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Saturday, December 28, 2024

समानांतर सिनेमा का अल्पज्ञात पक्ष


इस वर्ष मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड की जूरी में श्याम बेनेगल, व्ही शांताराम के सुपुत्र किरण शांताराम, वरिष्ठ पत्रकार और डाक्यूमेंट्री निर्माता संजीत नार्वेकर, निर्देशक मधुर भंडारकर के साथ मैं भी था। इस बात को लेकर मैं बेहद उत्साहित था कि श्याम बेनेगल जैसे कद्दावर फिल्म निर्देशक के साथ बैठने बतियाने का अवसर मिलेगा। मेरे मन में कई प्रश्न थे जो मैं श्याम बाबू से पूछना चाहता था। नियत तिथि पर मुंबई पहुंचा। जूरी की बैठक के लिए जब पहुंचा तो बताया गया कि श्याम बाबू बीमार हैं। वो नहीं आ पाएंगे और आनलाइन जुड़ेंगे। मगर डायलिसिस में देर हो जाने के कारण वो उस दिन बैठक में आनलाइन भी नहीं जुड़ पाए। बैठक के दौरान ही उनका एक ईमेल मेरे पास आया कि आप जो तय कर देंगे मेरी उस नाम पर सहमति होगी। मैं चौंका क्योंकि इसके पहले कभी श्याम बाबू से भेंट नहीं हुई थी, उनसे परिचय भी नहीं था। जूरी की बैठक हो गई। नाम तय हो गया। फेस्टिवल के आयोजकों को सम्मानित किए जानेवाले फिल्मकार का नाम दे दिया गया। हमें बताया गया कि श्याम बाबू ने मीटिंग की मिनट्स मगंवाई है। बात आई-गई हो गई। शाम को मैं वापस दिल्ली लौट आया। अगले दिन सुबह फोन की घंटी बजी, मैंने उठाया तो उधर से आवाज आई कि श्याम बेनेगल बोल रहा हूं, क्या आप अनंत विजय हैं। मैंने सोचा कि कोई प्रैंक कर रहा है और फोन काट दिया। फिर उसी नंबर से फोन आया तो मैंने उठाकर कहा कि क्यों मजाक कर रहे हो भाई। श्याम बेनेगल साहब के पास न तो मेरा नंबर है और ना ही वो मुझे जानते हैं। इसपर फोन करनेवाले व्यक्ति ने कहा कि वो बेनेगल ही बोल रहे हैं और उनको मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के बारे में बात करनी है। तब मुझे लगा कि ये श्याम बाबू ही हैं। मैंने प्रणाम किया और फोन काटने के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा तो बोले कि आपकी प्रतिक्रिया उचित थी। खैर... अवार्ड के चयन पर उन्होंने बात की और धन्यवाद कहा। मैंने उनके फोन रखने के पहले पूछा कि श्याम बाबू मैं आपसे समांतर सिनेमा के बारे में कुछ बात करना चाहता हूं। लेकिन थोड़ी लंबी बात होगी तो समय दे दीजिए। उन्होंने अगले दिन सुबह 11 बजे फोन करने को कहा। 

अगले दिन सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा करते हुए कुछ प्रश्न तैयार करना आरंभ किया। तैयार कर भी लिया। अगे दिन 11 बजते ही फोन मिला दिया। श्याम बाबू ने फोन उठाकर कहा कि आप समय के पाबंद हैं यह जानकर खुशी हुई। अब उनको मैं क्या कहता कि मैं तो सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। हाल-चाल पूछकर बोले कि बताइए क्या पूछना है। मैंने श्याम बाबू से कहा कि आप समांतर सिनेमा के आरंभिक निर्देशकों में माने जाते हैं तो क्या आप लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से एक विशेष तरह की फिल्में बनानी शुरू कीं। आपलोगों ने जिस तरह से हिंदी फिल्मों में आम लोगों का प्रवेश करवाया क्या उसके पीछे कम्युनिस्ट विचारधारा थी। आगे कुछ बोलता इसके पहले वो बोले कि आपको जानकर आश्चर्य होगा कि समांतर सिनेमा को पहचान एक बहुत ही दिलचस्प कारण से मिली। आपको एक प्रसंग बताता हूं। मैंने जब अंकुर फिल्म बनाई थी तो सत्यजित राय को दिखाई थी। फिल्म देखने के बाद राय साहब ने जानना चाहा था कि अंकुर से मेरी क्या अपेक्षा है। तब मैंने उनको बताया था कि मेरी अपेक्षा बस इतनी है कि ये फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमा हाल में सप्ताह भर चल जाए। तो उन्होंने कहा था कि एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी ये फिल्म। उस समय मुझे लगा था कि सत्यजित राय साहब ने मेरे उत्साहवर्धन के लिए ऐसा कहा था। उनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ। मेरी फिल्म इरोस में पहली बार दिखाई गई। संभवत: वो पहली हिंदी फिल्म भी थी जो इरोस में दिखाई गई। इसमें ना तो मेरा कोई योगदान था और ना ही सिनेमाघऱ के मालिक की उदारता। 

हुआ ये था कि उन दिनों इरोस समेत दक्षिण मुंबई के सिनेमाघरों में अमेरिकी फिल्में चला करती थीं। उन सिनेमाघरों में हिंदी की फिल्में नहीं दिखाई जाती थीं। 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों की बात थी। भारत सरकार ने हालीवुड की फिल्मों के आयात पर आंशिक पाबंदी लगा थी। सरकार ने एक संख्या तय कर दी थी कि इतनी ही अमेरिकी फिल्में आयात होकर भारत के सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है। सरकार में बैठे लोगों का सोच था कि इससे भारतीय फिल्मों को बढ़ावा मिलेगा। विदेशी मुद्रा विनिमयन की भी सीमा तय कर दी गई थी। परिणाम ये हुआ कि दक्षिण मुंबई के अलावा अन्य महानगरों के सिनेमाघरों में दिखाने के लिए हालीवुड की फिल्में कम हो गईं। सिनेमाघरों के स्क्रीन खाली होने लगे। ये वही समय था जब मेरी और मेरे जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशकों की फिल्में आने लगीं। हमें इन महानगरों के सिनेमाघरों में एक संभावना नजर आई। हमने उनसे संपर्क कर अपनी फिल्में वहां दिखानी आरंभ की। हमें स्क्रीन मिलने लगे और सिनेमाघर मालिकों को फिल्में। जो दर्शक अंग्रजी फिल्में देखने इन सिनेमाघरों में आते थे वही दर्शक हमारी फिल्मों को मिलने लगे। समाज में हमारी फिल्मों की चर्चा होने लगी। अंग्रजीदां लोगों को हमारी फिल्में अच्छी लगने लगीं और फिर समांतर सिनेमा, वैकल्पिक सिनेमा या नया सिनेमा जैसी संज्ञा हमारी फिल्मों को मिले। जब महानगरों में ये फिल्में दिखाई जाने लगीं तो अंग्रेजी मीडिया ने भी हमारी फिल्मों पर लिखना आरंभ कर दिया। इस तरह से समांतर सिनेमा को एक पहचान मिली। ये पहचान बाद में देशव्यापी हुई। श्याम बाबू इसके बाद हंसे और बोले कि कुछ अन्य कारण भी थे जिसके कारण हमारी फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों से अलग दिखती थीं। दरअसल उस समय मुख्यधारा की जो फिल्में बन रही थीं उनमें कहानियां और ट्रीटमेंट कमोबेश एक जैसे होते थे जिससे दर्शक उबने लगे थे। आपको याद रखना चाहिए था कि ये वही दौर था जब अमिताभ बच्चन का भी उदय हो रहा था। कहानियां और कहानी कहने का अलग अंदाज भी एक कारण थे जिसको ना केवल समांतर सिनेमा ने अपानाया बल्कि मुख्यधारा की फिल्मों में भी वो बदलाव दिखा। लंबी बात हो गई थी। मेरे पास कई प्रश्न शेष थे लेकिन श्याम बाबू ने कहा कि अगली बार जब मुंबई आएं तो मिलें। बैठकर बातें करेंगे। अफसोस कि श्याम बाबू से बातें अधूरी रह गईं। मुंबई जाना होगा लेकिन अब उनसे मिलना नहीं पाएगा। उनके निधन ने मुझसे ये अवसर छीन लिया। 

श्याम बेनेगल जी से बात करने के बाद समांतर सिनेमा को देखने का मेरा नजरिया बदला। ये भी लगा कि किस तरह से वामपंथी विचारधारा के लोग किसी भी चीज को लेबल कर देते हैं । इसमें उनका पूरा ईरोसिस्टम कार्य करता है। श्याम बाबू की बातों को सुनने के बाद राज कपूर का एक इंटरव्यू याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा था कि वो मैसेज देने या समाज को बदलने आदि के लिए कोई फिल्म नहीं बनाते हैं। उनको जो कहानी अच्छी लगती है उसका फिल्मांकन करते हैं। फिल्मों को श्रेणीबद्ध तो फिल्म समीक्षक करते हैं। 


Monday, December 23, 2024

सत्यजित राय से प्रभावित थे श्याम बेनेगल


स्वाधीन भारत में जिन कुछ फिल्मकारों ने व्यावसायिक फिल्मों से हटकर समांतर सिनेमा की शुरुआत की उनमें श्याम बेनेगल प्रमुख हैं। 1973 में जब श्याम बेनेगल की पहली फिल्म अंकुर प्रदर्शित हुई तबतक उनका संघर्ष बहुत लंबा हो चुका था। करीब 12 वर्षों के बाद उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा हो सका। श्याम बेनेगल ख्यात फिल्मकार सत्यजित राय को अपना गुरु मानते थे। बेनेगल ने एकाधिक बार ये माना कि उनपर सत्यजित राय का गहरा प्रभाव था। वो सत्यजित राय की तरह की ही फिल्में बनाना चाहते थे। जब फिल्म अंकुर की एडिटिंग हो रही थी को श्याम बेनेगल ने सत्यजित राय को बांबे (अब मुंबई) बुलाकर फिल्म दिखाई थी। मुंबई के बुडहाउस रोड और कोलाबा के बीच एक छोटे से थिएटर में सत्यजित राय ने अंकुर देखी थी। फिल्म देखने के बाद सत्यजित राय ने खूब प्रशंसा की थी। उन्होंने श्याम बेनेगल से पूछा था कि इस फिल्म से तुम्हारी क्या अपेक्षा है?  बेनेगल ने उत्तर दिया था कि वो चाहते हैं कि फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमाघर में सप्ताह भर चले। तब सत्यजित राय ने कहा था कि ये एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी। राय का कथन सही साबित हुआ था। इस फिल्म से श्याम बेनेगल को फिल्मकार के रूप में पहचान मिली। 

श्याम बेनेगल को इंदिरा गांधी पसंद करती थीं। उनकी फिल्म अंकुर की वो प्रशंसक थीं। कहा जाता है कि विदेशी राजनयिकों को वो अंकुर दिखाया करती थीं। इमरजेंसी के दौरान 1976 में जब श्याम बेनेगल की फिल्म निशांत आई तो भारत सरकार ने उसको प्रतिबंधित कर दिया। भारत में इस फिल्म पर प्रतिबंध था लेकिन अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में फिल्म निशांत पसंद की जा रही था। कान फिल्म महोत्सव में तो इस फिल्म को आडियंस अवार्ड भी मिला था। इस फिल्म को भारत में पदर्शित करने के लिए सत्यजित राय ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा । इंदिरा गांधी ने फिल्म मंगवा कर देखी। फिल्म देखने के बाद उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ला को प्रतिबंध हटाने का उपाय ढूंढने को कहा। शुक्ला को जब पता चला कि बेनेगल सीधे इंदिरा गांधी तक पहुंच गए हैं तो आगबबूला हो गए। उन्होंने बेनेगल को अपने दफ्तर में बुलावाया और काफी देर तक कार्यालय में खड़े रहने को मजबूर किया। बाद में कुछ शर्तों के साथ प्रतिबंध हटाने का आश्वासन दिया। प्रतिबंध हटा। पर फिल्म के पहले एक सूचना देनी पड़ी कि इस फिल्म की घटनाएं स्वाधीनता पूर्व के भारत की हैं। फिल्म प्रदर्शित हुई। श्याम बेनेगल ने कई बेहतरीन फिल्में बनाई लेकिन उनको याद किया जाएगा उन फिल्मों के लिए जिसमें उन्होंने सामाजिक विषमता दिखाई। 


Saturday, December 21, 2024

रखरखाव की बाट जोहते वैश्विक धरोहर


हाल ही में मुंबई के इंडिया गेट के पास फेरी हादसा हुआ। ये दुखद घटना थी। इस घटना के साथ ही स्मरण हो आया कुछ समय पहले की मुंबई से फेरी से एलिफेंटा की यात्रा। मुंबई के अपोलो बंदर, जो अब गेटवे आफ इंडिया के नाम से ज्यादा जाना जाता है, से अरब सागर स्थित एलिफेंटा द्वीप तक की यात्रा। जहां लोग फेरी से आते-जाते हैं। मुंबई के गेटवे आफ इंडिया से एलिफेंटा तक जाने में करीब घंटे भर का समय लगता है। अरब सागर की लहरों पर हिचकोले खाती फेरियों में सावधानी से बैठे रहना पड़ता है। जब फेरी एलिफेंटा तक पहुंचती है तो ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। पुर्तगालियों ने इस द्वीप का नाम एलिफेंटा दिया। इस द्वीप पर हाथी की एक विशालकाय प्रतिमा थी जो अब मुंबई के माता जीजाबाई उद्यान में रखी गई है। एलिफेंटा द्वीप पर पहुंचने पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक बोर्ड दिखता है जिसपर लिखा है कि एलिफेंटा द्वीप मूलत घारापुरी के नाम से जाना जाता है। एलिफेंटा का नाम यहां से प्राप्त शैलकृत एक विशाल हाथी के कारण रखा गया है। इस बोर्ड से ही ये ज्ञात हुआ कि आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई)द्वारा इन गुफाओं को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक अधिसूचना क्रमांक -2704-अ-दिनांक 26.5.1909 द्वारा घोषित किया गया है। तत्पश्चात यूनेस्को द्वारा विश्वदाय स्मारकों की सूची में एलिफेंटा गुफाओं को 1987 में शामिल किया गया है। ये गुफाएं औरर यहां मौजूद मूर्तियां इतनी महत्वपूर्ण है कि इसको वर्ल्ड हैरिटेज साइट माना गया।

अब जरा इस द्वीप की ऐतिहासिकता और यहां प्रदर्शित कला के बारे में जान लेते हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि 1579 में इस द्वीप पर जे एच वान नाम का एक यूरोपियन आया था जिसने अपनी पुस्तक डिस्कोर्स आफ वायजेज में इस द्वीप का उल्लेक पोरी के तौर पर किया गया है। इसके आधार पर भारतीय इतिहासकार ये मानते हैं कि सोलहवीं शती में इस द्वीप को पुरी के नाम से जाना जाता होगा। इस द्वीप के नाम को लेकर इतिहासकारों में कई तरह की राय है। एलिफेंटा में पुरातात्विक खोज के दौरान एक ताम्र घट मिला था। उस घट पर जोगेश्वरी देवी के श्रीपुरी में बना, ऐसा उत्कीर्ण है। इसके आधार पर कुछ लोगों का मत है कि इस द्वीप को श्रीपुरी के नाम से जाना जाता होगा। जोगेश्वरी मुंबई महानगर में एक स्थान है। स्थानीय लोग इसको घारापुरी कहते हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बोर्ड पर भी ऐसा ही लिखा है। घारा को कुछ लोग शैव मंदिरों के पुजारी से भी जोड़ते हैं। क्योंकि शिव मंदिर के पुजारियों को घारी कहा जाता था। इस द्वीप की गुफाओं में शिव के कई स्वरूप की मूर्तियां हैं।संभव है कि वहां पुजारियों की संख्या काफी रही होगी जिसके आधार पर घारापुरी नाम से जाना जाता होगा। 

घारापुरी की गुफाओं में स्थित जिस एक मूर्ति के बारे में चर्चा करना आवश्यक लगता है उसको त्रिमूर्ति कहते हैं। यह अद्भुत मूर्ति है। इसमें शिव के तीन दिशाओं में तीन सर और चेहरा हैं। इस मूर्ति में जटा का विन्यास इस तरह से किया गया है कि वो भव्य मुकुट का आभास देता है। सामने शिव का जो चेहरा है वो बेहद गंभीर मुद्रा में है और उसके होठ बहुत मोटे और लटके हुए हैं। आमतौर पर इस तरह के होठ वाली मूर्तियां कम मिलती हैं।  इतिहासकार राधाकमल मुखर्जी के अनुसार इस मूर्ति के बीच का मुख निरपेक्ष और पारलौकिक तत्पुरुष सदाशिव का है। दायां चेहरा उग्र, भृकुटि ताने हुए और विनाश व वैराग्य की भावना वाले अघोरभैरव का है और बांयी ओर पार्वती का चेहरा है। मुखर्जी ने अपने लेख प्रतीक और प्रतिमान में लिखा है कि यह त्रिमूर्ति-स्वरूप एक समय भारत तथा गांधार, तुर्किस्तान और कंबोडिया में सुपरिचित था। चीन की युन-थाल गुफा में इसको पाया गया है तथा जापान की दाई इतोक यही है। यह शिव त्रिमूर्ति भारतीय संस्कृति की विशिष्ट विषय वस्तु का अद्वितीय और व्याक प्रतीक है। कुछ लोग इस त्रिमूर्ति को ब्रह्मा, विष्णु और शिव की तरह देखते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। अधिकतर लोग मुखर्जी से सहमत हैं। जहां शिव की ये त्रिमूर्ति स्थित है उस कक्ष के बाहर दो द्वारपाल की मूर्तियां भी हैं। इस त्रिमूर्ति के अलावा घारापुरी में कई अन्य मूर्तियां भी हैं जो भारतीय कला की श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं। इन मूर्तियों में अर्धनारीश्वर शिव की भी एक मूर्ति है। मंडप के सम्मुख गर्भगृह में पूर्वी द्वार की ओर एक बड़ा सा शिवलिंग है। इन मूर्तियों की खास बात है कि इनको पहाड़ियों को काटकर बनाया गया है। एक शिवलिंग को छोड़कर सभी मूर्तियां पहाड़ी को काटकर बनाई गई है। शिवलिंग का पत्थर अलग प्रतीत होता है । ऐसा लगता है कि इसको कहीं बाहर से लाकर वहां प्रतिष्टइत किया गया होगा।

इतने विस्तार में घारापुरी स्थित मूर्तियों का विवरण इस कारण से दिया ताकि इस बात का अनुमान हो सके कि देश के विभिन्न हिस्सों में कितनी ऐसी चीजें हैं जो ना केवल ऐतिहासिक हैं बल्कि भारतीय कला का उत्कृष्ट उदाहरण भी हैं। जो लोग भारतीय कला को नेपथ्य में रखकर फ्रांसीसी, पुर्तगाली और मुगलकालीन कला पर लहालोट होते रहते हैं उनको घारापुरी की कलाकृतियों को देखकर उसपर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। एक और बात जिस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है वो इन विरासत का संरक्षण। यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल घारापुरी की इन गुफाओं की उचित देखभाल नहीं हो रही है। यहां पहुंचने वाले पर्यटक आसानी से इन प्रतिमाओं तक पहुंच जाते हैं। ना केवल वहां खड़े होकर फोटो खींचते हैं बल्कि चाक आदि से दीवारों पर कुछ लिख भी देते हैं। नागरिकों को अपने कर्तव्य समझने चाहिए । विरासत को संरक्षित करने रखने में सहयोग करना चाहिए। दूसरी तरफ एएसआई को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि पर्यटक इन कलाकृतियों को दूर से देखें। कुछ मूर्तियों को घेरा गया है लेकिन वो नाकाफी है। इसके अलावा परिसर का रखरखाव भी एएसआई की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। वहां उपस्थितत कर्मचारी या गार्ड इन कलाकृतियों को लेकर संवेदनहीन दिखे। उनको इस बात का एहसास ही नहीं था कि उनपर वैश्विक धरोहर के रखरखाव का दायित्व है। कलाकृतियां भी रखरखाव की बाट जोहती प्रतीत हो रही थीं। पहले भी इस स्तंभ में कोणार्क मंदिर और त्रिपुरा के उनकोटि परिसर के रखरखाव में लापरवाही को लेकर लिखा जा चुका है। हमारे ये धरोहर उपेक्षा का शिकार होकर नष्ट होने की ओर बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी निरंतर अपनी विरासत के संरक्षण की बातों पर जोर दे रहे हैं लेकिन संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था एएसआई अन्यान्य कारणों से संरक्षण में पिछड़ जा रही है। देश में एक ऐसी संस्कृति नीति की आवश्यकता है जिसमें धरोहरों के संरक्षण को प्रमुखता दी जाए। अधिकारियों का एक अखिल भारतीय काडर बने जो कला संस्कृति और धरोहरों को लेकर विशेष रूप से प्रशिक्षित हों। औपनिवेशक काल की व्यवस्था से बाहर निकलना होगा। आज संस्कृति मंत्रालय का दायित्व वन से लेकर डाक सेवा के अधिकारियों पर है। वन, डाक, रेल और राजस्व की तरह ही कला संस्कृति को नहीं चलाया जा सकता है। 


प्रेम और रोमांस का कुशल चितेरा


राज कपूर एक ऐसे फिल्मकार थे जो अपनी जिंदगी में घटित घटनाओं को अपनी फिल्मों में इस तरह पिरोते थे कि वो कहानी का बेहद दिलचस्प हिस्सा हो जाता था। दो फिल्मों का जिक्र जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की घटनाओं को फिल्मों में रिक्रिएट किया। संगम फिल्म में एक सीन है। राज कपूर जब वैजयंतीमाला के पहनने के लिए गहना निकाल रहे होते हैं तो उनको एक पत्र मिलता है। वो उसको पढ़ना चाहते हैं। अचानक फोन की घंटी बजती है और वैजंयतीमाला उनके हाथ से कागज छीनकर दूसरे कमरे में चली जाती है। फोन पर बात करते-करते वो उस कागज को फाड़कर खिड़की से बाहर फेंक देती है। राज कपूर ये देख लेते हैं। दोनों पार्टी में जाने के लिए निकलते हैं तो राज कपूर रुमाल भूलने का बहाना करके वापस लौटते हैं। खिड़की के बाहर फटे कागज को उठाने लगते हैं। वैजंयतीमाला को शक होता है। वो वापस कमरे में आती है। दोनों में झगड़ा होता है। ये सब राज कपूर की असली जिंदगी में घटित हुआ था जिसको उन्होंने फिल्म संगम में उतार दिया। 1955 में राज और नर्गिस फिल्म चोरी चोरी की मद्रास (अब चेन्नई) में शूटिंग कर रहे थे। एक होटल में रुके थे। दोनों एक पार्टी में जानेवाले थे। देर हो रही थी। वो नर्गिस के पास पहुंचे तो देखा उसके हाथ में एक कागज था। राज ने कागज के बारे में पूछा कि ये क्या है। कुछ नहीं, कुछ नहीं कहकर नर्गिस ने कागज को फाड़ कर फेंक दिया। जब दोनों कार तक पहुंचे तो राज रुमाल भूलने का बहाना बनाकर वापस उसी जगह पहुंचे और डस्टबिन से फटे हुए कागज उठाकर अपने कमरे की दराज मे रख दिया। पार्टी से लौटेने के बाद राज ने फटे कागजों को जोड़कर पढ़ा। वो शाहिद लतीफ नाम के एक प्रोड्यूसर का प्रणय निवेदन था। दोनों में जबरदस्त झगड़ा होता है। राज कपूर ने अपनी जिंदगी की इस सच्ची घटना को संगम फिल्म में रख दिया। 

दूसरी घटना भी नर्गिस से ही जुड़ी हुई है। नर्गिस अपनी मां के साथ बांबे (अब मुंबई) के चित्तो मैंशन में रहती थीं। एक दिन राज कपूर उनके घर पहुंचे और उन्होंने घंटी बजाई। थोड़ी देर बाद एक सुंदर सी लड़की ने दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उसने अपने हाथ से बाल ठीक किए। वो सीधे रसोई से आई थी और उसके हाथ में बेसन लगा हुआ था। जब वो बाल ठीक कर रही थीं तो गीला बेसन उनके बालों में लग जाता है। राज कपूर के मन पर ये सुंदर दृश्य अंकित हो जाता है। वर्षों बाद जब वो बाबी फिल्म बनाते हैं तो ये दृष्य डिंपल कपाड़िया पर फिल्माते हैं। 

राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। 

शैलेन्द्र और राज कपूर के मिलने की दिलचस्प कहानी है। स्वाधीनता का संघर्ष अपने चरम पर था। बांबे (अब मुंबई) में प्रोफेशनल राइटर्स एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में शैलेन्द्र ने एक गीत गाया था, मेरी बगिया में आग लगा गया रे गोरा परदेशी। वहां राज कपूर भी थे। कार्.क्रम के बाद राज ने  शैलेन्द्र से अपनी फिल्म आग के लिए गीत लिखने का अनुरोध किया। शैलेन्द्र ने ये रहकर मना कर दिया कि वो पैसे के लिए कविता नहीं लिखते हैं। बात आई गई हो गई। आग के बाद जब राज कपूर अपनी अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे। एक दिन शैलेन्द्र उनके महालक्ष्मी वाले आफिस में पहुंचे। राज कपूर से मिलकर बोले शायद आप मुझे पहचान रहे हों। मेरी पत्नी गर्भवती और बीमार है, मुझे 500 रुपयों की आवश्यकता है। कुछ दिनों के लिए उधार दें। मैं रेलवे में नौकरी करता हूं। दो तीन महीने में वापस कर दूंगा। राज कपूर ने उनको रुपए दे दिए। दो महीने बाद शैलेन्द्र पैसे वापस करने आए। राज कपूर ने वापस लेने से मना कर दिया, बोले कि आपकी जरूरत के समय पैसे दिए थे मैं साहूकार नहीं कि पैसे देकर वापस लूं। स्वाभिमानी शैलेन्द्र को ये बात जंची नहीं। उन्होंने कहा कि मैं कर्ज कैसे उतारूं। राज कपूर ने हंसते हुए कहा कि अगर कर्ज उतारना चाहते हैं तो मेरी फिल्म बरसात के लिए गीत लिख दें। शैलेन्द्र ने बरसात के लिए दो गीत लिखे। राज की अगली आवारा के गीत लिखने के लिए शैलेन्द्र तैयार नहीं थे। ख्वाजा अहमद अब्बास के कहने पर उन्होंने आवारा के गीत लिखे। शैलेन्द्र और राज कपूर की मित्रता इस तरह से प्रगाढ़ हुई। 

फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। इसका संकेत उनकी फिल्म के आरंभ में भी मिला करता था जहां उनके पिता पृथ्वीराज कपूर के शिवलिंग के सामने बैठकर श्लोक पढ़ने के दृष्य से होता था।


Sunday, December 8, 2024

मेरा नाम राजू...


दस ग्यारह वर्ष का एक बालक बाग में एयर गन से खेल रहा था। पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। अचानक बालक ने एयर गन से चिड़ियों की झुंड पर फायर कर दिया। एक बुलबुल पेड़ से नीचे गिरी। उसकी मौत हो चुकी थी। बालक ने उसको प्यार से उठाया। बाग में ही गड्ढा खोदकर बुलबुल को उसमें डालकर मिट्टी से ढंक दिया। फिर कुछ फूल लाकर उसने उस जगह पर रखा। बुलबुल को श्रद्धांजलि दी। साथ खेल रहे भाई बहनों से भी फूल डलवाया। बाद में इस कहानी को उसने बेहद संवेदनशील तरीके से अपने परिवारवालों को सुनाया। मधु जैन ने अपनी पुस्तक में इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए लिखा है कि वो बालक मास्टर स्टोरीटेलर राज कपूर था। कहना ना होगा कि राज कपूर में बचपन से ही कहानी कहने का ना केवल शऊर था बल्कि उसमें समय के अनुरूप रोचकता का पुट मिलाने का हुनर भी। वो कहानियों में संवेदना को उभारते थे। राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। 

राज कपूर ने अपनी फिल्मों में रोमांस का एक ऐसा स्वरूप पेश किया जो मिजाज में तो पश्चिमी था लेकिन उसमें भारतीयता के तत्व भी भरे हुए थे। उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें पश्चिम की छाप थी लेकिन वातावरण और सामाजिक प्रतिरोध भारतीय था। आवारा में नर्गिस एक समय में दो पुरुषों से प्यार करती है। एक ऐसी नारी जो सोच और परिधान से पश्चिम से प्रभावित है लेकिन भारतीय वातावरण में रह रही है। इसका नायक भी समाज के तमाम बंधनों से मुक्त है। राज कपूर ने कैमरे की आंख से बाहर निकलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो दर्शकों को झटके भी दे रहा था लेकिन पसंद भी आ रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में राज कपूर ने लाइटिंग से दृष्यों को जीवंत किया। रंगीन फिल्मों का दौर आया तो राज कपूर ने इंद्रधनुषी रंगों का बेहतरनी उपयोग करके दर्शकों को बांधने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद की फिल्मों में भी राज कपूर भारतीय जीवन के यथार्थ से टकराते रहे। नर्गिस से उनका रोमांस चरम पर था। देश विदेश में उनके साथ के दौरे चर्चा में रहते थे। 

राज कपूर की जिंदगी और उनकी फिल्मों का रास्ता बदलता है 1960 में। जब वो पद्मिनी को लेकर जिस देश में गंगा बहती है बनाते हैं। यहां से राज कपूर की फिल्मों में नारी देह पर कैमरा फोकस करने लगता है जो राम तेरी गंगा मैली तक निरंतर बढ़ता चला गया। इस बात पर बहस हो सकती है कि राज कपूर की फिल्मों में नारी देह का चित्रण जुगुप्साजनक होता है या सौंदर्य को उद्घाटित करने वाला। 1964 में राज कपूर की फिल्म आती है संगम। इस फिल्म से राज कपूर पूरी तरह से व्यावसायिक राह पर चल पड़े। लेकिन कलाकार मन फिर से दर्शन की ओर लौटने को बेताब था। 1970 में आई फिल्म मेरा नाम जोकर। फिल्म बिल्कुल नहीं चली। राज कपूर पर इस असफलता का गहरा प्रभाव पड़ा। यही वो दौर था जब उनके पिता का अमेरिका में इलाज चल रहा था। राज कपूर डिप्रेशन में तो गए लेकिन टूटे नहीं। पांच वर्ष बाद जब उनकी फिल्म बाबी आई तो उसने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। हिंदी फिल्मों में रोमांस का रास्ता भी बदल दिया। बाबी के बाद की बनी कई फिल्मों में स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के किशोर और अल्हड़ प्रेम का प्लाट भी अन्य निर्माता निर्देशकों के हाथ लग गया। नारी देह पर घूमने वाला राज कपूर का कैमरा सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत अमान की देह के विभिन्न कोणों पर पहुंचता है लेकिन फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नारी देह दिखाने का राज कपूर का फार्मूला हर फिल्म में नहीं चला। संगम में वैजयंती माला के अंग प्रदर्शन को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन जब मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल की नग्न टांगों को और सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत के उत्तेजक दृष्यों को नकारा। फिर राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के देह दर्शन ने फिल्म को सफलता दिलाई। 1982 में जब राज ने प्रेम रोग बनाया तो इस फिल्म में सामतंवादी रूड़ियों पर प्रहार तो था लेकिन एक सुंदर प्रेम कहानी भी गढ़ी गई थी।

यहां ये भी ध्यान रखना चाहिए कि राज कपूर ने अपनी और अपने फिल्मों की अलग जगह उस समय बनाई जब महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्मकार फिल्में बना रहे थे। देवानंद, दिलीप कुमार और जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार निरंतर सफल हो रहे थे। समाजिक यथार्थ और रोमांस का ऐसा मिश्रण राज कपूर ने तैयार किया जिसमें गीत-संगीत से ऐसी मिठास घोली कि दर्शक चार दशकों तक उसके प्रभाव में रहा। राज कपूर की जन्मशती का उत्सव ग्रेट शौ मैन का स्मरण पर्व भी है। 


Saturday, December 7, 2024

सरकार तुम्हारी सिस्टम हमारा का सच


पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तकालयों की महत्ता को रेखांकित किया था। मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि माना जाता है कि पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। इस दोस्ती को मजबूत करने के लिए सबसे अच्छी जगह पुस्तकालय है। इस क्रम में उन्होंने चेन्नई से लेकर देश के अन्य हिस्सों में स्थापित पुस्तकालयों का ना केवल उल्लेख किया बल्कि उसको रचनात्मकता के केंद्र के रुप में विकसित करने पर बल भी दिया। इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने बिहार के गोपालगंज के प्रयोग पुस्तकालय की भी चर्चा की। इस पुस्तकालय की चर्चा से आसपास के जिलों में उत्सुकता का वातावरण बना है। प्रयोग पुस्तकालय जिले के 12 गावों के युवाओं को पढ़ने की सुविधा उपलब्ध करवा रहा है। प्रधानमंत्री ने पुस्तकालयों को ज्ञान के केंद्र में रूप में भी रेखांकित किया और लोगों को पुस्तकों से दोस्ती करने का आह्वान भी किया। उनका मानना है कि पुस्तकों से दोस्ती करने पर आपकी जिंदगी बदल सकती है। इसके पहले अपने गुजरात के अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र गांधीनगर के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने भी पुस्तकालयों को समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने पुस्तकालयों के प्रभारियों के साथ एक बैठक भी की। अमित शाह ने कहा कि देश के भविष्य को संवारने में पुस्तकालयों की बड़ी भूमिका है। गृहमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र के सभी पुस्तकालों को दो -दो लाख रुपए देने की भी घोषणा की। उन्होंने पुस्तकालयों को आधुनिक बनाने पर बल देते हुए कहा कि तकनीक के उपयोग को बढ़ाकर व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर पुस्तकें उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। अमित शाह ने प्राचीन ग्रंथों को आनलाइन उपलब्ध करवाने का भी आग्रह किया। इसके पहले राष्ट्रपति ने भी पुस्तकालयों को लेकर अपनी अपेक्षा जाहिर की थी। 

प्रधानमंत्री ने 24 नवंबर 2024 को मन की बात कार्यक्रम में पुस्तकालयों पर अपनी राय रखी और अगले ही दिन यानि 25 नवंबर को संस्कृति मंत्रालय ने अपने एक आदेश के जरिए कोलकाता स्थित राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक प्रभारी को मुक्त करके दूसरे प्रभारी की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया। नेशनल लाइब्रेरी के महानिदेशक ए पी सिंह को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का छह महीने या नियमित नियुक्ति जो भी पहले हो, तक प्रभार दे दिया गया। ये आदेश संस्कृति मंत्री के अनुमोदन के बाद जारी किया गया। 24 नवंबर को प्रधानमंत्री का लाइब्रेरी पर बोलना और 25 नवंबर को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक के प्रबार संबंधित आदेश जारी होना एक संयोग हो सकता है, लेकिन संयोग सुखद है। फिर वही प्रश्न कि प्रभारियों के जरिए सांस्कृतिक संस्थाओं का काम कब तक चलता रहेगा। पता नहीं कब से राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक पर नियमित अधिकारी नहीं हैं। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन देश में पुस्तकालयों की नोडल संस्था है। उसका ये हाल है तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की पुस्तकालयों को लेकर देखे जा रहे स्वप्न का क्या होगा इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है। प्रभारी तो बस संस्था को चलायमान रख सकते हैं। उनसे किसी नवाचार, किसी नए प्रकल्प की आशा व्यर्थ है। उनका प्राथमिक दायित्व तो अपनी मूल संस्था के प्रति होता है। पुस्तकालयों की नोडल संस्था में नियमित महानिदेशक का नहीं होना संस्कृति मंत्रालय के क्रियाकलापों पर बड़े प्रश्न खड़े करता है। 

राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को लेकर संस्कृति मंत्रालय कितनी गंभीर है इसको इस घटना से भी समझा जा सकता है। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के सदस्यों की एक बैठक करीब दो वर्ष बाद 25 सितंबर 2024 को हुई। नवनियुक्त सदस्यों की ये पहली बैठक थी। इस बैठक में पिछले वर्ष के निर्णयों का अनुमोदन होना था। फाउंडेशन पुस्तकों की खरीद भी करता है। इस बैठक में पुस्तकों की सूची अनुमोदन के लिए आई तो कुछ सदस्यों ने उसपर आपत्ति जताई। संस्कृति मंत्री इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने इस मसले को देखने का आश्वासन दिया। आश्वासन तो इस बात का भी दिया गया था कि पुस्तकों की सरकारी खरीद के नियमों को पारदर्शी बनाया जाए। मजे की बात ये रही कि बैठक को दो महीने से अधिक समय बीत गया लेकिन इसका मिनट्स अबतक सदस्यों के पास नहीं पहुंचा है। जब मिनट्स ही नहीं बना तो बैठक में लिए गए निर्णयों का क्या हुआ होगा, इसकी जानकारी की अपेक्षा तो व्यर्थ ही है। दरअसल फिल्म द कश्मीर फाइल्स का वो संवाद बेहद सटीक है, सरकार भले ही तुम्हारी है लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार भले ही 11 वर्षों से चल रही है लेकिन सिस्टम में बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। 

सिस्टम के नहीं बदलने का ही एक और उदाहरण है। कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के नियमों में सख्ती। बताया जा रहा है कि सख्ती के बाद कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत नहीं आ सकता। अगर कोई शास्त्रीय गायन या नृत्य के कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसको सीएसआर के अंतर्गत नहीं माना जाएगा। पहले साहित्य, कला और संस्कृति के आयोजन इस योजना के अंतर्गत आते थे। अब साहित्य को लेकर नियम इतने कड़े कर दिए गए हैं कि किसी कार्यक्रम में पुस्तकों का वितरण बेहद कठिन हो गया है। कल्पना कीजिए कि समाज के पढ़े लिखे लोगों के बीच एक पुस्तक चर्चा रखी गई। लेखक से पुस्तक पर चर्चा करने के बाद आमंत्रित सदस्यों को उनकी पुस्तक भेंट की जाती थी। पहले ये पूरा कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत आता था और खर्चे की औपचारिकताएं बिल आदि जमा कर पूरी कर ली जाती थीं। अब ये कर दिया गया है कि जो भी किसी वस्तु का एंड यूजर होगा यानि कि जिसको भी आयोजक संस्था की ओर पुस्तक भेंट की जाएगी उसका नाम और फोन नंबर आयोजक को संबंधित सरकारी विभाग के पास जमा करना होगा। सायकिल वितरण में तो इस तरह का प्रविधान उचित है लेकिन साहित्यिक कार्यक्रमों में पुस्तक वितरण में ये बाधा है। स्कूलों में पुस्तक वितरण में तो ये दायित्व स्कूल उठा लेते हैं। ये सहजता के साथ संपन्न हो जाता है, लेकिन आयोजनों में एक किताब गिफ्ट देने पर फार्म भरवाना कठिन सा होता है। ये व्यावहारिक दिक्कतें हैं। पिछले 10 वर्षों में अधिक पुस्तकें तो भारतीय विचार और विचारधारा की प्रकाशित हो रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके कार्यों पर प्रकाशित हो रही हैं। प्रश्न ये उठता है कि क्या ईकोसिस्टम भारतीय विचार के पुस्तकों के पाठकों तक पहुंच में नियमों के जरिए बाधा खड़ी कर रहा है। सीएसआर के नियमों में पुस्तकों को लेकर उदारता बरतनी चाहिए। नियम बनाने वालों को इस दिशा में काम करना चाहिए ताकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सोच को और विजन को अमली जामा पहनाया जा सके। लोगों और पुस्तकालयों तक पुस्तकें पहुंचे इसके लिए आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय पुस्तकालयों की नोडल संस्था राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को सक्रिय करे। प्रतिवर्ष नए और उच्च स्तर की पुस्तकें खरीद कर पुस्तकालयों में भेजी जाएं। संस्थाओं को प्रभारियों से मुक्त करके नियमित नियुक्ति की जाए ताकि जो भी व्यक्ति वहां नियुक्त हो उसकी प्राथमिकता में पुस्तकालयों की बेहतरी हो। 

Tuesday, December 3, 2024

साहब बीबी और गुलाम


विमल मित्र के उपन्यास पर साहिब, बीबी और गुलाम नाम से फिल्म बनाने को फिल्म समीक्षकों ने उचित तरीके से नहीं लिया। धर्म कर्म में आस्था रखनेवाली घरेलू महिला का अपने पति का दिल जीतने के लिए शराब पीते दिखाना बेहद जोखिम भरा निर्णय था। मेरे इस फैसले का प्रेस ने स्वागत किया था। दर्शकों की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक रही। इस फिल्म के प्रदर्शन पर बंबई के दर्शकों में केवल दो सीन को लेकर गुस्सा दिखा। पहला जब छोटी बहू आकर्षण में आकर अपना सर भूतनाथ की गोद में रख देती है और दूसरा सीन वो जिसमें वो अपने पति से कहती है कि मुझे शराब का घूंट पीने दो केवल अंतिम बार। मैंने छोड़ने का निश्चय किया है, पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया है। हमने दोनों सीन फिल्म से निकाल दिए। फिल्म के उत्तरार्ध के एक सीन को बदलने को लेकर गुरुदत्त ने 1963 में सेल्यूलाइड पत्रिका में लिखे अपने लेख कैश एंड क्लासिक्स में लिखा था। 

विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित फिल्म साहिब, बीबी और गुलाम को गुरुदत्त ने बनाया था।  अपने प्रदर्शन पर इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। गुरुदत्त ने इस फिल्म में ‘छोटी बहू’ के चरित्र के माध्यम से स्त्री के सेक्सुअल डिजायर को पर्दे पर चित्रित किया था। आज से छह दशक पहले इस तरह के विषयों को फिल्मी पर्दे पर उतारने की बात सोच पाना भी मुश्किल था। गुरुदत्त ने सोचा भी और किया भी। छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने जब शादी करके जमींदार चौधरी के परिवार में हवेली में प्रवेश करती है तो उसकी पहचान बदल जाती है। उसका नाम हवेली की देहरी के बाहर रह जाता है और वो बन जाती है छोटी बहू। जिससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो जमींदार चौधरी खानदान की स्त्रियों की तरह हवेली की चौखट के अंदर ही रहे। वो रहती भी है। परिवार और विवाह को निभाने के लिए सारे जतन करती है। पति पर पूरा भरोसा करती है लेकिन उसका जमींदार पति कहता है कि चौधरियों की काम वासना को उनकी पत्नियां कभी तृप्त नहीं कर सकती हैं। यह सुनकर छोटी बहू के अंदर कुछ दरकता है। वो पति का ध्यान आकृष्ट करने के लिए तमाम तरह के जतन करती है। स्त्री यौनिकता के बारे में भी पति से खुल कर बात करती है जिसमें उसकी स्वयं की संतुष्टि की अपेक्षा भी शामिल है। इन दृष्यों को साहब बीबी और गुलाम में जिस संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। पहले भी कुछ लोगों ने इसपर चर्चा की होगी। 

इस तरह के विषय आज सामान्य लग सकते हैं। लेकिन 1962 की फिल्म में नायिका के संवाद में आता है कि मर्दानगी की डींगे हांकने के बावजूद छोटे बाबू नपुंसक हैं। इस संवाद और दृष्य को उस समय के दर्शक पचा नहीं पाते। उनको झटका लगा था। आज ये सामान्य बात है। मिर्जापुर वेबसरीजीज में भी नायिका और उसके पति के बीच इस तरह के संवाद है। जिसका नोटिस भी नहीं लिया जाता। अभिनेता पंकज त्रिपाठी जिसने अखंडानंद त्रिपाठी का अभिनय किया है और उसकी पत्नी बीना त्रिपाठी की भूमिका निभाने वाली रसिका दुग्गल के बीच भी कुछ दृश्यों में साहिब बीबी और गुलाम के छोटे बाबू और छोटी बहू जैसा संवाद है। दर्शक इन दृष्यों को और संवाद को सहजता के साथ लेता है। समाज बदल गया है। दर्शकों की मानसिकता बदल गई है। स्त्री यौनिकता पर समाज में खुलककर बात होने लगी है। जब गुरुद्दत ने ये सोचा था तब भारतीय समाज इस विषय पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने को तैयार नहीं था। विमल मित्र ने तो फिल्म के प्रदर्शन से वर्षों पहले अपने उपन्यास में ये सब लिख दिया था। माना जाता है कि साहित्य में जो विषय पहले आते हैं वो फिल्मों में बाद में आते हैं। 

साहिब बीबी और गुलाम एक असाधारण फिल्म है। इसका निर्देशन भले ही अबरार अल्वी ने किया है लेकिन इस पूरी फिल्म पर गुरुदत्त की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। गुरुदत्त चाहते थे कि भूतनाथ की भूमिका शशि कपूर करें लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। इस भूमिका के लिए विश्वजीत को भी संपर्क किया गया था पर वो भी नहीं आए। अंत में उन्होंने खुद ये भूमिका निभाई। इसी तरह से छोटी बहू की भूमिका को लेकर नर्गिस से संपर्क किया गया था। गुरुदत्त ने इस फिल्म के लिए लंदन में रह रहे अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र जितेन्द्र आर्य की पत्नी छाया को तैयार कर लिया। वो लोग लंदन से मुंबई शिफ्ट भी हो गए। गुरुदत्त के सामने जब छोटी बहू के गेटअप में छाया की तस्वीरें आईं तो वो निराश हो गए और उनको मना कर दिया। इतना ही नहीं गुरुदत्त इस फिल्म का संगीत निर्देशन एस डी बर्मन से करवाना चाहते थे लेकिन वो अपनी बीमारी के कारण कर नहीं सके तो हेमंत कुमार को लिया गया। साहिर ने मना कर दिया तो शकील बदायूंनी से गीत लिखवाए गए। सिर्फ जब्बा की भूमिका के लिए वहीदा रहमान पहले दिन से तय थीं। जो टीम बनी उसने एक ऐसी फिल्म दी जो आज पूरी दुनिया में फिल्म निर्माण कला के लिए न सिर्फ देखी जाती है बल्कि छात्रों को दिखाकर फिल्म निर्माण की बारीकियां बताई भी जाती हैं।