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Saturday, January 4, 2025

इतिहास पुनर्लेखन के सामने चुनौतियां


नववर्ष में दिल्ली के आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में गृह मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ का लोकार्पण किया। लोकार्पण समारोह में अमित शाह ने कई ऐसी बातें कहीं जिसपर बौद्धिक जगत में विमर्श होना चाहिए। गृह मंत्री ने कहा कि हमारे देश के हर हिस्से में मौजूद भाषाएं, लिपियां, आध्यात्मिक विचार, तीर्थ स्थलों की कलाएं, वाणिज्य और व्यापार, हजारों साल से कश्मीर में उपaस्थित थे और वहीं से देश के कई हिस्सों में पहुंचे थे। जब ये बात सिद्ध हो जाती है तो कश्मीर का भारत से जुड़ाव का प्रश्न बेमानी हो जाता है। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि यह पुस्तक प्रमाणित करती है कि देश के कोने-कोने में बिखरी हुई हमारी समृद्ध विरासत हजारों वर्षों से कश्मीर में भी थी। पुस्तक के बारे में बताया जा रहा है कि इसमें लगभग 8 हजार साल पुराने ग्रंथों में जहां भी जिस रूप में कश्मीर का उल्लेख आया है उसको निकालकर इसमें रखा गया है। गृह मंत्री ने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग बताते हुए कहा कि किसी भी कानून की धारा इसे भारत से अलग नहीं कर सकती। पूर्व में कश्मीर को भारत से अलग करने का प्रयास किया गया था, लेकिन समय ने उस धारा को ही हटा दिया। जाहिर सी बात है वो कश्मीर से अनुच्छेद 370 के खत्म करने की बात कर रहे थे। गृह मंत्री ने इस प्रयास को रेखांकित किया जिसके अंतर्गत लंबे समय से देश में चल रहे मिथक को तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर तोड़कर सत्य को ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्थापित करने का काम किया गया। इस पुस्तक का संपादन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के चेयरमैन रघुवेन्द्र तंवर ने किया है। अमित शाह ने इतिहास लेखन पर चुटकी भी ली और कहा कि कुछ लोगों के लिए इतिहास का मतलब दिल्ली के दरीबे से बल्लीमारन और लुटियन से जिमखाना तक सिमट गया था। 

अमित शाह जब इतिहास लेखन के बारे में बात कर रहे थे तो वो भारतीय दृष्टि से लिखे गए इतिहास की अपेक्षा कर रहे थे। परोक्ष रूप से उन्होंने मार्क्सवादी इतिहासकारों पर तंज भी कसा और कमरे में बैठकर इतिहास लिखने की बात की। अमित शाह ने इतिहास लेखन को लेकर पहली बार अपना मत नहीं रखा बल्कि समय समय पर वो इतिहास लेखन को लेकर अपनी बेबाक राय रखते रहे हैं। मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में काफी लोग वामपंथियों को हर गलती के लिए जिम्मेदार ठहराते थे। सेमिनारों और गोष्ठियों में वामपंथी और मार्क्सवादी इतिहासकारों की गलतियों की ओर इशारा कर उनको कोसते थे। कुछ वर्षों पहले अमित शाह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में भारतीय दृष्टि से इतिहास के पुनर्लेखन की बात की थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि सिर्फ किसी को दोष देने से काम नहीं चलनेवाला है। उन्होंने भारतीय दृष्टि रखनेवाले इतिहासकारों पर भी सवाल खड़े उनमें से कितनों ने भारतीय दृष्टि से विचार किया। बड़े-बड़े भारतीय साम्राज्य के संदर्भग्रंथ तक नहीं बना पाने की बात भी अमित शाह ने रेखांकित की थी। मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य का संदर्भग्रंथ तैयार नहीं कर पाए। मगध का इतना बड़ा आठ सौ साल का इतिहास, विजयनगर का साम्राज्य लेकिन संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए। शिवाजी महाराज का संघर्ष...उनके स्वदेश के विचार के कारण पूरा देश आजाद हुआ। पुणे से लेकर अफगानिस्तान तक और पीछे कर्नाटक तक बड़ा साम्राज्य बना हम कुछ नहीं कर पाए। सिख गुरुओं के बलिदानों को भी इतिहास में संजोने की कोशिश नहीं की गई। महाराणा प्रताप के संघर्ष और मुगलों के सामने हुए संघर्ष की एक बड़ी लंबी गाथा को संदर्भ ग्रंथ में परिवर्तित नहीं किया जा सका। वीर सावरकर न होते तो सन सत्तावन की क्रांति भी इतिहास में सही तरीके से दर्ज नहीं हो पाती। उसको भी हम अंग्रेजों की दृष्टि से ही देखते रहते। आज भी कई लोग उसको सिपाही विद्रोह के नाम से ही जानते समझते हैं। वीर सावरकर ने सन सत्तावन की क्रांति को पहला स्वातंत्र्य संग्राम का नाम देने का काम किया। गृहमंत्री ने तब जोर देकर कहा था कि वामपंथियों को, अंग्रेज इतिहासकारों को या मुगलकालीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा। केंद्रीय गृहमंत्री ने बेहद सटीक बात कही थी कि अगर किसी की लकीर को छोटी करनी है तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींचनी होगी। 

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को ये देखना होगा कि इतिहास लेखन में सतर्कता और तटस्थता बरती जा रही है या नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में पिछले कुछ वर्षों से इतिहास को लेकर कुछ कार्य हुए हैं लेकिन बीच बीच में वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी छाया लंबे समय तक उस संस्था पर महसूस की जाती है। परिषद का काम इतिहास लेखन और उसकी प्रविधि पर ध्यान देने का है झंडा लगवाने और गेस्ट हाउस बनवाने का नहीं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है लेकिन वहां भी लंबे समय से सदस्य सचिव नहीं होने के कारण प्रशासनिक और अकादमिक बाधाएं आती रहती हैं। ऊपर से वहां कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो उसके अच्छे कार्यों को ढंक देता है। जहां तक बड़ी लकीर खींचने का सवाल है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग को ये बीड़ा उठाना होगा। सरकार संस्थाएं बना सकती हैं, उन संस्थाओं की कमान योग्य व्यक्तियों को देकर उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास लेखऩ में सतर्कता और तटस्थता को बरकरार रखें। इतिहास को लेकर काम कर रही सरकारी संस्थाएं हों या साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रही स्वायत्त संस्थाएं, ज्यादातर में ठोस काम की जगह कार्यक्रमों ने ले ली हैं। इसका भी बड़ा नुकसान हुआ है। किसी से पूछिए कि सालभर में क्या हुआ तो कहेंगे इतने कार्यक्रम कर लिए। 

आवश्यकता इस बात की है कि ‘जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख, सातत्य और संबद्धता का ऐतिहासिक वृत्तांत’ जैसी पुस्तकें अधिक से अधिक संख्या में आएं। संपादित किताबें भी आएं लेकिन स्कालर्स का चयन करके उनको स्वतंत्र पुस्तकें लिखने के लिए भी प्रेरित किया जाए। उनको फेलोशिप दी जाए, उनसे विषय़ देकर शोध करवाया जाए। जो तथ्य ओझल कर दिए गए उनको सामने लाने का दायित्व दिया जाए। अमित शाह जिन संदर्भ ग्रंथों की बात कर रहे हैं उनको तैयार करने की दिशा में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद को गंभीरता से विचार करना चाहिए। भारतीय दृष्टिवाले इतिहासकारों का चयन करके उनसे संदर्भ ग्रंथ तैयार करवाने चाहिए। मंत्रालय का भी दायित्व है कि वो इस तरह की संस्थाओं में समय पर मानव संसाधन उपलब्ध करवाए ताकि प्रशासनिक और अकादमिक कार्यों में व्यवधान नहीं आ सके। ये अच्छी बात है कि एक पुस्तक आई और गृह मंत्री ने उसकी प्रशंसा की। ऐसी पुस्तकों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत पाठ्यक्रमों में शामिल करवाना चाहिए। प्रतियोगी परीक्षाओं में उन्हीं पुस्तकों से प्रश्न पूछे जाएं ताकि विद्यार्थी उसका अध्ययन कर सकें। जिस तरह से भारतीय इतिहास को विकृत किया गया है उसके लिए एक टास्क फोर्स बनाकर कार्य करना होगा अन्यथा समय बहुत तेजी से निकलता जा रहा है।  


Saturday, December 28, 2024

समानांतर सिनेमा का अल्पज्ञात पक्ष


इस वर्ष मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड की जूरी में श्याम बेनेगल, व्ही शांताराम के सुपुत्र किरण शांताराम, वरिष्ठ पत्रकार और डाक्यूमेंट्री निर्माता संजीत नार्वेकर, निर्देशक मधुर भंडारकर के साथ मैं भी था। इस बात को लेकर मैं बेहद उत्साहित था कि श्याम बेनेगल जैसे कद्दावर फिल्म निर्देशक के साथ बैठने बतियाने का अवसर मिलेगा। मेरे मन में कई प्रश्न थे जो मैं श्याम बाबू से पूछना चाहता था। नियत तिथि पर मुंबई पहुंचा। जूरी की बैठक के लिए जब पहुंचा तो बताया गया कि श्याम बाबू बीमार हैं। वो नहीं आ पाएंगे और आनलाइन जुड़ेंगे। मगर डायलिसिस में देर हो जाने के कारण वो उस दिन बैठक में आनलाइन भी नहीं जुड़ पाए। बैठक के दौरान ही उनका एक ईमेल मेरे पास आया कि आप जो तय कर देंगे मेरी उस नाम पर सहमति होगी। मैं चौंका क्योंकि इसके पहले कभी श्याम बाबू से भेंट नहीं हुई थी, उनसे परिचय भी नहीं था। जूरी की बैठक हो गई। नाम तय हो गया। फेस्टिवल के आयोजकों को सम्मानित किए जानेवाले फिल्मकार का नाम दे दिया गया। हमें बताया गया कि श्याम बाबू ने मीटिंग की मिनट्स मगंवाई है। बात आई-गई हो गई। शाम को मैं वापस दिल्ली लौट आया। अगले दिन सुबह फोन की घंटी बजी, मैंने उठाया तो उधर से आवाज आई कि श्याम बेनेगल बोल रहा हूं, क्या आप अनंत विजय हैं। मैंने सोचा कि कोई प्रैंक कर रहा है और फोन काट दिया। फिर उसी नंबर से फोन आया तो मैंने उठाकर कहा कि क्यों मजाक कर रहे हो भाई। श्याम बेनेगल साहब के पास न तो मेरा नंबर है और ना ही वो मुझे जानते हैं। इसपर फोन करनेवाले व्यक्ति ने कहा कि वो बेनेगल ही बोल रहे हैं और उनको मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के बारे में बात करनी है। तब मुझे लगा कि ये श्याम बाबू ही हैं। मैंने प्रणाम किया और फोन काटने के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा तो बोले कि आपकी प्रतिक्रिया उचित थी। खैर... अवार्ड के चयन पर उन्होंने बात की और धन्यवाद कहा। मैंने उनके फोन रखने के पहले पूछा कि श्याम बाबू मैं आपसे समांतर सिनेमा के बारे में कुछ बात करना चाहता हूं। लेकिन थोड़ी लंबी बात होगी तो समय दे दीजिए। उन्होंने अगले दिन सुबह 11 बजे फोन करने को कहा। 

अगले दिन सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा करते हुए कुछ प्रश्न तैयार करना आरंभ किया। तैयार कर भी लिया। अगे दिन 11 बजते ही फोन मिला दिया। श्याम बाबू ने फोन उठाकर कहा कि आप समय के पाबंद हैं यह जानकर खुशी हुई। अब उनको मैं क्या कहता कि मैं तो सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। हाल-चाल पूछकर बोले कि बताइए क्या पूछना है। मैंने श्याम बाबू से कहा कि आप समांतर सिनेमा के आरंभिक निर्देशकों में माने जाते हैं तो क्या आप लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से एक विशेष तरह की फिल्में बनानी शुरू कीं। आपलोगों ने जिस तरह से हिंदी फिल्मों में आम लोगों का प्रवेश करवाया क्या उसके पीछे कम्युनिस्ट विचारधारा थी। आगे कुछ बोलता इसके पहले वो बोले कि आपको जानकर आश्चर्य होगा कि समांतर सिनेमा को पहचान एक बहुत ही दिलचस्प कारण से मिली। आपको एक प्रसंग बताता हूं। मैंने जब अंकुर फिल्म बनाई थी तो सत्यजित राय को दिखाई थी। फिल्म देखने के बाद राय साहब ने जानना चाहा था कि अंकुर से मेरी क्या अपेक्षा है। तब मैंने उनको बताया था कि मेरी अपेक्षा बस इतनी है कि ये फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमा हाल में सप्ताह भर चल जाए। तो उन्होंने कहा था कि एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी ये फिल्म। उस समय मुझे लगा था कि सत्यजित राय साहब ने मेरे उत्साहवर्धन के लिए ऐसा कहा था। उनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ। मेरी फिल्म इरोस में पहली बार दिखाई गई। संभवत: वो पहली हिंदी फिल्म भी थी जो इरोस में दिखाई गई। इसमें ना तो मेरा कोई योगदान था और ना ही सिनेमाघऱ के मालिक की उदारता। 

हुआ ये था कि उन दिनों इरोस समेत दक्षिण मुंबई के सिनेमाघरों में अमेरिकी फिल्में चला करती थीं। उन सिनेमाघरों में हिंदी की फिल्में नहीं दिखाई जाती थीं। 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों की बात थी। भारत सरकार ने हालीवुड की फिल्मों के आयात पर आंशिक पाबंदी लगा थी। सरकार ने एक संख्या तय कर दी थी कि इतनी ही अमेरिकी फिल्में आयात होकर भारत के सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है। सरकार में बैठे लोगों का सोच था कि इससे भारतीय फिल्मों को बढ़ावा मिलेगा। विदेशी मुद्रा विनिमयन की भी सीमा तय कर दी गई थी। परिणाम ये हुआ कि दक्षिण मुंबई के अलावा अन्य महानगरों के सिनेमाघरों में दिखाने के लिए हालीवुड की फिल्में कम हो गईं। सिनेमाघरों के स्क्रीन खाली होने लगे। ये वही समय था जब मेरी और मेरे जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशकों की फिल्में आने लगीं। हमें इन महानगरों के सिनेमाघरों में एक संभावना नजर आई। हमने उनसे संपर्क कर अपनी फिल्में वहां दिखानी आरंभ की। हमें स्क्रीन मिलने लगे और सिनेमाघर मालिकों को फिल्में। जो दर्शक अंग्रजी फिल्में देखने इन सिनेमाघरों में आते थे वही दर्शक हमारी फिल्मों को मिलने लगे। समाज में हमारी फिल्मों की चर्चा होने लगी। अंग्रजीदां लोगों को हमारी फिल्में अच्छी लगने लगीं और फिर समांतर सिनेमा, वैकल्पिक सिनेमा या नया सिनेमा जैसी संज्ञा हमारी फिल्मों को मिले। जब महानगरों में ये फिल्में दिखाई जाने लगीं तो अंग्रेजी मीडिया ने भी हमारी फिल्मों पर लिखना आरंभ कर दिया। इस तरह से समांतर सिनेमा को एक पहचान मिली। ये पहचान बाद में देशव्यापी हुई। श्याम बाबू इसके बाद हंसे और बोले कि कुछ अन्य कारण भी थे जिसके कारण हमारी फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों से अलग दिखती थीं। दरअसल उस समय मुख्यधारा की जो फिल्में बन रही थीं उनमें कहानियां और ट्रीटमेंट कमोबेश एक जैसे होते थे जिससे दर्शक उबने लगे थे। आपको याद रखना चाहिए था कि ये वही दौर था जब अमिताभ बच्चन का भी उदय हो रहा था। कहानियां और कहानी कहने का अलग अंदाज भी एक कारण थे जिसको ना केवल समांतर सिनेमा ने अपानाया बल्कि मुख्यधारा की फिल्मों में भी वो बदलाव दिखा। लंबी बात हो गई थी। मेरे पास कई प्रश्न शेष थे लेकिन श्याम बाबू ने कहा कि अगली बार जब मुंबई आएं तो मिलें। बैठकर बातें करेंगे। अफसोस कि श्याम बाबू से बातें अधूरी रह गईं। मुंबई जाना होगा लेकिन अब उनसे मिलना नहीं पाएगा। उनके निधन ने मुझसे ये अवसर छीन लिया। 

श्याम बेनेगल जी से बात करने के बाद समांतर सिनेमा को देखने का मेरा नजरिया बदला। ये भी लगा कि किस तरह से वामपंथी विचारधारा के लोग किसी भी चीज को लेबल कर देते हैं । इसमें उनका पूरा ईरोसिस्टम कार्य करता है। श्याम बाबू की बातों को सुनने के बाद राज कपूर का एक इंटरव्यू याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा था कि वो मैसेज देने या समाज को बदलने आदि के लिए कोई फिल्म नहीं बनाते हैं। उनको जो कहानी अच्छी लगती है उसका फिल्मांकन करते हैं। फिल्मों को श्रेणीबद्ध तो फिल्म समीक्षक करते हैं। 


Monday, December 23, 2024

सत्यजित राय से प्रभावित थे श्याम बेनेगल


स्वाधीन भारत में जिन कुछ फिल्मकारों ने व्यावसायिक फिल्मों से हटकर समांतर सिनेमा की शुरुआत की उनमें श्याम बेनेगल प्रमुख हैं। 1973 में जब श्याम बेनेगल की पहली फिल्म अंकुर प्रदर्शित हुई तबतक उनका संघर्ष बहुत लंबा हो चुका था। करीब 12 वर्षों के बाद उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा हो सका। श्याम बेनेगल ख्यात फिल्मकार सत्यजित राय को अपना गुरु मानते थे। बेनेगल ने एकाधिक बार ये माना कि उनपर सत्यजित राय का गहरा प्रभाव था। वो सत्यजित राय की तरह की ही फिल्में बनाना चाहते थे। जब फिल्म अंकुर की एडिटिंग हो रही थी को श्याम बेनेगल ने सत्यजित राय को बांबे (अब मुंबई) बुलाकर फिल्म दिखाई थी। मुंबई के बुडहाउस रोड और कोलाबा के बीच एक छोटे से थिएटर में सत्यजित राय ने अंकुर देखी थी। फिल्म देखने के बाद सत्यजित राय ने खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने श्याम बेनेगल से पूछा था कि इस फिल्म से तुम्हारी क्या अपेक्षा है?  बेनेगल ने उत्तर दिया था कि वो चाहते हैं कि फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमाघर में सप्ताह भर चले। तब सत्यजित राय ने कहा था कि ये एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी। राय का कथन सही साबित हुआ था। इस फिल्म से श्याम बेनेगल को फिल्मकार के रूप में पहचान मिली। 

श्याम बेनेगल को इंदिरा गांधी पसंद करती थीं। उनकी फिल्म अंकुर की वो प्रशंसक थीं। कहा जाता है कि विदेशी राजनयिकों को वो अंकुर दिखाया करती थीं। इमरजेंसी के दौरान 1976 में जब श्याम बेनेगल की फिल्म निशांत आई तो भारत सरकार ने उसको प्रतिबंधित कर दिया। भारत में इस फिल्म पर प्रतिबंध था लेकिन अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में फिल्म निशांत पसंद की जा रही था। कान फिल्म महोत्सव में तो इस फिल्म को आडियंस अवार्ड भी मिला था। इस फिल्म को भारत में पदर्शित करने के लिए सत्यजित राय ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा । इंदिरा गांधी ने फिल्म मंगवा कर देखी। फिल्म देखने के बाद उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ला को प्रतिबंध हटाने का उपाय ढूंढने को कहा। शुक्ला को जब पता चला कि बेनेगल सीधे इंदिरा गांधी तक पहुंच गए हैं तो आगबबूला हो गए। उन्होंने बेनेगल को अपने दफ्तर में बुलावाया और काफी देर तक कार्यालय में खड़े रहने को मजबूर किया। बाद में कुछ शर्तों के साथ प्रतिबंध हटाने का आश्वासन दिया। प्रतिबंध हटा। पर फिल्म के पहले एक सूचना देनी पड़ी कि इस फिल्म की घटनाएं स्वाधीनता पूर्व के भारत की हैं। फिल्म प्रदर्शित हुई। श्याम बेनेगल ने कई बेहतरीन फिल्में बनाई लेकिन उनको याद किया जाएगा उन फिल्मों के लिए जिसमें उन्होंने सामाजिक विषमता दिखाई। 


Saturday, December 21, 2024

रखरखाव की बाट जोहते वैश्विक धरोहर


हाल ही में मुंबई के इंडिया गेट के पास फेरी हादसा हुआ। ये दुखद घटना थी। इस घटना के साथ ही स्मरण हो आया कुछ समय पहले की मुंबई से फेरी से एलिफेंटा की यात्रा। मुंबई के अपोलो बंदर, जो अब गेटवे आफ इंडिया के नाम से ज्यादा जाना जाता है, से अरब सागर स्थित एलिफेंटा द्वीप तक की यात्रा। जहां लोग फेरी से आते-जाते हैं। मुंबई के गेटवे आफ इंडिया से एलिफेंटा तक जाने में करीब घंटे भर का समय लगता है। अरब सागर की लहरों पर हिचकोले खाती फेरियों में सावधानी से बैठे रहना पड़ता है। जब फेरी एलिफेंटा तक पहुंचती है तो ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। पुर्तगालियों ने इस द्वीप का नाम एलिफेंटा दिया। इस द्वीप पर हाथी की एक विशालकाय प्रतिमा थी जो अब मुंबई के माता जीजाबाई उद्यान में रखी गई है। एलिफेंटा द्वीप पर पहुंचने पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक बोर्ड दिखता है जिसपर लिखा है कि एलिफेंटा द्वीप मूलत घारापुरी के नाम से जाना जाता है। एलिफेंटा का नाम यहां से प्राप्त शैलकृत एक विशाल हाथी के कारण रखा गया है। इस बोर्ड से ही ये ज्ञात हुआ कि आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई)द्वारा इन गुफाओं को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक अधिसूचना क्रमांक -2704-अ-दिनांक 26.5.1909 द्वारा घोषित किया गया है। तत्पश्चात यूनेस्को द्वारा विश्वदाय स्मारकों की सूची में एलिफेंटा गुफाओं को 1987 में शामिल किया गया है। ये गुफाएं औरर यहां मौजूद मूर्तियां इतनी महत्वपूर्ण है कि इसको वर्ल्ड हैरिटेज साइट माना गया।

अब जरा इस द्वीप की ऐतिहासिकता और यहां प्रदर्शित कला के बारे में जान लेते हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि 1579 में इस द्वीप पर जे एच वान नाम का एक यूरोपियन आया था जिसने अपनी पुस्तक डिस्कोर्स आफ वायजेज में इस द्वीप का उल्लेक पोरी के तौर पर किया गया है। इसके आधार पर भारतीय इतिहासकार ये मानते हैं कि सोलहवीं शती में इस द्वीप को पुरी के नाम से जाना जाता होगा। इस द्वीप के नाम को लेकर इतिहासकारों में कई तरह की राय है। एलिफेंटा में पुरातात्विक खोज के दौरान एक ताम्र घट मिला था। उस घट पर जोगेश्वरी देवी के श्रीपुरी में बना, ऐसा उत्कीर्ण है। इसके आधार पर कुछ लोगों का मत है कि इस द्वीप को श्रीपुरी के नाम से जाना जाता होगा। जोगेश्वरी मुंबई महानगर में एक स्थान है। स्थानीय लोग इसको घारापुरी कहते हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बोर्ड पर भी ऐसा ही लिखा है। घारा को कुछ लोग शैव मंदिरों के पुजारी से भी जोड़ते हैं। क्योंकि शिव मंदिर के पुजारियों को घारी कहा जाता था। इस द्वीप की गुफाओं में शिव के कई स्वरूप की मूर्तियां हैं।संभव है कि वहां पुजारियों की संख्या काफी रही होगी जिसके आधार पर घारापुरी नाम से जाना जाता होगा। 

घारापुरी की गुफाओं में स्थित जिस एक मूर्ति के बारे में चर्चा करना आवश्यक लगता है उसको त्रिमूर्ति कहते हैं। यह अद्भुत मूर्ति है। इसमें शिव के तीन दिशाओं में तीन सर और चेहरा हैं। इस मूर्ति में जटा का विन्यास इस तरह से किया गया है कि वो भव्य मुकुट का आभास देता है। सामने शिव का जो चेहरा है वो बेहद गंभीर मुद्रा में है और उसके होठ बहुत मोटे और लटके हुए हैं। आमतौर पर इस तरह के होठ वाली मूर्तियां कम मिलती हैं।  इतिहासकार राधाकमल मुखर्जी के अनुसार इस मूर्ति के बीच का मुख निरपेक्ष और पारलौकिक तत्पुरुष सदाशिव का है। दायां चेहरा उग्र, भृकुटि ताने हुए और विनाश व वैराग्य की भावना वाले अघोरभैरव का है और बांयी ओर पार्वती का चेहरा है। मुखर्जी ने अपने लेख प्रतीक और प्रतिमान में लिखा है कि यह त्रिमूर्ति-स्वरूप एक समय भारत तथा गांधार, तुर्किस्तान और कंबोडिया में सुपरिचित था। चीन की युन-थाल गुफा में इसको पाया गया है तथा जापान की दाई इतोक यही है। यह शिव त्रिमूर्ति भारतीय संस्कृति की विशिष्ट विषय वस्तु का अद्वितीय और व्याक प्रतीक है। कुछ लोग इस त्रिमूर्ति को ब्रह्मा, विष्णु और शिव की तरह देखते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। अधिकतर लोग मुखर्जी से सहमत हैं। जहां शिव की ये त्रिमूर्ति स्थित है उस कक्ष के बाहर दो द्वारपाल की मूर्तियां भी हैं। इस त्रिमूर्ति के अलावा घारापुरी में कई अन्य मूर्तियां भी हैं जो भारतीय कला की श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं। इन मूर्तियों में अर्धनारीश्वर शिव की भी एक मूर्ति है। मंडप के सम्मुख गर्भगृह में पूर्वी द्वार की ओर एक बड़ा सा शिवलिंग है। इन मूर्तियों की खास बात है कि इनको पहाड़ियों को काटकर बनाया गया है। एक शिवलिंग को छोड़कर सभी मूर्तियां पहाड़ी को काटकर बनाई गई है। शिवलिंग का पत्थर अलग प्रतीत होता है । ऐसा लगता है कि इसको कहीं बाहर से लाकर वहां प्रतिष्टइत किया गया होगा।

इतने विस्तार में घारापुरी स्थित मूर्तियों का विवरण इस कारण से दिया ताकि इस बात का अनुमान हो सके कि देश के विभिन्न हिस्सों में कितनी ऐसी चीजें हैं जो ना केवल ऐतिहासिक हैं बल्कि भारतीय कला का उत्कृष्ट उदाहरण भी हैं। जो लोग भारतीय कला को नेपथ्य में रखकर फ्रांसीसी, पुर्तगाली और मुगलकालीन कला पर लहालोट होते रहते हैं उनको घारापुरी की कलाकृतियों को देखकर उसपर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। एक और बात जिस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है वो इन विरासत का संरक्षण। यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल घारापुरी की इन गुफाओं की उचित देखभाल नहीं हो रही है। यहां पहुंचने वाले पर्यटक आसानी से इन प्रतिमाओं तक पहुंच जाते हैं। ना केवल वहां खड़े होकर फोटो खींचते हैं बल्कि चाक आदि से दीवारों पर कुछ लिख भी देते हैं। नागरिकों को अपने कर्तव्य समझने चाहिए । विरासत को संरक्षित करने रखने में सहयोग करना चाहिए। दूसरी तरफ एएसआई को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि पर्यटक इन कलाकृतियों को दूर से देखें। कुछ मूर्तियों को घेरा गया है लेकिन वो नाकाफी है। इसके अलावा परिसर का रखरखाव भी एएसआई की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। वहां उपस्थितत कर्मचारी या गार्ड इन कलाकृतियों को लेकर संवेदनहीन दिखे। उनको इस बात का एहसास ही नहीं था कि उनपर वैश्विक धरोहर के रखरखाव का दायित्व है। कलाकृतियां भी रखरखाव की बाट जोहती प्रतीत हो रही थीं। पहले भी इस स्तंभ में कोणार्क मंदिर और त्रिपुरा के उनकोटि परिसर के रखरखाव में लापरवाही को लेकर लिखा जा चुका है। हमारे ये धरोहर उपेक्षा का शिकार होकर नष्ट होने की ओर बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी निरंतर अपनी विरासत के संरक्षण की बातों पर जोर दे रहे हैं लेकिन संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था एएसआई अन्यान्य कारणों से संरक्षण में पिछड़ जा रही है। देश में एक ऐसी संस्कृति नीति की आवश्यकता है जिसमें धरोहरों के संरक्षण को प्रमुखता दी जाए। अधिकारियों का एक अखिल भारतीय काडर बने जो कला संस्कृति और धरोहरों को लेकर विशेष रूप से प्रशिक्षित हों। औपनिवेशक काल की व्यवस्था से बाहर निकलना होगा। आज संस्कृति मंत्रालय का दायित्व वन से लेकर डाक सेवा के अधिकारियों पर है। वन, डाक, रेल और राजस्व की तरह ही कला संस्कृति को नहीं चलाया जा सकता है। 


प्रेम और रोमांस का कुशल चितेरा


राज कपूर एक ऐसे फिल्मकार थे जो अपनी जिंदगी में घटित घटनाओं को अपनी फिल्मों में इस तरह पिरोते थे कि वो कहानी का बेहद दिलचस्प हिस्सा हो जाता था। दो फिल्मों का जिक्र जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की घटनाओं को फिल्मों में रिक्रिएट किया। संगम फिल्म में एक सीन है। राज कपूर जब वैजयंतीमाला के पहनने के लिए गहना निकाल रहे होते हैं तो उनको एक पत्र मिलता है। वो उसको पढ़ना चाहते हैं। अचानक फोन की घंटी बजती है और वैजंयतीमाला उनके हाथ से कागज छीनकर दूसरे कमरे में चली जाती है। फोन पर बात करते-करते वो उस कागज को फाड़कर खिड़की से बाहर फेंक देती है। राज कपूर ये देख लेते हैं। दोनों पार्टी में जाने के लिए निकलते हैं तो राज कपूर रुमाल भूलने का बहाना करके वापस लौटते हैं। खिड़की के बाहर फटे कागज को उठाने लगते हैं। वैजंयतीमाला को शक होता है। वो वापस कमरे में आती है। दोनों में झगड़ा होता है। ये सब राज कपूर की असली जिंदगी में घटित हुआ था जिसको उन्होंने फिल्म संगम में उतार दिया। 1955 में राज और नर्गिस फिल्म चोरी चोरी की मद्रास (अब चेन्नई) में शूटिंग कर रहे थे। एक होटल में रुके थे। दोनों एक पार्टी में जानेवाले थे। देर हो रही थी। वो नर्गिस के पास पहुंचे तो देखा उसके हाथ में एक कागज था। राज ने कागज के बारे में पूछा कि ये क्या है। कुछ नहीं, कुछ नहीं कहकर नर्गिस ने कागज को फाड़ कर फेंक दिया। जब दोनों कार तक पहुंचे तो राज रुमाल भूलने का बहाना बनाकर वापस उसी जगह पहुंचे और डस्टबिन से फटे हुए कागज उठाकर अपने कमरे की दराज मे रख दिया। पार्टी से लौटेने के बाद राज ने फटे कागजों को जोड़कर पढ़ा। वो शाहिद लतीफ नाम के एक प्रोड्यूसर का प्रणय निवेदन था। दोनों में जबरदस्त झगड़ा होता है। राज कपूर ने अपनी जिंदगी की इस सच्ची घटना को संगम फिल्म में रख दिया। 

दूसरी घटना भी नर्गिस से ही जुड़ी हुई है। नर्गिस अपनी मां के साथ बांबे (अब मुंबई) के चित्तो मैंशन में रहती थीं। एक दिन राज कपूर उनके घर पहुंचे और उन्होंने घंटी बजाई। थोड़ी देर बाद एक सुंदर सी लड़की ने दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उसने अपने हाथ से बाल ठीक किए। वो सीधे रसोई से आई थी और उसके हाथ में बेसन लगा हुआ था। जब वो बाल ठीक कर रही थीं तो गीला बेसन उनके बालों में लग जाता है। राज कपूर के मन पर ये सुंदर दृश्य अंकित हो जाता है। वर्षों बाद जब वो बाबी फिल्म बनाते हैं तो ये दृष्य डिंपल कपाड़िया पर फिल्माते हैं। 

राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। 

शैलेन्द्र और राज कपूर के मिलने की दिलचस्प कहानी है। स्वाधीनता का संघर्ष अपने चरम पर था। बांबे (अब मुंबई) में प्रोफेशनल राइटर्स एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में शैलेन्द्र ने एक गीत गाया था, मेरी बगिया में आग लगा गया रे गोरा परदेशी। वहां राज कपूर भी थे। कार्.क्रम के बाद राज ने  शैलेन्द्र से अपनी फिल्म आग के लिए गीत लिखने का अनुरोध किया। शैलेन्द्र ने ये रहकर मना कर दिया कि वो पैसे के लिए कविता नहीं लिखते हैं। बात आई गई हो गई। आग के बाद जब राज कपूर अपनी अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे। एक दिन शैलेन्द्र उनके महालक्ष्मी वाले आफिस में पहुंचे। राज कपूर से मिलकर बोले शायद आप मुझे पहचान रहे हों। मेरी पत्नी गर्भवती और बीमार है, मुझे 500 रुपयों की आवश्यकता है। कुछ दिनों के लिए उधार दें। मैं रेलवे में नौकरी करता हूं। दो तीन महीने में वापस कर दूंगा। राज कपूर ने उनको रुपए दे दिए। दो महीने बाद शैलेन्द्र पैसे वापस करने आए। राज कपूर ने वापस लेने से मना कर दिया, बोले कि आपकी जरूरत के समय पैसे दिए थे मैं साहूकार नहीं कि पैसे देकर वापस लूं। स्वाभिमानी शैलेन्द्र को ये बात जंची नहीं। उन्होंने कहा कि मैं कर्ज कैसे उतारूं। राज कपूर ने हंसते हुए कहा कि अगर कर्ज उतारना चाहते हैं तो मेरी फिल्म बरसात के लिए गीत लिख दें। शैलेन्द्र ने बरसात के लिए दो गीत लिखे। राज की अगली आवारा के गीत लिखने के लिए शैलेन्द्र तैयार नहीं थे। ख्वाजा अहमद अब्बास के कहने पर उन्होंने आवारा के गीत लिखे। शैलेन्द्र और राज कपूर की मित्रता इस तरह से प्रगाढ़ हुई। 

फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। इसका संकेत उनकी फिल्म के आरंभ में भी मिला करता था जहां उनके पिता पृथ्वीराज कपूर के शिवलिंग के सामने बैठकर श्लोक पढ़ने के दृष्य से होता था।


Sunday, December 8, 2024

मेरा नाम राजू...


दस ग्यारह वर्ष का एक बालक बाग में एयर गन से खेल रहा था। पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। अचानक बालक ने एयर गन से चिड़ियों की झुंड पर फायर कर दिया। एक बुलबुल पेड़ से नीचे गिरी। उसकी मौत हो चुकी थी। बालक ने उसको प्यार से उठाया। बाग में ही गड्ढा खोदकर बुलबुल को उसमें डालकर मिट्टी से ढंक दिया। फिर कुछ फूल लाकर उसने उस जगह पर रखा। बुलबुल को श्रद्धांजलि दी। साथ खेल रहे भाई बहनों से भी फूल डलवाया। बाद में इस कहानी को उसने बेहद संवेदनशील तरीके से अपने परिवारवालों को सुनाया। मधु जैन ने अपनी पुस्तक में इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए लिखा है कि वो बालक मास्टर स्टोरीटेलर राज कपूर था। कहना ना होगा कि राज कपूर में बचपन से ही कहानी कहने का ना केवल शऊर था बल्कि उसमें समय के अनुरूप रोचकता का पुट मिलाने का हुनर भी। वो कहानियों में संवेदना को उभारते थे। राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। 

राज कपूर ने अपनी फिल्मों में रोमांस का एक ऐसा स्वरूप पेश किया जो मिजाज में तो पश्चिमी था लेकिन उसमें भारतीयता के तत्व भी भरे हुए थे। उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें पश्चिम की छाप थी लेकिन वातावरण और सामाजिक प्रतिरोध भारतीय था। आवारा में नर्गिस एक समय में दो पुरुषों से प्यार करती है। एक ऐसी नारी जो सोच और परिधान से पश्चिम से प्रभावित है लेकिन भारतीय वातावरण में रह रही है। इसका नायक भी समाज के तमाम बंधनों से मुक्त है। राज कपूर ने कैमरे की आंख से बाहर निकलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो दर्शकों को झटके भी दे रहा था लेकिन पसंद भी आ रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में राज कपूर ने लाइटिंग से दृष्यों को जीवंत किया। रंगीन फिल्मों का दौर आया तो राज कपूर ने इंद्रधनुषी रंगों का बेहतरनी उपयोग करके दर्शकों को बांधने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद की फिल्मों में भी राज कपूर भारतीय जीवन के यथार्थ से टकराते रहे। नर्गिस से उनका रोमांस चरम पर था। देश विदेश में उनके साथ के दौरे चर्चा में रहते थे। 

राज कपूर की जिंदगी और उनकी फिल्मों का रास्ता बदलता है 1960 में। जब वो पद्मिनी को लेकर जिस देश में गंगा बहती है बनाते हैं। यहां से राज कपूर की फिल्मों में नारी देह पर कैमरा फोकस करने लगता है जो राम तेरी गंगा मैली तक निरंतर बढ़ता चला गया। इस बात पर बहस हो सकती है कि राज कपूर की फिल्मों में नारी देह का चित्रण जुगुप्साजनक होता है या सौंदर्य को उद्घाटित करने वाला। 1964 में राज कपूर की फिल्म आती है संगम। इस फिल्म से राज कपूर पूरी तरह से व्यावसायिक राह पर चल पड़े। लेकिन कलाकार मन फिर से दर्शन की ओर लौटने को बेताब था। 1970 में आई फिल्म मेरा नाम जोकर। फिल्म बिल्कुल नहीं चली। राज कपूर पर इस असफलता का गहरा प्रभाव पड़ा। यही वो दौर था जब उनके पिता का अमेरिका में इलाज चल रहा था। राज कपूर डिप्रेशन में तो गए लेकिन टूटे नहीं। पांच वर्ष बाद जब उनकी फिल्म बाबी आई तो उसने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। हिंदी फिल्मों में रोमांस का रास्ता भी बदल दिया। बाबी के बाद की बनी कई फिल्मों में स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के किशोर और अल्हड़ प्रेम का प्लाट भी अन्य निर्माता निर्देशकों के हाथ लग गया। नारी देह पर घूमने वाला राज कपूर का कैमरा सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत अमान की देह के विभिन्न कोणों पर पहुंचता है लेकिन फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नारी देह दिखाने का राज कपूर का फार्मूला हर फिल्म में नहीं चला। संगम में वैजयंती माला के अंग प्रदर्शन को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन जब मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल की नग्न टांगों को और सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत के उत्तेजक दृष्यों को नकारा। फिर राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के देह दर्शन ने फिल्म को सफलता दिलाई। 1982 में जब राज ने प्रेम रोग बनाया तो इस फिल्म में सामतंवादी रूड़ियों पर प्रहार तो था लेकिन एक सुंदर प्रेम कहानी भी गढ़ी गई थी।

यहां ये भी ध्यान रखना चाहिए कि राज कपूर ने अपनी और अपने फिल्मों की अलग जगह उस समय बनाई जब महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्मकार फिल्में बना रहे थे। देवानंद, दिलीप कुमार और जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार निरंतर सफल हो रहे थे। समाजिक यथार्थ और रोमांस का ऐसा मिश्रण राज कपूर ने तैयार किया जिसमें गीत-संगीत से ऐसी मिठास घोली कि दर्शक चार दशकों तक उसके प्रभाव में रहा। राज कपूर की जन्मशती का उत्सव ग्रेट शौ मैन का स्मरण पर्व भी है।