हिंदी साहित्य में साक्षात्कार की बेहद समृद्ध परंपरा रही है । आज भी
समालोचना पत्रिका के उन्नीस सौ पांच के अंक में प्रकाशित संगीतकार विष्णु दिगम्बर
पुलस्कर का साक्षात्कार पाठकों और संगीत प्रेमियों के लिए संदर्भ की तरह इस्तेमाल
होता है । पुलस्कर जी का वो इंटरव्यू पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने लिया था । इस
इंटरव्यू का शीर्षक था संगीत की धुन । आज भी हंस पत्रिका के दिसबंर 1947 के अंक
में निराला जी का इंटरव्यू- अपने ही घर में सरस्वती का अपमान – बार बार उदधृत किया
जाता है । अपने उस इंटरव्यू में निराला जी ने क्रोधपूर्वक इस बात को कहा था कि
नेताओं के समक्ष लेखकों को तुच्छ समझा जाता है । साक्षात्कार एक समृद्ध विधा के
तौर पर स्थापित हो गया था जिसमें प्रभाकर माचवे से लेकर अज्ञेय और दिनकर तक ने
योगदान किया था । आज ये विधा दम तोड़ रही है । कुछ पत्र-पत्रिकाओं में साहित्यकारों के छोटे
छोटे इंटरव्यू अवश्य छपते रहते हैं लेकिन वो बेहद हल्के होते हैं । इस तरह के
इंटरव्यू से साहित्यक विधा के तौर पर इसको मजबूती नहीं मिलती है । इसमें
साक्षात्कारकर्ता को किसी तैयारी की जरूरत नहीं होती है बस गए और यूं ही चार छह
सवाल पूछ लिए । पाठकों को कुछ नया मिल रहा हो ऐस् बहुत कम देखने को मिलता है । हां
साहित्यक लघु-पत्रिकाओं में कई बार लंबे और गंभीर इंटरव्यू देखने-पढ़ने को मिल
जाते हैं । पिछले दिनों इलाहाबाद से निकलनेवाली साहित्यक पत्रिका नया प्रतिमान में
असगर वजाहत का एक लंबा इंटरव्यू छपा है जो पाठको को उनके विचारों और साहित्यक
प्रवृत्तियों को उनके नजरिए से समझने का अवसर देती है । असगर वजाहत से पल्लव ने
बातचीत की है और ऐसा प्रतीत होता है कि साक्षात्कारकर्ता ने भी पूरी तैयारी की थी
। भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका नया ज्ञनोदय के जून अंक में पांच वरिष्ठ लेखकों के
साक्षात्कार छपे हैं । साक्षात्कार विशेष के तौर पर इसको कवर पर प्रचारित भी किया
गया है । इन साक्षात्कारों में ओ एन वी कुरुप, भालचंद्र नेमाड़े और मलय के
साक्षात्कार बेहतर हैं लेकिन सबसे कमजोर इंटरव्यू अशोक वाजपेयी का है । अशोक
वाजपेयी से ध्रुव शुक्ल ने बातचीत की है और अमूमन सारे सवाल भक्तिभाव और
प्रशंसात्मक शैली में पूछे गए हैं । इससे कुछ खास निकलकर आता नहीं है । जैसे एक
सवाल है – विश्व कविता में आपकी दिलचस्पी और जानकारी जगजाहिर है । आपके पास कविता
के अंग्रेजी अनुवादों का एक बड़ा संग्रह है । विश्व कविता में क्या घट रहा है इन
दिनों ? अब पहले दो वाक्य क्या साबित करने के लिए हैं या
फिर इस प्रश्न से इ बात का क्या लेना देना है कि अशोक वाजपेयी के पास विश्व कविता
के अंग्रेजी अनुवाद का बड़ा संग्रह है । एक और प्रश्न देखे- कविता की बात करें तो
आप अकेले नजर आते हैं – प्रचलित मुहावरों से अलग आपने अफने लिए एक मुहावरा चुना है
, जिसमें संस्कृति की गूंज सुनाई देती है – इसे एक तरह से नवशास्त्रीय भी कहा जा
सकता है । क्या समाज से खुद की ओर लौटना और इस लौटे को थामे रहना मुश्कुल रहा ? ‘ अब इस प्रश्न पर क्या कहा जा सकता है पाठक खुद तय
करें । दरअसल हाल के दिनों में हिंदी साहित्य में साक्षात्कार को लेने और
देनेवालों ने मिलकर एकालाप का माध्यम बना लिया है । कुछ कुछ मैच फिक्सिंग की तरह
जहां सवाल भी जवाब देनेवाले की मर्जी के मुताबिक किए जाते हैं । कसौटी पर कसने की
परंपरा लगभग खत्म सी होती जा रही है । इस वक्त भी हिंदी साहित्य को आवश्यकता है कि
इस खत्म होती विधा को मजबूत करने के लिए युवाओं को पूरी तैयारी के साथ आगे आना
चाहिए ।
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