दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार गैर पारंपरिक राजनीति के लिए तो जानी
ही जाती है वो अलग तरह की योजनाएं बनाकर चौंकाती भी रही है । हाल ही में जिस तरह
से दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक शुरू होकर सफल हुआ उसकी देश विदेश में तारीफ हो रही
है । मोहल्ला क्लीनिक की तर्ज पर अब दिल्ली सरकार मोहल्ला पुस्तकालय खोलने की
योजना पर गंभीरता से विचार कर रही है । दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी ने तय किया
है एक अप्रैल से शुरू होनेवाले वित्त वर्ष में वो दिल्ली की सत्तर विधानसभाओं में मोहल्ला
पुतकालय खोलेगी । हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष और मशहूर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा के
मुताबिक पहले चरण में सत्तर विधानसभा में पुस्तकालय खोले जाएंगे । हिंदी अकादमी की
इस पहल से देश में खत्म हो रही पुस्तक और पुस्तकालय संस्कृति को एक नया जीवन मिलने
की शुरुआत हो सकती है । हिंदी अकादमी के ही दिल्ली में तेरह केंद्रों पर लाइब्रेरी
चल रही है जो मरणासन्न है, उसको भी देखने की जरूरत है । इसके अलावा दिल्ली पब्लिक
लाइब्रेरी और ऐतिहासिक लाला हरदयाल लाइब्रेरी है जहां मूलभूत सुविधाओं का आभाव है
। धनाभाव के चलते किताबों के रखरखाव से लेकर उसके डिजीटाइजेशन का काम नहीं हो पा
रहा है । लिहाजा ऐतिहासिक महत्व की किताबें नष्ट हो रही हैं या उनके नष्ट होने का
खतरा उत्पन्न हो गया है । दिल्ली सरकार को मोहल्ला पुस्तकालयों के साथ साथ इस ओर
भी ध्यान देना होगा । दूसरी चुनौती उन पुस्तकालयों में किताबों के चयन और खरीद में
होनेवाले घपले से बचाने की होगी । ये घपले इतने प्रछन्न रूप से प्रकट होते हैं कि
वो आम जन को दिखाई नहीं देते । सर्व शिक्षा अभियान से लेकर सभी सरकारी खरीद इसके
गवाह हैं । ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड के दौर में हुए तमाम कांड अभी तक अनसुलझे हैं ।
एक जमाना था जब हिंदी पट्टी में पुस्तकालय खासे लोकप्रिय हुआ करते थे
। बदलते वक्त के साथ पुस्तकालयों के प्रति उदासीनता दिखाई देने लगी जिसकी वजह से
वो बदहाल होते चले गए । बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की किताबें
मुंगेर में श्रीकृष्ण सेवासदन में रखी हैं लेकिन अब वहां लगभग सन्नाटा रहता है । मुंगेर
के उस पुस्तकालय में हजारों किताबें है जिनमें से कई तो अब दुर्लभ हैं । पटना की लॉर्ड सिन्हा लाइब्रेरी भी अच्छी हालत में नहीं है और कई जगह के ब्रिटिश लाइब्रेरी
भी अब नाम मात्र के ही रह गए हैं ।
पुस्तकालयों की बदहाली वजहें हमारे आसपास हवा में तैरती नजर आती है ।
कई विद्वानों का मानना है कि पुस्तकालयों की दुर्गति के लिए इंटरनेट जिम्मेदार है
। अब लोगों की मुट्ठी में मौजूद इंटरनेट युक्त मोबाइल फोन और टैबलेट पर गूगल बाबा
हर वक्त हर तरह की मदद को तैयार रहते हैं । आपने कुछ सोचा और पलक झपकते वो आपके
सामने लाखों परिणाम के साथ हाजिर है लेकिन चुनौती सूचनाओं के इस जंगल में से सही
का चुनाव । डार्विन ने कहा था कि जंगल का मतलब होता है जहां शक्ति का बोलबाला हो और
नीति का कोई स्थान नहीं हो । अगर इंटरनेट पुस्तकालय का विकल्प हो सकता है तो ये शिक्षा
का भी विकल्प हो सकता है । पुस्तकालयों के प्रति उपेक्षा बड़ी वजह हमारी शिक्षा
पद्धति भी है । छात्रों की इस तरह से कंडीशनिंग हो रही है कि उनके लिए पाठ्य
पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया है । आज हालात यह है
कि नई पीढ़ी के छात्र-छात्राओं को लाइब्रेरी कार्ड का तो पता है लेकिन उनको
लाइब्रेरी का कैटलॉग देखना आता हो इसमें संदेह है । हमें अपने देश में पुस्तकालय
या पढ़ने की संस्कृति का विकास करना है तो सर्वप्रथम हमारी शिक्षा प्रणाली की
खामियों को दूर करना होगा । 1952-53 में स्थापित मुदालियार आयोग से लेकर कोठारी और
राममूर्ति आयोग तक सभी ने पुस्तकालयों पर जोर दिया । चंद सालों पहले सांसदों के
स्थानीय विकास निधि में से भी एक निश्चित राशि पुस्तकों की खरीद के लिए आपक्षित कर
दिया गया था लेकिन पुस्तक और पुस्तकालयों को लेकर स्थिति उत्साहजनक नहीं दिखाई
देती है । पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकों के बारे में एक ऐसा मैकेन्जिम
बनाना होगा कि नई पीढ़ी के छात्र उन्हें भी पढ़ें । इसके अलावा समाज में जागृति
पैदा करने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को काम करना होगा ताकि मां-बाप अपने
बच्चों को किताबों के करीब ले जाएं ।