Translate

Wednesday, December 29, 2010

बिनायक पर बवाल क्यों ?

छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने मानवाधिकार कार्यकर्ता और पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष बिनायक सेन को राजद्रोह के मामले में उम्र कैद की सजा सुनाई है । बिनायक सेन को यह सजा कट्टर नक्सलियों के साथ संबंध रखने और उनको सहयोग देने के आरोप साबित होने के बाद सुनाई गई है । अदालत द्वारा बिनायक सेन को उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के बाद देशभर के मुट्ठी भर चुनिंदा वामपंथी लेखक बुद्धिजीवी आंदोलित हो उठे हैं । उन्हें लगता है कि न्यायपालिका ने बिनायक सेन को सजा सुनाकर बेहद गलत किया है और उसने राज्य की दमनकारी नीतियों का साथ दिया है । उन्हें यह भी लगता है कि यह विरोध की आवाज को कुचलने की एक साजिश है । बिनायक सेन को हुए सजा के खिलाफ वामपंथी छात्र संगठन से जुड़े विद्यार्थी और नक्सलियों के हमदर्द दर्जनों बुद्विजीवी दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए और जमकर नारेबाजी की । बेहद उत्तेजक और घृणा से लबरेज भाषण दिए गए । जंतर मंतर पर जिस तरह के भाषण दिए जा रहे थे वो बेहद आपत्तिजनक थे, वहां बार-बार यह दुहाई दी जा रही थी कि राज्य सत्ता विरोध की आवाज को दबा देती है और अघोषित आपातकाल का दौर चल रहा है । वहां मौजूद एक वामपंथी विचारक ने शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या को सरकार-पूंजीपति गठजोड़ का नतीजा बताया । उनका तर्क था जब भी राज्य सत्ता के खिलाफ कोई आवाज अपना सिर उठाने लगती है तो सत्ता उसे खामोश करने का हर संभव प्रयास करता है । शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या तो इन वामंपंथी लेखकों-विचारकों को याद रहती है, उसके खिलाफ डंडा-झंडा लेकर साल दर साल धरना प्रदर्शन विचार गोष्ठियां भी आयोजित होती है । लेकिन उसी साहिबाबाद में नवंबर में पैंतालीस साल के युवा मैनेजर की मजदूरों द्वारा पीट-पीट कर हत्या किए जाने के खिलाफ इन वामपंथियों ने एक भी शब्द नहीं बोला । मजदूरों द्वारा मैनेजर की सरेआम पीट-पीटकर नृशंस तरीके से हत्या पर इनमें से किसी ने भी मुंह खोलना गंवारा नहीं समझा । कोई धरना प्रदर्शन या बयान तक जारी नहीं हुआ क्योंकि मैनेजर तो पूंजीपतियों का नुमाइंदा होता है लिहाजा उसकी हत्या को गलत करार नहीं दिया जा सकता है । लेकिन हमारे देश के वामपंथी यह भूल जाते हैं कि गांधी के इस देश में हत्या और हिंसा को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है । शंकर गुहा नियोगी या सफदर की हत्या जिसकी पुरजोर निंदा की जानी चाहिए और दोषियों को किसी भी तीमत पर नहीं बख्शा जाना चाहिए लेकिन उतने ही पुरजोर तरीके से फैक्ट्री के मैनेजर की हत्या का भी विरोध होना चाहिए और उसके मुजरिमों को भी उतनी ही सजा मिलनी चाहिए जितनी नियोगी और सफदर के हत्यारे को । दो अलग-अलग हत्या के लिए दो अलग अलग मापदंड नहीं हो सकते ।
ठीक उसी तरह से अगर बिनायक सेन के कृत्य राजद्रोह की श्रेणी में आते हैं तो उन्हें इसकी सजा मिलनी ही चाहिए और अगर निचली अदालत से कुछ गलत हुआ है तो वो हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट से निरस्त हो जाएगा। अदालतें सबूत और गवाहों के आधार पर फैसला करती हैं । आप अदालतों के फैसले की आलोचना तो कर सकते हैं लेकिन उन फैसलों को वापस लेने के लिए धरना प्रदर्शन करना घोर निंदनीय है । भारत के संविधान में न्याय की एक प्रक्रिया है – अगर निचली अदालत से किसी को सजा मिलती है तो उसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का विकल्प खुला है । अगर निचली अदालत में कुछ गलत हुआ है तो उपर की अदालत उसको हमेशा से सुधारती रही हैं । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां निचली अदालत से मुजरिम बरी करार दिए गए हैं लेकिन उपरी अदालत उनको कसूरवार ठहराते हुए सजा मुकर्रर करती रही है । दिल्ली के चर्चित मट्टू हत्याकांड में आरोपा संतोष सिंह को निचली अदालत ने बरी कर दिया लेकिन उसे उपर की अदालत से जमा मिली । ठीक उसी तरह से निचली अदालत से दोषी करार दिए जाने के बाद भी कई मामलों में उपर की अदालत ने मुजरिमों को बरी किया हुआ है । लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक एक तय प्रक्रिया है और संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखनेवाले सभी जिम्मेदार नागरिक से उस तय संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करने की अपेक्षा की जाती है ।
बिनायक सेन के केस में भी उनके परिवारवालों ने हाईकोर्ट जाने का एलान कर दिया है लेकिन बावजूद इसके ये वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी अदालत पर दवाब बनाने के मकसद से धरना प्रदर्शन और बयानबाजी कर रहे हैं । दरअसल इन वामपंथियों के साथ बड़ी दिक्कत यह है कि अगर कोई भी संस्था उनके मन मुताबिक चले तो वह संस्था आदर्श है लेकिन अगर उनके सिद्धांतों और चाहत के खिलाफ कुछ काम हो गया तो वह संस्था सीधे-सीधे सवालों के घेरे में आ जाती है । अदालतों के मामले में भी ऐसा ही हुआ है, जो फैसले इनके मन मुताबिक होते हैं उसमें न्याय प्रणाली में इनका विश्वास गहरा जाता है लेकिन जहां भी उनके अनुरूप फैसले नहीं होते हैं वहीं न्याय प्रणाली संदिग्ध हो जाती है । रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के पहले यही वामपंथी नेता कहा करते थे कि कोर्ट को फैसला करने दीजिए वहां से जो तय हो जाए वो सबको मान्य होना चाहिए । लेकिन जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनके मनमुताबिक नहीं आया तो अदालत की मंशा संदिग्ध हो गई । इस तरह के दोहरे मानदंड नहीं चल सकते । अगर हम वामपंथ के इतिहास को देखें तो उनकी भारतीय गणतंत्र और संविधान में आस्था हमेशा से शक के दायरे में रही है । जब भारत को आजादी मिली तो उसे शर्म करार देते हुए उसे महज गोरे बुर्जुआ के हाथों से काले बुर्जुआ के बीच शक्ति हस्तांतरण बताया था । यह भी ऐतिहासितक तथ्य़ है कि सीपीआई ने फरवरी उन्नीस सौ अडतालीस में नवजात राष्ट्र भारत के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह शुरू किया था और उसपर काबू पाने में तकरीबन तीन साल लगे थे और वो भी रूस के शासक स्टालिन के हस्तक्षेप के बाद ही संभव हो पाया था । उन्नीस सौ पचास में सीपीआई ने संसदीय वयवस्था में आस्था जताते हुए आम चुनाव में हिस्सा लिया लेकिन साठ के दशक के शुरुआत में पार्टी दो फाड़ हो गई और सीपीएम का गठन हुआ । सीपीएम हमेशा से रूस के साथ-साथ चीन को भी अपना रहनुमा मानता था । तकरीबन एक दशक बाद सीपीएम भी टूटा और माओवादी के नाम से एक नया धड़ा सामने आया । सीपीएम तो सिस्टम में बना रहा लेकिन माओवादियों ने सशस्त्र क्रांति के जरिए भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने का एलान कर दिया था । विचारधारा के अलावा भी वो वो हर चीज के लिए चीन का मुंह देखते थे । माओवादी में यकीन रखनेवालों का एक नारा उस वक्त काफी मशहूर हुआ था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन । माओवादी नक्सली अब भी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने की मंशा पाले बैठे हैं । क्या उस विचारधारा को समर्थन देना राजद्रोह नहीं है । नक्सलियों के हमदर्द हमेशा से यह तर्क देते हैं कि वो हिंसा का विरोध करते हैं लेकिन साथ ही वो यह जोड़ना नहीं भूलते कि हिंसा के पीछे राज्य की वो दमनकारी नीतियां हैं । देश में हो रही हिंसा का खुलकर विरोध करने के बजाए नक्सलियों को हर तरह से समर्थन देना कितना जायज है इसपर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए । एंटोनी पैरेल ने ठीक कहा है कि – भारत के मार्क्सवादी पहले भी और अब भी भारत को मार्क्सवाद के तर्ज पर बदलना चाहते हैं लेकिन वो मार्क्सवाद में भारतीयता के हिसाब से बदलाव नहीं चाहते हैं । एंटोनी के इस कथन से यह साफ हो जाता है कि यही भारत में मार्क्स के चेलों की सबसे बड़ी कमजोरी है ।
बिनायक सेन अगर बकसूर हैं तो अदालत सो वो बरी हो जाएंगे लेकिन अगर कसूरवार हैं तो उन्हें सजा अवश्य मिलेगी । देश के तमाम बुद्दजीवियों को अगर देश के संविधान और कानून में आस्था है तो उनको धैर्य रखना चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया पर दवाब बनाने के लिए किए जा रहे धरने प्रदर्शन को तत्काल रोका जाना चाहिए ।

Saturday, December 25, 2010

सदियों का सफरनामा

तकरीबन चार साल पहले की बात है एक किताब आई थी - भारतीय डाक सदियों का सफरनामा लेखक थे अरविंद कुमार सिंह । डाक भवन दिल्ली के सभागार में किताब के विमोचन समारोह में भी शामिल हुआ था । यह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी और उस वक्त ट्रस्ट की कर्ताधर्ता पुलिस अधिकारी नुजहत हसन थी । बात आई गई हो गई । मैनें किताब को बगैर देखे सुने रख दिया था । कई बार इस किताब की चर्चा सुनी-पढ़ी । लेकिन अभी दो मजेदार वाकया हुआ जिसके बाद डाकिया,उसके मनोविज्ञान और डाक विभाग को जानने की इच्छा हुई । हुआ यह कि मैं पिछले दिनों अपनी सोसाइटी में खुले डाकघर में गया और वहां काउंटर पर बैठे सज्जन से कहा कि मुझे पचास पोस्टकार्ड दे दाजिए तो पहले तो उसने हैरत से मेरी ओर देखा और फिर दोहराया कि कितने पोस्टकार्ड चाहिए । मैंने फिर से उसे कहा कि पचास दे दीजिए । इसके बाद उन्होंने अपनी दराज खोलकर कार्ड गिनने शुरू कर दिए, लेकिन बीच बीच में वो मेरी ओर देख रहे थे । पोस्टकार्ड मुझे सौंपने और पैसे लेने के बीच में उस सज्जन की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे जो पैसे वापस करते समय उन्होंने मुझसे पूछ ही लिए । उन्होंने कहा कि आप इतने पोस्टकार्ड का क्या करेंगे - जबतक मैं कुछ बोलता तबतक उन्होंने खुद ही जबाव दे दिया कि शायद आप कोई मार्केटिंग कंपनी चलाते हैं और अपने ग्राहकों को किसी उत्पाद के बारे में जानकारी देना चाहते हैं और पोस्टकार्ड से सस्ता और सुरक्षित माध्यम कुछ और हो नहीं सकता । मैं उनके अनुमान को गलत साबित नहीं करना चाहता था इस वजह से मुस्कुराता हुआ डाकघर से निकल गया ।
दरअसल मैं पोस्टकार्ड का इस्तेमाल छोटे पत्र लिखने में करता हूं । संचार के इस आधुनिक दौर में मेरा अब भी मानना है कि पत्र का स्थान फोन, एसएमएस या फिर ईमेल भी नहीं ले सकते । पत्रों का अपना एक महत्व होता है जिसे पढ़ते वक्त आप पत्र लिखनेवाले की भावनाओं को महसूस कर सकते हैं । मुझे अब भी याद आता है कि जब मैं अपने गांव वलिपुर में रहा करता था तो हर दिन नियम से सुबह-सुबह डाकघर जाता था । तकरीबन बीस साल पहले की बात है उस वक्त लैंडलाइन फोन ने बस, मेरे घर में कदम ही रखा था लेकिन एसटीडी रेट इतने ज्यादा थे कि फोन पर बात नहीं हो सकती थी । हमारे घरों में फोन को लॉक करके रखा जाता था और रात ग्यारह बजने का इंतजार किया जाता था क्योंकि उस वक्त रात ग्यारह बजे के बाद एसटीडी की दरें काफी कम हो जाती थी । उस दौर में डाक लानेवाला डाकिया मेरे लिए पूरी दुनिया से जुड़ने और उसके जानने समझने का एकलौता माध्यम था । इस वजह से डाकिया हमारे समाज का हमारे इलाके का एक अहम वयक्ति होता था । मेरे साहित्यिक मित्र और प्रकाशक काफी पत्र-पत्रिकाएं भेजते थे इस वजह से हर रोज मेरे तीन चार पत्र होते ही थे । कभी कभार डाकिया इस बात से खफा भी होता था कि सिर्फ मेरे तीन पत्र की वजह से उसे तीन-चार किलोमीटर सायकल चलाना पड़ता है लेकिन बाद के दिनों में मैंने उससे दोस्ती कर ली थी । इसके दो फायदे हुए एक तो मेरे पत्र सुरक्षित मिल जाते थे और दूसरे वो पुस्तकों के वीपीपी आदि भी घर तक ले आते थे ।
दूसरा वकया भी डाकिया से ही जुडा़ है । मैं जब भी कहीं लंबे समय के लिए बाहर जाता हूं तो यह वयवस्था करके जाता हूं कि मेरी डाक मेरे अस्थायी पते पर रिडायरेक्ट कर दी जाएं । इस बार यह हुआ कि मैं कीं बाहर गया था । जब लौटकर आया तो महीने भर से कोई डाक नहीं आने पर मेरा माथा ठनका । मैं अपने पास के डाकघर में पहुंचा और पोस्टमास्टर से शिकायत की तो उन्होंने मेरे इलाके के डाकिया को बुलाया और पूछताछ की तो डाकिया ने बेहद मासूमियत से जबाव दिया कि इनकी डाक तो रिडायरेक्ट हो रही थी तो मैंने सोचा कि ये यहां से चले गए हैं सो अब मैं ही इनकी डाक को उसी पते पर रिडायरेक्ट कर देता हूं । डाकिया का यह जबाव इतना मासूमियत भरा और अपनापन लिए था कि मैं कुछ कह नहीं पाया और उन्हें वस्तुस्थिति बताकर डाकघर से बाहर निकल आया । आज के इस भागमभाग के दौर में कौन इतना ध्यान रखता है कि अमुक वयक्ति को इस पते पर डाक रिडायरेक्ट होना है । कूरियर के बढ़ते चलने वाले इस दौर में निजी कंपनियों से आप ये अपेक्षा कर हरी नहीं सकते । दोनों वाकयों से संबंधित अलग-अलग अध्याय इस किताब में हैं- भारतीय पोस्टकार्ड और सरकारी वर्दी में सबका चहेता ।
इन दोनों वाकयों के बाद मैंने अरविंद सिंह की किताब निकाली और उसको पढ़ना शुरू किया । सदियों के सफरनामा में डाक विभाग से जुड़ी हर छोटी बड़ी और रोचक जानकारियां मौजूद हैं । जैसै कि हम डाक बंगला का नाम हमेशा से सुनके रहे हैं , कई बार उन डाक बंगलों में रुकने और रहने का मौका भी मिला है लेकिन यह नहीं सोचा कि इसको जाक बंगला क्यों कहते हैं । अरविंद सिंह ने अपनी इस किताब में यह बताया है कि क्यों इन सरकारी गेस्ट हाउसों को डाक बंगला कहा जाता है- इसका उद्भव डाकविभाग के लिए हुआ था । सड़कों के किनारे उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दिनों तक होटल या सरया नाममात्र की थी । इसी नाते डाक बंगले और विश्राम गृह बनाए गए । ये सरकारी नियंत्रण में थे और वहां पर खिदमतगार चौकीदार और पोर्टर सेवा में उपलब्ध रहते थे.....लॉर्ड डलहौजी के जमाने में कई और डाक बंगले बने । डाक बंगले पुरानी डाक चौकियों के ही उन्नत रूप थे । सन 1863-64 तक डाकविभाग के हाथों में ही इन डाक बंगलों का प्रबंध रहा । इस वर्ष ही डाक विभाग ने डाक बंगलों से मुक्ति पा ली । अरविंद ने इस प्रणाली के बारे में प्रसिद्ध लेखक चेखव की चर्चित कहानी ट्रेवलिंग विथ मेल के जरिए रूस में इस तरह की वयवस्था का उदाहरण दिया है । इस तरह की कई रोचक जानकारियों के अलावा डाक विभाग और डाकिया के बारे में कई शोधपरक जानकारियां भी पेश की गई हैं । मसलन स्वतंत्रता संग्राम में डाक विभाग और डाकियों की भूमिका पर एरक पूरा अध्याय है । 1857 की क्रांति के वक्त उत्तर प्रदेश में आंदोलनकारियों के 8 हरकारों को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया गया था । इस तरह की कई घटनाएं इस किताब में दर्ज हैं जो अबतक या तो अछूती रही हैं या फिर बेहतर तरीके से रेखांकित नहीं हो पाई । इस किताब में डाक विभाग के एक ऐसे महकमे का उल्लेख भी है जो हर साल तकरीबन ढाई करोड़ ऐसे पत्रों को गंतव्य तक पहुंचाता है जिनपर या तो पता लिखा ही नहीं होता है या फिर ऐसा पता लिखा होता है जिसे इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ डाकिया भी नहीं ढूंढ पाता है । इस विभाग रिटर्न लेटर ऑफिस कहा जाता है । इसके अलावा डाक विभाग की उन ऐतिहासिकत इमारतों के चित्र और रोचक विवरण भी इस किताब में है जिन्हें हम देखते तो हैं पर इस बात का एहसास तक नहीं होता है कि वो कितनी अहम इमारतें हैं ।
अरविंद सिंह ने बेहद श्रमपूर्वक शोध के बाद यह पुस्तक लिखी है । इसके पहले डाक विभाग पर कुछ छिटपुट किताबें आई हैं । मुल्कराज आनंद ने अंग्रेजी में एक किताब लिखी थी- स्टोरी ऑफ द इंडियन पोस्ट ऑफिस । लेकिन अरविंद सिंह की किताब मुल्कराज आनंद की किताब से बहुत आगे जाती है । इस वजह से अरविंद की किताब को प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी मूल्यवान मानती हैं । मुझे तो यह किताब इस लिहाज से अहम लगी कि कि यह एक ऐसे महकमे के इतिहास का दस्तावेजीकरण है जो दशकों से हमारे जीवन और समाज का ना केवल अंग रहा है बल्कि हमें गहरे तक प्रभावित भी करता रहा है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस किताब को हिंदी के अलावा अंग्रेजी,उर्दू और असमिया में भी प्रकाशित कर बड़ा काम किया है । अभी अभी अरविंद सिंह की नई किताब - डाक टिकटों पर भारत दर्शन - भी नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी है । यह भी अपनी तरह की एक अनूठी और कह सकते हैं कि हिंदी में पहली किताब है । यह बात संतोष देती है कि हिंदी में भी इन विषयों पर काम शुरू हो गया है ।

Wednesday, December 22, 2010

लीक ने उतारा मुखौटा

इस बात के पर्याप्त सबूत हैं रहे हैं कि भारत के मुस्लिम समुदाय में कुछ तत्व ऐसे हैं, जिनको लश्कर ए तोयबा का समर्थन हासिल है। लेकिन ज्यादा बडा़ खतरा कट्टरपंथी हिंदू संगठनों का हो सकता है । ये संगठन मुस्लिम समुदाय से धार्मिक तनाव और राजनीतिक कट्टरता पैदा करते हैं । ये कथित बातें कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर को 20 जुलाई 2009 को कहा । दरअसल ये कथित बातचीत रोमर और राहुल के बीच तब हुई जब अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आई हुई थी और प्रधानमंत्री ने उनके सम्मान में दावत दी थी । उस दावत में जब रोमर ने राहुल से लश्कर की गतिविधियों और भारत पर आसन्न खतरे के बारे में पूछा तब राहुल गांधी ने उनसे यह बातें कही थी । दोनों के बीच की बातचीत भारत अमेरिका डिप्लोमैटिक संदेशों में दर्ज है । जिसका खुलासा विकिलीक्स ने किया है । जाहिर सी बात है कि इस खुलासे के बाद देशभर में बहस छिड़ गई । बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राहुल गांधी के इस बयान को बचकाना करार दिया । लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जिस वयक्ति में कांग्रेस देश का भविष्य़ देख रही है, जिस वयक्ति को देश के सर्वोच्च पद के लिए तैयार किया जा रहा है, वो शख्स इतनी हल्की बातें कैसे कर सकता है । हल्की इसलिए कि एक ओर जहां भारत आतंकवाद से जूझ रहा है और पूरे विश्व में आतंकवाद और उसके आका पाकिस्तान के खिलाफ माहौल बनाने में जुटा है, वहीं देश पर शासन करनेवाली पार्टी का एक अहम नेता हिंदू कट्टरपंथियों को लश्कर से बड़ा खतरा बता रहा है । क्या ये मान लिया जाए कि राहुल गांधी विश्व के सबसे खूंखार आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा से अंजान हैं, क्या यह भी मान लिया जाए कि राहुल गांधी संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव से भी अंजान हैं जिसमें लश्कर को आतंकी संगठन घोषित कर विश्व मानवता के लिए खतरा बताते हुए उसपर पाबंदी लगा दी गई है। जिसके बाद से लश्कर ने अपना नाम बदल लिया । क्या यह भी मान लिया जाए कि मुंबई हमले के बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान को जो तमाम डॉजियर सौंपे थे उसकी जानकारी भी राहुल गांधी को नहीं है । क्या यह भी मान लिया जाए कि राहुल गांधी को लश्कर के खिलाफ भारत के मुहिम की जानकारी नहीं थी । यह संभव ही नहीं है कि इन सारी बातों से राहुल गांधी अनजान हों ।
दरअसल कांग्रेस पार्टी देश की अल्पसंख्यक आबादी की तुष्टीकरण के लिए किसी भी हद तक जा सकती है । कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं पर बारीकी से नजर रखनेवालों का मानना है कि वोट बैंक की राजनीति के लिए कांग्रेस का एक तबका इस तरह के बयानबाजी करता रहता रहता है । 26/11 के मुंबई हमलों के बाद उस वक्त केंद्र में मंत्री और किसी जमाने में महाराष्ट्र के कद्दावर नेता ए आर अंतुले ने एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल खड़े किए थे । अंतुले ने कहा था कि हेमंत करकरे की मौत को संदेहास्पद करार दिया था और साथ ही यह भी जोडा़ ता कि मालेगांव धमाकों की जांच कर रहे थे । इशारों-इशारों में उन्होंने करकरे की शहादत को मालेगांव धमाके की जांच से जोड़ दिया था । उस वक्त पूरा राष्ट्र मुंबई हमले के जख्मों को झेल रहा था, लिहाजा अंतुले के बयान की चौतरफा आलोचना शुरू हो गई । पाकिस्तानी मीडिया ने भी इसे खूब प्रचारित करना शुरू कर दिया । दबाव बढ़ता देखकर कांग्रेस ने उस बयान से पल्ला झाड़ लिया और बाद में अंतुले को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा । उस वक्त का अंतुले का बयान भी अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखते हुए किया गया था । अभी हाल ही में विकिलीक्स ने इस बात का खुलासा भी किया था कैसे दो हजार चार के आमचुनाव में कांग्रेस ने मुंबई हमलों को भुनाने की कोशिश की थी । कुछ दिनों पहले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी भगवा आतंक का जुमला फेंककर एक बहस को जन्म देने की कोशिश की थी । जब उनके बयान पर बवाल शुरु हुआ तो कांग्रेस ने उसको उनकी वयक्तिगत राय करार दे दिया ।
अब कुछ दिनों पहले पार्टी में खुद को अल्पसंख्यकों का पैरोकार मानने वाले कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी यह कहकर सनसनी फैला दी कि अपनी मौत के चंद घंटे पहले करकरे ने उन्हें फोन कर यह बताया था कि वो हिंदू संगठनों से मिल रही धमकियों से परेशान हैं । दिग्विजय सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं सो उनकी बात को मीडिया में खासी तवज्जों मिली । लेकिन बाद में कुछ अखबारों ने करकरे की कॉल डिटेल छापकर दिग्विजय के बयान को संदेहास्पद बना दिया । बाद में महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटिल ने भी दिग्विजय के बयान की हवा निकाल दी । पाटिल ने कहा कि महकमे के पास कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं है जिससे दिग्विजय और करकरे के बीच की बातचीत की पुष्टि होती हो । यहां एक बार फिर सवाल खड़ा होता है कि अगर उस वक्त करकरे ने दिग्विजय सिंह से अपनी जान का खतरा बताया था तो दिग्गी राजा दो साल तक चुप्पी क्यों साधे रहे । देश यह जानना चाहता है करकरे की आशंका के मद्देनजर दिग्विजय खामोश क्यों रहे । दरअसल ये संदेहास्पद खामोशी कांग्रेस की सियासत का हिस्सा है । दिग्विजय सिंह पहले भी इस तरह की खामोशी साधते रहे हैं । दिल्ली कते बटला हाउस एनकाउंटर के डेढ साल बाद उनको अचानक से इलहाम होता है कि वो एनकाउंटर फर्जी था । दिग्विजय को इस ज्ञान की प्राप्ति आजमगढ़ के संजरपुर में होती है । जहां वो कहते हैं कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सर में गोली लगी है । उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है । जाहिर है इशारा और इरादा दोनों साफ था । अदालत और सरकारी जांच में ये सही साबित हुए मुठभेड़ पर सवाल खड़ा कर दिग्विजय क्या हासिल करना चाह रहे थे, यह आईने की तरह साफ था । उस वक्त भी कांग्रेस ने उनके इस बयान को उनकी वयक्तिगत राय बताकर पल्ला झाड लिया था ।
कुछ दिनों पहले राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित संगठन सिमी से कर दी थी । सिमी और संघ की तुलना करने के अलावा राहुल कोई ठोस सबूत या तर्क अपने इस बयान के समर्थन में पेश नहीं कर पाए । राहुल गांधी अगर अपने इस बयान को लेकर गंभीर थे तो उन्हें अपनी सरकार पर दबाव डालना चाहिए था कि संघ के खिलाफ कार्रवाई करें । लेकिन उस बयान की मंशा किसी तरह की कार्रवाई या देश के प्रति चिंता नहीं बल्कि सिर्फ राजनीतिक फायदा था । अगर हम अंतुले, चिदंबरम और फिर दिग्विजय सिंह के बयानों से राहुल गांधी के बयान को जोड़कर देखें तो एक महीन सी रेखा नजर आती है जिससे एक ऐसी राजनीति की तस्वीर बनती है जहां एक खास समुदाय के वोटरों को लुभाने के लिए खाका तैयार किया जा रहा है । जाहिर सी बात है कि उसके केंद्र में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव है । बिहार की जनता ने राहुल गांधी के करिश्मे पर पानी फेर दिया । राहुल के ताबड़तोड़ दौरे और यूथ ब्रिगेड को वहां उतारने का भी कोई नतीजा नहीं निकला और पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले वहां पार्टी को आधी सीटें मिली । अब चुनौती उत्तर प्रदेश में अपनी साख और सीट दोनों बचाने की है । लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिल गई थी । अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ठीक-ठाक सीटें नहीं मिल पाती हैं तो राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खडे़ होने शुरू हो जाएंगे क्योंकि राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश को राहुल गांधी की प्रयोगशाला के तौर पर प्रचारित किया हुआ है ।

Monday, December 20, 2010

उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार

खबरों के मुताबिक इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी के यशस्वी कथाकार उदय प्रकाश को देना तय हो गया है । दो दिनों पहले हुई तीन सदस्यीय जूरी की बैठक में दो-एक से उदय प्रकाश के पक्ष में फैसला हो गया । इस बार हिंदी की जूरी में अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे और चित्रा मुदगल थी । सूत्रों के मुताबिक बैठक में अशोक वाजपेयी ने उदय प्रकाश के नाम का प्रस्ताव किया जिसका मैनेजर पांडे ने विरोध किया । उसके बाद मैनेजर पांडे से उनकी राय पूछी गई तो उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा का नाम लिया । मैत्रेयी पुष्पा का नाम आते ही चित्रा मुदगल ने अशोक वाजपेयी की बात मान ली और फिर दो के मुकाबले एक से उदय प्रकाश को पुरस्कार देना तय हो गया । उदय प्रकाश को पुरस्कार दिलवाने में अशोक वाजपेयी की महती भूमिका रही । उदय प्रकाश ने पूर्व में अशोक वाजपेयी की तमाम आलोचनाएं की थी । लेकिन पिछले दिनों दोनों के समीकरण ठीक होने लगे थे । उदय प्रकाश साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व करते हैं लेकिन जिस तरह से घेरेबंदी कर अशोक वाजपेयी ने उनको पुरस्कार दिलवाया उससे एक बार फिर से साहित्य अकादमी की कार्यशैली संदेह के घेरे में आ गई है । इस बारे में जैसे-जैेस और जानकारी मिलेगी उसको मैं पोस्ट करूंगा ।

Saturday, December 11, 2010

टोनी ब्लेयर की जर्नी

टोनी ब्लेयर ब्रिटेन के पहले ऐसे राजनेता थे जो बगैर किसी सरकारी अनुभव के सीधे प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुए थे । वह ब्रिटेन के लंबे लोकतांत्रिक इतिहास के दूसरे प्रधानमंत्री थे जिनके नेतृत्व में पार्टी ने आमचुनाव में लगातार तीसरी बार जीत हासिल की थी । इसके पहले ये गौरव सिर्फ मारग्रेट थैचर को मिला था । विश्व युद्ध के बाद लेबर पार्टी के नौ नेताओं में सिर्फ तीन ने आमचुनाव में जीत हासिल की उसमें से भी टोनी ब्लेयर एक हैं । ब्रिटेन के राजनीतिक पंडित लेबर पार्टी में आमूलचूल बदलाव और सुधारों का श्रेय भी युवा टोनी ब्लेयर को ही देते हैं । उनके मुताबिक एक ऐसी पार्टी जिसी साख लगातार गिरती जा रही थी और जो मार्क्सवाद के हैंगओवर से जूझ रही थी, उसमें ब्लेयर ने नई जान फूंकी और उसे आधुनिक यूरोपीय विचारधाऱा के अनुरूप ढालने की ना केवल कोशिश की बल्कि उसमें सफलता भी पाई । टोनी के इस प्रयास को लोगों के समर्थन से बल भी मिला । इसके अलावा टोनी ने ब्रिटेन की अंतराष्ट्रीय नीतियों में भी काफी बदलाव किए । इराक पर अमेरिका का साथ देने से लेकर अंतराष्ट्रीय निशस्त्रीकरण के ब्रिटेन के भावुकता भरे पुराने स्टैंड को बदलकर एक ऐसा स्वरूप दिया जो ज्यादा देशों को स्वीकार्य हो सकता था । टोनी ब्लेयर ने 1994 में लेबर पार्टी की कमान संभाली और तीन साल के अंदर पार्टी में जो बदलाव किया उसको लेकर वहां की जनता में एक उम्मीद जगी और 1997 में ब्लेयर को अपार जनसमर्थन मिला जो ब्रिटेन के इतिहास में अभूतपू्र्व था । इसने वहां 18 साल के कंजरवेटिव पार्टी के शासन का अंत कर दिया ।
इसलिए जब टोनी ब्लेयर ने अपनी आत्मकथा लिखने का ऐलान किया तो बताया जाता है कि प्रकाशक ने उन्हें बतौर अग्रिम राशि पांच मिलियन पौंड की राशि दी । इतनी बड़ी अग्रिम राशि इस वर्ष के प्रकाशन जगत की प्रमुख घटना थी । इसके बाद जब टोनी ब्लेयर की आत्मकथा - अ जर्नी -प्रकाशित हुई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया और प्रकाशन के चार हफ्तों के अंदर उसके छह रिप्रिंट करने पड़े और देखते देखते एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक गई । लेकिन यहां एक बात गौर करने की है कि इस किताब के छपने से पहले उत्सुकता का एक वातावरण तैयार किया गया और प्रकाशक या फिर लेखक के रणनीतिकारों ने इस आत्मकथा के रसभरे प्रसंगों के चुनिंदा अंश लीक किए वह भी जोरदार बिक्री का आधार बना । टोनी ब्लेयर को केंद्र में रखकर पहले भी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । टोनी की पत्नी चेरी ब्लेयर की आत्मकथा तो पूरे तौर पर टोनी के इर्द-गिर्द ही घूमती है और उनकी जिंदगी के कई अनछुए पहलुओं को उद्गाटित करती है । इसके अलावा उनके सहयोगी एल्सटर कैंपबेल की भी किताब आई । उनके दूसरे सहयोगी पीटर मैंडलसन की किताब - द थर्ड मैन, लाइफ एट द हर्ट ऑफ न्यू लेबर - तो कई हफ्तों तक ब्रिटेन के बेस्ट सेलर की सूची में शीर्ष पर रहकर लोकप्रियता और चर्चा दोनों हासिल कर चुका था । सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि टोनी और चेरी के वयक्तिगत और अंतरंग संबंधों का भी पहले खुलासा हो चुका है । जब चेरी और टोनी क्वीन के स्कॉटिश कैसल, बालमोर में छुट्टियां बिताने जा रहे थे तो चेरी वहां गर्भ निरोधक नहीं ले जा सकी क्योंकि उसे इस बात की शर्मिंदगी थी नौकर-चाकर इस तरह की चीजें उसके सामान में कैसे रखेंगे । नतीजा यह हुआ कि बालमोर में चेरी के गर्भ में उनकी चौथी संतान आ गई । इस तरह के कई और प्रसंग पहले से ज्ञात हैं लेकिन टोनी के रणनीतिकारों ने इस किताब को इस तरह से प्रचारित किया कि बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया । हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों को इससे सीख लेनी चाहिए ।
तकरीबन सात सौ पन्नों की इस आत्मकथा में टोनी ने अपनी राजनीति में प्रवेश से लेकर अपने समकालीन विश्व राजनेताओं के साथ अपने संबंधों का भी खुलासा किया है । इसके अलावा टोनी ने एक पूरा अध्याय ब्रिटेन की अपू्रव सुंदरी प्रिंसेस डायना पर भी लिखा है । डायना पर लिखे अध्याय में टोनी ने कहा है कि डायना बेहद आकर्षक थी । टोनी ने खुद को डायना का जबरदस्त प्रशंसक बताया है । इस अध्याय में टोनी और डायना की साथ की गई भारत(कोलकाता), सउदी अरब, इटली आदि की यात्रा का उल्लेख भी है । टोनी लिखते हैं- डायना एक आयकॉन थी और संभवत विश्व की सबसे ज्यादा प्रसिद्ध महिला थी जिसके सबसे ज्यादा फोटोग्राफ खींचे गए थे । वह अपने समय की एक ऐसी खूबसबरत महिला थी जो अपने संपर्क में आनेवाले लोगों पर अपने वयक्तित्व की अमिट छाप छोड़ती थी । पेरिस में सड़क हादसे में डायना की मृत्यु के बाद देश में उपजे हालात और अपनी मनस्थिति का भी विवरण पेश किया है । दरअसल टोनी ने अपनी इस आत्मकथा को कालक्रम के हिसाब से नहीं लिखा है, उन्होंने हर अध्याय को एक थीम दिया है, नतीजा यह हुआ कि पूरे किताब में एक भ्रम की स्थिति बनती नजर आती है । सांप-सीढ़ी के खेल की तरह संस्मरण भी भटकती नजर आती है । इसके अलावा टोनी की जो भाषा है वह भी आकर्षक नहीं है । सामान्य बोलचाल की भाषा को उठाकर टोनी ने लिख दिया है इसको लेकर पश्चिम के विद्वानों ने उनकी खूब लानत-मलामत की है । चार्ल्स मूर ने कहा कि यह किताब बेहद अनाकर्षक ढंग से लिखी गई है । उसमें ऐसे वाक्यों की भरमार है जिसमें अंग्रेजी के सामान्य व्याकरण का भी पालन नहीं करती है । ऐसे जुमलों का का प्रयोग किया गया है जो सुनने में तो बेहतर लगते हैं लेकिन छपकर बेहद हास्यास्पद ।
टोनी ब्लेयर और उनके सहयोगी गॉर्जन ब्राउन के बीच के संबंधों को लेकर बहुत ज्यादा लिखा और कहा जा चुका है । अपने और अपने सहयोगी के बीच के संबंधों पर टोनी ने विस्तार से प्रकाश डाला है और कहीं-कहीं दकियानूसी कहकर ब्राउन का मजाक भी उड़ाया है । टोनी के कार्यकाल में उनका सबसे विवादास्पद निर्णय रहा इराक पर हमले के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाले 34 देशों के गठबंधन को समर्थन देना । टोनी ब्लेयर के लिए इस गठबंधन से दूर रहना आसान था । उस वक्त के अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने टोनी को कहा भी था कि वो लंदन की मजबूरी समझ सकते हैं । टोनी ब्लेयर के सामने अपने पू्र्ववर्ती प्रधानमंत्री हेरॉल्ड विल्सन का उदाहरण भी था जिसने 1964 में वियतनाम युद्ध में अमेरिका को ब्रिटेन का समर्थन देने से इंकार कर दिया था । लेकिन ब्लेयर ने लिखा है कि उन्हें यह लगा कि इराक में बाथ पार्टी की ज्यादतियों का अंत होना चाहिए इस वजह से उन्होंने अमेरिका का समर्थन किया । इस किताब के बाद टोनी के कई आलोचकों ने उनपर जमकर हमले किए । उनका तर्क है कि जब ब्रिटेन के इराक पर हमले में अमेरिका का साथ देने की जांच की जा रही हो तो इस बीच उन स्थितियों के खुलासे का कोई अर्थ नहीं है ।
इस किताब के आखिरी पन्नों पर ब्लेयर ने लिखा है - मेरी हमेशा से राजनीति की तुलना में धर्म में ज्यादा रुचि रही है । इस एक वाक्य के अलावा इस पूरी किताब में धर्म या फिर धर्म के बारे में ब्रिटेन के पू्र्व प्रधानमंत्री ने ना तो कुछ लिखा है और ना ही यह बताया है कि उनके हर दिन के फैसलों और बड़े रणनीतिक निर्णयों को धर्म कैसे प्रभावित करता है । जो वयक्ति यह कह रहा हो कि उसकी धर्म में राजनीति से ज्यादा रुचि हो उसकी जीवन यात्रा में धर्म का उल्लेख ना मिलना हैरान करनेवाला है । इसी तरह से टोनी ने अपनी इस किताब में तेरह जगहों पर भारत का उल्लेख किया है लेकिन कहीं भी गंभीरता से कुछ भी नहीं लिखा है, लगता है कि टोनी के एजेंडे पर भारत था ही नहीं । लेकिन जहां लोकतंत्र और लोकतांत्रिक परंपराओं की बात आती हो तो टोनी भारत का उदाहरण देते हुए कहते हैं - लोकतंत्र सबसे बेहतर शासन पद्धति है और भारत का इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है जहां सर्वोत्तम रूप से लोकतंत्र कायम है । इस तरह की टिप्पणियों से टोनी ब्लेयर की जर्नी की गंभीरता खत्म होती है । पूरी किताब को पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि टोनी ब्लेयर की यह आत्मकथा दरअसल ब्रिटेन के उनके प्रधानमंत्रित्व काल का दस्तावेजीकरण है । लेकिन इस दस्तावेज में टोनी ब्लेयर ने अपने राजनीतिक बदमाशियों का जो जिक्र किया है उसकी वजह से इस भारी भरकम किताब में थोड़ी रोचकता और पठनीयता बनी रहती है ।

Monday, November 22, 2010

सिद्दांत पर भारी सत्ता लोलुपता

एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला और उसके पहले हजारो करोड़ के कॉमनवेल्थ घोटाला और मुंबई के आदर्श सोसाइटी घोटालों के शोरगुल के बीच सुदूर दक्षिण के राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा पर भी जमीन के घोटाले के संगीन इल्जाम लगे हैं । दरअसल यह पहली बार हो रहा है कि देश के दूसरे सबसे बड़े राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी के किसी मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाटाचार के इतने संगीन आरोप लगे हों । हो सकता है कि इस घोटाले के बाद येदुरप्पा को राहत मिल जाए और वो कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने रहें । लेकिन अगर हम पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करनेवाली भारतीय जनता पार्टी में घट रही राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करें तो इस पार्टी के सिद्धांतों और कार्यकलाप में कई अहम बदलाव रेखांकित किए जा सकते हैं । दो साल पहले बनी कर्नाटक की सरकार पर आए दिन स्थायित्व पर खतरा मंडराता रहता है । मुख्यमंत्री येदुरप्पा पर अपने बेटों को फायदा पहुंचाने के आरोप के पहले पिछले पंद्रह महीने में वहां तीन मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त किया गया । तीन मंत्रियों में कृष्णैय्या सेट्टी को पैसा कमाने के लिए अपने पद के दुरुपयोग की वजह से हटाया गया । एक और मंत्री हलप्पा पर बलात्कार का आरोप लगा था जिसके बाद उन्हें मंत्रीपद से हाथ धोना पड़ा । यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, सरकारी नौकरियों में धांधली के आरोप में रामचंद्र गौड़ा की बर्खास्तगी हुई । एक और मंत्री डी सुधाकर पर भी सरकारी कार्यक्रमों में नियमों के विपरीत धन आवंटन का गंभीर आरोप लगा । कयास लगाए जा रहे थे कि येदुरप्पा अपने मंत्रिमंडल में बदलाव के वक्त इनकी छुट्टी कर देंगे लेकिन सुधाकर किसी तरह से बचने में कामयाब रहे । इसके अलावा कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं की ख्याति किसी से छुपी नहीं है । उनके खिलाफ भी सीआईडी और लोकायुक्त की जांच चल रही है । सूबे में अवैध खनन का मामला सुपीम कोर्ट तक आया था । पिछले साल तो रेड्डी बंधुओं ने केंद्रीय नेताओं की शह पर पूरी कर्नाटक सरकार को बंधक बना लिया था और उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई करने में खुद को अक्षम पाने के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री दिल्ली आकर फूट-फूटकर रोए भी थे । बाद में किसी तरह से समझौता हुआ और सरकार बच पाई । एक लाचार मुख्यमंत्री के रूप जाने वाले येदुरप्पा ने बाद में मंत्रिमंडल में बदलाव कर सरकार पर अपनी मजबूत पकड़ होने के संकेत तो दिए हैं लेकिन तीन दलित मंत्रियों को एक साथ हटाने का एक गलत संदेश पूरे प्रदेश में गया । लेकिन येदुरप्पा सरकार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं ।
दूसरी अहम राजनीतिक घटना जो बीजेपी में हुई वो थी झारखंड में जेएमएम के साथ सरकार बनाना । झारखंड में सत्ता में वापस आने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने बार-बाऱ धोखा देने वाले और पार्टी की सरेआम फजीहत करानेवाले शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा से समझौता कर सरकार बनाई । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी जेएमएम के नेताओं के साथ गलबहियां करते बीजेपी नेताओं की तस्वीर देशभर के अखबारों में प्रमुखता से छपी । इन तस्वीरों से बीजेपी का चाल चरित्र और चेहरा तीनों उजागर हो गए । झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन पर भ्रष्टाचार से लेकर हत्या तक के कई मुकदमे चल रहे हैं । अपने पीए शशिनाथ झा की हत्या के संगीन इल्जाम भी उनपर हैं । सीबीआई की चार्जशीट में तो हत्या के अलावा भी कुछ इतर कारण भी दर्ज हैं । कहा तो यह भी जाता है कि सत्ता मोह में पार्टी ने इतनी हड़बड़ी दिखाई कि अध्य़क्ष गडकरी ने वरिष्ठ नेताओं तक को इस गठजोड़ की भनक नहीं लगने दी । राजनीतिक हलकों में तैर रही खबरों के मुताबिक पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने संघ के अपने आकाओं से हरी झंडी लेकर ना केवल सत्ता वापसी की रणनीति बनाई बल्कि उसे अंजाम तक भी पहुंचाया । अगर इन बातों में जरा भी सचाई है तो वह और भी चौंकानेवाली है क्योंकि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात जोर शोर से करता रहा है ।
लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंयसंवक संघ के प्रचारक रहे और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने बाइस से पच्चीस अप्रैल उन्नीस सौ पैंसठ के बीच पांच लंबी तकरीर दी थी । राजनैतिक अवसरवाद पर जोर देते हुए पंडित जी ने कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में आ गए हैं । राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य या फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश हैं । कोई भी नेता किसी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने को गलत नहीं मानता । राजनीति दलों के गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत या मतभेद काम नहीं करता है - वो विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए या सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है । पंडित जी ने यह सब सन पैंसठ में कहा था । उन्हें क्या मालूम कि जिस पार्टी को उन्होंने अपनी मेहनत और निष्ठा से खड़ा किया है वह भी उन्ही रास्तों पर चल पड़ेगी जिसके वो खिलाफ थे । झारखंड में तो साफ तौर पर यह रेखांकित किया जा सकता है कि सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए बीजेपी ने जेएमएम के साथ हाथ मिलाया ।
अपने उसी भाषण में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने यह भी कहा था कि राजनीति दलों और नेताओं के इन्हीं कृत्यों की वजह से जनता के मानस में उनको लेकर एक अविश्वास की स्थिति पैदा होती जा रही है । राजनीतिज्ञों को लेकर शायद ही कोई वजह बची हो जिसकी बिना पर देश की जनता के बीच उनकी साख कायम हो सके । यह स्थिति बेहद चिंतनीय है । सवाल यह उठता है कि क्या आज की भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ अपने नेता दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतो से अलग रास्ते पर चल निकली है । क्या यही वजह है कि कांग्रेस सरकार पर लगातार भ्रष्टाचार के दलदल में डूबते जाने के बावजूद बीजेपी कोई राजनीतिक फायदा नहीं उठा पा रही है । कर्नाटक और झारखंड में पार्टी के कृत्यों से आज देश के जनमानस में पार्टी की साख कायम नहीं हो पा रही है । पार्टी नेतृत्व को लेकर देश की जनता और उनके खुद के कॉडर के मन में एक दुविधा की स्थिति है । अब वक्त आ गया है जब बीजेपी और संघ के नेताओं को बैठकर आत्ममंथन करना चाहिए और सत्तालोलुप पार्टी नेताओं पर लगाम लगानी चाहिए ताकि पंडित उपाध्याय जैसे संघ के नेताओं की आत्मा को शांति मिल सके ।

Tuesday, November 9, 2010

भविष्य को नर्क बनने से रोको

कानपुर में दस साल की लड़की दिव्या के साथ कक्षा में ही बलात्कार की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है । दस साल की मासूम के साथ पहले कक्षा में दरिंदों ने बलात्कार किया । इस वारदात के बाद स्कूल प्रशासन ने उसके कपड़े बदलवाकर घर भिजवा दिया । स्कूल में हुए इस वहशियाना हरकत से को वो मासूम झेल नहीं पाई और बाद में अस्पताल में उसकी मौत हो गई । इस घटना में स्कूल प्रशासन की संवेदनहीनता और स्थनीय पुलिस की लापरवाही से पूरी इंसानियत शर्मसार हो गई है । दस साल की स्कूली छात्रा से विद्या के मंदिर में ऐसा घिनौना खेल खेला गया जिससे एक बार फिर से बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं । हाल के दिनों में स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की घटनाएं बढ़ी हैं ।इन बढ़ती घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कानून की आवश्यकता है । जब भी कोई ऐसी वारदात सामने आती है और मीडिया में इस पर हंगामा मचता है तो केंद्र सरकार चिंता जताती है लेकिन फिर सो जाती है । स्कूली बच्चों की सुरक्षा को लेकर कड़े कानून बनाने के सवाल पर संबद्ध मंत्रालय की ढिलाई से सरकार भी कठघरे में आ जाती है । दिल्ली में एक कैब ड्राइवर की बच्चों के यौन शोषण की करतूत का पर्दाफाश हुआ था तब भी महिला और बाल विकास मंत्रालय ने इस तरह की वारदातों को रोकने के लिए कठोर कानून बनाने का आश्वासन दिया था । अब संसद का शीतकालीन सत्र आनेवाला है तो प्रस्तावित कानून को लेकर मंत्रालय की सक्रियता सामने नहीं आ रही है ।
कुछ दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट ने एक फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर की निचली अदालत द्वारा दी गई दस साल की सजा बरकरार रखी थी । इंस्ट्रक्टर ने चौथी कक्षा में पढ़नेवाली एक छात्रा का बलात्कार किया था । आरोप साबित होने पर निचली अदालत ने उस दस साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी । अपने फैसले के दौरान मद्रास हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने कहा था कि हमारे समाज में बच्चों की बढ़ती यौन शोषण की घटनाओं के खिलाफ राज्य और केंद्र सरकार के अलावा गैर सरकारी संस्थाएं सक्रिय हैं और उसपर काबू पाने के लिए कई तरह के उपाय किए जा रहे हैं । कानून मंत्रालय ने इस दिशा में कठोर कानून बनाने की दिशा में पहल भी की है लेकिन समाज में इस तरह के बढ़ते खतरे पर लगाम लगाने के लिए एक बेहद ही कड़े कानून की आवश्यकता है । इस तरह की घटनाओं में जो मुजरिम होता है वह छात्रों और उसके परिवारवालों के विश्वास की हत्या करता है । स्कूली बच्चों के यौन शोषण के अपराधियों से जबतक कड़ाई से नहीं निबटा जाएगा तबतक इसी वारदातों पर काबू पाना मुश्किल है ।
दरअसल यौन शोषण या रेप के केस में अदालती कार्रवाई में होनेवाली देरी और कानूनी उलझनों और पेचीदिगियों से मामला उलझ जाता है और कानून की खामियों का फायदा उठाकर आरोपी बच निकलते हैं । स्कूल में घटी वारदातों में स्कूल प्रशासन आमतौर पर मामले को दबाना चाहता है जिससे न्याय की उम्मीद और धूमिल हो जाती है । चाहे कानपुर का केस हो या फिर चेन्नई के स्कूल में चौथी कक्षा की छात्रा से रेप का मामला हो दोनों जगह यह देखा गया कि शुरुआत में स्कूल मामले को हल्के में लेकर दबाने की कोशिश करते हैं । इससे केस कमजोर होता है, अदालती प्रक्रिया में देरी होती है । हमारे देश में रेप को लेकर जो कानून हैं उसमें जल्दी न्याय मिलना मुश्किल होता है । चेन्नई रेप केस में चौथी की बच्ची को इंसाफ मिलने में तकरीबन आठ साल लगे । यह तो उसी बच्ची के परिवारवालों की हिम्मत थी जिसकी वजह से मुजरिम को सजा मिली । इस तरह के केस में जरूरत इस बात की है कि कानूनन त्वरित कार्रवाई हो, मुजरिमों को सख्त से सख्त सजा मिले । इसके अलावा कानून में इस बात का भी प्रावधान हो कि अगर स्कूल इस तरह के मामले को दबाने की कार्रवाई करता है तो स्कूल प्रबंधन को भी सजा हो ।
इस तरह के मामले में सख्त कानून के अलावा स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर एक राष्ट्रीय नीति की भी जरूरत है । जिसमें स्कूलों के अलावा विभिन्न शिक्षा बोर्डों को भी शामिल किया जाए । अभी अलग अलग शिक्षा बोर्ड और अलग अलग सूबों में इस तरह के केस के लिए अलग-अलग गाइडलाइंस है । एकीकृत गाइडलाइंस में स्कूलों को यह निर्देश दिए जाएं कि वो अपने यहां होनेवाली शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई करे । स्कूल प्रबंधन के लिए यह अनिवार्य करने की आवश्यकता है कि ऐसे मामलों में फौरन पुलिस को इत्तला करे और मुजरिमों को पकड़ने में पुलिस का सहयोग करने के अलावा जांच में भी सहयोग करे । अगर स्कूल ऐसा नहीं करता है तो संस्थान को बंद करने तक का कानूनी प्रावधान होने चाहिए । अगर ऐसा हो पाता है तो देश के भविष्य इन बच्चों का भविष्य नर्क बनने से बच जाएगा ।

Saturday, November 6, 2010

फासीवाद का दर्शन

चीन से एक दिल दहला देनेवाली खबर आई है । कानून का जबरदस्ती और कड़ाई से पालन करवाने की कई खबरें चीन से आती ही रहती हैं लेकिन अभी जो खबर बाहर निकल कर आई है वो एक विकसित राष्ट्र और शासन करनेवाली पार्टी की विचारधारा पर कलंक की तरह है । चीन के पूर्वी तट के पास सीमिंग में एक छत्तीस वर्षीय महिला ने एक बच्चे के रहते दूसरे संतान को जन्म देने का इरादा किया और गर्भवती हो गई । जब उसका गर्भ आठ महीने का हो गया तो सरकारी अधिकारियों को इस बात का पता चला । इस जानकारी के बाद तकरीबन दो दर्जन सरकारी चीनी अधिकारियों ने उस महिला के घर पर धावा बोल दिया । आठ माह की गर्भवती पर सरकारी अधिकारियों ने लात-घूंसों की बरसात कर दी । उसके दोनों हाथ पीछे बांधकर उसके सिर को दीवार से टकराया और पेट पर कई प्रहार किए ताकि गर्भपात हो जाए । जब वो कामयाब नहीं हुए तो सरकारी अधिकारियों ने आईयिंग नाम की उस महिला को घसीट कर अस्पताल में भर्ती करवाया और गर्भपात का इंजेक्शन लगवा कर जबरन आठ माह के गर्भ को गिरवा दिया ।
बच्चा पेट में इतना बड़ा हो गया था कि गर्भपात के बावजूद उसके कुछ अंश पेट में रह गए थे जिसको निकालने के लिए आईयिंग की मंजूरी के बगैर ऑपरेशन भी करना पड़ा, एक ऐसा ऑपरेशन जिसमें उसकी जान भी जा सकती थी। इंसानियत को शर्मसार कर देनेवाली यह घटना चीन में होने वाली अन्य ज्यादतियों की तरह दबकर रह जाती । लेकिन उस महिला ने अस्पताल में अपने फोटो खींचने की इजाजत दे दी । नतीजा यह हुआ कि उसी दास्तां और चोट के निशान वाले फोटोग्राफ इंटनेट के जरिए सारी दुनिया के सामने आ गए ।
दरअसल चीन ने बढ़ती जनसंख्या का पर काबू करने के लिए एक संतान नीति लागू किया हुआ है । वहां जुड़वां बच्चों के अपवाद को छोड़कर दूसरी संतान पैदा करने पर पूरी तरह से पाबंदी है। इस नीति का उल्लंघन करनेवाले को भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है । इस कानून की आड़ में ही कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारीवाले सरकारी अफसरों ने हैवानियत का नंगा नाच किया । चीन के उन सरकारी अधिकारियों को ना तो उस महिला का दर्द समझ में आया , ना ही उस महिला के पति की भवानाओं को समझने की कोशिश की और ना ही उनपर उस महिला के दस साल की बच्ची की गुहार काम आई जो पिछले आठ महीने से अपने घर में छोटे भाई बहन की राह देख रही थी । चीन में जिस विचारधारा के आधार पर वहां का शासन चल रहा है वहां ना तो भावनाओं की कद्र है ना ही संवेदना के लिए कोई जगह है । वहां तो दबाई जाती है सिर्फ आवाज । थ्येनमान चौक पर छात्रों को टैंक से कुचले जाने की घटना अब भी लोगों के जेहन में है ।
हाल ही में प्रकाशित एमनेस्टी इंटरनेशनल की रुपोर्ट के मुताबिक चीन में अब भी पांच लाख लोग बगैर किसी गंभीर इल्जाम के जेल की हवा खा रहे हैं । वहां बगैर किसी जुर्म के घर में कैद कर देना, लोगों की व्यक्तिगत आजादी पर सरकारी निगरानी, आम आदमी की आवाज को दबाने के लिए पुलिस फोर्स का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल आम बात है । चीन की जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता ली जियाबो को जब शांति का नोबल पुरस्कार दिया गया तो उसके बाद वहां की सरकार की भौंहे तन गई । चीनी सरकार को लगा कि ली जियाबो को नोबल पुरस्कार मिलने से देश में मानवाधिकार के लिए काम करनेवाले लोगों की सक्रियता बढ़ सकती है लिहाजा ली के नजदीकी लोगों की निगरानी तेज कर दी गई । बगैर किसी शक या संदेह के हफ्तेभर में तकरीबन चालीस लोगों को हाउस अरेस्ट कर दिया गया । ली के समर्थक संगठनों पर जबरदस्ती शुरू कर दी गई । ली जियाबो से नजदीकी के शक में शंघाई के एक हाउस चर्च पर पहले निगरानी शुरू की गई फिर कई दिनों तक पुलिस ने उसे अपने घेर में ले लिया । चर्च के नेता झू योंग और उनकी पत्नी के घर से निकलने पर ना केवल पाबंदी लगा दी गई बल्कि घर का जरूरी सामान खरीदने के लिए पुलिस के घेरे में निकलने पर मजबूर किया गया । जनता की सरकार और लोगों के बीच समानता के सिद्धांत की वकालत करनेवाली इस विचारधारा के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यहां कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है । दरअसल ऐसा सिर्फ चीन में नहीं होता है जहां भी इस विचारधारा का बोलबाला है वहां ऐसी ही तानाशाही पूर्ण रवैया देखने को मिलता है ।
हमारे देश में भी वामपंथी विचारधारा को माननेवाले हमेशा से तानाशाही और फासीवाद के विरोध करते रहे हैं । उनका यह विरोध सिर्फ दिखावे के लिए और अपने हित में उसका उपयोग करने के लिए होता है । चीन में हुई उस मार्मिक घटना के बारे में जानते ही जेहन में कौंध गई प्रख्यात कवि और शायर कैफी आजमी की बेगम शौकत कैफी की किताब- याद की रहगुजर- का एक प्रसंग। कैफी के एक साल के लड़के खैयाम की असायमयिक मौत हो गई थी जिसने उनको और उनकी पत्नी शौकत को अंदर से तोड़कर रख दिया था । हर वक्त, हर पल अपने पहले संतान की मौत का गम झेल रही शौकत और उनके पति कैफी दोनों वामपंथी विचारधारा से जुड़े संगठन भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा में सक्रिय थे । जलसे, जुलूस, प्रदर्शन रोज के काम थे । लेकिन जब बेटे का गम लिए शौकत अपने कॉमरेडों के पास जाती तो उनके साथी कन्नी काट जाते थे, साथियों की संवेदनहीनता से शौकत को बेहद दुख पहुंचा । अपनी किताब में शौकत ने इस दर्द को बयां करते हुए लिखा- अहिस्ता अहिस्ता मुझे एहसास होने लगा कि लोग गमजदा लोगों से घबराने लगते हैं और चुपचाप उठकर चले जाते हैं । मैंने यह सोचकर अपने गम पर काबू पाने की कोशिश शुरू की ।
लेकिन पूरा मामला यहीं खत्म नहीं होता है । संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पर पहुंचना अभी बाकी था । कुछ दिनों बाद शौकत आजमी फिर से गर्भवती हुई । अपने पहले बच्चे की मौत का गम भुलाने की कोशिश में लगी शौकत के लिए यब सुकून देनेवाला पल था । लेकिन अपना सबकुछ पार्टी पर न्योछावर करने के लिए उनकी पार्टी ने क्या हुक्म सुनाया आप शौकत की ही जुबानी सुनिए- शबाना होने को थी । क्योंकि मेरा पहला बच्चा गुजर गया था इसलिए मैं तो बहुत खुश थी लेकिन पार्टी को यह बात पसंद नहीं आई । ऑर्डर हुआ एबॉर्शन करवा दिया जाए । क्योंकि कैफी अंडर-ग्राउंड हैं । मैं बेरोजगार हूं । बच्चे की जिम्मेदारी कौन लेगा । मुझे बेहद तकलीफ पहुंची । यह आपबीती है एक ऐसे कॉमरेड की और एक ऐसे पार्टी की जो जनपक्षधरता और वयक्तिगत आजादी का सबसे ज्यादा शोर मचाती है, जो तानाशाही के खिलाफ होने का लगातार दंभ भरती है । लेकिन वक्त पड़ने पर इस विचारधारा का पालन करने और करवानेवाले सबसे बड़े तानाशाह के तौर पर उभरते हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पार्टी की बात नहीं माने जाने पर सीपीएम ने अपने वरिष्ठ सदस्य सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया । अगर सोमनाथ चटर्जी की मानें तो इस निष्कासन के पहले ना तो उन्हें कोई नोटिस दिया गया और ना ही पार्टी की नीति निर्धारण करनेवाली सर्वोच्च समिति पोलित ब्यूरो के सभी सत्रह सदस्यों की सहमति ली गई । सिर्फ पांच सदस्यों ने महासचिव के इशारे पर आनन फानन में सोमनाथ चटर्जी जैसे पार्टी के कद्दावर नेता को बाहर का दरवाजा दिखा दिया । अपनी किताब -–कीपिंग द फेथ- मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटेरियन में यह दावा किया है उनका निष्कासन पार्टी के संविधान के खिलाफ और अलोकतांत्रिक था । पार्टी संविधा तो दूर की बात है, राजनीति में एक सामान्य परंपरा है कि नोटिस देने के बाद पार्टी से निष्कासन होता है । लेकिन सोमनाथ के मामले में सीपीएम ने इस सामान्य से नियम का भी पालन नहीं किया । ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो उस विचारधारा से जुड़े लोगों, संगठन और सरकार के हैं जो सबसे ज्यादा जनपक्षधरता,सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया, नागरिक स्वतंत्रता, समान अधिकार, समान अवसर आदि के बारे में दुहाई देते हैं । कथनी और करनी के इसी फर्क ने इस विचारधारा की बुनियाद पर टिकी कई शक्तिशाली व्यवस्थाओं से लोगों का मोहभंग कर दिया । नतीजा यह हुआ कि किसी जमाने में विश्व में एक वैकल्पिक विचारधारा के रूप में देखे जानेवाली यह व्यवस्था अब चीन और कुछ अन्य देशों में सरकार के सहारे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं ।

Sunday, October 17, 2010

सोनिया की जीवनी के बहाने

अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है जब स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब द रेड साड़ी को लेकर कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अच्छा खासा बवाल मचाया था । दरअसल स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की ये किताब कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित है । लेखक मोरो का दावा है कि यह पूरी किताब सोनिया के बचपन से लेकर उनकी राजीव गांधी से मुलाकात और शादी से लेकर सास इंदिरा गांधी के साथ बिताए दिनों के अलावा राजीव गांधी की हत्या का बाद सोनिया की मानसिकता का चित्रण करती है । दरअसल मोरो की इस किताब से इस बात के संकेत मिलते हैं कि सोनिया गांधी अपने पति की हत्या के बाद भारत छोड़कर इटली जाना चाहती थी । मोरो की किताब में पृष्ठ संख्या सोलह पर इस बात का उल्लेख है कि सोनिया ने सोचा कि उस देश में क्यों रहना जो अपने ही बच्चों को खा जाता है । इसके अलावा पृष्ठ संख्या एक सौ छिहत्तर पर भी इस बात के संकेत हैं कि गांधी परिवार में राजीव की मौत के बाद इटली जाने पर चर्चा होती थी । इस किताब में कई ऐसे प्रसंग है जहां ये लगता है कि लेखक ने सोनिया की जिंदगी के यथार्थवादी पहलुओं में अपनी कल्पना का तड़का लगाया है । जैसे पृष्ठ संख्या एक सौ तिरसठ पर कहा गया है कि रात के तीन बजे सोनिया ने राजीव को कहा कि देश में इमरजेंसी लगाने के ड्राफ्ट में उन्होंने इंदिरा गांधी की मदद की थी ।
ये कुछ ऐसी बातें हैं जिससे साबित होता है कि जेवियर मोरो ने सोनिया की इस जीवनी में कल्पना के आधार पर कई प्रसंग जोड़े हैं । खुद लेखक ने भी माना है कि यह सोनिया की फिक्सनलाइज्ड बायोग्राफी है । लेकिन यहां सवाल यह खड़ा होता है कि किसी जीवित व्यक्ति की काल्पनिक जीवनी लिखने का अधिकार किसी को भी कैसे मिल सकता है । जबतक इस आत्मकथा पर विवाद नहीं खड़ा हुआ था तब तक तो इसको सोनिया गांधी ती जीवनी बताकर ही प्रचारित किया जा रहा था और बेचा भी जा रहा था । सबसे पहले ये जीवनी अक्तूबर दो हजार आठ में स्पेनिश में छपी और बाद में इसका अनुवाद इटैलियन, फ्रैंच और डच में हो चुका है । एक अनुमान के मुताबिक अबतक इस किताब की तीन लाख प्रतिया बिक चुकी हैं । जाहिर है लेखक ने तीन भाषाओं के बल पर एक बडा़ बाजार और पाठक वर्ग हासिल कर लिया है ।
अब जेवियर मोरो इसको अंग्रेजी में प्रकाशित कर भारतीय बाजार के अलावा अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के बाजार में सोनिया गांधी के नाम को भुनाना चाहते हैं । जैसा कि उपर संकेत किया गया है कि इसमें इटली में सोनिया के बचपन को प्रमुखता से छापा गया है । मोरो लिखते हैं- सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए । चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनियो अलबिना मैनो । लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हें सोनिया नाम दिया । रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई थी । सोनिया के पिता स्टीफैनो, मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से पराजित हो गई थी । सोनिया जियोवेनो के कॉन्वेंट स्कूल में गई लेकिन उतनी ही पढाई की जितनी की जरूरत थी । यानि वो अच्छी विद्यार्थी नहीं थी लेकिन पढ़ाई में कमजोर होने के बावजूद वो हंसमुख और दूसरों की मदद को तत्पर रहती थी । कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थी । आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान सोनिया के मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जगा था ले किन वो सपना जल्द ही बदल गया । उसके बाद सोनिया विदेशी भाषा की शिक्षक या फिर संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक बनने की ख्वाहिश पालने लगी ।
उपरोक्त प्रसंगों के सामने आते ही कांग्रेस के नेताओं ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी । कांग्रेस का आरोप है कि मोरो ने वास्तविकता से छेड़छाड़ की है लेकिन मोरो का दावा है कि उसकी किताब एक वृहद और लंबे रिसर्च का नतीजा है । जेवियर मोरो के मुताबिक तथ्यों और घटनाओं की सत्यता को जानने परखने के लिए उन्होंने खुद सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया । उसका तो यह भी दावा है कि उसवे किताब छपने के पहले उसकी पांडुलिपि सोनिया गांधी की बहन नाडिया को भी दिखाई थी क्योंकि वो स्पैनिश जानती थी । इसके अलावा मोरो ने किताब छपने के बाद सोनिया को भी उसकी एक प्रति भेजी । मोरो का कहना है कि नाडिया ने किताब पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की जबकि सोनिया की तरफ से कोई जबाव ही नहीं मिला ।
कांग्रेस नेताओं की आपत्तियों और लेखक को कानूनी नोटिस के हो हल्ले के बीच जेवियर मोरो की किताब सोनिया और उसके इर्द गिर्द के विवादों और घटनाओं में सिमटकर रह गई। जबकि इस किताब में बीजेपी की सांसद और सोनिया की देवरानी मेनका गांधी के बारे में ज्यादा विस्फोटक प्रसंग छपे हैं, जो घटनाओं के चश्मदीदों के बयानों पर आधारित होने की वजह से ज्यादा प्रामाणिक प्रतीत होते हैं । इस किताब में मोरो ने मेनका और इंदिरा गांधी की पहली मुलाकात का बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया है । जब मेनका पहली बार इंदिरा गांधी से मिलने पहुंची तो बेहद डरी और सहमी हुई थी । बावजूद इसके जब वो अपनी होनेवाली सास को अपना परिचय देने लगी तो यह बात छुपा गई कि वो एक तौलिया कंपनी के विज्ञापन की मॉडल है । इंदिरा गांधी मेनका से पहली मुलाकात के बाद उसके और उसके परिवार के बारे में और ज्यादा जानकारियां इकट्ठा करना चाहती थी लेकिन संजय गांधी बेहद जल्दबाजी में थे और उन्होंने मंगनी कर ली । जब सगाई के बाद दोनों परिवार साथ खाने बैठे तो और बातचीत के दौरान इंदिरा गांधी को इस बात का एहसास हुआ कि मेनका और उसके परिवार के लोग ना तो उतने पढ़े लिखे हैं और ना ही विचारों में आधुनिक ।
बेटे संजय गांधी की जिद की वजह से तेइस सितंबर उन्नीस सौ चौहत्तर को गांधी के पारिवारिक मित्र मोहम्मद युनुस के घर पर संजय और मेनका परिणय सूत्र में बंध गए । यहां पर जेवियर मोरो ने इस बात के संकेत दिए हैं कि मेनका को गांधी परिवनार में एडजस्ट करने में सोनिया से ज्यादा दिक्कत हुई । मेनका को सिगरेट पीने की आदत थी जबकि संजय ध्रूमपान को सख्त नापसंद करते थे, इंदिरा गांधी बीमारी की वजह से और सोनिया अस्थमा की वजह से धुंआ बरदाश्त नहीं कर पाती थी । एक बार तो मेनका के व्यवहार से राजीव गांधी काफी खिन्न हो गए थे । हुआ यह था कि मेनका सोफे पर बैठकर सिगरेट पी रही थी और सोनिया घर के काम में हाथ बंटा रही थी । इसको देखकर राजीव गांधी को बेहद कोफ्त हुई थी जिसे उन्होंने जाहिर भी किया था ।
एक और बेहद ही दिलचस्प वाकया इस किताब में है । एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह जब गांधी परिवार से मिलने उनके घर गए तो वहां कुत्तों के बीच जबरदस्त झगड़ा चल रहा था । किताब के मुताबिक मेनका के आइरिश वुल्फहाउंड और सोनिया के शांत से अफगानी कुत्ते के बीच लड़ाई चल रही थी । सोनिया दोनों को अलग करना चाह रही थी लेकिन मेनका इस झगड़े से मजा ले रही थी क्योंकि उसे मालूम था कि उसका कुत्ता सोनिया के कुत्ते से मजबूत था । मेनका ने सोनिया पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए खुशवंत सिंह के साथ मिलकर सूर्या पत्रिका भी निकाली थी ।
लेखक ने इंदिरा गांधी की सचिव उषा के हवाले से लिखा है कि मेनका बेहद ही बुद्धिमती लेकिन महात्वाकांक्षी थी । उसे हर वक्त यह लगता था कि जल्द ही संजय गांधी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे, और वो गाहे बगाहे इस बात तो सार्वजनिक रूप से कहती भी थी । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । सतहत्तर में कांग्रेस की कारी हार के बाद जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई तो इंदिरा गांधी मेनका को लेकर बेहद चिंतित रहने लगी । उन्होंने अपनी दोस्त पुपुल जयकर से अपनी चिंता जताते हुए कहा भी था कि मेनका की मां की महात्वाकांक्षा उसको संजय की जगह लेने के लिए प्रेरित करेगी । इस सोच को बल मिला खुशवंत सिंह के एक लेख से जिसमें उन्होंने खुलेआम इस बात की वकालत की थी कि संजय की मौत के उनकी राजनीतिक वारिस मेनका हैं । खुशवंत सिंह ने यह भी लिखा कि मेनका संजय गांधी की तरह बहादुर हैं और दुर्गा की अवतार हैं । जाहिर है खुशवंत सिंह के इस लेख से इंदिरा गांधी आहत हुई क्योंकि बांग्लादेश युद्द में विजय के बाद इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से होने लगी थी । खुशवंत की इस तुलना से इंदिरा गांधी के मन में इस बात का संदेह पैदा हो गया कि मेनका की रजामंदी के बाद ही खुशवंत ने वो लेख लिखा ।
उसके बाद संजय पर लिखी किताब को लेकर विवाद और बढ़ा । राजीव गांधी की राजनीति में आने पर मेनका की आपत्तियों से इंदिरा गांधी बेहद खफा रहने लगी । लेकिन जब सन उन्नीस सौ बयासी में मेनका ने इंदिरा गांधी के मना करने के बावजूद लखनऊ में लंबा चौड़ा भाषण दे डाला तो इंदिरा गांधी ने मेनका के खिलाफ निर्णय लेने का मन बना लिया । मेनका के लखनऊ से वापस लौटते ही गुस्से से भरी इंदिरा गांधी ने उसको तत्काल घर से बाहर निकल जाने का हुक्म सुना दिया । घर से बाहर निकालने के वक्त हुए हाई वोल्टेज ड्रामा पर भी मोरो ने विस्तार से लिखा है ।
ये सारी बातें लिखते हुए मोरो ने किताब में एक डिस्क्लेमर भी लगाया है - बातचीत, संवाद और स्थितियां लेखक के व्याख्या पर आधारित है और यह जरूरी नहीं है कि वो प्रामाणिक भी हो । लेकिन यहां एक बार फिर से सवाल खडा़ हो जाता है कि किसी भी जीवित वयक्ति की जीवनी को फिक्शनलाइज कैसे किया जा सकता है । क्या लेखकीय आजादी के नाम पर कुछ भी काल्पनिक लिखने की इजाजत किसी लेखक को दी जा सकती है । इन्हीं सवालों और कानूनी पचड़ों के बीच भारतीय पाठकों को इस किताब का बेसब्री से इंतजार है ।

Saturday, October 9, 2010

उदासीन हिंदी समाज

आज हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष रामविलास शर्मा की जन्मतिथि है । सुबह दफ्तर पहुंचा तो अपने सहयोगी से पूछा कि आपको मालूम है कि आज रामविलास जी का जन्मदिन है तो उन्होंने सहज भाव से कहा कि क्या आज रामविलास पासवान का जन्मदिन है । मैं हतप्रभ रह गया और मुझसे कुछ कहते नहीं बना । हम अपने पूर्वज साहित्यकारों के प्रति इतने उदासीन क्यों है । क्यों नहीं हमारे जेहन में उनका नाम आता है । इस उदासीनता के लिए क्या हमारा हिंदी समाज जिम्मेदार है । या फिर हमारे साहित्यकार खुद जिम्मेदार हैं । इस विषय पर लिखने का मन बना रहा हूं । तबतक आप अपनी प्रतिक्रिया दें ।

Wednesday, October 6, 2010

मतभेद से मजबूत लोकतंत्र

हाल के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार के कामकाज के तरीकों की आलोचना की है या यों कह सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने सरकार की कई नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं या कई मसलों पर पार्टी की राय सरकार से बिल्कुल अलग है । मनमोहन सिंह कहते हैं कि नक्सली इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है और उनसे सख्ती से निबटने की जरूरत है । लेकिन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की राय उनसे इतर है । सोनिया गांधी किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ हैं लेकिन नक्सल समस्या को मानवीय ढंग से देखने और इसकी जड़ तक जाने की वकालत करती हैं । अपनी पार्टी के मुख पत्र कांग्रेस संदेश में सोनिया गांधी ने कहा कि नक्सल समस्या को विकास के आईने में देखने की जरूरत है । समाज के सबसे निचले तबके विकास योजनाओं का कर्यान्वयन नहीं होने से ये समस्या बढ़ी है । सोनिया गांधी ने इसे एक सामाजिक समस्या के तौर पर देखती हैं, जबकि उनकी ही सरकार के गृह मंत्री इसे कानून वयवस्था की समस्या मानते हैं और उससे उसी तरह से निबटने की रणनीति बनाते हैं । पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी इकनॉमिक टाइम्स में लेख लिखकर देश के गृह मंत्री की उनकी नक्सली समस्या से निबटने की नीति की आलोचना की थी । इन वाकयों से यह साफ-साफ झलकता है कि नक्सल मुद्दे पर पार्टी और सरकार में एक राय नहीं है । अभी उड़ीसा में वेदांता को बॉक्साइट खनन की मंजूरी नहीं दिए जाने के फैसले को भी इसी आलोक में देखा जाना चाहिए । कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री ने संपादकों के साथ अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि विकास के हर काम में पर्यावरण का अड़ंगा नहीं लगाना चाहिए । मनमोहन सिंह देश में खुली अर्थवयवस्था के जनक और बाजार के पैरोकार माने जाते हैं । लेकिन बावजूद इसके वेदांता को पर्यावरण के नाम पर ही खनन की इजाजत नहीं दी गई । कुछ लोग इसका श्रेय राहुल गांधी को दे रहा हैं जो इस फैसले के पहले नियामगिरी जाकर वहां के आदिवासियों को इस बात का भरोसा दे चुके थे ।
इस तरह के वाकयों से पूरे देश में एक संकेत गया है कि सोनिया गांधी अब मनमोहन सिंह को पसंद नहीं करती हैं और दोनों के बीच मतभेद पैदा हो गए हैं । मीडिया में भी इस बात पर चर्चा शुरू हो गई कि मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री के रूप में उल्टी गिनती शुरू हो गई है । लेकिन इस मसले पर जल्दबाजी में किसी निर्णय पर पहुंचने के बजाए इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है । सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बीच मतभेद होना लोकतंत्र के मजबूत होने की निशानी है। और पिछले एक दशक में हमारे राजनीतिक दलों में यह परिपक्वता आई है ।
अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो पहले कांग्रेस में कम से कम इस तरह की परंपरा नहीं थी । जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधाननमंत्री बने तो कुछ दिनों तक तो आजाद होने का रूमानी एहसास कायम था । बाद में नेहरू जी का कद इतना बड़ा हो गया था कि उनके सरकार की आलोचना उनकी आलोचना मान ली जाती थी । लेकिन जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तो कई मसलों पर मतभिन्नता के चलते कांग्रेस में बंटवारा हुआ । पार्टी पर कब्जे की लड़ाई शुरू हुई जिसमें इंदिरा गांधी को उनकी राजनैतिक कौशल की वजह से जीत मिली । लेकिन जब इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली । हताशा और निराशा में डूबी इंदिरा को पार्टी के तीन बड़े नेताओं- जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी ने छोड़ दिया । एक तो चुनाव में हार और फिर अपनों का साथ छोड़ना- इंदिरा गांधी सतर्क हो गई और 1978 में खुद पार्टी की कमान संभाल ली । उन्होंने यह पद 1980 में फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नहीं छोड़ा । यहीं आकर पार्टी ही सरकार और सरकार ही पार्टी बन गई, सरकार से अलग पार्टी की कोई राय ही नहीं थी । इंदिरा गांधी ने प्रयासपूर्वक पार्टी को सरकार का पिछलग्गू बना दिया । नतीजा यह हुआ कि पार्टी सरकार की पिछलग्गू बनी और कैबिनेट प्रधानमंत्री की । अपनी मां के पद चिन्हों पर चलते हुए राजीव गांधी ने भी इस परंपरा को कायम रखा । उन्होंने भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । वो 1985 से 1991 तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे । राजीव गांधी के बाद जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । नतीजा पार्टी सरकार की अनुगामी बनी रही ।
लेकिन बाद में जब एनडीए का शासन आया तो लगा कि यह परंपरा टूटने वाली है । अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कुशाभाई ठाकरे बीजेपी के अध्यक्ष थे । कालांतर में भी बीजेपी के कई अध्यक्ष बदलते रहे लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संगठन पर काबिज होने की कोशिश नहीं की । लेकिन नेहरू की ही तरह अटल बिहारी वाजपेयी का कद भी इतना बड़ा हो गया था कि वो पार्टी से उपर हो गए थे । उनकी सरकार के कामकाज की आलोचना भी अटल बिहारी की वयक्तिगत आलोचना मान ली जाती थी । जिस जिसने भी अटल जी के सरकार की नीतियों की आलोचना की वो संगठन में दरकिनार कर दिए गए चाहे वो गोविंदाचार्य हों या फिर कल्याण सिंह । ये दीगर बात है कि बाद में इन दोनों नेताओं ने अटल जी पर वयक्तिगत हमले किए। लेकिन अगर कुछ देर के लिए बीजेपी को छोड़ दिया जाए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की बात की जाए तो वहां सरकार की नीतियों की आलोचना होती थी या फिर ये संगठन सरकार से अलग राय जाहिर करते थे । एनडीए शासन काल में सरकार खुले बाजार और वैश्वीकरण के पक्ष में थी और सरकारी कंपनियों में कई डिसइंवेस्टमेंट हुए । तब संघ से जुड़े संगठन सरकारी कंपनियों में विनिवेश के फैसले की खुले आम आलोचना कर रहे थे । पार्टी से ही संबंद्ध उसके अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने सरकार की खुले बाजार की नीति का सार्वजनिक तौर पर विरोध किया था । रामजन्मभूमि के मसले पर भी वीएचपी ने सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना की थी । लेकिन बीजेपी में आतंरिक लोकतंत्र अपेक्षाकृत कम है । जसवंत सिंह को किताब लिखकर अपनी राय जाहिर करने पर पार्टी से निकाल दिया जाता है, आडवाणी को जिन्ना पर अपनी राय जाहिर करना भारी पड़ा था और उन्हें भी पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया गया था ।
लेकिन जिस तरह से कांग्रेस में इन दिनों डेमोक्रेसी दिख रही है उसका श्रेय सोनिया गांधी की कार्यशैली को जाता है । दो हजार चार में जब यूपीए की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री पद ठुकराने के बाद सोनिया ने पार्टी को सरकार से अलग पहचान देने की कोशिशें शुरू कर दी । कई मंत्रियों को शपथ लेने के बाद पार्टी का पद छोड़ना पड़ा । यूपीए -1 के वक्त यह काम थोड़ा धीमा अवस्य रहा लेकिन अब पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी साफ तौर रेखांकित की जा सकती है । राहुल गांधी पार्टी में एक अलग सत्ता केंद्र हैं लेकिन वो भी अपनी राय खुलकर सामने रख रहे हैं और कई बार उनकी राय अपनी ही सरकार की नीतियों के खिलाफ दिखाई देती है । कश्मीर में जारी संकट के बीच उमर अब्दुल्ला को उन्होंने खुलेआम सपोर्ट किया लेकिन सोनिया गांधी की राय उस मसले पर अलग है । उसी तरह प्रणब मुखर्जी की नक्सलियों पर सोनिया गांधी से इतर राय है और वो इसे सार्वजनिक तौर पर उसे जाहिर भी कर चुके हैं । उपर से देखने पर तो यह लगता है कि देश में सबसे बड़ी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र है जहां सबको अपनी राय खुलकर रखने की आजादी है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मेच्योर होने की निशानी है ।

Saturday, October 2, 2010

पुरस्कारों का ‘खेल’

अभी कुछ अरसा पहले डाक से एक बेहद दिलचस्प पत्र प्राप्त हुआ । मध्य प्रदेश से लिखा गया यह खत एक परिपत्र की शक्ल में था, जो एक साथ तकरीबन कई लेखकों-पत्रकारों को भेजा गया प्रतीत होता है । दिलचस्प इसलिए था कि उसमें इस बात का प्रस्ताव दिया गया था कि अगर आप अमुक पुरस्कार पाना चाहते हैं तो सौ रुपये के डिमांड ड्राफ्ट और अपनी किताब की दो प्रतियों के साथ प्रविष्टि भेजें । इस मनोरंजक पत्र को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि किसी ने मजाक किया है लेकिन चंद दिनों पहले जब मैंने अमुक पुरस्कार के ऐलान की खबर की पढ़ी तो मुझे लगा कि वह खत तो गंभीरता पूर्वक लिखा गया था । जिन लेखक महोदय को उक्त पुरस्कार देने का ऐलान किया गया है उन्होंने अवश्य ही सौ रुपये के डिमांड ड्राफ्ट के साथ पुरस्कार के लिए आवेदन किया होगा । तो हिंदी के लेखकों में पुरस्कार लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि वो पुरस्कार पाने के लिए आवेदन करने लगे हैं । अब तक तो पुरस्कार के लिए घेरेबंदी की खबरें ही सामने आती रही थी लेकिन आवेदन कर पुरस्कार मेरे लिए चैंकानेवाली खबर थी ।
दरअसल हाल के दिनों में हिंदी में दिए जाने वाले पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बेहद कम हुई है । कुछ अरसा पहले साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पुरस्कार थे । ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा और साख तो अब भी कायम है लेकिन साहित्य अकादमी पुरस्कारों की साख पर पिछले कई वर्षों में अनेकों बार बट्टा लगा है । इसके लिए हिंदी के वो प्रगतिशील शिखर लेखक-आलोचक कम जिम्मेदार नहीं हैं जो कई वर्षों तक साहित्य अकादमी के कर्ता-धर्ता रहे । बाद में जब साहित्य अकादमी में सत्ता परिवर्तन हुआ तो हिंदी के संयोजक ने समर्थन देने के एवज में सौदेबाजी कर अपने चहेते लेखक को पुरस्कार दिलवाया । उनके बाद जो आलोचक महोदय हिंदी के संयोजक बने उन्होंने भी उस परंपरा को कायम रखा । साहित्य अकादमी के इस सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार का खेल उसके ऐलान होने के काफी पहले ही शुरु हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी, जिस वर्ष पुरस्कार दिए जाने हैं उसके पहले के एक वर्ष को छोड़कर, तीन वर्षों की अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है । यानि इस वर्ष दिए जानेवाले पुरस्कार के लिए दो हजार नौ से दो हजार सात के बीच प्रकाशित कृतियों पर विचार किया जाएगा । इस अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची को हिंदी के एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों को भेजी जाती है और उनसे सूची में से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध किया जाता है । लेकिन यहां सिर्फ तीन कृतियों की सिफारिश की कोई पाबंदी नहीं है, बोर्ड सदस्य अगर चाहें तो तीन से ज्यादा कृतियों की भी सिफारिश कर सकते हैं । जब सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है तो उसके बाद हर विधा के लिए अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय के आधार पर हर विधा की तीन तीन किताबों का चयन किया जाता है । इन्हीं तीन किताबों में से जूरी एक कृति को चुनती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है ।
लेकिन यह प्रक्रिया उपर से देखने में जितनी दोष-रहित लगती है व्यवहार में उतनी ही दोषपूर्ण है । किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में तिकड़मों का बड़ा खेल खेला जाता है ।अपनी किताब को आधार सूची में डलवाने से लेकर ही यह खेल शुरु हो जाता है जिसके लिए तमाम तरह के दंद-फंद किए जाते हैं । जब एक बार आधार सूची में नाम आ जाता है तो उसके बाद अपनी लेखनी से क्रांति का दावा करनेवाले ये तथाकथित प्रतिशील लेखक एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपना नाम भिजवाने की जुगत में लग जाते हैं । येन केन प्रकारेण बोर्ड के सदस्य से अपना नाम प्रस्तावित करवाने के लिए सम्मानित लेककगण एड़ी चोटी का जोड़ लगा देते हैं । फिर घेरेबंदी शुरु होती है जूरी के सदस्यों के चयन की । जूरी में तीन सदस्य होते हैं जिनका चुनाव साहित्य अकादमी का अध्यक्ष करता है । इसलिए पुरस्कार के लिए लालायित तमाम तिकड़मी लेखक अध्यक्ष के पास अपनी गोटी फिट करने में लग जाते हैं, उनकी गणेय़ परिक्रमा शुरू हो जाती है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत भर करते हैं । हलांकि उर्दू के एक आलोचक के अकादमी अध्यक्ष बनने के पहले जब हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तब ये स्थिति नहीं थी । तब उनकी मर्जी चला करती थी । नियमों को दरकिनार करते हुए वो जिसे चाहते उसे पुरस्कार दिला देते थे । लेकिन अकादमी के चुनाव में जब उस गुट का सफाया हो गया उसके बाद से स्थिति पूरी तरह बदल गई । पहले भाषा के संयोजक की मर्जी चला करती थी अब अध्यक्ष की चलने लगी । भाषा संयोजक अकादमी के संविधान के तहत बैठक की सिर्फ प्रोसिंडिंग शुरु करते हैं । लेकिन एक बार फिर से अध्यक्ष बदले तो स्थितियां बदल गई । अब हिंदी के लिए पूर्व अध्यक्ष और भाषा संयोजक की राय हावी होने लगी ।
पुरस्कार के निर्णय के लिए जब अंतिम बैठक होती है तो जूरी के सदस्य अलग अलग कृतियों पर विचार करते हैं और फिर या तो सर्वसम्मति से या बहुमत के आधार पर फैसला लेते हैं । ऐसा कम ही देखने में आया है कि सर्वसम्मति से किसी कृति को पुरस्कृत किया गया हो । ज्यादातर फैसले बहुमत यानि दो –एक से होते है । इससे एक तो ये लगता है कि जूरी में कृति की गुणवत्ता को लेकर जोरदार बहस हुई और लोकतांत्रिक तरीके से फैसला हुआ । लेकिन होता ये सिर्फ दिखावा है । जब जूरी के तीन सदस्यों का चुनाव किया जाता है तभी ये तय कर लिया जाता है कि दो सदस्य अध्यक्ष की मनमाफिक काम करनेवाले हों और तीसरा घोर विरोधी । इससे होता ये है कि कमिटी के गठन पर कोई विवाद नहीं हो पाता है और सारा काम पूर्व निर्धारित रणनीति के हिसाब से हो जाता है । जूरी के फैसले के बाद उसे एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं ।
राज्यों की हिंदी अकादमियों में तो पुरस्कारों की स्थिति और भी खराब है। सारा कुछ सेटिंग-गेटिंग के सिद्धांत पर चलता है । अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली की हिंदी अकादमी के पुरस्कारों को लेकर अच्छा खासा विवाद भी हुआ था । दिल्ली की हिंदी अकादमी हिंदी के लेखकों को हर साल पुरस्कृत करती है । इसके लिए वो अखबारों में विज्ञापन देकर शहर के नामचीन लोगों और लेखकों की राय आमंत्रित करती है । उसके बाद कार्यकारिणी की बैठक में पुरस्कार का फैसला होता है । इन पुरस्कारों में कार्यकारिणी के सदस्य जिसे चाहते हैं उसको पुरस्कृत कर देते हैं । कई बार तो कार्यकारिणी के सदस्यों ने खुद को पुरस्कृत कर लिया, भले ही उसके पहले उनको कार्यकारिणी से इस्तीफा देना पड़ा । हलांकि अकादमी के सबसे बड़े पुरस्कार श्लाका सम्मान को लेकर बड़ा विवाद कभी नहीं हुआ लेकिन साहित्यकार सम्मान और अन्य पुरस्कारों के चयन पर कई बार उंगलियां उठी । दिल्ली की हिंदी अकादमी के अलावा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और बिहार का राजभाषा विभाग भी थोक में हिंदी के लेखकों को पुरस्कृत करती है । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के पुरस्कारों को नियमविरुद्ध प्रसातावित करने के लिए पिछले वर्ष रद्द करना पड़ा । चयन समिति के सदस्य हिंदी के वरिष्ठ आलोचक ने अपने कहानीकार अनुज का नाम प्रस्तावित कर दिया लेकिन वहां नियम है कि चयनकर्ता को यह लिखकर देना होता है कि पुरस्कृत लेखकों में कोई उनका संबंधी नहीं है । इसी नियम ने भाइयों का खेल बिगाड़ दिया और छोटे भाई पुरस्कार से वंचित रह गए ।
ये चंद उदाहरण हैं हिंदी साहित्य के, जो ये दर्शाते हैं कि हिंदी में पुरस्कारों के लेकर लेखक कितने बेचैन हैं और उन्हें हथियाने के लिए तमाम तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने से भी उन्हें गुरेज नहीं । पहले मीडिया का इतना फैलाव नहीं था और उस तरह के षडयंत्र सामने नहीं आ पाते थे लेकिन मीडिया के विस्तार के बाद इस तरह की तमाम खबरें सामने आने लगी । इन खबरों के प्रकाशन के बाद हिंदी के पाठकों के मन में अपने आदर्शवादी लेखकों को लेकर एक खास तरह की दुविधा पैदा होने लगी । लिखते कुछ और आचरण कुछ की दुविधा ने पाठकों के मानस पर हिंदी लेखकों की छवि पर प्रहार कर उसे खंडित किया । जब साख पर बट्टा लगता है और विश्वसनीयता संदिग्ध होती है तो स्थिति बेहद चिंतनीय हो जाती है । हिंदी के वरिष्ठ लेखकों को यह समझना होगा कि कुछ लेखकों की वजह से हिंदी लेखक समाज की साख पर बट्टा लग रहा है । अगर इसे समय रहते ठीक नहीं किया गया तो एक समय ऐसा भी आ सकता है जब हिंदी के पाठक अपने ही लेखकों को रिजेक्ट करना शुरू कर दें । वह स्थिति पूरे हिंदी लेखक समाज के लिए बेहद खराब होगी । पुरस्कारों के पीछे भागने की लेखकों की जो ललक है वो सिर्फ इस वजह से है कि उन्हें जल्दी प्रसिद्धि मिले और वो मशहूर हो जाएं वो यह भूल जाते हैं कि यह प्रसिद्धि तात्कालिक होती है । तभी तो अज्ञेय जी ने कहा था कि अगर किसी लेखक को माराना हो तो उसे पुरस्कृत कर दो । अज्ञेय जी की यह बात बाद में साबित भी हुई ।
----------

Monday, September 27, 2010

बाजार को भुनाने की चाहत

पिछले लगभग एक दशक के प्रकाशनों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि कई वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों की मीडिया और उससे जुड़ें विषयों पर किताबें प्रकाशित हुई हैं । इन पुस्तकों में जो समानता दिखाई देती है वो यह है कि पत्रकारों, संपदकों ने पूर्व में लिखे लेखों को संयोजित कर एक थीम, आकर्षक शीर्षक और चर्चित समकालीन वरिष्ठ पत्रकार की गंभीर भूमिका के साथ पुस्तकाकार छपवाया है । मेरे जानते इसकी शुरुआत उदयन शर्मा के लेखों के संग्रह के प्रकाशित होने के साथ हुई थी । उसके बाद आलोक मेहता और मधुसूदन आनंद के प्रयासों राजेन्द्र माथुर के लेखों का संग्रह सपनों में बनता देश छपा था। ये दोनों प्रयास अपने वरिष्ठों के निधन के बाद उनके लेखन से अगली पीढ़ी को परिचित करवाने की एक ईमानदार कोशिश थी । लेकिन बाद में कई वरिष्ठ पत्रकारों के लेखों के संग्रह प्रकाशित होने शुरी हुए । दो हजार तीन में प्रभाष जोशी के लेखों का संग्रह हिंदू होने का धर्म छपा, जिसमें उन्होंने लगभग पचास पन्नों की लंबी भूमिका लिखी । लगभग उसी वक्त अरविंद मोहन की किताब मीडिया की खबर प्रकाशित हुई थी । दो हजार आठ में एक बार फिर से प्रभाष जोशी के अखबारी लेखों के चार संकलन एक साथ प्रकाशित हुए । सिर्फ प्रभाष जोशी या अरविंद मोहन ही इस सूची में नहीं है । कई वरिष्ठ लेखकों ने इस तरह की किताबें छपवाई हैं । जब ये किताबें छप कर बाजार में आ रही थी तो वो दौर मीडिया के विस्तार का दौर था और अखबारों और न्यूज चैनलों के विस्तार की वजह से पत्रकारिता पढ़ाने के संस्थान धड़ाधड़ खुल रहे थे, जिसमें पढ़नेवाले छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा थी । यह महज एक संयोग था या फिर बाजार को ध्यान में रखकर ऐसा हो रहा था इसका निर्णय होना अभी शेष है । लेकिन जिस तरह से पूर्व प्रकाशित अखबारी लेखों का संकलन पत्रकारिता को ध्यान में रखकर किया गया या जा रहा है उससे यह तो साफ प्रतीत होता ही है कि यह बाजार को भुनाने की या फिर बाजार से अपना हिस्सा लेने की कोशिश है ।
अब इस कड़ी में प्रिंट और टीवी में काम कर चुके पत्रकार प्रभात शुंगलू की किताब - यहां मुखौटे बिकते हैं प्रकाशित हुई है । इस किताब का ब्लर्ब राजदीप सरदेसाई ने लिखा है । राजदीप के मुताबिक प्रभात अलग अलग विषयों पर लिखते हैं । चाहे वो धारा 377 हो या फिर एमएफ हुसैन लेकिन इन सबके बीच प्रभात के लेखन में एक बात समान है - वह है भारत के संविधान में मौजूद उदारवादी मूल्यों में उनकी अटल प्रतिबद्धता । राजदीप के अलावा प्रभात ने अपने पत्रकार बनने और टीवी में आने के बाद फिर से लिखना शुरू करने की दिलचस्प दास्तां लिखी है । प्रभात के लेखन में अंग्रेजी के शब्द बहुतायत में आते हैं और लेखक के मुताबिक वो आम बोलचाल की भाषा है । इसके लिए उनके अपने तर्क भी हैं और तथ्य भी । पर मेरा मानना है कि दूसरी भाषा के शब्दों से परहेज ना करें लेकिन अगर आप हिंदी में लिख रहे हैं और वहां दूसरी भाषा से बेहतर और आसान शब्द मौजूद हैं तो फिर आम बोलचाल के नाम पर दुराग्रह उचित नहीं है । लेकिन प्रबात के लेखों में यह चीज एक जिद की तरह आती है गोया वो कोई नया प्रयोग कर रहे हैं या कोई नई भाषा गढ़ रहे हैं ।
इस किताब में तीन अलग अलग खंड हैं- सियासत, शख्सियत और समाज । इन तीन खानों में प्रभात ने अपने लेखों का बांटा है । प्रभात की एक खासियत है कि वो गंभीर विषयों पर भी व्यंग्यात्मक शैली में अपनी कलम चलाते हैं । चाहे वो कौन बनेगा वीक प्रधानमंत्री हो या फिर यहां मुखौटे बिकते हैं या फिर पांडु ब्रदर्स एंड सन्स हो या फिर हुसैन,तुम माफी मत मांगना हर जगह एक तंज नजर आता है जिसे प्रभात की शैली के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । कौन बनेगा वीक प्रधानमंत्री में आडवाणी पर तंज कसते हुए प्रभात कहते हैं- एक पल के लिए अगर मान भी लें कि आप प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो क्या आज शपथ लेकर कह पाएंगे कि सत्ता का कंट्रोल और रिमोट कंट्रोल दोनों आपके हाथ में होगा - राजनाथ, जेटली नरेन्द्र मोदी और वरुण गांधी के हाथ में नहीं । मोहन भागवत के हाथ में नहीं । प्रमोद मुथल्लिक के हाथ में नहीं । वहीं पांडु ब्रदर्स एंड सन्स में प्रभात गठजोड़ की राजनीति पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखते हैं- अजित सिंह ने फिर बीजेपी का दामन थामा है । कैलकुलेशन किया 4 सीटें भी जीती दो मिनिस्टर बर्थ पक्की । एक अपनी और एक अनु की । गडकरी के बीजेपी अध्यक्ष का पद संभालने के बाद अपने लेख कुहासे में नेतृत्व में प्रभात लिखते हैं - पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी गडकरी का नागपुर प्रेम कुलांचे मारता नजर आया । आगे लिखते हैं कि गडकरी पांव छूने को चाटुकारिता मानते हैं लेकिन अद्यक्ष बनने के बाद राजनाथ, आडवाणी सुषमा के पांव छूकर आशीर्वाद लिया वो शीर्ष नेताओं के प्रति उनकी श्रद्धा थी । अब गड़करी हनुमान होते तो अपना सीना चीरकर दिखला देते ।
प्रभात शुंगलू की इस किताब में चूंकि अखबारी लेखों के संग्रह हैं इसलिए कई बातें संपूर्णता में नहीं आ पाई । कई लेख विस्तार की मांग करते हैं जैसे करगिल से जुड़े प्रभात के लेखों में एक अलग किताब की गुंजाइश नजर आती है । प्रभात शुंगलू करगिल युद्ध को कवर करनेवाले गिने चुने पत्रकारों में एक हैं, उन्हें उस दौर के अपने अनुभवों पर गंभीरता पूर्वक विस्तार से लिखना चाहिए ताकि एक स्थायी महत्व की किताब सामने आए, जल्दबाजी में करगिल पर अखबार के स्पेस के हिसाब से लिखकर और फिर उसे अपनी किताब में छपवाकर प्रबात ने अपरिपक्वता का परिचय दिया है । यहां मुखौटे बिकते हैं प्रभात शुंगलू की पहली किताब है और पहली बार किताब छपने के उत्साह में कई हल्की चीजें भी चली गई हैं, जिनका कोई स्थायी महत्व नहीं है, जैसे मुंबई की अस्मिता से खिलवाड़ जैसे लेखों का स्थायी महत्व नहीं हो सकता है । इस किताब का सिर्फ इतना महत्व है दो हजार नौ के शुरुआत से लेकर लगभग सवा साल की महत्वपूर्ण घटनाएं और इसपर लेखक का नजरिया आपको एक जगह मिल जाएगा । प्रभात की यह किताब इस बात का संकेत जरूर देती है कि अगर वो गंभीरता से विषय विशेष पर और उसके हर पहलू पर विस्तार से लिखें तो गंभीर किताब बन सकती है ।

Thursday, September 23, 2010

संवैधानिक संस्था की साख पर बट्टा

एक बार फिर देश में एक संवैधानिक पद पर हुई नियुक्ति विवादों के घेरे में आ गई है । मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भारत सरकार के दूरसंचार सचिव की नियुक्ति लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के विरोध को दरकिनार करते हुए कर दी गई । मुख्य सतर्कता आयुक्त का चुनाव प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमिटी करती है जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा गृह मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता होते हैं । अब तक परंपरा यह रही है कि आम सहमति के आधार पर ही मुख्य सतर्कता आयुक्त का चयन होता है लेकिन इस बार लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्तियों को धता बताते हुए दूरसंचार सचिव पी जे थॉमस के नाम पर मुहर लगा दी गई । आम सहमति की परंपरा इसलिए बनाई गई थी ताकि इस संवैधानिक संस्था में शासक दल और विपक्षी दल दोनों का विश्वास बना रहे । उसकी जांच पर किसी तरह का सवाल ना उठे और विपक्षी दल भी सीवीसी की जांच पर पक्षपात का आरोप ना लगा सकें, इसलिए जब इस संस्था का गठन किया गया था तो यह तय किया गया था कि सीवीसी के चयन में नेता प्रतिपक्ष की राय को अहमियत दी जाएगी । लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी वाली इस समिति ने मान्य परंपरा का ध्यान नहीं रखा ।
पी जे थॉमस के मुख्य सतर्कता आयुक्त बनने के बाद यह सवाल सुरसा की तरह मंह बाए खड़ा हो गया है टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन के घोटाले की जांच वो वयक्ति कैसे कर सकता है जो इस पद पर आने के पहले खुद दूरसंचार सचिव रहा हो । यह भी तथ्य है कि टू जी स्पेक्ट्रम का आवंटन थॉमस के मंत्रालय में आने के पहले हो चुका था लेकिन साथ ही दूसरा तथ्य यह भी है कि बीते अगस्त में जब जब पी जे थॉमस दूरसंचार सचिव थे तो उस वक्त मंत्रालय ने एक नोट तैयार किया था जिसमें यह कहा गया था कि स्पेक्ट्रम आवंटन नीतिगत मामला है और इसमें जिसमें सीवीसी या सीएजी की जांच की कोई भूमिका बनती नहीं है । इस नोट के अलावा भी दूरसंचार मंत्रालय के सचिव होने के नाते थॉमस कई बार इस तरह के किसी घोटाले से इंकार करते हुए बेहद मजबूती से अपने मंत्रालय का बचाव भी करते रहे हैं । अब जब वही पी जे थॉमस देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त बन गए हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच सीवीसी नहीं करेगी और आवंटन का सच हमेशा के लिए दफन हो जाएगा ।
दूसरी अहम बात जिसको लेकर पी जी थॉमस की नियुक्ति पर विवाद है वो है उनका दागदार दामन । उन्नीस सौ तिहत्तर बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर थॉमस का करियर कई बार विवादों में रहा है । थॉमस जब केरल में खाद्य और आपूर्ति विभाग के सचिव हुआ करते थे तो उस वक्त ही मलेशिया से पॉम आयल के आयात को लेकर घपला हुआ था जिसने सुदूर दक्षिण के इस राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया था । उस घोटाले के छींटे थॉमस के दामन पर भी पड़े थे । तब जोर-शोर से यह मांग उठी थी कि खाद्य सचिव होने के नाते पी जे थॉमस की भूमिका की जांच की जाए लेकिन केंद्र सरकार के इजाजत नहीं मिलने से जांच नहीं हो पाई थी । पॉम ऑयल घोटाले का जिन्न एक बार तब फिर बाहर निकला था जब थॉमस को सूबे का मुख्य सचिव बनाने की बात चली थी । शुरुआत में राज्य सरकार ने थोड़ी हिचक जरूर दिखाई थी लेकिन बाद में उनको केरल का मुख्य सचिव बना दिया गया था । इस तरह के अफसर जिनपर कई तरह के आरोप लगे हों और जिनका करियर बेदाग नहीं रहा हो उनको मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाने के लिए एक मान्य परंपरा को तोड़ने की क्या आवश्यकता थी । विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नियुक्ति के पहले की बैठक में इन बातों को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करवा दी थी लेकिन ना तो प्रधानमंत्री ने और ना ही गृह मंत्री ने नेता विपक्ष की राय को तवज्जो दी । सीवीसी के पैनल में दो और अपेक्षाकृत बेहतर नाम थे जिनकी उम्मीदवारी को दरकिनार कर थॉमस के नाम को स्वीकृति दी गई । सवाल यह उठता है कि सरकार थॉमस को लेकर इतना आग्रही क्यों थी । क्या यहां भी मनमोहन सिंह के सामने गठबंधन सरकार की मजबूरी थी । क्या यहां भी दूरसंचार मंत्री ए राजा या फिर उनकी पार्टी के सुप्रीमो करुणानिधि की सिफारिश थी जिसे ठुकराना मनमोहन सिंह के लिए मुश्किल था क्योंकि करुणानिधि की पार्टी के सांसदों के बल पर यूपीए-2 की बुनियाद टिकी है ।
इन सबसे इतर जो एक बड़ा सवाल है वो यह कि इस संवैधानिक संस्था में अब विपक्षी दलों का कितना विश्वास रह जाएगा । जिसके मुखिया का दामन ही दागदार हो और प्रमुख विपक्षी दल उनपर आरोपों की झड़ी लगा रहे हों उनकी जांच पर वो कैसे भरोसा करेगी । होना तो यह चाहिए था कि सरकार एक ऐसे वयक्ति को इस पद पर नियुक्त करती जिनका करियर बेदाग होता और उसकी छवि ऐसी होती जिसपर सहज किसी को भी भरोसा हो सकता था । अगर देश के मुख्य सतर्कता आयुक्त की विश्वसनीयता पर जरा भी सवाल खड़ा होता है तो वो इस संवैधानिक संस्था को ना केवल कमजोर करता है बल्कि लोगों का भरोसा भी खत्म करता है । इस मामले में यही हुआ है जिससे मनमोहन सरकार की छवि को तो धक्का लगा ही है इस संवैधानिक संस्था की साख पर भी बट्टा लगा है ।

Monday, September 13, 2010

पाठकों से छल करते कहानीकार

चंद दिनों पहले की बात है मेरी पत्नी किताबों की दुकान से चित्रा मुदगल की किताब- गेंद और अन्य कहानियां खरीद लाई । इस संग्रह के उपर दो मासूम बच्चों की तस्वीर छपी है और नीचे लिखा है बच्चों पर केंद्रित कहानियों का अनूठा संकलन । मुझे भी लगा कि पेंग्विन से चित्रा जी कहानियों का नया संग्रह आया है । लेकिन जब मैंने उसे उलटा पुलटा तो लगा कि उसमें तो चित्रा जी की पुरानी कहानियां छपी हैं । उसके बाद जब मैंने अपनी वयक्तिगत लाइब्रेरी को खंगालना शुरू किया तो पता चला कि चित्रा मुदगल के पांच कहानी संकलन मेरे पास हैं । भूख जो ज्ञानगंगा, दिल्ली से प्रकाशित हुई है, दस प्रतिनिधि कहानियां जो किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं, चर्चित कहानियां जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं, इसके अलावा डायमंड बुक्स से प्रकाशित संग्रह भी मेरी नजर से गुजर चुका है । और अंत में सामयिक प्रकाशन ने ही चित्रा मुदगल की संपूर्ण कहानियों का संग्रह आदि-अनादि के नाम से तीन खंडों में छापा है । इन सारे संग्रहों में घूम फिर कर वही-वही कहानियां प्रकाशित हैं । हिंदी साहित्य में यह काम सिर्फ चित्रा मुदगल ने नहीं किया है । ज्यादातर कहानीकारों ने साहित्य में ये घपला किया है । हिंदी साहित्य को लंबे समय से नजदीक से देखनेवालों का कहना है कि हिंदी में ये खेल हिमांशु जोशी ने शुरू किया । जानकारों की मानें तो इस प्रवृत्ति के प्रणेता हिमांशु जोशी ही हैं । कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि जोशी जी की उतनी कहानियां नहीं हैं जितने उनके संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । कहीं से चर्चित कहानियां, कहीं से प्रतिनिधि कहानियां, कहीं से फलां तथा अन्य कहानियां, कहीं से प्रेम कहानियां, कहीं से बच्चों की कहानियां, कहीं से अमुक वयक्ति की पसंद की कहानियां । हद तो तब हो गई जब कहानीकार अपनी उम्र और सालगिरह के हिसाब से संग्रह छपवाने लगे । ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिमांशु जोशी और चित्रा मुदगल ने ही यह काम किया है । हिंदी के कमोबेश सभी कहानीकारों ने इस तरह से पाठकों को छला है । वरिष्ठ कहानीकार गंगा प्रसाद विमल के भी कई संग्रह हैं जिनमें कहानियों का दुहराव है । चंद लोगों के नाम लेने का मकसद सिर्फ इतना है कि मेरी बातें हवाई ना लगे और वो तथ्यों पर आदारित हों ।
दरअसल इस पूरे खेल का मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है। पैसा कमाने की इस दौड़ में हिंदी के कहानीकार यह भूल जा रहे हैं कि वो पाठकों के साथ कितना बड़ा छल कर रहे हैं । चमचमाते कवर और नए शीर्षक को देखकर कोई भी पाठक अपने महबूब लेखक- लेखिका की किताबें खरीदे लेता है । लेकिन जब वो घर आकर उसे पलटता है तो अपने को ठगा महसूस करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचता है । पैसे की हानि के साथ साथ टूटता-दरकता है उसका विश्वास । वो विश्वास जो एक पाठक अपने प्रिय लेखक पर करता है । पाठकों के इसी विश्वास की बनियाद साहित्य की सबसे बड़ी ताकत है और जब उसमें ही दरार पड़ती है तो यह सीधे-सीधे साहित्य का नुकसान है जो फौरी तौर पर तो नजर नहीं आएगा लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे । जल्दी पैसे कमाने की होड़ में हिंदी का कहानीकार यह भूल जा रहा है कि अगर उसने यह प्रवृत्ति नहीं छोड़ी तो उसको पाठक मिलने बंद हो जाएंगे । अभी ही वो पाठकों की कमी का रोना रोते हैं लेकिन एक अगर एक बार पाठकों का भरोसा लेखकों से उठ गया तो क्या अंजाम होगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है ।
यह घपला सिर्फ इस रूप में नहीं आया है । हिंदी में कई ऐसे कहानीकार हैं जिनकी लंबी कहानी किसी पत्रिका में छपी फिर उसी लंबी कहानी को उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवा लिया गया । वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में हिंदी की बेहद समादृत और वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की प्रकाशित हुई थी । जिसे बाद में स्वतंत्र रूप से उपन्यास के रूप में छापा-छपवाया गया । इसी तरह से दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी नमो अंधकारम भी पहले तो कहानी के रूप में प्रकाशित-प्रचारित हुई लेकिन कालांतर में वो एक उपन्यास के रूप में छपा । यही काम हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार भी कर चुके हैं जिन्होंने हंस में प्रकाशित अपनी लंबी कहानियों को डबल स्पेस में टाइप करवाकर उपन्यास बना दिया । एक ही रचना कहानी भी है और वही रचना उपन्यास भी एक ही समय पर यह कैसे संभव है लेकिन हिंदी में ऐसा धड़ल्ले से हुआ है । यह पाठकों के साथ छल नहीं तो क्या है । अपने फायदे के लिए पाठकों को ठगना कितना अनैतिक है इसका फैसला तो भविष्य में होगा ।
बाजारवाद और बाजार को पानी पी पी कर सोते जागते गरियानेवाले हिंदी के इन लेखकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वो बाजार की ताकतों के हाथ क्यों खेल रहे हैं । क्या व्यक्तिगत फायदे के लिए बाजार की शक्तियों के आगे घुटने टेक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है । सारे सिद्धांत और सारे वाद क्या सिर्फ कागजों में या उनके आग उगलते भाषणों में ही नजर आएंगे या फिर सारी क्रांति पड़ोसी के घर से शुरू होंगी । हिंदी में बार-बार नैतिकता की बात उठाने वाले लेखकों-आलोचकों की इस मसले पर चुप्पी हैरान करनेवाली है । पिछले लगभग दो तीन दशक से कहानीकारों का पाठकों के साथ यह धोखा जारी है लेकिन कहीं किसी कोने से कोई आवाज नहीं उठी । किसी लेखक ने इस प्रवृत्ति पर आपत्ति नहीं उठाई । प्रगतिशीलता और साहित्यक शुचिता की बात करनेवाले वामपंथी लेखकों को भी कहानीकारों का यह छल नजर नहीं आया बल्कि वो तो खुले तौर पर इस खेल में शामिल नजर आते हैं । मार्क्सवाद को अपने कंधे पर ढोनेवाले मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों को यह धोखा नजर नहीं आया या नजर आने के बावजूद आंखें मूंदे बैठे रहे । लेखक संगठनों तक ने इस धोखेबाजी पर कुछ ना बोलना ही उचित समझा । उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है क्योंकि लेखक संगठन लगभग मृतप्राय हैं और जो बचे हैं वो भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की तरह अपने नेताओं के जेबी संगठन मात्र बनकर रह गए हैं ।
कुछ कहानीकारों का यह तर्क है कि अलग-अलग प्रकाशकों से अलग-अलग नामों से कहानी संग्रह छपवाने का मूल मकसद वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचना है । अपने इस कृत्य के तर्क में कई कहानीकार यह भी कहते हैं कि एक प्रकाशन से संस्करण खत्म होने के बाद ही वो दूसरे प्रकाशक के यहां से अपनी कहानियां छपवाते हैं । लेकिन यह दोनों तर्क एक सफेद झूठ की तरह है । कई संकलन मेरे सामने रखे हैं जिनका प्रकाशन वर्ष या तो एक ही वर्ष में है या फिर अगले वर्ष । हिंदी प्रकाशन जगत को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि अभी हिंदी में यह स्थिति नहीं आई है कि किसी कहानी संग्रह का एक संस्करण छह माह में या एक साल में खत्म हो जाए । इसके पीछे चाहे संग्रह के कम खरीदार हों या फिर प्रकाशकों का घपला । जहां तक वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचने की बात है तो यह अलग-अलग नाम से अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से छपवाने से कैसे संभव है ,यह फॉर्मूला भी अभी सामने आना शेष है ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी के तमाम वरिष्ठ लेखक इस बात पर गंभीरता से विचार करें और पाठकों के साथ दशकों से हो रहे इस छल पर मिल बैठकर बात करें और उसे रोकने के लिए तुरंत कोई कदम उठाएं वर्ना हिंदी के पाठक ही इस बात का फैसला कर देंगे । पाठक अगर फैसला करेंगे तो वो दिन हिंदी के कहानीकारों के लिए बहुत बुरा दिन होगा और फिर उस फैसले पर पुनर्विचार का कोई मौका भी नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से लोकतंत्र में वोटर का फैसला अंतिम होता है उसी तरह से साहित्य में पाठक का फैसला अंतिम और मान्य होता है ।

Thursday, September 9, 2010

स्त्री, दलित, मुसलमान- बजाते रहो

दिल्ली के साहित्यिक प्रेमियों को हर साल 28 अगस्त का इंतजार रहता है । साहित्यिकारों को तो खासतौर पर । हर साल यह दिन दिल्ली में एक उत्सव की तरह मनाया जाता है । दिल्ली के सारे साहित्यकार एक जगह इकट्ठा होते हैं, जमकर खाते पीते हैं । महानगर की इस भागदौड़ और आपाधापी की जिंदगी में कई लोग तो ऐसे भी होते हैं जो साल भर बाद इस दिन ही मिलते हैं । उत्सव सरीखे जश्न का यह मौका होता है वरिष्ठ लेखक और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव के जन्मदिन का । मैं नब्बे के दशक के शुरुआत में दिल्ली आया । शुरुआत के कुछ वर्ष छोड़ दें तो तब से लेकर तकरीबन हर साल यादव जी के जन्मदिन के जश्न का गवाह रहा हूं, एक बार तो बिन बुलाए भी पहुंच गया। कई लोगों से मैं पहली बार राजेन्द्र यादव के जन्मदिन के मौके पर ही मिला । हिंदी के वरिष्ठतम लेखकों में से एक श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी पहली मुलाकात राजेन्द्र जी के जन्मदिन के मौके पर हुई थी । उस वर्ष राजेन्द्र जी का जन्मदिन कवि उपेन्द्र कुमार के पार्क स्ट्रीट के सरकारी बंगले पर ही मनाया गया था । श्रीलाल जी से मुलाकात और साहित्यकार के अलावा उनके सतरंगे वयक्तित्व से परचित होना मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य की तरह था । यादव जी के जन्मदिन के मौके पर ही मैंने प्रभाष जोशी को उनका पांव छूते देखा । खैर ये अवांतर प्रसंग हैं जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
इस बार अपने जन्मदिन से कुछ रोज पहले राजेन्द्र जी की तबियत इतनी बिगड़ गई थी कि उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था । पता चला था कि शरीर में सुगर की कमी हो गई । अस्पताल से भरपूर मिठास लेकर यादव जी घर लौटे थे । मेरी इस दौरान लगातार बात होती रही , मैं लगातार पूछता रहा कि इस बार जन्मदिन का जश्न कहां हो रहा है । लेकिन यादव जी टालते रहे । फिर एक दिन फोन किया और जश्न-ए-जन्मदिन के बारे में दरियाफ्त की तो पता चला कि वो तो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानि एम्स में भर्ती हैं । जब और हालचाल जानने की कोशिश में बात आगे बढ़ी तो राजेन्द्र जी ने बताया कि वो कुछ टेस्ट के लिए भर्ती हुए हैं, चिंता की बात नहीं है । बातचीत करने के बाद लगा कि शायद इस बार यादव जी का जन्मदिन ना मनाया जाए । लेकिन सत्ताइस अगस्त की शाम को लेखक अजय नावरिया का एक संदेश प्राप्त हुआ- राजेन्द्र यादव जी अपनी जिंदगी के बयासीवें साल में प्रवेश कर रहे हैं , इस मौके पर प्रेस क्लब में होने वाले आयोजन में आप आमंत्रित हैं । संदेश के बाद अजय नावरिया ने फोन भी किया । पता चला कि आयोजकों ने यह तय किया है कि इस बार यादव जी का जन्मदिन बेहद करीबी लोगों के साथ मनाया जाए । अजय नावरिया को उनकी इस मुहिम में साथ मिला उत्साह और उर्जा से लबरेज पत्रकार गीताश्री का । नियत समय पर हमलोग दिल्ली के रायसीना रोड स्थित प्रेस क्लब में इकट्ठा हुए । तीस चालीस आमंत्रित लोगों के साथ राजेन्द्र जी ने केक काटा । सबने हैप्पी बर्थ डे टू यू गाया, तालियां बजीं । लेकिन सबसे दिलचस्प रहा राजेन्द्र जी के दोस्त डाक्टर सक्सेना का गिफ्ट । सक्सेना जी ने यादव जी को एक ढोल दिया, जिसके एक ओर चिपका था- दलित, दूसरी ओर मुसलमान और तीसरी ओर स्त्री । संदेश यह था कि राजेन्द्र जी साहित्य में दलित, मुसलमान और स्त्रियों की समस्याओं का ढोल पीटते हैं तो अब उनके गले में असल की ही ढोल डाल दी जाए । डॉक्टर सक्सेना इसके पहले भी राजेन्द्र जी को बेहद अजूबे गिफ्ट देते रहे हैं । इसके पहले उन्होंने एक ऐसा मुखौटा भेंट किया था जिसमें दस सिर लगे थे यानि एक लेखक का दस चेहरा । उसके पहले हुक्का भेंटकर सबकों चौंका चुके थे । जिस तरह से सबको यादव जी के जन्मदिन का इंतजार रहता है उसी तरह हर किसी की यह जानने में भी दिलचस्पी रहती है कि डॉक्टर सक्सेना इस बार क्या भेंट लेकर आनेवाले हैं ।
बेहद आत्मीयता से फिर खाने-पीने का दौर शुरू हुआ । गीताश्री एक बेहतरीन होस्ट की तरह सबके खाने-पीने का ध्यान रख रही थी । जैसे ही उन्हें ये जानकारी मिलती कि कोई बगैर खाए जाने की बात कर रहा है किसी को उसके पीछे लगा देती और तबतक निश्चिंत होकर नहीं बैठती थी जबतक कि वो खाना खा नहीं लेता । इस आयोजन में निर्मला जैन, भारत भारद्वाज, असगर वजाहत, पंकज विष्ठ. साधना अग्रवाल के अलावा वरिष्ठ पत्रकार शाजी जमां, आशुतोष, अजीत अंजुम, परवेज अहमद और श्रीनंद झा भी मौजूद थे । अशोक वाजपेयी थोड़ी देर से जरूर पहुंचे लेकिन अंत तक डटे रहे । यहां भी अशोक जी के साथ एक मजेदार वाकया हुआ । अशोक जी राजेन्द्र जी, मिर्मला जैन के साथ बैठे बातें कर रहे थे । अचानक डॉक्टर सक्सेना अशोक जी के पास पहुंचे और कहा- अशोक जी जनसत्ता का आपका कॉलम बहुत अच्छा रहता है । आपकी भाषा बेहद शानदार है । यहां तक तो अशोक जी के चहरे पर वही भाव थे जो अपनी प्रशंसा सुनकर किसी भी वयक्ति के चहरे पर हो सकती है । लेकिन इसके बाद डॉक्टर सक्सेना ने जो कहा उससे अशोक जी के चेहरे की चमक गायब हो गई । डॉक्टर सक्सेना ने उनकी भाषा की प्रशंसा करते करते यह कह डाला कि आपकी भाषा में वही रवानगी और ताजगी है जो किसी जमाने में शिवानी के लेखन में महसूस की जा सकती थी । यह अगर सक्सेना जी का व्यंग्य था तो बेहद शानदार था और अगर अनजाने में गंभीरता पूर्वक यब बात कही गई थी तो अशोक जी कभी कभार में इसकी खबर जरूर लेंगे ।
सभी लोग यादव जी से मजे ले रहे थे और उन्हें बयासी साल का होने पर बधाई दे रहे थे । राजेन्द्र जी भी इस बेहद आत्मीय आयोजन से प्रसन्न दिख रहे थे । अपने साथी लेखकों से चुटकी भी ले रहे थे । यादव जी की जो एक खूबी है वो यह है कि उनके साथ रहकर साहित्यिक, गैर साहित्यिक, बच्चा, बूढ़ा, जवान कोई भी बोर नहीं हो सकता। यादव जी जैसे बयासी साल के जवान का जन्मदिन और गीताश्री जैसी जिंदादिल होस्ट ने राजेन्द्र जी के जश्न-ए-सालगिरह को एक यादगार लम्हा बना दिया था । अंत में मैं इतना ही कह सकता हूं कि – तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार ।

Saturday, September 4, 2010

हिंदी साहित्य में लालूवाद

अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौड़ा पर अरबों रुपये के घोटाले के आरोप लगे । मधु कौड़ा से जुड़ी खबरें हर रोज मीडिया में सुर्खियां बनती रही । उसके कई सहयोगियों के नाम भी सामने आने लगे । मधु कौड़ा और उनके सहयोगियों के बारे में तफ्तीश शुरू हुई । इस बीच अचानक से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व रेल मंत्री लालू यादव ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर यह सफाई दी कि उनका मधु कौड़ा से कोई लेना देना नहीं है । लालू की इस सफाई से लोगों को हैरानी भी हुई । कई पत्रकारों ने प्रेस कांफ्रेंस में उनसे सवाल भी पूछा कि वो क्यों सफाई दे रहे हैं,जबकि उनका नाम कहीं से मधु कौड़ा के घोटाले में शामिल नहीं है । लालू यादव ने अपने ही अंदाज में बात को हवा में उड़ा दिया और कहा कि उन्हें अपने स्त्रोंतो से पता चला कि लोग उनपर शक कर रहे हैं सो उन्होंने मुनासिब समझा कि सफाई दी जाए । ठीक इसी तरह का वाकया अब हिंदी साहित्य में सामने आया है । विभूति-कालिया प्रकरण में जब विवाद ठंड़ा पड़ने लगा तो अचानक से पिछले हफ्ते हिंदी के वरिष्ठ कवि और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में लालू यादव के तर्ज पर इस विवाद को पर्दे के पीछे से हवा देने के आरोपों पर अपनी सफाई दी । अशोक वाजपेयी ने लिखा- इस बीच एक और अफवाह फैलाई गई । कुंवर नारायण और मैं इस प्रसंग में ज्ञानपीठ की अध्यक्ष इंदु जैन से मिले हैं । अव्वल तो इस प्रसंग को लेकर कुंवर जी से मेरी बात तक नहीं हुई । दूसरे इंदू जैन से कोई बीस बरस पहले नाश्ते पर एक सौजन्य भेंट हुई थी जब मुझे नवभारत टाइम्स के संपादक का पद ऑफर किया गया था । उसके बाद उनसे कभी नहीं मिला । तीसरे जो कुछ मैं इस विवाद में चाहता हूं उसे खुलकर बता चुका हूं – गुप कोई काम करना मेरी आदत में शामिल नहीं है । पर इस झूठ को सरासर फैलाने का काम शुरू किया गया । इस प्रकरण में अशोक जी ने के विक्रम सिंह से लेकर विजय मोहन सिंह और केदार नाथ सिंह का नाम भी लिया । लेकिन सवाल यह उठता है कि अशोक जी को सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ी । ऐसी कौन सी अफवाह फैलाई जा रही थी कि अशोक जी जैसे गंभीर लेखक को अपने लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ में सफाई देने की जरूरत पड़ी ।
दूसरी बात जो अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में उठाई वो नैतिकता और लेखकों के अपमान की । अशोक वाजपेयी के मुंह से नैतिकता की बात भी उसी तरह लगती है जैसे कि लालू यादव के मुंह से । साहित्य जगत उन्नीस सौ चौरासी के अशोक वाजपेयी के बयान को भूला नहीं है । भोपाल गैस त्रासदी के आसपास ही अशोक वाजपेयी ने एशिया पोएट्री का आयोजन किया था । तब वो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के चहेते अफसर और भारत भवन के कर्ता-धर्ता थे । जब भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की जान गई तो उसी शहर में कविता पर उक्त आयोजन पर सवाल खड़े होने लगे थे। तब अशोक वाजपेयी ने बयान दिया था कि मरनेवालों के साथ कोई मर नहीं जाता । अशोक वाजपेयी का वह बयान बेहद अमानवीय और मनुष्यता के खिलाफ था और एक लेखक और वयक्ति की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा नमूना।
साहित्य में स्वतंत्रता और जनपक्षधरता की बात करनेवाले अशोक वाजपेयी मूलत: नौकरशाह हैं और भारत में अफसरशाही की कंडीशनिंग इस तरकह से होती है कि वहां ना तो संवेदना के लिए कोई जगह होती है और ना ही नैतिकता के लिए । आप खुद इस बात का अंदाजा लगाइये कि जिस शहर में तकरीबन पच्चीस हजार लोग काल के गाल में समा गए हों उसी शहर के अफसर अशोक वाजपेयी का उक्त बयान कितना संवेदनहीन है । उस एक बयान के लिए ही अशोक वाजपेयी को माफ नहीं किया जा सकता है । आज अशोक वाजपेयी नैतिकता की दुहाई देते हैं लेकिन तब उनकी नैतिकता कहां चली गई थी जब संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार हथिया लिया था । गौरतलब है कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है लेकिन वो संबद्ध तो संस्कृति मंत्रालय से ही है । नैतिकता का उपदेश देने के पहले अशोक जी को खुद के गिरेबां में झांक कर देख लेना चाहिए । यहां भी वो लालू यादव के पद चिन्हों पर ही चलते नजर आ रहे हैं । घोटालों के आरोप से घिरे लालू यादव भी गाहे बगाहे नैतिकता और राजनैतिक शुचिता की बात करते हैं ।
अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि हिंदी लेखक समाज अपने सदस्यों के अपमान करनेवालों को सुख चैन से अपनी कुर्सी पर बैठने नहीं देगा । जो निर्लज्ज फिर भी उंची कुर्सी पर जमे हैं वे खुद जानते हैं कि उनका कद कितना नीचा हो गया है । आज अशोक वाजपेयी को हिंदी साहित्य समाज के अपमान की याद आ रही है लेकिन वो खुद हिंदी के लेखकों का कितनी बार अपमान कर चुके हैं , कितनी बार उसका मजाक उड़ा चुके हैं यह उनको याद दिलाने की जरूरत है । अशोक वाजपेयी जब साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद का चुनाव हारे थे तब हिंदी के लेखकों के खिलाफ विषवमन किया था । अपनी हार से तिलमिलाए अशोक वाजपेयी ने कहा था कि – जिन हिंदी के लेखकों को महीनों-महीने रखा, खिलाया पिलाया, हवाई जहाज से यात्राएं करवाई उन्होंने ही मुझे धोखा दिया । उनके निशाने पर हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक और एक कवि थे । आज वही अशोक वाजपेयी हिंदी के लेखकों के अपमान करनेवालों के निर्लज्ज कह रहे हैं । क्या यही भाषा एक वरिष्ठ लेखक को इस्तेमाल करनी चाहिए । क्या लिखते लिखते अशोक वाजपेययी मर्यादा भूल जाते हैं या फिर व्यक्तिगत खुन्नस लेखक पर हावी हो जा रहा है । जिनको वो निर्लज्ज कह रहे हैं उनका कद साहित्य में अशोक वाजपेयी से कई गुना बड़ा है, उम्र में तो उनसे बड़े हैं ही ।
अपने उसी स्तंभ में अशोक वाजपेयी साहित्य के परिसर को मूल्यों का परिसर बताते हुए विभूति नारायण राय और रविन्द्र कालिया पर वार करते हैं । अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब अशोक वाजपेयी महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति थे । तब उनपर एक बड़े परिसर में मूल्यों के दायित्व का निर्माण करने की महती जिम्मेदारी थी लेकिन उस वक्त भी वहां क्या-क्या गुल खिले थे वो किसी से छिपे नहीं हैं इस विषय पर कभी विस्तार से चर्चा होगी । अशोक जी हिंदी के मूर्धन्य रचनाकार हैं, किसी भी विवाद पर पूरा हिंदी जगत उनसे बगैर किसी पूर्वग्रह के हस्तक्षेप की उम्मीद करता है । लेकिन इस पूरे विवाद में अशोक जी पूर्वग्रहों से उपर नहीं उठ सके ।

Wednesday, August 18, 2010

कारण कवन नाथ मोहे मारा

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक मे छ्पे मेरे इंटरव्यू पर हुई प्रतिक्रियाओ से एक बात स्पष्ट हो गयी कि मैने अपनी लापरवाही से एक गम्भीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया । मैने कुछ ऐसे शब्दो का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था। मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिन्दी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है मैने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली ।मैं शर्मिन्दा हूँ कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे है,इनमे बडी सख्यां में लेखिकायें भी हैं पर मेरे मन मे उनके लिये सम्मान भी बढा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मजम्मत की। हालाकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिन्दा रखना चाह्ते हैं, इन्टरव्यू में उठाये गये मुद्दों पर बहस न कर के अभी भी उन शब्दों के वाक्जाल मे उलझे हुए हैं जिनपर मै खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूँ । मै मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मै मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं ।
यह कहना है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का । दरअसल जिस बात पर विभूति अपने साथी लेखकों और हिंदी समाज से माफी मांग रहे हैं वो पूरा विवाद विभूति के ही एक साक्षात्कार से उठा । नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई विशेषांक में विभूति नारायण राय का एक लंबा इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है जिसमें एक सवाल के जबाव में विभूति कहते हैं - पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्यरूप से शरीर केंद्रित है । यह भी कह सकते हैं कि वह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है । लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है । मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक कितनी बिस्तरों पर कितनी बार हो सकता है । इस इंटरव्यू के प्रकाशित होने के बाद हिंदी के लेखकों के बीच इस पर विमर्श शुरू हो गया था । लेकिन बड़े पैमाने पर इसका विरोध तो तब शुरू हुआ जब अचानक से एक दिन दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित कर विवाद खड़ा कर दिया । अंग्रेजी अखबार के संवाददाता ने छिनाल शब्द का अंग्रेजी अनुवाद प्रोस्टीट्यूट कर दिया । जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया । छिनाल उन स्त्रियों को कहा जाता है जो कुलटा होती हैं या फिर स्त्रियोचित मर्यादा को भंग कर अपनी मर्जी से कई पुरुषों से संबंध बनाती है । लेकिन वो किसी भी हाल में वेश्या नहीं होती । महिला लेखिकाओं के लिए कहा गया यह शब्द बिल्कुल आपत्तिजनक है लेकिन वेश्या जितना अपमानजनक नहीं है । यह गाली है और किसी भी लेखक को अपनी बिरादरी की महिलाओं के लिए इस शब्द के प्रयोग की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।
जैसा कि उपर संकेत दिया जा चुका है कि यह इंटरव्यू लगभग हफ्तेभर से छपकर विवादित नहीं हो पा रहा था क्योंकि हिंदी सत्ता की भाषा नहीं है, सत्ता की भाषा तो अंग्रेजी है । अंग्रेजी अखबार के गैर जिम्मेदाराना अनुवाद ने आग में घी का काम किया और विरोध की चिंगारी को भड़का दिया । लेखिलाओं का जितना अपमान विभूति नारायण राय किया उससे ज्यादा बड़ा अपमान तो अंग्रेजी के वो अखबार कर रहे हैं जो लगातार लेखिकाओं को वेश्या बता रहे हैं । मीडिया में इसके उछलने के बाद विभूति नारायण राय पर चौतरफा हमला शुरू हो गया । हिंदी के लेखकों के अलावा कई महिला संगठनों ने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति को लेखिकाओं के खिलाफ इस अमर्यादित टिप्पणी को लेकर कठघरे में खड़ा किया और उनके इस्तीफे और बर्खास्तगी की मांग होने लगी।
मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल और राष्ट्रीय महिला आयोग तक भी ये मामाला पहुंच गया । लगभग मृतप्राय लेखक संगठनों में भी जान आ गई और उन्होंने भी विभूति नारायण राय के खिलाफ एक निंदा बयान जारी कर दिया । चौतरफा घिरे विभूति नारायण राय को मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तलब किया और उनके यहां से निकलकर राय ने बिना शर्त लिखित माफी मांग ली । फिर अखबार में लेख लिखकर भी माफी मांगी। विभूति के विरोध के अलावा लेखकों ने नया ज्ञानोदय और उसके संपादक के खिलाफ भी मोर्चा खोला । ज्ञानोदय छापने वाली संस्था भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर पर प्रदर्शन भी किया । विरोध बढ़ता देखकर नया ज्ञानोदय के संपादक
रवीन्द्र कालिया ने इसे संपादकीय भूल मानते हुए खेद प्रकट किया और नया ज्ञानोदय का उक्त अंक बाजार से वापस मंगाकर विवादास्पद शब्द को हटाकर पत्रिका को फिर से छापने का वादा किया । लेकिन बावजूद इसके लेखकों का एक वर्ग इन दोनों का फांसी पर लटकाने को आमदा है । इनकी मांग है कि विभूति नारायण राय और कालिया को उनके पद से बर्खास्त किया जाए । इसके लिए बकायादा एक मोर्चे का गठन भी किया गया है । लेकिन माफी मांग लेने के बाद विरोध जारी रखने का औचित्य समझ में नहीं आता ।
विरोध पर डटे रहने के कुछ साहित्येत्तर कारण हो सकते हैं- या तो विभूति से व्यक्तिगत खुन्नस, कालिया से नाराजगी या फिर सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ गुस्से का दिखावा । किसी भी साहित्यिक मुद्दे पर लेखकों की इतनी सक्रियता चौंकानेवाली है । कुछ दिनों पहले हिंदी के ही एक अन्य लेखक भगवान दास मोरवाल के उपन्यास रेत के खिलाफ जब ‘गिहार’ समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले एक संगठन- भारतीय आदिवासी गिहार विकास समिति ने उत्तर प्रदेश के छिबरामऊ की अदालत में उपन्यासकार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया तो कहीं से कोई विरोध की आवाज तो दूर मोरवाल के समर्थन में किसी लेखक ने बयान तक नहीं दिया । लेखक संगठन तक कुंभकर्णी नींद सोते रहे । आज भी मोरवाल अकेले उस लड़ाई को लड़ रहे हैं । जमानत लेने से लेकर तमाम अदालती झंझटों से अकेले निबट रहे हैं । तसलीमा नसरीन को जब पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने कोलकाता से निकाला तो बयानबाजी की रस्म अदायगी की गई । कहीं भी धरना प्रदर्शन तो दूर की बात कोई हस्ताक्षर अभियान तक नहीं चला । हिंदी के एक स्वनामधन्य आलोचक, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक थे, को जब एक दलित छात्रा के यौन शोषण के आरोप में जब विश्वविद्यालय ने उन्हें हटा दिया तब भी उनका
विरोध किसी लेखक या लेखक संगठन ने नहीं किया । दरअसल हिंदी साहित्य में विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया के खेद प्रकट करने के बाद जो विरोध हो रहा है उसके पीछे कहीं ना कहीं कुछ दूसरे कारण हैं जो कम से कम साहित्यिक तो नहीं है । अब विशाल हिंदी समाज को यह तय करना है कि ये विरोध कितना जायज और किस उद्देश्य के लिए किया जा रहा है ।

Tuesday, August 10, 2010

पच्चीस का ‘हंस’

आज से पच्चीस साल पहले जब अगस्त 1986 में राजेन्द्र यादव ने हंस पत्रिका का पुर्नप्रकाशन शुरू किया था तब किसी को भी उम्मीद नहीं रही होगी कि यह पत्रिका निरंतरता बरकरार रखते हुए ढाई दशक तक निर्बाध रूप से निकलती रहेगी, शायद संपादक को भी नहीं । उस वक्त हिदी में एक स्थिति बनाई या प्रचारित की जा रही थी कि यहां साहित्यिक पत्रिकाएं चल नहीं सकती । सारिका बंद हो गई, धर्मयुग बंद हो गया जिससे यह साबित होता है कि हिंदी में गंभीर साहित्यक पत्रिका चल ही नहीं सकती । लेकिन तमाम आशंकाओं को धता बताते हुए हंस ने अगस्त में अपने पच्चीस साल पूरे करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी में गंभीर साहित्य के पाठक हैं और पिछले पच्चीस सालों में इसे शिद्दत से साबित भी कर दिया । मेरे जानते हिंदी में व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली हंस इकलौती कथा पत्रिका है जो लगातार पच्चीस सालों से प्रकाशित हो रही है और इसका पूरा श्रेय जाता है इसके संपादक और वरिष्ठ लेखक राजेन्द्र यादव को । जब इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था तब इस बात को लेकर खासी सुगबुगाहट हुई थी कि यह प्रेमचंद की पत्रिका हंस है या दिल्ली के हंसराज कॉलेज की पत्रिका हंस । लेकिन कालांतर में इस पत्रिका ने साबित कर दिया कि वह सचमुच में प्रेमचंद वाला हंस ही है । राजेन्द्र यादव स्वंय प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं और नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द । बहुत पहले यादव जी ने एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी थी- प्रेमचंद की विरासत बाद में कहानीकार होते हुए भी उन्होंने प्रेमचंद की विरासत को ही अपनाया और हंस का पुनर्प्रकाशन किया । पिछले पच्चीस सालों में हंस ने हिंदी साहित्य को ना केवल एक नई दिशा दी बल्कि उसने दलित और स्त्री विमर्श के साथ-साथ तत्कालीन प्रासंगिक मुद्दों को उठाकर हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का एक नया इतिहास भी लिखा और साहित्यिक पत्रकारिता के कुछ नए मानक भी स्थापित किए तरह की खुली बहस से दूसरी पत्रिका के संपादकों के हाथ पांव फूल जाते थे उसे राजेन्द्र यादव ने हंस में जोरदार तरीके से उठाया । खुद अपने संपादकीय में बिना किसी डर-भय और लाग लपेट के यादव जी ने अपनी बातें कहकर बहस में सार्थक हस्तक्षेप किया । अपने प्रकाशन के शुरुआती दिनों से ही हंस ने साहित्यिक माहौल को गर्मागर्म बनाए रखा और जो मुर्दनीछाप शास्त्रीय किस्म का माहौल था उसे सक्रिय करते हुए जुझारू तेवर भी प्रदान किए । हो सकता है कि राजेन्द्र यादव के स्टैंड से आप सहमत ना हों लेकिन पच्चीस बरसों की लंबी अवधि में यादव जी ने अनेक विचारोत्तेजक मुद्दे पर बहस चलाई और साहित्यकि माहौल को सजीव बनाए रखा । यादव जी के एजेंडे में सिर्फ साहित्यिक मुद्दे ही नहीं रहे । अनेक सामाजिक मु्द्दों को भी हंस ने अपनी परिधि में लेकर सार्थक बहसें चलाई । आज अगर दलित विमर्श या दलित चेतना, स्त्री विमर्श या स्त्री चेतना हमारे समय की महत्वपूर्ण प्रवृतियों के रूप में व्यापक रूप से मान्यता पा चुके हैं तो इसका काफी श्रेय हंस और इसके संपादक राजेन्द्र यादव को जाता है ।
इसके अलावा हंस ने पच्चीस सालों में तकरीबन चार पीढियों को साहित्य में दीक्षित करने का काम भी किया । मुझे मेरा साहित्यिक संस्कार जरूर परिवार से मिला लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी हिचक नहीं है कि हंस ने उसे परिष्कृत किया । हंस को पढ़ते हुए ही कई मसलों को देखने समझने की नई दृष्टि भी मिली ।
इसके अलावा जो एक बड़ा काम यादव जी ने हंस के माध्यम से किया को यह कि कहानीकारों की एक लंबी फौज खड़ी कर दी । यह कहते हुए मुझे कोई संकोच या किसी तरह का कोई हिचक नहीं है कि पिछले ढाई दशक की हिंदी की महत्वपूर्ण कहानियां हंस में ही छपी । एक बार बातचीत में यादव जी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था – अगर झूठी शालीनता ना बरतूं तो कह सकता हूं कि हिंदी में अस्सी प्रतिशत श्रेष्ठ कहानियां हंस में ही प्रकाशित हुई हैं और ऐसे एक दर्जन से ज्यादा कवि हैं जिनकी पहली कविताएं हंस में ही छपी और आज उनमें से कई हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। यादव जी की इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है , हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ, शिवमूर्ति कू तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय का तलछट का कोरस, रमाकांत का कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्रकिशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे और आनंद हर्षुल की उस बूढे आदमी के कमरे में छापकर हिंदी कथा साहित्य का एक नया जीवनदान दिया । बाद में भी हंस में ही छपी उदय प्रकाश की चर्चित कहानियां – और अंत में प्रार्थना, पीली छतरी वाली लड़की, अरुण प्रकाश की जल प्रांतर, अखिलेश की चिट्ठी, स्वयं प्रकाश की अविनाश मोटू उर्फ..., सृंजय की कॉमरेड का कोट आदि कहानियों ने भी कथा साहित्य को झकझोर दिया था ।
यह लेख तो हंस के पच्चीस साल पूरे होने पर उसेक मूल्यांकन के तौर पर लिख रहा हूं लेकिन इसी महीने राजेन्द्र यादव बयासी साल के हो रहे हैं । उम्र के इस पड़ाव पर भी वो जिस मुस्तैदी और लगन के साथ हंस का संपादन करते हैं और पत्रिका को नियत समय पर निकालते हैं वो किसी के लिए भी रश्क की बात हो सकती है । अगर आप उनके संपर्क में हैं तो वो लगातार आपको कुछ नया करने के लिए उकसाते रहेंगे और तबतक नहीं मानेंगे जबतक कि वो आपसे कुछ करवा ना लें । एक संपादक के तौर पर राजेन्द्र यादव बेहद ही लोकतांत्रिक हैं । हंस में पाठकों के जो पत्र छपते हैं वो इस बात की ताकीद करते हैं कि राजेन्द्र यादव अपनी आलोचना को भी बेहद प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं । आप उनके लेखन और विचार से अपनी असहमति लिखकर या मौखिक भी दर्ज करा सकते हैं । उनसे बातचीत करते वक्त आपको इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं होगा कि आप हिंदी के इतने बड़े लेखक या संपादक से बात कर रहे हैं । उनका वयक्तित्व आतंकित नहीं करता बल्कि रचनाशीलता के लिए उकसाता है । उनके लेखन में ही नहीं बल्कि उनके स्वभाव में भी एक खिलंदड़ापन और छेड़छाड़ की प्रवृत्ति है । यादव जी अपने बातचीत में ही नहीं अपने लेखन में भी समकालीन बने रहना चाहते हैं । हाल के दिनों में उनके संपादकीय में गजब की पठनीयता आ गई है । यादव जी पर संपादकीय में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर आलोतना भी झेलनी पड़ती रही है । अशोक वाजपेयी कहते हैं- अपने संपादकीयों में जिस तरह हर तीसरे वाक्य में बेवजह अंग्रेजी के वाक्य ठूंसते हैं, जबकि उनके लिए हिंदी में काफी दिनों से प्रचलित पर्याय सुलभ हैंट यह अंतत उन्हें बौद्धिक रूप से एक भाषा विपन्न लेखक बल्कि संपादक सिद्ध करता है । अशोक वाजपेयी और नामवर सिंह से यादव जी की नोंक झोंक चलती रहती है । लेकिन इन लोगों की इस नोंक झोंक से साहित्यिक परिदृश्य सजीव बना रहता है । हमारी कामना है कि यादव जी दीर्घायु हों और हंस का संपादन पचास साल तक करते रहें ।