क्यों लिखी। दुम दबाना शब्द युग्म का प्रयोग तो भय या डर के संदर्भ में किया जाता है। शिवमूर्ति के लिखने के साथ साथ कई पत्रकारों ने भी एक्स पर पोस्ट किया। फ्रांसेस्का ओरसिनी को एयरपोर्ट से वापस लौटाने को लेकर भारत सरकार की आलोचना आरंभ कर दी। एक पूरा इकोसिस्टम सक्रिय हो गया। तरह तरह की बातें सामने आने लगीं। लोग कहने लगे कि इतनी बड़ी हिंदी की विदुषी को वीजा होते हुए एयरपोर्ट से लौटाकर भारत सरकार ने बहुत गलत किया। कुछ ने इसको सीएए से जोड़ा तो किसी ने गाजा पर इजरायल के हमलों पर फ्रांसेस्का के स्टैंड से। आगे बढ़ने से पहले फ्रांसेस्का ओरसिनी के बारे में जान लेते हैं। फ्रांसेस्का लंदन विश्वविद्यालय की स्कूल आफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज में प्रोफेसर हैं। हिंदी पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। भारत आती जाती रहती हैं। सेमिनारों में उनके व्याख्यान आदि होते रहते हैं। मैंने भी दिल्ली में एक बार उनको सुना है। हिंदी को लेकर उनका अपना एक अलग सोच है। वो हिंदी-उर्दू को मिलाकर देखने और साझी संस्कृति की बात करते हुए हिंदी का पब्लिक स्पीयर देखती हैं। उनकी पुस्तक है द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940। इसके बाद भी हिंदी को लेकर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ईस्ट आफ डेल्ही, मल्टीलिंगुअल लिटररी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर उनकी अन्य पुस्तक है।

फिलहाल प्रश्न उनके लेखन को लेकर नहीं उठ रहा है। सवाल इस बात पर उठाया जा रहा है कि फ्रांसेस्का को दिल्ली एयरपोर्ट से वापस क्यों लौटाया गया। सरकार की तरफ से ये जानकारी आई कि फ्रांसेस्का पहले पर्यटक वीजा पर कई बार भारत आ चुकी हैं। उस दौरान उन्होंने वीजा की शर्तों का उल्लंघन किया। सेमिनारों में व्याख्यान दिए और विश्वविद्यालयों में शोध कार्य किया। उनके उल्लंघनों को देखते हुए भारत सरकार ने उनको ब्लैकलिस्टेड कर दिया। पिछले दिनों जब वो चीन से एक सेमिनार में भाग लेकर भारत आना चाह रही थीं तो उनको एयरपोर्ट पर रोक दिया गया। इस बात को नजरअंदाज करते हुए फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर हो हल्ला मचाया जा रहा है। लंदन विश्वविद्लाय की प्रोफेसर होने से क्या किसी संप्रभु राष्ट्र के नियम और कानून में छूट मिलनी चाहिए। इस प्रश्न से कोई नहीं टकराना चाहता है। इससे ही मिलता जुलता एक मामला लंदन में भी चल रहा है। आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में भारतीय इतिहासकार मणिकर्णिका दत्त के ब्रिटेन में रहने पर खतरा मंडरा रहा है। मणिकर्णिका दत्त इंडेफनिटिव लीव (वीजा का एक प्रकार) पर लंदन में रह रही थीं। ब्रिटेन का नियम है कि इस वीजा के अंतर्गत वहां रहनेवाले वीजा अवधि में अपने शोध आदि के सिलसिले में 548 दिन ब्रिटेन से बाहर रह सकते हैं। मणिकर्णिका भारतीय इतिहास पर शोध कर रही हैं और इस क्रम में वो 691 दिन ब्रिटेन से बाहर रहीं। नियम का हवाला देते हुए ब्रिटेन सरकार ने उनके इंडेफनिटिव लीव को रद्द कर दिया। जबकि वो वहां ना सिर्फ नौकरी करती हैं बल्कि उनके पति भी वहां नौकरी में हैं। उनके अपील को भी खारिज कर दिया गया। मणिकर्णिका दत्त वाली घटना पर हमारे देश के वो बुद्धिजीवी खामोश हैं जो फ्रांसेस्का को भारत नहीं आने देने पर छाती पीट रहे हैं।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ्रांसेस्का के मसले पर एक्स पर पोस्ट किया कि प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी भारतीय साहित्य की विद्वान हैं जिनके कार्य ने हमें अपनी संस्कृतिक विरासत को समझने में मदद की। इसके बाद उन्होंने एक साक्षात्कार में मोदी सरकार को एंटी इंटलैक्चुअल घोषित कर दिया। ये जो शब्द एंटी इंटलैक्चुअल गढ़ा गया है उसका उपयोग कई अन्य एक्स हैंडल पर देखने को मिल रहा है। वैसे एक्स हैंडल जो एक विशेष इकोसिस्टम के सदस्यों के हैं। रामचंद्र गुहा को ये भी बताना चाहिए कि कैसे फ्रांसेस्का के कार्यों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझने में उनकी मदद की। फ्रांचेस्का अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि 1920-40 का कालखंड हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल है। इस कालखंड में कविता और गल्प के क्षेत्र में असाधारण रचनात्मकता देखने को मिलती है। वो इसी तरह की बात करते हुए इस कालखंड को हिंदी के विकास और खड़ी बोली के स्थापित होने का कालखंड मानती हैं। अगर इस कालखंड में गल्प और कविता में असाधारण कार्य हुआ तो फिर द्विवेदी युग में क्या हुआ? बाबू श्यामसुंदर दास ने क्या किया? प्रताप नारायण मिश्र जैसे कवियों ने जो लिखा वो सामान्य था? और तो और वो हिंदी की बात करते हुए तुलसी और अन्य मध्यकालीन कवियों को अपेक्षित महत्व नहीं देती हैं। अपनी पुस्तक द हिंदी पब्लिक स्पीयर 1920-1940, में जर्मन स्कालर हेबरमास की पब्लिक स्पीयर के सिद्धांतो को स्थापित करती हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो कितना सटीक है इसपर चर्चा होनी चाहिए।

हिंदी और उर्दू को एक पायदान पर रखने के कारण फ्रांचेस्का एक इकोसिस्टम की चहेती हैं जो गंगा-जमुनी संस्कृति की वकालत करती है। उनको प्रोफेसर मौलवी वहीउद्दीन की पुस्तक वजै-इस्तलाहात (परिभाषा निर्माण) को देखना चाहिए जहां लेखक कहता है उर्दू जिस जमीन पर खड़ी है, वह जमीन हिंदी की है। हिंदी को हम अपनी जबान के लिए उम्मुलिसान (भाषा की जननी) और हमूलाए-अव्वल (मूल तत्व) कह सकते हैं। इसके बगैर हमारे जबान की कोई हस्ती नहीं है। इसकी मदद के बगैर हम एक जुमला भी नहीं बोल सकते। जो लोग हिंदी से मुहब्बत नहीं रखते वे उर्दू जबान के हामी नहीं हैं। फारसी, अरबी या किसी दूसरी जबान के हामी हों तो हों। इन बातों को ध्यान में रखते हुए फ्रांचेस्का के निष्कर्षों पर लंबी डिबेट हो सकती है लेकिन वो हमारी संस्कृति को समझने में मदद करती हो इसमें संदेह है।

विद्वता चाहे किसी भी स्तर की हो लेकिन वीजा के नियमों में छूट तो नहीं ही दी जा सकती है। ना ही इस एक घटना से मोदी सरकार एंटी इंटलैक्चुअल हो सकती है। मोदी सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी लगा था। पुरस्कार वापसी का संगठित अभियान योजनाबद्ध तरीके से चला था। बाद में सचाई सामने आ गई थी। बिहार विधानसभा चुनाव चल रहा है और असहिष्णुता को एंटी इंटलैक्चुअल ने रिप्लेस कर दिया है। पर कहते हैं ना कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इति !

 

Saturday, October 18, 2025

पीआर से चक्रव्यूह में हिंदी फिल्म


कुछ दिनों पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा के साथ अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की एक तस्वीर सार्वजनिक हुई। अवसर था दीपिका पादुकोण को केंद्र सरकार के मेंटल हेल्थ एंबेसडर नियुक्त करने का। इस तस्वीर को देखते हुए दीपिका की ही एक और तस्वीर याद आई। वो तस्वीर आज से करीब पांच वर्ष पूर्व की थी। उसमें दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के मध्य उनको समर्थन देने पहुंची थी। वो आंदोलन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्लाय में लेफ्ट समर्थित छात्र संगठनों का था। आंदोलनकारी मोदी सरकार के विरोध में थे। इस तस्वीर की याद आते ही मन में प्रश्न उठा कि सिर्फ पांच वर्षों में ये बदलाव कैसे। जो दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करने पहुंची थी उसको भारत सरकार ने मेंटल हेल्थ का अंबेसडर क्यों बना दिया। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अपने साथियों से बात कर ये जानने का प्रयास किया कि क्या दीपिका पादुकोण के विचार बदल गए हैं, क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने एक साक्षात्कार में राहुल गांधी की भी प्रशंसा की थी। क्या केंद्र सरकार अधिक समावेशी हो गई है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोगों से बात करने पर पता चला कि ये सब पब्लिक रिलेशन यानि पीआर का खेल है। 

आज हिंदी फिल्मों के छोटे-बड़े सितारे सभी पीआर कंपनियों के भरोसे चल रहे हैं। उन्हें कहां जाना है, कितना बोलना है से लेकर सार्वजनिक जगहों पर कैसे कपड़े पहनने हैं आदि सभी कुछ पीआर कंपनियां या उनके नुमांइदें ही तय करते हैं। यह अनायास नहीं है कि सभी अभिनेता-अभिनेत्रियों के एयरपोर्ट के वीडियो इंटरनेट मीडिया पर आ जाते हैं। बताया गया कि कोई भी अभिनेता या अभिनेत्री कहीं आते जाते हैं तो उसकी पूर्व सूचना पैपराजियों को या इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय पीआर हैंडल्स को दे दी जाती है। सितारों के गाड़ी से उतरने से लेकर एयरपोर्ट के अंदर जाने तक का वीडियो चंद मिनटों में वायरल करवाने का प्रयास किया जाता है। इसके पीछे एक पूरा तंत्र काम करता है। इसकी एक आर्थिकी भी है। अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि सितारों को कितना बोलना है ये भी पीआर कंपनी के लोग ही बताते हैं। आज से कुछ वर्षों पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपनी मन की बात मीडिया से साझा करते थे। इससे उनकी एक छवि बनती थी। अब तो सबकुछ पहले से तय होने लगा है। किसी सितारे के इंटरव्यू को लेकर जिस तरह की खबरें आती हैं वो भी चिंताजनक हैं। भगवान जाने इसमें कितनी सचाई है लेकिन बताया जाता है कि पीआर कंपनी वाले मीडिया के लोगों को पहले से बताते हैं कि क्या प्रश्न करना है और कितने प्रश्न पूछने हैं। जब इंटरव्यू हो रहा होता है तो पीआर कंपनी वाले वहां मौजूद रहते हैं। अगर साक्षात्कारकर्ता तय प्रश्नों से अलग जाने का प्रयास करता है तो पीआर वाले रोकने की कोशिश करते हैं। ऐश्वर्य़ राय की एक फिल्म आई थी ऐ दिल है मुश्किल। उस समय इस तरह की चर्चा हुई थी कि जब साक्षात्कारकर्ताओं ने ऐश्वर्य से उनके और रणबीर की आनस्क्रीन केमेस्ट्री के बारे में प्रश्न किया था तो पीआरवालों ने रोक दिया था। कुछ लोग तो बिना इंटरव्यू किए निकल भी गए थे। पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपने दिमाग से प्रश्नों के उत्तर देते हैं अब वो बताई गई बातें ही बोलते हैं। याद करिए शाह रुख खान के कितने स्मार्ट इंटरव्यूज हुआ करते थे। अब वो बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं। सिर्फ शाह रुख ही क्यों रणवीर सिंह के पुराने साक्षात्कार देखिए और अभी के देखिए। आपको जमीन आसमान का अंतर नजर आएगा।

सितारों के छवि निर्माण की कला होती है। उसका प्रबंधन भी किया जाता रहा है लेकिन हिंदी फिल्मों के सितारों को जिस तरह से पीआर कंपनियों ने घेर लिया है उससे उनकी मौलिकता बाधित हो रही है। सितारों की सार्वजनिक छवि बनाने के काम में अधिकतर 25 से 30 वर्ष के युवक युवतियां लगे हुए हैं। विशेषकर अगर बड़े सितारों के इर्द-गिर्द नजर डालेंगे तो ये सब आपको स्पष्ट दिखाई देगा। अब चालीस पचास वर्ष के अभिनेताओं को ये लड़के-लड़ियां बताती हैं कि क्या बोलना है। इनमें से ज्यादातर लोग वैसे हैं जिनकी दुनिया ही इंटरनेट मीडिया है। वो रील्स, लाइक और रीपोस्ट के आधार पर सबकुछ तय करते हैं। कुछ दिनों पूर्व हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार्स के ताम-झाम पर आने वाले खर्चे को लेकर निर्माता-निर्देशक करण जौहर ने सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ चलनेवाले लोगों और शूटिंग के दौरान उनकी सुविधाओं पर निर्माताओं को बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। इससे फिल्म की लागत कई गुणा बढ़ जाती है। कई निर्माताओं ने करण की इस बात का समर्थन किया। अब जरा देख लेते हैं कि ताम-झाम क्या होता है। सुपरस्टार्स के साथ गाड़ियों का काफिला होगा। वैनिटी वैन होगी। स्टार की गाड़ी अलग होगी, उनके साथ आवश्यक व्यक्तियों के साथ पीआर की लंबी चौड़ी टीम होगी। वो जहां भी जाएंगें या जाएंगी पीआर के लोग उनके साथ इस कारण रहते हैं कि उनको आवश्कता से अधिक सुविधाएं, बहुधा निरर्थक, की मांग रखी जा सके। 

ओमएमजी- 2 के निर्देशक अमित राय ने एक बार बातचीत के दौरान बताया था कि चाय से अधिक गरम केतली होती है। तात्पर्य ये था कि हीरो या हिरोइन से अधिक उनकी पीआर टीम उनको लेकर, उनके एपियरेंस को लेकर, अगर वो कहीं बाहर हैं तो वो किस होटल में रहेंगे, किस तरह का कमरा होगा, उनके सहयोगी कैसे कमरे में रहेंगे, कैसी गाड़ी होगी, कितने लोग होंगे सबकी सूची बनाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि एक दिन रविवार को अक्षय कुमार के साथ किसी रेलवे स्टेशन पर शूट करना था लेकिन उनकी टीम ने अमित को बताया कि सर (अक्षय) रविवार को शूट नहीं करते हैं। सारी तैयारी हो चुकी थी। रेलवे से अनुमति मिल गई थी। ऐसे में अमित राय ने सीधे अक्षय को फोन किया। वो शूटिंग के लिए तैयार हो गए। मतलब चाय का तापमान ठीक था लेकिन केतली गर्म थी। इसी तरह वाराणसी में जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान बातचीत में अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी ने भी हिंदी फिल्मों की दुनिया में पीआर कल्चर पर टिप्पणी की थी। जब बड़े सितारे ऐसा करते हैं तो अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय सितारे भी ये समझने लगे हैं कि इसी तरह से स्टारडम हासिल किया जा सकता है। आपकी स्टार वैल्यू तभी बढ़ेगी जब विलासितापूर्ण जीवन जीते दिखेंगे। आज अगर दर्शक फिल्मों से दूर हो रहे हैं तो उसके अन्यान्य कारणों में से एक कारण पीआर कल्चर भी है। ये संस्कृति परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से छवि निर्माण के नाम पर सितारों को उनके प्रशंसकों से दूर कर रहे हैं। उनके सोच को जनता तक नहीं आने दे रहे हैं। फिल्म दर्शकों से मीडिया के माध्यम से उनका जो एक संवाद बनता था वो सही तरीके बन नहीं पा रहा है। रील्स या इंस्टा पर विलासिता का भोंडा प्रदर्शन दर्शकों को पसंद नहीं आता है। अभिनेता के काम से दर्शक उनको पसंद करते हैं पीआर के चक्रव्यूह से नहीं। हिंदी फिल्म जगत को इस बारे में सोचना होगा। 

Thursday, October 16, 2025

मासूम आंखों से टपकती मोहब्बत


देश को स्वाधीन हुए एक वर्ष होने को था। स्वाधीनता पूर्व हिमांशु राय और देविका रानी ने जिस बांबे टाकीज की स्थापना की थी उसको चलाने का दायित्व अशोक कुमार ने संभाल लिया था। अशोक कुमार के सामने बांबे टाकीज को फिर से सफल बनाने की चुनौती थी। अशोक कुमार को भूतों के किस्से में काफी रुचि थी। उनके नजदीकी बहुधा अपने साक्षात्कारों में इस बात का उल्लेख करते हैं कि अशोक कुमार को भूतों और पुनर्जन्म में विश्वास था। वो काफी समय से भूत को केंद्रीय थीम लेकर एक फिल्म बनाना चाहते थे। 1948 के मध्य की बात होगी। एक दिन बांबे टाकीज के कुछ कर्मचारी अशोक कुमार के पास पहुंचे और बताया कि परिसर में उन्होंने हिमांशु राय के भूत को देखा है। इसको सुनकर अशोक कुमार की भूत केंद्रित फिल्म बनाने की इच्छा और बलवती हो गई। उसी वर्ष उनके साथ एक और घटना घटी। वे बांबे (अब मुंबई) के निकट एक भूत बंगले के नाम से मशहूर घर में कुछ समय बिताने गए। एक दिन रात में जब वो सोने जा रहे थे तो दरवाजे पर एक महिला ने दस्तक दी। उसने अपनी गाड़ी खराब होने की बात कहकर मदद मांगी। गाड़ी ठीक नहीं की जा सकी। वो गाड़ी वहीं छोड़कर चली गई। देर रात शोर शराबे से अशोक कुमार की नींद खुली। उन्होंने देखा कि वही गाड़ी उनके घर के बाहर खड़ी है। उसमें एक व्यक्ति की लाश पड़ी है। सुबह अशोक कुमार ने अपने नौकर से रात की घटना के बारे में पूछा। नौकर ने उनको बताया कि रात में तो ऐसा कुछ घटा ही नहीं, आप तो आराम से सो रहे थे। वो सपना होगा। घर के बाहर कोई गाड़ी नहीं थी। परेशान अशोक कुमार स्थानीय थाने पहुंचे थे। पुलिसवाले ने पूरी बात सुनने के बाद बताया कि 14 साल पहले इस तरह की एक वारदात वहां हुई थी। एक महिला हत्या करने के बाद लाश गाड़ी में छोड़कर भाग गई थी। भागने के क्रम में दुर्घटना हुई और उसकी मौत हो गई।

अशोक कुमार ने बांबे लौटकर ये पूरा किस्सा कमाल अमरोही को बताया। कमाल अमरोही ने इसके आधार पर एक फिल्मी प्रेम कहानी गढ़ी। इस तरह से आरंभ होती है फिल्म महल। कहानी तैयार होने के बाद बांबे टाकीज के कर्ताधर्ता चाहते थे कि इस फिल्म के लीड रोल में अशोक कुमार के साथ अभिनेत्री सुरैया को लिया जाए। कमाल अमरोही मधुबाला के नाम पर अड़े रहे। अंत में उनकी ही चली क्योंकि वो महल के निर्देशक बनाए जा चुके थे। फिल्म की शूटिंग आरंभ हुई। अक्तूबर 1949 में फिल्म रिलीज की गई। दर्शकों ने इस फिल्म को खूब पसंद किया। इस फिल्म से दो सितारे हिंदी फिल्माकाश पर चमके। मधुबाला और लता मंगेशकर। फिल्म की सफलता ने मधुबाला को शीर्ष अभिनेत्री की पंक्ति में खड़ा कर दिया। लता मंगेशकर का गाया गीत, आएगा आने वाला बेहद लोकप्रिय हुआ। फिल्म में कई बार इस गीत के हिस्से का निर्देशक ने उपयोग किया है। फिल्म की थीम के हिसाब से खेमचंद प्रकाश ने संगीत बनाया। आज भी अगर कोई सस्पेंस सीन दिखाना होता है तो महल का बैकग्राउंड म्यूजिक या उसकी तर्ज पर बनाए गए म्यूजिक का ही उपयोग होता है। खेमचंद प्रकाश जब आएगा, आएगा आनेवाला गीत रिकार्ड कर रहे थे तो लता की आवाज के बावजूद उनके मन-मुताबिक प्रभाव पैदा नहीं हो पा रहा था। लता बार-बार माइक पर गातीं। खेमचंद संतुष्ट नहीं हो रहे थे। वो गीत के आरंभिक को दूर से आई आवाज जैसा रिकार्ड करना चाह रहे थे। अचानक उनके दिमाग में एक आयडिया आया। उन्होंने लता को माइक से दूर जाने को कहा और गाते हुए माइक तक आने को कहा। वो चाहते थे कि गीत की पंक्ति, खामोश है जमाना, चुपचाप हैं नजारे दूर से आती हुई लगे और जैसे ही गायिका आएगा आएगा आनेवाला तक पहुंचे तो वो माइक की समान्य आवाज लगे। लता को माइक से दूर जाकर गाते हुए इस तरह माइक तक आना पड़ता था कि आएगा आएगा माइक पर गा सके। लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू में इस प्रसंग की चर्चा की थी। उन्होंने कहा कि तब तकनीक इतना उन्नत नहीं था और म्यूजिक डायरेक्टर अपने हुनरे से गानों को सजाते थे। कई बार के रिहर्सल के बाद खेमचंद प्रकाश संतुष्ट हुए। आज 75 वर्षों बाद भी ये गाना लोगों की जुबां पर है।

फिल्म में मधुबाला का चरित्र ऐसा गढ़ा गया जिसकी मासूम आंखों से मुहब्बत टपकती थी। चेहरे पर एक भोलापन और प्यार की चमक लिए अभिनेत्री जब पर्दे पर आती तो नायक के साथ दर्शक उसके आकर्षण में बंध जाता। मधुबाला की उम्र भले ही उस समय 16 वर्ष के आसपास थी लेकिन वो एक दर्जन से अधिक फिल्मों में काम कर चुकी थी। अभिनय की बारीकियां उसको पता थीं। इस फिल्म में उसके संवाद अपेक्षाकृत कम हैं। उनकी उपस्थिति और आंखों से बहुत कुछ कह जाना प3भाव छोड़ता है। कमाल अमरोही ने भले ही किस्से का दुखांत रचा, लेकिन जिस तरह के संवाद फिल्म के आखिरी सीन में अशोक कुमार और उनके दोस्त के बीच है वो प्यार की उष्मा से भरपूर है। बिमल राय की एडिटिंग को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। कानपुर और इलाहाबाद ( अब प्रयागराज) के बीच चलनेवाली इस हारर मूवी में एक भी हत्या नहीं होती है लेकिन रहस्य और रोमांच भरपूर रूप से बरकरार रहता है।

Monday, October 13, 2025

आत्मविश्वास से खींची बड़ी रेखा


तेलुगू फिल्मों से बाल कलाकार के तौर पर अपने करियर का आरंभ करने वाली रेखा के पिता जेमिनी गणेशन और मां पुष्पावल्ली भी बेहतरीन कलाकार थे। रेखा जब हिंदी फिल्मों में आई थीं तो उनकी काया व सांवले रंग को लेकर नकारात्मक टिप्पणियां की गई थीं। उनके ड्रेसिंग सेंस और मेकअप का भी मजाक उड़ाया जाता था। यही नहीं उनकी अभिनय क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए जाते थे। यहां तक कहा गया कि वो एक ऐसी हीरोइन हैं जिनको फिल्मों में गुड़िया की तरह रखा जाता है, जिससे अभिनय की अपेक्षा नहीं की जाती है। ये बातें प्रोड्यूसर्स, निर्देशक और उस समय के फिल्म पत्रकारों ने इतनी बार कहीं कि रेखा का स्वयं पर से विश्वास डिग गया। वो बार-बार ये सोचतीं कि हिंदी फिल्मों की दुनिया में उनका गुजारा नहीं, क्योंकि उनकी तुलना उस दौर की सुंदर अभिनेत्रियों से की जाती थी। बहुधा हेमा मालिनी से। उनकी एक और छवि गढ़ी गई थी कि वो बहुत बिंदास हैं और सेट पर बोलती ही रहती हैं। उस दौर में एक फिल्म पत्रिका ने तो यहां तक लिख दिया था कि रेखा चूंकि गंभीर नहीं हैं इस कारण उनको कोई गंभीरता से नहीं लेता।

ऐसे माहौल में रेखा ने स्वयं को बदलने का तय किया। वो योग की शरण में गईं और उन्होंने वजन काफी कम कर लिया। अपनी साज-सज्जा पर ध्यान दिया। ये 1977 के आसपास की बात थी। अब वो फिल्मों के चयन में भी सावधान हो गईं। वैसी ही फिल्मों का चयन करने लगीं जिनमें उनको अभिनय प्रतिभा दिखाने का अवसर मिले। 1978 में उनकी फिल्म आई घर। इसमें रेखा ने रेप विक्टिम का रोल किया था। इसमें जिस प्रकार से पीड़िता का अभिनय किया उसने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। फिर आई मुकद्दर का सिकंदर। इसके बाद तो रेखा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस फिल्म में रेखा ने तवायफ के रोल में अभिनय की जो छाप छोड़ी वो दर्शकों के मानस में बैठ गई। फिर आई मि. नटवरलाल और सुहाग। अमिताभ बच्चन के साथ रेखा की जोड़ी सफलता की गारंटी बन गई। यही वो दौर था रेखा और अमिताभ बच्चन के कथित प्रेम की कहानी भी सुनाई दे रही थी। इन दोनों के आन स्क्रीन और आफ स्क्रीन केमिस्ट्री की बातें होती थीं। 1980 में हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म आई खूबसूरत। ये एक कामेडी फिल्म थी जिसमें पूरी फिल्म रेखा के कंधों पर चलती है। इसमें जिस तरह से रेखा ने चुलबुली लड़की का अभिनय किया वो यादगार बन गया। इस फिल्म के बाद ये मान लिया गया कि रेखा अपने दम पर भी फिल्म को सफल बना सकती हैं।
फिर तो एक से एक फिल्मों में रेखा ने अभिनय का लोहा मनवाया। चाहे वो उमराव जान हो या फिर उत्सव। श्याम बेनेगल की फिल्म कलयुग में द्रौपदी के रोल में रेखा ने जबरदस्त अभिनय किया। एक ऐसी लड़की जो दक्षिण भारत से आई थी, अपने उच्चारण से लेकर पहनावे तक का उपहास जिसने झेला था, आज भी उनके स्टाइल की बात होती है।
(10 अक्तूबर को प्रकाशित)